समयसार पद्यानुवाद | Samaysar Padyanuvad

समयसार पद्यानुवाद (डॉ. हुकमचन्द जी भारिल्ल)
( हरिगीत )

१. रंगभूमि/पूर्वरंग अधिकार
२. जीव-अजीव अधिकार
३. कर्ता कर्म अधिकार
४. पुण्य-पाप अधिकार
५. आस्रव अधिकार
६. संवर अधिकार
७. निर्जरा अधिकार
८. बंध अधिकार
९. मोक्ष अधिकार
१०. सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार

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रंगभूमि/पूर्वरंग अधिकार

ध्रुव अचल अनुपम सिद्ध की कर वंदना मैं स्व-परहित ।
यह समय प्राभृत कह रहा श्रुतकेवली द्वारा कथित ।।१।।
सदज्ञान दर्शन चरित परिणत जीव ही हैं स्वसमय।
जो कर्म पुद्गल के प्रदेशों में रहें वे पर समय ।।२।।
एकत्वनिश्चयगत समय सर्वत्र सुन्दर लोक में ।
विसंवाद है पर बंध की यह कथा ही एकत्व में ।।३।।
सबकी सुनी अनुभूत परिचित भोग बंधन की कथा।
पर से पृथक् एकत्व की उपलब्धि केवल सुलभ न ।।४।।
निज विभव से एकत्व ही दिखला रहा करना मनन ।
पर नहीं करना छलग्रहण यदि हो कहीं कुछ स्खलन ।।५।।
न अप्रमत्त है न प्रमत्त है बस एक ज्ञायकभाव है।
इस भाँति कहते शुद्ध पर जो ज्ञात वह तो वही है ।।६।।
दृग ज्ञान चारित जीव के हैं - यह कहा व्यवहार से ।
ना ज्ञान दर्शन चरण ज्ञायक शुद्ध है परमार्थ से ।।७।।
अनार्य भाषा के बिना समझा सके न अनार्य को।
बस त्योंहि समझा सके ना व्यवहार बिन परमार्थ को ।।८।।
श्रुतज्ञान से जो जानते हैं शुद्ध केवल आत्मा।
श्रुतकेवली उनको कहें ऋषिगण प्रकाशक लोक के।।९।।
जो सर्वश्रुत को जानते उनको कहें श्रुतकेवली
सब ज्ञान ही है आत्मा बस इसलिए श्रुतकेवली ।।१०।।
शुद्धनय भूतार्थ है अभूतार्थ है व्यवहार नय।
भूतार्थ की ही शरण गह यह आत्मा सम्यक् लहे ।।११।।
परमभाव को जो प्राप्त है वे शुद्धनय ज्ञातव्य हैं।
जा रहे अपरमभाव में व्यवहार से उपदिष्ट हैं ।।१२।।
चिदचिदास्रव पाप-पुण्य शिव बंध संवर निर्जरा।
तत्वार्थ ये भूतार्थ से जाने हुए सम्यक्त्व हैं।१३।
अबद्धपुट्ठ अनन्य नियत अविशेष जाने आत्म को।
संयोग विरहित भी कहे जो शुद्धनय उसको कहें ।।१४।
अबद्धपुट्ठ अनन्य अरु अविशेष जाने आत्म को।
अपदेश एवं शान्त वह सम्पूर्ण जिनशासन लहे ।।१५।।
चारित्र दर्शन ज्ञान को सब साधुजन सेवें सदा ।
ये तीन ही हैं आत्मा बस कहे निश्चयनय सदा ।।१६।।
‘यह नृपति है’ - यह जानकर अर्थार्थिजन श्रद्धा करें ।
अनुचरण उसका ही करें अति प्रीति से सेवा करें ।।१७।।
यदि मोक्ष की है कामना तो जीव नृप को जानिए।
अति प्रीति से अनुचरण करिए प्रीति से पहिचानिए ।।१८।।
मैं कर्म हूँ नोकर्म हूँ ये हैं हमारे ये सभी।
यह मान्यता जबतक रहे अज्ञानि हैं तबतक सभी ।।१९।।
सचित्त और अचित्त एवं मिश्र सब पर द्रव्य ये।
हैं मेरे ये मैं इनका हूँ ये मैं हूँ या मैं हूँ वे ही ।।२०।।
हम थे सभी के या हमारे थे सभी गत काल में ।
हम होंयगे उनके हमारे वे अनागत काल में ।।२१।।
ऐसी असंभव कल्पनाएं मूढजन नित ही करें।
भूतार्थ जाननहार जन ऐसे विकल्प नहीं करें ।।२२।।
अज्ञान-मोहित-मती बहुविध भाव से संयुक्त जिय।
अबद्ध एवं बद्ध पुद्गल द्रव्य को अपना कहें ।।२३।।
सर्वज्ञ ने देखा सदा उपयोग लक्षण जीव यह ।
पुद्गगलमयी हो किसतरह किसतरह तू अपना कहे ?।।२४।।
जीव मय पुद्गल तथा पुद्गलमयी हो जीव जब ।
ये मेरे पुद्गल द्रव्य हैं - यह कहा जा सकता है तब ।।२५॥
यदि देह ना हो जीव तो तीर्थंकरों का स्तवन ।
सब असत् होगा इसलिए बस देह ही है आतमा ।।२६।।
‘देह-चेतन एक हैं’ - यह वचन है व्यवहार का ।
‘ये एक हो सकते नहीं’ - यह कथन है परमार्थ का ।।२७।।
इस आत्मा से भिन्न पुद्गल रचित तन का स्तवन ।
कर मानना कि हो गया है केवली का स्तवन ।।२८।।
परमार्थ से सत्यार्थ ना वह केवली का स्तवन ।
केवलि-गुणों का स्तवन ही केवली का स्तवन ।।२९।।
वर्णन नहीं है नगरपति का नगर-वर्णन जिसतरह ।
केवली-वंदन नहीं है देह वंदन उसतरह ।।३०।।
जो इन्द्रियों को जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा ।
वे हैं जितेन्द्रिय जिन कहें परमार्थ साधक आतमा ।।३१।।
मोह को जो जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा ।
जितमोह जिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा ।।३२।।
सब मोह क्षय हो जाय जब जितमोह सम्यक् श्रमण का।
तब क्षीणमोही जिन कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा ।।३३।।
परभाव को पर जानकर परित्याग उनका जब करे ।
तब त्याग हो बस इसलिए ही ज्ञान प्रत्याख्यान है।।३४।।
जिसतरह कोई पुरुष पर को जानकर पर परित्यजे ।
बस उसतरह पर जानकर परभाव ज्ञानी परित्यजे ।।३५।।
मोहादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय।
है मोह-निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ।।३६।।
धर्मादिक मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय ।
है धर्म-निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ।।३७।।
मैं एक दर्शन-ज्ञानमय नित शुद्ध हूँ रूपी नहीं।
ये अन्य सब परद्रव्य किंचित् मात्र भी मेरे नहीं ।।३८।।

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जीव-अजीव अधिकार

परात्मवादी मूढ़ जन निज आत्मा जाने नहीं।
अध्यवसान को आतम कहें या कर्म को आतम कहें ।।३९।।
अध्यवसानगत जो तीव्रता या मंदता वह जीव है।
पर अन्य कोई यह कहे नोकर्म ही बस जीव है ।।४०॥
मन्द अथवा तीव्रतम जो कर्म का अनुभाग है।
वह जीव है या कर्म का जो उदय है वह जीव है ।।४१।।
द्रव कर्म का अर जीव का सम्मिलन ही बस जीव है ।
अथवा कहे कोइ करम का संयोग ही बस जीव है ।।४२।।
बस इसतरह दुर्बुद्धिजन परवस्तु को आत्म कहें ।
परमार्थवादी वे नहिं परमार्थ वादी यह कहें ।।४३।।
ये भाव सब पुद्गल द्रव्य परिणाम से निष्पन्न हैं।
यह कहा है जिनदेव ने ये जीव हैं’ - कैसे कहें ।।४४।।
अष्टविध सब कर्म पुद्गल मय कहे जिनदेव ने।
सब कर्म का परिणाम दुःखमय यह कहा जिनदेव ने।।४५।।
ये भाव सब हैं जीव के जो यह कहा जिनदेव ने।
व्यवहार नय का पक्ष यह प्रस्तुत किया जिनदेव ने ।।४६।।
सेना सहित नरपती निकले नृप चला ज्यों जन कहें ।
यह कथन है व्यवहार का पर नृपति उनमें एक है ।।४७।।
बस उसतरह ही सूत्र में व्यवहार से इन सभी को।
जीव कहते किन्तु इनमें जीव तो बस एक है ।।४८।।
चैतन्य गुणमय आत्मा अव्यक्त अरस अरूप है।
जानो अलिंग ग्रहण उसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है ।।४९।।
शुध जीव के रस गंध ना अर वर्ण न स्पर्श ना।
यह देह न जड़रूप न संस्थान ना संहनन न।५०।।
ना राग है न द्वेष हो न मोह है इस जीव के।
प्रत्यय नहीं है कर्म ना कर्म ना इस जीव के ।।५१।।
ना वर्ग है ना वर्गणा अर कोई स्पर्धक नहीं।
अर नहीं हैं अनुभाग के अध्यात्म के स्थान भी ।।५२।।
योग के स्थान नहिं अर बंध के स्थान ना।
उदय के स्थान नहिं अर मार्गणा स्थान न ।।५३।।
थितिबंध के स्थान नहिं संक्लेश के स्थान ना ।
संयमलब्धि के स्थान ना सुविशुद्धि के स्थान न ।।५४।।
जीव के स्थान नहीं गुणस्थान के स्थान ना ।
क्योंकि ये सब भाव पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं ।।५५।।
वर्णादि के व्यवहार से ही कहा जाता जीव के।
परमार्थ से ये भाव भी होते नहीं है जीव के।।५६।।
दूध-पानी की तरह सम्बन्ध इनका जानना ।
उपयोगमय इस जीव के परमार्थ से ये हैं नहीं ।।५७।।
पथिक लुटते देखकर पथ लुट रहा जग-जन कहें।
पर पथ तो लुटता है नहीं बस पथिक ही लुटते रहें ।।५८।।
उस ही तरह रंग देखकर जड़कर्म अर नोकर्म का ।
जिनवर कहें व्यवहार से यह वर्ण है इस जीव का ।।५९।।
इस ही तरह रस गंध तन संस्थान आदिक जीव के।
व्यवहार से हैं - कहें वे जो जानते परमार्थ को ।।६०।।
जो जीव है संसार में वर्णादि उनके ही कहें।
जो मुक्त हो संसार से वर्णादि उनके हैं नहीं ।।६१।।
वर्णादिमय ही जीव हैं तुम यदी मानो इस तरह।
तब जीव और अजीव में अन्तर करोगे किसतरह ?।।६२।।
मानो उन्हें वर्णादि मय जो जीव हैं संसार में।
तब जीव संसारी सभी वर्णादिमय हो जायेंगे।।६३।।
यदि लक्षणों की एकता से जीव हों पुद्गल सभी।
बस इसतरह तो सिद्ध होंगे सिद्ध भी पुद्गलमयी ।।६४।।
एकेन्द्रियादिक प्रकृति हैं जो नाम नामक कर्म की।
पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म-वादर आदि सब ।।६५।।
इनकी अपेक्षा कहे जाते जीव के स्थान जो।
कैसे कहें - वे जीव हैं’ - जब प्रकृतियाँ पुद्गलमयी ।।६६।।
पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म वादर आदि सब।
जड़ देह की है जीव संज्ञा सूत्र में व्यवहार से ।।६७।।
मोहन-करम के उदय से गुणस्थान जो जिनवर के।
वे जीव कैसे करें नित अचेतन ही कहैं ।।६८।।

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कर्ता कर्म अधिकार

आतमा अर आस्रवों में भेद जब जाने नहीं।
हैं अज्ञ तब तक जीव सब क्रोधादि में वर्तन करें ।।६९।।
क्रोधादि में वर्तन करें तब कर्म का संचय करें ।
हो कमबंधन इसतरह इस जीव को जिनवर कहें ।।७०।।
आतमा अर आस्रवों में भेद जाने जीव जब ।
जिनदेव ने ऐसा कहा कि नहीं होवे बंध तब ।।७१।।
इन आस्रवों की अशुचिता विपरीतता को जानकर ।
आतम करे उनसे निवर्तन दुःख कारण मानकर ।।७२।।
मैं एक हूँ मैं शुद्ध निर्मम ज्ञान दर्शन पूर्ण हूँ ।
थित लीन निज में ही रहूँ सब आस्रवों का क्षय करूँ ।।७३।।
ये सभी जीवनिबद्ध अध्रुव शरणहीन अनित्य हैं।
दुःखरूप दुखफल जानकर इनसे निवर्तन बुध करें ।।७४।।
करम के परिणाम को नोकरम के परिणाम को।
जो ना करे बस मात्र जाने प्राप्त हो सद्ज्ञान को ।।७५।।
परद्रव्य कार्यालय में उपजे ग्रहों का परिणाम ।
बहुभाँति पुद्गल कर्म को ज्ञानी पुरुष जाना करें ।।७६।।
परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें।
बहुभाँति निज परिणाम सब ज्ञानी पुरुष जाना करें ।।७७।।
परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें ।
पुद्गल करम का नंतफल ज्ञानी पुरुष जाना करें।।७८।।
परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें ।
इस ही तरह पुद्गल दरव निज भाव से ही परिणमें ।।७९।।
जीव के परिणाम से जड़ कर्म पुद्गल परिणमें ।
पुद्गल करम के निमित्त से यह आत्मा भी परिणमें ।।८०।।
आतम करे ना कर्मगुण ना कर्म आतमगुण करे।
पर परस्पर परिणमन में दोनों परस्पर निमित्त हैं ।।८१।।
बस इसलिए यह आत्मा निज भाव का कर्ता कहा।
अन्य सब पुद्गल कर्म कृत भाव का कर्ता नहीं ।।८२।।
हे भव्यजन ! तुम जान लो परमार्थ से यह आत्मा।
निजभाव को करता तथा निजभाव को ही भोगता ।।८३।।
अनेक विध पुद्गल कर्म को करे भोगे आत्मा।
व्यवहारनय का कथन है यह जान लो भव्यात्मा ।।८४।।
पुद्गल कर्म को करे भोगे जगत में यदि आत्मा।
द्विक्रिया अव्यतिरिक्त हों संमत न जो जिनधर्म में ।।८५।।
यदि आत्मा जड़भाव चेतनभाव दोनों को करे ।
तो आतमा द्विक्रियावादी मिथ्यादृष्टि अवतरे ।८६।
मिथ्यात्व-अविरति-जोग-मोहाज्ञान और कषाय हैं।
ये सभी जीवाजीव हैं ये सभी द्विविधप्रकार हैं ।।८७।।
मिथ्यात्व आदि अजीव जो वे सभी पुद्गल कर्म है।
मिथ्यात्व आदि जीव हैं जो वे सभी उपयोग है।।८८।।
मोहयुत उपयोग के परिणाम तीन अनादि से ।
जानों उन्हें मिथ्यात्व अविरतभाव अर अज्ञान ये ।।८९।।
यद्यपि उपयोग तो नित ही निरंजन शुद्ध है।
जिसरूप परिणत हो त्रिविध वह उसी का कर्ता बने ।।१०।।
आतम करे जिस भाव को उस भाव का कर्ता बने।
बस स्वयं ही उस समय पुद्गल कर्मभावे परिणमें ।।९१।।
पर को करे निजरूप जो पररूप जो निज को करे ।
अज्ञानमय वह आत्मा पर करम का कर्ता बने ।।९२।।
पररूप न निज को करे पर को करे निज रूप ना।
अकर्ता रहे पर करम का सद्ज्ञानमय वह आत्मा ।।९३।।
त्रिविध यह उपयोग जब “मैं क्रोध हूँ” इम परिणमे ।
तब जीव उस उपयोगमय परिणाम का कर्ता बने ।।९४।।
त्रिविध यह उपयोग जब “मैं धर्म हूँ” इम परिणमे ।
तब जीव उस उपयोगमय परिणाम का कर्ता बने ।।९५।।
इसतरह यह मंदबुद्धि स्वयं के अज्ञान से।
निज द्रव्य को पर करे अरु परद्रव्य को अपना करे ।।१६।।
बस इसतरह कर्ता कहें परमार्थ ज्ञायक आत्मा ।
जो जानते यह तथ्य वे छोड़े सकल कर्तापना।।९७।।
व्यवहार से यह आतमा घटपटरथादिक द्रव्य का।
इन्द्रियों का कर्म का नोकर्म का कर्ता कहा ।।९८।।
परद्रव्यमय हो जाय यदि पर द्रव्य में कुछ भी करे।
परद्रव्यमय होता नहीं बस इसलिए कर्ता नहीं ९९।।
ना घट करे ना पट करे ना अन्य द्रव्यों को करे।
कर्ता कहा तत् रूप परिणत योग अर उपयोग का ।।१०० ।।
ज्ञानावरण आदिक जु पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं।
उनको करे ना आत्मा जो जानते वे ज्ञानि हैं।।१०१।।
निजकृत शुभाशुभभाव का कर्ता कहा है आत्मा ।
वे भाव उसके कर्म हैं वेदक है उनका आतमा ।।१०२॥
जब संक्रमण ना करे कोई द्रव्य पर-गुण-द्रव्य में ।
तब करे कैसे परिणमन इक द्रव्य पर-गुण-द्रव्य में ।।१०३।।
कुछ भी करे ना जीव पुद्गल कर्म के गुण-द्रव्य में।
जब उभय का कर्ता नहीं तब किसतरह कर्ता कहें ?।।१०४।।
बंध का जो हेतु उस परिणाम को लख जीव में ।
करम कीने जीव ने बस कह दिया उपचार से ।।१०५।।
रण में लड़े भट पर कहे जग युद्ध राजा ने किया।
बस उसतरह द्रव कर्म आदि ने किए व्यवहार से ।।१०६।।
ग्रहे बाँधे परिणमावे करे या पैदा करे ।
पुद्गल दरव को आत्मा व्यवहार नय का कथन है ।।१०७।।
गुण-दोष उत्पादक कहा ज्यों भूप के व्यवहार से।
त्यों जीव पुद्गल द्रव्य का कर्ता कहा व्यवहार से ।।१०८।।
मिथ्यात्व अरु अविरमण योग कषाय के परिणाम हैं।
सामान्य से ये चार प्रत्यय कर्म के कर्ता कहे ।।१०९।।
मिथ्यात्व आदि सयोगि-जिन तक जो कहे गुणस्थान है।
बस ये त्रयोदश भेद प्रत्यय के कहे जिनसूत्र में ।।११०।।
पुद्गल कर्म के उदय से उत्पन्न ये सब अचेतन ।
करम को कर्ता हैं ये वेदक नहीं है आतमा ।।१११।।
गुण नाम के ये सभी प्रत्यय कर्म के कर्ता कहे।
कर्ता रहा ना जीव ये गुणस्थान ही कर्ता रहे ।।११२।।
उपयोग जीव अनन्य ज्यों यदि त्यों हि क्रोध अनन्य हो।
तो जीव और अजीव दोनों एक ही हो जायेंगे ।।११३।।
यदि जीव और अजीव दोनों एक हो तो इस तरह।
का दोष प्रत्यय कर्म अर नोकर्म में भी आयगा ।।११४।।
क्रोधान्य है अर अन्य है उपयोगमय यह आतमा ।
तो कर्म अरु नोकर्म प्रत्यय अन्य होंगे क्यों नहीं ?।।११५।।
यदि स्वयं ही कर्म भाव में परिणत न हो ना बंधे ही।
तो अपरिणामी सिद्ध होगा कर्ममय पुद्गल दरव ।।११६।।
कर्मत्व में यदि वर्गणाएँ परिणमित होंगी नहीं।
तो सिद्ध होगा सांख्यमत संसार की हो नास्ति ।।११७।।
यदि परिणमावे जीव पुद्गल दरव को कर्मत्व में ।
पर परिणमावे किसतरह वह अपरिणामी वस्तु को ।।११८।।
यदि स्वयं ही परिणमें वे पुद्गल दरव कर्मत्व में ।
मिथ्या रही यह बात उनको परिणमावें आतमा ।।११९।।
जड़कर्म परिणत जिसतरह पुद्गल दरव ही कर्म है।
जड़ज्ञान-आवरणादि परिणत ज्ञान-आवरणादि हैं ।।१२०।।
यदि स्वयं ही न बंधे अर क्रोधादिमय परिणत न हो।
तो अपरिणामी सिद्ध होगा जीव तेरे मत विषे ।।१२१ ।।
स्वयं ही क्रोधादि में यदि जीव ना हो परिणमित ।
तो सिद्ध होगा सांख्यमत संसार की हो नास्ति ।।१२२।।
यदि परिणाम कर्म जड़ क्रोधादि में इस जीव को।
पर परिणाम किस तरह वह अपरिणामी वस्तु को ।।१२३।।
यदि स्वयं ही क्रोधादि में परिणमित हो यह आत्मा ।
मिथ्या रही यह बात उसको परिणमावे कर्म जड़ ।।१२४।।
क्रोधोपयोगी क्रोध है मानोपयोगी मान है।
मायोपयोगी माया है लोभोपयोगी लोभ है ।।१२५।।
जो भाव आतम करे वह उस कर्म का कर्ता बने।
ज्ञानियों के ज्ञानमय अज्ञानि के अज्ञानमय ।।१२६॥
अज्ञानमय हैं भाव इससे अज्ञ कर्ता कर्म का।
बस ज्ञानमय हैं इसलिए ना विज्ञ कर्ता कर्म का।१२७।।
ज्ञानमय परिणाम से परिणाम हो सब ज्ञानमय।
बस इसलिए सद्ज्ञानियों के भाव हों सद्ज्ञानमय ।१२८।
अज्ञानमय परिणाम से परिणाम हो अज्ञानमय।
बस इसलिए अज्ञानियों के भाव हों अज्ञानमय ।।१२९।।
स्वर्णनिर्मित कुंडलादि स्वर्णमय ही हों सदा ।
लोहनिर्मित कटक आदि लोहमय ही हों सदा ।।१३०।।
इस ही तरह अज्ञानियों के भाव हों अज्ञानमय ।
इस ही तरह सब भाव हो सद्ज्ञानियों के ज्ञानमय ।।१३१।।
निजतत्त्व का अज्ञान ही बस उदय है अज्ञान का ।
निजतत्त्व का अश्रद्धान ही बस उदय है मिथ्यात्व का ।।१३२।।
अविरमण का सद्भाव ही बस असंयम क उदय है।
उपयोग की यह कलुषिता ही कषायों का उदय है ।।१३३।।
शुभ अशुभ चेष्टा में तथा निवृत्ति में या प्रवृत्ति में।
जो चित्त का उत्साह है वह ही उदय है योग का ।।१३४।।
इनके निमित्त के योग से जड़ वर्गणाएँ कर्म की।
परिणमित हों ज्ञान-आवरणादि बसुविध कर्म में ।।१३५।।
इस तरह बसुविध कर्म से आबद्ध जिय जब हो तभी।
अज्ञानमय निजभाव का हो हेतु जिय जिनवर कही ।।१३६।।
यदि कर्ममय परिणाम पुद्गल द्रव्य का जिय साथ हो।
तो जीव भी जड़कर्मवत् कर्मत्व को ही प्राप्त हो ।।१३७।।
किन्तु जब जियभाव बिन ही एक पुद्गल द्रव्य का ।
यह कर्ममय परिणाम है तो जीव जड़मय क्यों बने ? ।।१३८।।
इस जीव के रागादि पुद्गल कर्म में भी हो यदि।
तो जीववत जड़कर्म भी रागादिमय हो जावेंगे ।।१३९।।
किन्तु जब जड़ कर्म बिन ही जीव के रागादि हों।
तब कर्मजड़ पुद्गलमयी रागादिमय कैसे बनें ।।१४०।।
कर्म से आबद्ध जिय यह कथन है व्यवहार का ।
पर कर्म से ना बद्ध जिय यह कथन है परमार्थ का ।।१४१।
अबद्ध है या बद्ध है जिय यह सभी नयपक्ष हैं।
नयपक्ष से अतिक्रान्त जो वह ही समय का सार है।।१४२।।
दोनों नयों को जानते पर ना ग्रहे नयपक्ष को ।
नयपक्ष से परिहीन पर निज समय से प्रतिबद्ध वे।।१४३।।
विरहित सभी नयपक्ष से जो सो समय का सार है।
है वही सम्यग्ज्ञान एवं वही समकित सार है ।।१४४।।

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पुण्य-पाप अधिकार

सुशील है शुभ कर्म और अशुभ कर्म कुशील है।
संसार के हैं हेतु वे कैसे कहें कि सुशील हैं ?।।१४५।।
ज्यों लोह बेड़ी बाँधती त्यों स्वर्ण की भी बांधती ।
इस भाँति ही शुभ-अशुभ दोनों कर्म बेड़ी बांधती ।।१४६।।
दुःशील के संसर्ग से स्वाधीनता का नाश हो।
दुःशील से संसर्ग एवं राग को तुम मत करो ।।१४७।।
जगतजन जिसतरह कुत्सितशील जन को जानकर ।
उस पुरुष से संसर्ग एवं राग करना त्यागते ।।१४८।।
बस उसतरह ही कर्म कुत्सित शील हैं - यह जानकर ।
निजभावरत जन कर्म से संसर्ग को हैं त्यागते ।।१४९।।
विरक्त शिव रमणी वरें अनुरक्त बांधे कर्म को।
जिनदेव का उपदेश यह मत कर्म में अनुरक्त हो ।।१५०।।
परमार्थ है है ज्ञानमय है समय शुध मुनि केवली ।
इसमें रहें थिर अचल जो निर्वाण पावें वे मुनी ।।१५१।।
परमार्थ से हो दूर पर तप करें व्रत धारण करें।
सब बालतप है बालव्रत वृषभादि सब जिनवर कहें।।१५२।।
व्रत नियम सब धारण करें तप शील भी पालन करें ।
पर दूर हो परमार्थ से ना मुक्ति की प्राप्ति करें ।।१५३।।
परमार्थ से हैं बाह्य वे जो मोक्ष मार्ग नहीं जानते ।
अज्ञान से भवगमन-कारण पुण्य हो हैं चाहते ।।१५४।।
जीव का श्रद्धान सम्यक ज्ञान सम्यग्ज्ञान है।
रागादि का परिहार चारित - यही मुक्तिमार्ग है ।।१५५।।
विद्वानगण भूतार्थ तज वर्तन करें व्यवहार में।
पर कर्मक्षय तो कहा है परमार्थ-आश्रित संत के ।।१५६।।
ज्यों श्वेतपन हो नष्ट पट का मैल के संयोग से ।
सम्यक्त्व भी त्यों नष्ट हो मिथ्यात्व मल के लेप से ।।१५७।।
ज्यों श्वेतपन हो नष्ट पट का मैल के संयोग से ।
सद्ज्ञान भी त्यों नष्ट हो अज्ञानमल के लेप से ।।१५८।।
ज्यों श्वेतपन हो नष्ट पट का मैल के संयोग से ।
चारित्र भी त्यों नष्ट होय कषायमल के लेप से ।।१५९।।
सर्वदर्शी सर्वज्ञानी कर्मरज आछन्न हो।
संसार को सम्प्राप्त कर सबको न जाने सर्वत: ।।१६०।।
सम्यक्त्व प्रतिबन्धक करम मिथ्यात्व जिनवर ने कहा।
उसके उदय से जीव मिथ्यादृष्टि होता है सदा ।।१६१।।
सद्ज्ञान प्रतिबन्धक करम अज्ञान जिनवर ने कहा।
उसके उदय से जीव अज्ञानी बने - यह जानना ।।१६२।।
चारित्र प्रतिबन्धक करम जिन ने कषायों को कहा।
उसके उदय से जीव चारित्रहीन हो यह जानना ।।१६३।।

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आस्रव अधिकार

मिथ्यात्व अविरति योग और कषाय चेतन-अचेतन ।
चितरूप जो है वे सभी चैतन्य के परिणाम हैं।।१६४।।
ज्ञानावरण आदिक अचेतन कर्म के कारण बने ।
उनका भी तो कारण बने रागादि कारक जीव यह ।।१६५।।
है नहीं आस्रव बंध क्योंकि आश्रवों का रोध है।
सद्दृष्टि उनको जानता जो कर्म पूर्वनिबद्ध है।।१६६।।
जीवकृत रागादि ही बंधक कहे हैं सूत्र में।
रागादि से जो रहित वह ज्ञायक अबंधक जानना।।१६७।।
पक्व फल जिस तरह गिरकर नहीं जुड़ता वृक्ष से ।
बस उसतरह ही कर्म खिरकर नहीं जुड़ते जीव से।।१६८।।
जो बंधे थे भूत में वे कर्म पृथ्वीपिण्ड सम।
वे सभी कर्म शरीर से हैं बद्ध सम्यग्ज्ञानि के।।१६९।।
प्रतिसमय विध-विध कर्म को सब ज्ञान-दर्शन गुणों से।
बाँधे चतुर्विध प्रत्यय ही ज्ञानी अबंधक इसलिए।।१७०।।
ज्ञानगुण का परिणमन जब हो जघन्यहि रूप में।
अन्यत्व में परिणाम तब इसलिए ही बंधक कहा।१७१।।
ज्ञान-दर्शन-चरित गुण जब जघनभाव से परिणमें ।
तब विविध पुद्गल कर्म से इसलोक में ज्ञानी बंधे।।१७२।
सद्दृष्टियों के पूर्वबद्ध जो कर्म प्रत्यय सत्व में ।
उपयोग के अनुसार वे ही कर्म का बंधन करें।।१७३।
अनभोग्य हो उपभोग्य हों वे सभी प्रत्यय जिसतरह।
ज्ञान-आवरणादि बसुविध कर्म बाँधे उसतरह।।१७४।।
बालबनिता की तरह वे सत्व में अनभोग्य हैं।
पर तरुणवनिता की तरह उपभोग्य होकर बाँधते।।१७५।।
बस इसलिए सद् दृष्टियों को अबंधक जिन ने कहा।
क्योंकि आस्रवभाव बिन प्रत्यय न बंधन कर सके।।१७६।।
रागादि आस्रवभाव जो सद् दृष्टियों के वे नहीं।
इसलिए आस्रवभाव बिन प्रत्यय न हेतु बंध के।।१७७।।
अष्टविध कर्मों के कारण चार प्रत्यय ही कहे।
रागादि उनके हेतु हैं उनके बिना बंधन नहीं।।१७८।।
जगजन ग्रसित आहार ज्यों जठराग्नि के संयोग से।
परिणमित होता बसा में मज्जा रुधिर मांसादि में ।।१७९।।
शुद्धनय परिहीन ज्ञानी के बंधे जो पूर्व में ।
वे कर्म प्रत्यय ही जगत में बांधते हैं कर्म को।।१८०।।

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संवर अधिकार

उपयोग में उपयोग है क्रोधादि में उपयोग ना।
बस क्रोध में है क्रोध पर उपयोग में है क्रोध ना ।।१८१।।
अष्टविध द्रवकर्म में नोकर्म में उपयोग ना।
इस ही तरह उपयोग में भी कर्म ना नाकर्म न ।।१८२।।
विपरीतता से रहित इस विधि जीव को जब ज्ञान हो।
उपयोग के अतिरिक्त कुछ भी ना करे तब आत्मा ।।१८३।।
ज्यों अग्नि से संतप्त सोना स्वर्णभाव नहीं तजे ।
त्यों कर्म से संतप्त ज्ञानी ज्ञानभाव नहीं तजे ।।१८४।।
जानता यह ज्ञानि पर अज्ञानतम आछन्न जो।
वे आतमा जाने न माने राग को ही आतमा ।।१८५।।
जो जानता मैं शुद्ध हूँ वह शुद्धता को प्राप्त हो।
जो जानता अविशुद्ध वह अविशुद्धता को प्राप्त हो ।।१८६।।
पुण्य एवं पाप से निज आत्मा को रोककर ।
अन्य आशा से विरत हो ज्ञान-दर्शन में रहें ।।१८७।।
विरहित करम नोकरम से निज आत्मा के एकत्व को ।
निज आत्मा को स्वयं ध्यावे सर्व संग विमुक्त हो ।।१८८।।
ज्ञान-दर्शन मय निजातम को सदा जो ध्यावते ।
अत्यल्पकाल स्वकाल में वे सर्व कर्म विमुक्त हों ।।१८९।।
बंध के कारण कहे हैं भाव अध्यवसान ही ।
मिथ्यात्व अर अज्ञान अविरत-भाव एवं योग भी ।।१९०।।
इनके बिना है आस्रवों का रोध सम्यग्ज्ञानि के।
अर आस्रवों के रोध से ही कर्म का भी रोध है ।।१९१।।
कर्म के अवरोध से नोकर्म का अवरोध हो।
नोकर्म के अवरोध से संसार का अवरोध हो ।।१९२ ।।

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निर्जरा अधिकार

चेतन अचेतन द्रव्य का उपभोग सम्यग्दृष्टि जन ।
जो इन्द्रियों से करें वह सब निर्जरा का हेतु है ।।१९३।।
सुख-दुख नियम से हो सदा पर द्रव्य के उपभोग से ।
अर भोगने के बाद सुख-दुख निर्जरा को प्राप्त हों।।१९४।।
ज्यों वैद्यजन मरते नहीं हैं जहर के उपभोग से।
त्यों ज्ञानीजन बँधते नहीं हैं कर्म के उपभोग से।।१९५।।
ज्यों अरुचिपूर्वक मद्य पीकर मत्त जन होते नहीं।
त्यों अरुचि से उपभोग करते ज्ञानिजन बंधते नहीं।।१९६।।
ज्यों प्रकरणगत चेष्टा करें पर प्राकरणिक नहीं बनें ।
त्यों ज्ञानिजन सेवन करें पर विषय के सेवक नहीं।।१९७।।
उदय कर्मों के विविध-विध सूत्र में जिनवर के।
किन्तु वे मेरे नहीं मैं एक ज्ञायकभाव हूँ।।१९८॥
पुद्गल करम है राग उसके उदय ये परिणाम हैं।
किन्तु वे मेरे नहीं मैं एक ज्ञायकभाव हूँ।।१९९।।
इसतरह ज्ञानी जानते ज्ञान स्वभावी आत्मा ।
कर्मोदयों को छोड़ते निजतत्त्व को पहचान कर।२००।।
अणुमात्र भी रागादि का सद् भाव है जिस जीव के।
वह भले ही हो सर्व आगमधर न जाने जीव को ।।२०१।।
जो न जाने जीव को वे अजीव भी जाने नहीं।
कैसे कहें सद् दृष्टि जीवाजीव जब जाने नहीं? ।।२०२।।
सहानुभूतिगम्य है जो नियत थिर निजभाव ही।
अपद पद सब छोड़ ग्रह वह एक नित्यस्वभाव ही।।२०३।।
मतिश्रुतावधिमन:पर्यय और केवलज्ञान भी।
सब एक पद परमार्थ हैं पा इसे जन शिवपद लहें ।।२०४।।
इस ज्ञानगुण के बिना जन प्राप्ती न शिवपद की करें ।
यदि चाहते हो मुक्त होना ज्ञान का आश्रय करो।।२०५।।
इस ज्ञान में ही रत रहो सन्तुष्ट नित इसमें रहो ।
बस तृप्त भी इसमें रहो तो परमसुख को प्राप्त हो ।।२०६ ।।
आतमा ही आतमा का परीग्रह - यह जानकर ।
‘पर द्रव्य मेरा है '- बताओ कौन बुध ऐसा कहे?।।२०७।।
यदि परग्रह मेरा बने तो मैं अजीव बनूँ अरे ।
पर मैं तो ज्ञायकभाव है इसलिए पर मेरे नहीं।।२०८।।
छिद जाय या ले जाय कोइ अथवा प्रलय को प्राप्त हो।
जावे चला चाहे जहाँ पर परीग्रह मेरा नहीं ।।२०९।।
है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे धर्म को।
है परीग्रह ना धर्म का वह धर्म का ज्ञायक रहे ।।२१०।।
है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे अधर्म को।
है परिग्रह न अधर्म का वह अधर्म का ज्ञायक रहे।।२११।।
है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे असन को ।
है परिग्रह ना असन का वह असन का ज्ञायक रहे ।।२१२।।
है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे पेय को।
है परिग्रह ना पेय का वह पेय का ज्ञायक रहे ।।२१३।।
इत्यादि विध-विध भाव जो ज्ञानी न चाहे सभी को।
सर्वत्र ही वह निरालम्बी नियत ज्ञायकभाव है।।२१४॥
उदयगत जो भोग हैं उनमें वियोगीबुद्धि है।
अर अनागत भोग की सद्ज्ञानि के कांक्षा नहीं ।।२१५।।
वेद्य-वेदक भाव दोनों नष्ट होते प्रतिसमय।
ज्ञानी रहे ज्ञायक सदा ना उभय की कांक्षा करे ।।२१६।।
बंध-भोग-निमित्त में अर देह में संसार में।
सदज्ञानियों को राग होता नहीं अध्यवसान में ।।२१७।।
पंकगत ज्यों कनक निर्मल कर्मगत त्यों ज्ञानी जन।
राग विरहित कर्मरज से लिप्त होते हैं नहीं ।।२१८।।
पंकगत ज्यों लोह त्यों ही कर्मगत अज्ञानिजन ।
रक्त हो परद्रव्य में अर कर्मरज से लिप्त हों ।।२१९।।
ज्यों अचित्त और सचित्त एवं मिश्र वस्तु भोगते ।
भी शंख के शुक्लत्व को ना कृष्ण कोई कर सके।।२२०।।
त्यों अचित्त और सचित्त एवं मिश्र वस्तु भोगते ।
भी ज्ञानि के ना ज्ञान को अज्ञान कोई कर सके ।।२२१।।
जब स्वयं शुक्लत्व तज वह कृष्ण होकर परिणमें ।
तब स्वयं ही हो कृष्ण एवं शुक्ल भाव परित्यजे ।।२२२।।
इस ही तरह जब ज्ञानीजन निजभाव का परित्यागकर।
अज्ञानमय हों परिणमित तब स्वयं अज्ञानी बनें ।।२२३।।
आजीविका के हेतु नर ज्यों नृपति की सेवा करे।
तो नरपती भी सबतरह उसके लिए सुविधा करे ।।२२४।।
इस ही तरह जब जीव सुख के हेतु सेवे कर्मरज ।
तो कर्ज भी सबतरह उसके लिए सुविधा करें।।२२५।।
आजीविका के हेतु जब नर नृपति सेवा ना करे ।
तब नृपति भी उसके लिए उसतरह सुविधा न करे।।२२६।।
त्यों कर्मरज सेवे नहीं जब जीव सुख के हेतु से।
तो कर्ज उसके लिए उसतरह सुविधा ना करे ।।२२७।।
निःशंक हो सद् दृष्टि बस इसलिए ही निर्भय रहें।
वे सप्त भय से मुक्त हैं इसलिए ही नि:शंक हैं।।२२८।।
जो कर्म बंधन मोह कर्ता चार पाये छेदते ।
वे आत्मा नि:शंक सम्यग्दृष्टि हैं - यह जानना ।।२२९।।
सब धर्म एवं कर्मफल की ना करें आकांक्षा।
वे आत्मा निकांक्ष सम्यग्दृष्टि हैं - यह जानना ।।२३०।।
जो नहीं करते जुगुप्सा सब वस्तु धर्मों के प्रति ।
वे आतमा ही निर्जुगुप्सक समकिती हैं जानना ।।२३१।।
सर्व भावों के प्रति सद्दृष्टि हैं असंमूढ़ हैं।
अमूढदृष्टि समकिती वे आत्मा ही जानना ।।२३२।।
जो सिद्ध भक्ति युक्त हैं सब धर्म का गोपन करें ।
वे आत्मा गोपनकरी सद् दृष्टि हैं यह जानना ।।२३३।।
उन्मार्गगत निजभाव को लावें स्वयं सन्मार्ग में ।
वे आतमा थितिकरण सम्यग्दृष्टि हैं यह जानना ।।२३४।।
मुक्तिमगगत साधुत्रय प्रति रखें वत्सल भाव जो ।
वे आतमा वत्सली सम्यग्दृष्टि हैं यह जानना ।।२३५।।
सद्ज्ञानरथ आरूढ़ हो जो भ्रमे मनरथ मार्ग में ।
वे प्रभावक जिनमार्ग के सदृष्टि उनको जानना।।२३६।।

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बंध अधिकार

ज्यों तेल मर्दन कर पुरुष रेणु बहुल स्थान में ।
व्यायाम करता शस्त्र से बहुविध बहुत उत्साह से ।।२३७।।
तरु ताड़ कदली बांस आदिक वनस्पति छेदन करे ।
सचित्त और अचित्त द्रव्यों का बहुत भेदन करे।।२३८।।
बहुविध बहुत उपकरण से उपघात करते पुरुष को ।
परमार्थ से चिन्तन करो रजबंध किस कारण हुआ।।२३९।।
चिकनाई ही रजबंध का कारण कहा जिनराज ने ।
पर कायचेष्टादिक नहीं यह जान लो परमार्थ से ।।२४०।।
बहु भाँति चेष्टारत तथा रागादि को करते हुए।
सबकर्मरज से लिप्त होते हैं जगत में अज्ञजन ।।२४१।।
ज्यों तेल मर्दन रहित जन रेणू बहुल स्थान में ।
व्यायाम करता शस्त्र से बहुविध बहुत उत्साह से ।।२४२।।
तरु तल कदली बाँस आदिक वनस्पति छेदन करे ।
सचित्त और अचित्त द्रव्यों का बहुत भेदन करे ।२४३।
बहुविध बहुत उपकरण से उपघात करते पुरुष को।
परमार्थ से चिन्तन करो रजबंध क्यों कर ना हुआ ?।।२४४।।
चिकनाई ही रजबंध का कारण कहा जिनराज ने।
पर काय चेष्टादिक नहीं यह जान लो परमार्थ से ।।२४५।।
बहु भाँति चेष्टारत तथा रागादि ना करते हुए।
बस कर्मरज से लिप्त होते नहीं जग में विज्ञजन ।।२४६।।
मैं मारता हूँ अन्य को या मुझे मारें अन्यजन।
यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन! ।।२४७।।
निज आयुक्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही।
तुम मार कैसे सकोगे जब आयु दे सकते नहीं ।।२४८।।
निज आयुक्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही।
वे मरण कैसे करें तब जब आयु हर सकते नहीं ।।२४९।।
मैं हूँ बचाता अन्य को मुझको बचावे अन्यजन ।
यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन! ।।२५०।।
सब आयु से जीवित रहें - यह बात जिनवर ने कही।
जीवित रखोगे किसतरह जब आयु दे सकते नहीं ।।२५१।।
सब आयु से जीवित रहें यह बात जिनवर ने कही।
कैसे बचावें वे तुझे जब आयु दे सकते नहीं ?।।२५२।।
मैं सुखी करता दुखी करता हूँ जगत में अन्य को ।
यह मान्यता अज्ञान है क्यों ज्ञानियों को मान्य हो ?।।२५३।।
हैं सुखी होते दुखी होते कर्म से सब जीव जब ।
तू कर्म दे सकता न जब सुख-दुख दे किस भाँति तब ।।२५४।।
हैं सुखी होते दुखी होते कर्म से सब जीव जब ।
दुष्कर्म दे सकते न जब दु:ख-दर्द दें किस भाँति तब? ।।२५५।।
हैं सुखी होते दुखी होते कर्म से सब जीव जब ।
सत्कर्म दे सकते न जब सुख-शांति दे किस भाँति तब? ।।२५६।।
जो मरे या जो दुखी हों वे सब करम के उदय से ।
मैं दुखी करता-मारता’ - यह बात क्यों मिथ्या न हो?।।२५७।।
जो ना मरे या दुखी ना हो सब करम के उदय से।
‘ना दुखी करता मारता’ - यह बात क्यों मिथ्या न हो।।२५८।।
मैं सुखी करता दुखी करता हूँ जगत में अन्य को ।
यह मान्यता ही मूढमति शुभ-अशुभ का बंधन करे ।।२५९।।
‘मैं सुखी करता दुखी करता’ यही अध्यवसान सब ।
पुण्य एवं पाप के बंधक कहे हैं सूत्र में ।।२६०।।
‘मैं मारता मैं बचाता हूँ’ यही अध्यवसान सब ।
पाप एवं पुण्य के बंधक कहते हैं सूत्र में ।।२६१।।
मारो न मारो जीव को हो बंध अध्यवसान से।
यह बंध का संक्षेप है तुम जान लो परमार्थ से।२६२।।
इस ही तरह चोरी असत्य कुशील एवं ग्रंथ में।
जो हुए अध्यवसान हों वे पाप का बंधन करें ।।२६३।।
इस ही तरह अचौर्य सत्य सुशील और अग्रन्थ में
जो हुए अध्यवसान हों वे पुण्य का बंधन करें ।।२६४।।
ये भाव अध्यवसान होते वस्तु के अवलम्ब से।
परवस्तु से ना बंध हो हो बंध अध्यवसान से ।।२६५।।
मैं सुखी करता दुखी करता बाँधता या छोड़ता।
यह मान्यता है मूढ़मति मिथ्या निरर्थक जाने।।२६६।।
जिय बँधे अध्यवसान से शिवपथ-गमन से छूटते ।
गहराई से सोचो जरा पर में तुम्हारा क्या चले ?।।२६७।।
यह जीव अध्यवसान से तिर्यंच नारक देव नर ।
अर पुण्य एवं पाप सब पर्यायमय निज को करे ।।२६८।।
वह जीव और अजीव एवं धर्म और अधर्म मय।
अर लोक और अलोक इन सबमय स्वयं निज को करे ।।२६९।।
ये और इनसे अन्य अध्यवसान जिनके हैं नहीं।
वे मुनीजन शुभ-अशुभ कर्मों से न कबहूँ लिप्त हों ।।२७०।।
व्यवसाय बुद्धी मती अध्यवसान अर विज्ञान भी।
एकार्थवाचक हैं सभी ये भाव चित परिणाम भी।।२७१।
इस तरह ही परमार्थ से कर नास्ति इस व्यवहार की।
निश्चयनयाश्रित श्रमण जन प्राप्ति करें निर्वाण की ।।२७२।।
व्रत-समिति-गुप्ति-शील-तप आदिक सभी जिनवर कथित।
करते हुए भी अभव्यजन अज्ञानि मिथ्यादृष्टि हैं।।२७३।।
मोक्ष क श्रद्धान बिन सब शास्त्र पढ़कर भी अभवि।
को पाठ गण करता नहीं है ज्ञान के श्रद्धान बिन ।।२७४।।
अभव्यजन श्रद्धा करें रुचि धरे अर रच-पच रहें ।
जो धर्म भोग निमित्त हैं न कर्मक्षय में निमित्त जो।।२७५।।
जीवादि का श्रद्धान दर्शन शास्त्र-अध्ययन ज्ञान है।
चारित्र है षट्काय रक्षा - यह कथन व्यवहार है ।।२७६।।
निज आत्मा ही ज्ञान है दर्शन चरित भी आत्मा।
अर योग संवर और प्रत्याख्यान भी है आत्मा ।।२७७।।
ज्यों लालिमामय स्वयं परिणत नहीं होता फटिकमणि।
पर लालिमायुत द्रव्य के संयोग से ही लाल वह ।।२७८।।
त्यों ज्ञानिजन रागादिमय परिणत न होते स्वयं ही।
रागादि के ही उदय से वे किए जाते रागमय ।।२७९।।
ना स्वयं करता मोह एवं राग-द्वेष-कषाय को ।
इसलिए ज्ञानी जीव कर्ता नहीं है रागादि का ।।२८०।।
राग-द्वेष-कषाय कर्मों के उदय में भाव जो।
उनरूप परिणत जीव फिर रागादि का बंधन कहे।।२८१।।
राग-द्वेष-कषाय कर्मों के उदय में भाव जो।
उनरूप परिणत आत्मा रागादि का बंधन करे ।।२८२।।
है द्विविध अप्रतिक्रमण एवं द्विविध है अत्याग भी।
इसलिए जिनदेव ने अकारक कहा है आत्मा ।।२८३।।
अत्याग अप्रतिक्रमण दोनों द्विविध हैं द्रवभाव से।
इसलिए जिनदेव ने अकारक कहा है आत्मा ।।२८४।।
द्रवभाव से अत्याग अप्रतिक्रमण होवें जबतलक ।
तबतलक यह आत्मा कर्ता रहे - यह जानना ।।२८५।।
अध:कर्म आदि जो पुद्गल दरब के दोष हैं।
परद्रव्य के गुणरूप उनको ज्ञानिजन कैसे करें ?।।२८६ ।।
उद्देशिक अध:कर्म जो पुद्गल दरबमय अचेतन ।
कहे जाते वे सदा मेरे किये किस भाँति हों? ।।२८७।।

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मोक्ष अधिकार

कोई पुरुष चिरकाल से आबद्ध होकर बंध के।
तीव्र-मन्द स्वभाव एवं काल को हो जानता।।२८८।।
किन्तु यदि वह बंध का छेदन न कर छूटे नहीं।
तो वह पुरुष चिरकाल तक निज मुक्ति को पाता नहीं ।।२८९।।
इस ही तरह प्रकृति प्रदेश स्थिति अर अनुभाग को।
जानकर भी नहीं छूटे शुद्ध हो तब छूटता ।।२९०।।
चिन्तवन से बंध के ज्यों बंधे जन न मुक्त हों।
त्यों चिन्तवन से बंध के सब बंधे जीव न मुक्त हों ।।२९१।।
छेदकर सब बंधनों को बद्धजन ज्यों मुक्त हों।
त्यों छेदकर सब बंधनों को बद्धजिय सब मुक्त हों ।।२९२।।
जो जानकर निजभाव निज में और बंधस्वभाव को ।
विरक्त हो जो बंध से वे जीव कर्मविमुक्त हों ।।२९३।।
जीव एवं बंध निज-निज लक्षणों से भिन्न हो।
दोनों पृथक हो जाय प्रज्ञाछैनि से जब छिन्न हों ।।२९४।।
जीव एवं बंध निज-निज लक्षणों से भिन्न हों।
बंध को है छेदना अर ग्रहण करना आत्मा ।।२९५।।
जिस भाँति प्रज्ञा छैनी से पर से विभक्त किया इसे ।
उस भाँति प्रज्ञा छैनी से ही अरे ग्रहण करो इसे ।।२९६।।
इस भाँति प्रज्ञा ग्रहे की मैं हूँ वही जो चेतता।
अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना ।।२९७।।
इस भाँति प्रज्ञा ग्रहे कि मैं हूँ वही जो देखता ।
अवशेष जो है भाव वे मेरे नहीं यह जानना ।।२९८।।
इसभाँति प्रज्ञा ग्रहों की मैं है वही जो जानता।
अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना ।।२९९।।
निज आत्मा को शुद्ध अर पररूप पर को जानता।
है कौन बुध जो जगत में परद्रव्य को अपना कहे ।।३००।।
अपराध चौर्यादिक करें जो पुरुष वे शंकित रहें ।
कि चोर है यह जानकर कोई मुझे ना बाँध ले ।।३०१।।
अपराध जो करता नहीं नि:शंक जनपद में रहे।
बंध जाऊँगा ऐसी कभी चिन्ता न उसके चित रहे ।।३०२।
अपराधि जिय ‘मैं बनूंगा’ इस तरह नित शंकित रहे।
पर निरपराधी आत्मा भयरहित है नि:शंक है ।।३०३।।
साधित अराधित राध अर संसिद्धि सिद्धि एक है।
बस राध से जो रहित है वह आतमा अपराध है।।३०४।।
अपराध है जो आतमा वह आतमा नि:शंक है।
“मैं शुद्ध हैं”-यह जानता आराधना में रत रहे ।।३०५।।
प्रतिक्रमण अर प्रतिसरण परिहार निवृत्ति धारणा।
निन्दा गरहा और शुद्धि अष्टविध विषकुम्भ है।।३०६।
अप्रतिक्रमण अप्रतिसरण अर अपरिहार अधारणा।
अनिन्दा अनिवृत्त्यशुद्धि अगर्हा अमृतकुंभ है ।।३०७।।

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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार

है जगत में कटकादि गहनों से स्वर्ण अनन्य ज्यों ।
जिन गुणों में जो द्रव्य उपजे उनसे जान अनन्य त्यों ।।३०८।।
जीव और अजीव के परिणाम जो जिनवर के।
वे जीव और अजीव जानों अनन्य उन परिणाम से ।।३०९।।
ना करे पैदा किसी को बस इसलिए कारण नहीं ।
किसी से ना हो अत: यह आत्मा कारज नहीं ।।३१०।।
कर्म आश्रय होय कर्ता कर्ता आश्रय कर्म भी।
यह नियम अन्यप्रकार से सिद्धि न कर्ता-कर्म की ।।३११।।
उत्पन्न होता नष्ट होता जीव प्रकृति निमित्त से ।
उत्पन्न होती नष्ट होती प्रकृति जीव निमित्त से ।।३१२।।
यों परस्पर निमित्त से हो बंध जीव रु कर्म का।
बस इसतरह ही उभय से संसार की उत्पत्ति हो ।।३१३।।
जब तक न छोड़े आत्मा प्रकृति निमित्तक परिणमन ।
तब तक रहे अज्ञानि मिथ्यादृष्टि एवं असंयत ।।३१४।।
जब अनन्ता कर्म का फल छोड़ दे यह आत्मा।
तब मुक्त होता बंध से सद् दृष्टि ध्यानी संयमी ।।३१५।।
प्रकृति स्वभाव स्थित अज्ञ जन ही नित्य भोगें कर्मफल ।
पर नहीं भोगे विज्ञजन वे जानते हैं कर्मफल।।३१६।।
गुड़-दूध पीता हुआ भी निर्विष न होता सर्प ज्यों।
त्यों भलीभाँति शास्त्र पढ़कर अभवि प्रकृति न तजे ।।३१७।।
निर्वेद से सम्पन्न ज्ञानी मधुर-कड़वे नेक विध।
वे जानते हैं कर्मफल को हैं अवेदक इसलिए।।३१८।।
ज्ञानी करे-भोगे नहीं बस सभी विध-विध करम को ।
वह जानता है कर्मफल बंध पुण्य एवं पाप को ।।३१९।।
ज्यों दृष्टि त्यों ही ज्ञान जग में है अकारक आवेदक।
जाने करम के बंध उदय मोक्ष एवं निर्जरा ।।३२०।।
जगत-जन यों कहें विष्णु करे सुर-नरलोक को ।
रक्षा करूँ षट्काय की यदि श्रमण भी माने यही ।।३२१।।
तो ना श्रमण अर लोक के सिद्धान्त में अन्तर रहा।
सम मान्यता में विष्णु एवं आत्मा कर्ता रहा ।।३२२।।
इसतरह कर्तृत्व से नित ग्रसित लोक रु श्रमण को।
मोक्ष दोनों को दिखाई नहीं देता है मुझे ।।३२३।।
अतत्वविद् व्यवहार ग्रह परद्रव्य को अपना कहें।
पर तत्वविद् जाने कि पर परमाणु भी मेरा नहीं ।।३२४।।
ग्राम जनपद राष्ट्र मेरा कहे कोई जिस तरह।
किन्तु वे उसके नहीं हैं मोह से ही वह कहे ।।३२५।।
इसतरह जो ‘परद्रव्य मेरा’ - जानकर अपना करे।
संशय नहीं वह ज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही है जानना ।।३२६।।
‘मेरे नहीं ये’- जानकर तत्त्वज्ञ ऐसा मानते।
हु अज्ञता कर्तृत्वबुद्धि लोक एवं श्रमण की ।।३२७।।
मिथ्यात्व नामक प्रकृति मिथ्यात्वी करे यदि जीव को।
फिर तो अचेतन प्रकृति ही कर्तापने को प्राप्त हो ।।३२८।।
अथवा करे यह जीव पुद्गल द्रव्य के मिथ्यात्व को।
मिथ्यात्व मय पुद्गल द्रव्य ही सिद्ध होगा जीव ना ।।३२९।।
यदि जीव प्रकृति उभय मिल मिथ्यात्व मय पुद्गल करे।
फल भोगना होगा उभय को उभयकृत मिथ्यात्व का ।।३३०।।
यदि जीव प्रकृति ना करें मिथ्यात्व मय पुद्गल द्रव्य।
मिथ्यात्वमय पुद्गल सहज,क्या नही यह मिथ्या कहो?।।३३१।।
कर्म अज्ञानी करे अर कर्म ही ज्ञानी करे।
जिय को सुलावे कर्म ही अर कर्म ही जाग्रत करे ।।३३२।।
कर्म करते सुखी एवं दुखी करते कर्म ही।
मिथ्यात्वमय कर्महि करे अर असंयमी भी कर्म ही ।।३३३।।
कर्म ही जिय भ्रमाते हैं उर्ध्व-अध-त्रिलोक में ।
जो कुछ जगत में शुभ-अशुभ वह कर्म ही करते रहें ।।३३४।।
कर्म करते कर्म देते कर्म हरते हैं सदा ।
यह सत्य है तो सिद्ध होंगे अकारक सब आत्मा ।।३३५।।
नर वेद है महिलाभिलाषी नार चाहे पुरुष को।
परम्परा आचार्यों से बात यह श्रुतपूर्व है ।।३३६।।
अब्रह्मचारी नहीं कोई हमारे उपदेश में ।
क्योंकि ऐसा कहा है कि कर्म चाहे कर्म को ।।३३७।।
जो मारता है अन्य को या मारा जावे अन्य से ।
परघात नामक कर्म की ही प्रकृति का यह काम है ।।३३८।।
परघात करता नहीं कोई हमारे उपदेश में ।
क्योंकि ऐसा कहा है कि कर्म मारे कर्म को ।।३३९।।
सांख्य के उपदेश सम जो श्रमण प्रतिपादन करें।
कर्ता प्रकृति उनके यहां पर है अकारक आत्मा ।।३४०।।
या मानते हो यह कि मेरा आतमा निज को करे ।
तो यह तुम्हारा मानना मिथ्यास्वभावी जानना ।।३४१।।
क्योंकि आत्मा नित्य है एवं असंख्य-प्रदेशमय।
ना उसे इससे हीन अथवा अधिक करना शक्य है।।३४२।।
विस्तार से भी जीव का जीवत्व लोकप्रमाण है।
ना होय हीनाधिक कभी कैसे करे जिय द्रव्य को ।।३४३।।
यदी माने रहे ज्ञायकभाव ज्ञानस्वभाव में ।
तो भी आतम स्वयं अपने आतमा को ना करे ।।३४४।।
यह आत्मा हो नष्ट कुछ पर्याय से कुछ से नहीं।
जो भोगता वह करे अथवा अन्य यह एकांत ना ।।३४५।।
यह आत्मा हो नष्ट कुछ पर्याय से कुछ से नहीं।
जो करे भोगे वही अथवा अन्य यह एकांत ना ।।३४६।।
जो करे, भोगे नहीं वह; सिद्धान्त यह जिस जीव का ।
वह जीव मिथ्यादृष्टि आर्हतमत विरोधी जानना ।।३४७।।
कोई करे कोई भरे यह मान्यता जिस जीव की।
वह जीव मिथ्यादृष्टि आर्हतमत विरोधी जानना ।।३४८।।
ज्यों शिल्पि कर्म करे परन्तु कर्ममय वह ना बने।
त्यों जीव कर्म करे परन्तु कर्ममय वह ना बने ।।३४९।।
ज्यों शिल्पि करणों से करे पर करणमय वह ना बने ।
त्यों जीव करणों से करें और किरणमय वह ना बने ।।३५०।।
ज्यों शिल्पि करणों को ग्रहे पर करणमय वह ना बने ।
त्यों जीव करणों को ग्रहे पर करणमय वह ना बने ।।३५१।।
ज्यों शिल्पि भोगे कर्मफल तन्मय परन्तु होय ना ।
त्यों जीव भोगे कर्मफल तन्मय परन्तु होय ना ।।३५२।।
संक्षेप में व्यवहार का यह कथन दर्शाया गया।
अब सुनो परिणाम विषयक कथन जो परमार्थ का ।।३५३।।
शिल्पी करे जो चेष्टा उससे अनन्य रहे सदा ।
जीव भी जो करे वह उससे अनन्य रहे सदा ।।३५४।।
चेष्टा में मगन शिल्पी नित्य ज्यों दुःख भोगता ।
यह चेष्टा रत जीव भी त्यों नित्य ही दुःख भोगता ।।३५५।।
ज्यों कलई नहीं है अन्य को यह कलई तो बस कलई है।
ज्ञायक नहीं त्यों अन्य का ज्ञायक तो बस ज्ञायक ही है।।३५६।।
ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है।
दर्शक नहीं त्यों अन्य का दर्शक तो बस दर्शक ही है ।।३५७।।
ज्यों कलाई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है।
संयत नहीं त्यों अन्य का संयत तो बस संयत ही है ।३५८।।
ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है।
दर्शन नहीं त्यों अन्य का दर्शन तो बस दर्शन ही है ।।३५९।।
यह ज्ञान-दर्शन-चरण विषयक कथन है परमार्थ का।
अब सुनो अतिसंक्षेप में तुम कथन नय व्यवहार का ।।३६०।।
परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से।
बस त्योंहि ज्ञाता जानता परद्रव्य को निजभाव से ।।३६१।।
परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से ।
बस त्योंहि दृष्टा देखता परद्रव्य को निजभाव से ।।३६२।।
परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से ।
बस त्योंहि ज्ञाता त्यागता परद्रव्य को निजभाव से ।।३६३।।
परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से ।
सुदृष्टि त्यों ही श्रद्धता परद्रव्य को निजभाव से ।।३६४।।
यह ज्ञान-दर्शन-चरण विषयक कथन है व्यवहार का।
अर अन्य पर्यय विषय में भी इसतरह ही जानना।।३६५।।
ज्ञान-दर्शन-चरित ना किंचित् अचेतन विषय में।
इसलिए यह आत्मा क्या कर सके उस विषय में ।।३६६।।
ज्ञान-दर्शन-चरित ना किंचित् अचेतन कर्म में।
इसलिए यह आत्मा क्या कर सके उस कर्म में ।।३६७ ।।
ज्ञान-दर्शन-चरित ना किंचित् अचेतन काय में।
इसलिए यह आत्मा क्या कर सके उस काय में ।।३६८।।
सद्ज्ञान का सम्यक्त्व का उपघात चारित्र का कहा।
अन्य पुद्गल द्रव्य का ना घाट किंचित् भी कहा ।।३६९।।
जीव के जो गुण कहे वे हैं नहीं परद्रव्य में ।
बस इसलिए सद् दृष्टि को है राग विषयों में नहीं ।।३७०।।
अनन्य हैं परिणाम जिय के राग-द्वेष-विमोह ये।
बस इसलिए शब्दादि विषयों में नहीं रागादि ये ।।३७१।।
गुणोत्पादन द्रव्य का कोई अन्य द्रव्य नहीं करे।
क्योंकि सब ही द्रव्य निज-निज भाव से उत्पन्न हों ।।३७२।।
स्तवन निन्दा रूप परिणत पुद्गलों को श्रवण कर।
मुझ को कहे यह मान तोष-रु-रोष अज्ञानी करें ।।३७३।।
शब्दत्व में परिणमित पुद्गल द्रव्य का गुण अन्य है।
इसलिए तुम से ना कहा तुष-रुष्ट होते अबुध क्यों ?।।३७४।।
शुभ या अशुभ ये शब्द तुझसे ना कहें कि हमें सुन ।
और आत्मा भी कर्णगत शब्दों के पीछे ना भागे।।३७५।।
शुभ या अशुभ यह रूप तुझ से न कहे कि हमें लख।
यह आत्मा भी चक्षुगत वर्षों के पीछे ना भगे ।।३७६।।
शुभ या अशुभ यह गंध तुम सूँघो मुझे यह ना कहे ।
यह आत्मा भी घ्राणगत गंधों के पीछे ना भगे ।।३७७।।
शुभ या अशुभ यह सरस रस यह ना कहे कि हमें चख ।
यह आत्मा भी जीभगत स्वादों के पीछे ना भगे ।।३७८।।
शुभ या अशुभ स्पर्श तुझसे ना कहें कि हमें छु।
यह आत्मा भी कायगत स्पर्शों के पीछे ना भगे ।।३७९।।
शुभ या अशुभ गुण ना कहे तुम हमें जानो आत्मन् ।
यह आत्मा भी बुद्धिगत सुगुणों के पीछे ना भागे ।।३८०।।
शुभ या अशुभ द्रव्य ना कहे तुम हमें जानो आत्मन् ।
यह आत्मा भी बुद्धिगत द्रव्यों के पीछे ना भागे ।।३८१।।
यह जानकर भी मूढजन ना ग्रहें उपशमभाव को ।
मंगलमती को ना ग्रहे पर के ग्रहण का मन करें ।।३८२।।
शुभ-अशुभ कर्म अनेकविध हैं जो किए गतकाल में ।
उनसे निवर्तन जो करे वह आत्मा प्रतिक्रमण है ।।३८३।।
बंधेगे जिस भाव से शुभ-अशुभ कर्म भविष्य में ।
उससे निवर्तन जो करे वह जीव है आलोचना ।।३८४।।
शुभ-अशुभ भाव अनेकविध हो रहे सम्प्रति काल में ।
इस दोष का ज्ञाता रहे वह जीव है आलोचना ।।३८५।।
जो करें नित प्रतिक्रमण एवं करें नित आलोचना।
जो करें प्रत्याख्यान नित चारित्र हैं वे आत्मा ।।३८६।।
जो कर्मफल को वेदते निजरूप माने करमफल ।
हैं बाँधते वे जीव दुख के बीज वसुविध करम को ।।३८७।।
जो कर्मफल को वेदते माने करमफल मैं किया।
हैं बाँधते वे जीव दुख के बीज वसुविध करम को ।।३८८।।
जो कर्मफल को वेदते हों सुखी अथवा दुखी हों ।
हैं बाँधते वे जीव दुख के बीज वसुविध करम को ।।३८९।।
शास्त्र ज्ञान नहीं है क्योंकि शास्त्र कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए ही शास्त्र अन्य रू ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।३९०।।
शब्द ज्ञान नहीं है क्योंकि शब्द कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए ही शब्द अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।३९१।।
रूप ज्ञान नहीं है क्योंकि रूप कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए ही रूप अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहे ।।३९२।।
वर्ण ज्ञान नहीं है क्योंकि वर्ण कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए ही वर्ण अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें।।३९३।।
गंध ज्ञान नहीं है क्योंकि गंध कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए ही गंध अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।३९४।।
रस नहीं है ज्ञान क्योंकि कुछ भी रस जाने नहीं।
बस इसलिए ही अन्य रस अरु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।३९५।।
स्पर्श ज्ञान नहीं है क्योंकि स्पर्श कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए स्पर्श अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।३९६।।
कर्म ज्ञान नहीं है क्योंकि कर्म कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए ही कर्म अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।३९७।।
धर्म ज्ञान नहीं है क्योंकि धर्म कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए ही धर्म अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।३९८।।
अधर्म ज्ञान नहीं है क्योंकि अधर्म कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए ही अधर्म अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।३९९।।
काल ज्ञान नहीं है क्योंकि काल कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए ही काल अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें।।४००।।
आकाश ज्ञान नहीं है क्योंकि आकाश कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए आकाश अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।४०१।।
अध्यवसान ज्ञान नहीं है क्योंकि वे अचेतन जिन कहे।
इसलिए अध्यवसान अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।४०२।।
नित्य जाने जीव बस इसलिए ज्ञायकभाव है।
है ज्ञान अव्यतिरिक्त ज्ञायकभाव से यह जानना ।।४०३।।
ज्ञान ही समदृष्टि संयम सूत्र पूर्वगतांग भी।
सद् धर्म अधर्म दीक्षा ज्ञान हैं - यह बुध कहे ।।४०४।।
आहार पुद्गलमयी है बस इसलिए है मूर्तिक ।
ना अहारक इसलिए ही यह अमूर्तिक आतमा।४०५।।
परद्रव्य का जो ग्रहण हो ना त्याग हो इस जीव के।
क्योंकि प्रायोगिक तथा वैस्रसिक स्वयं गुण जीव के।।४०६।।
इसलिए यह शुद्ध आत्मा पर जीव और अजीव से।
कुछ भी ग्रहण करता नहीं कुछ भी नहीं है छोड़ता ।।४०७।।
ग्रहण कर मुनिलिंग या गृहिलिंग विविध प्रकार के।
यह लिंग ही है मुक्तिमग यह कहें कतिपय मूढजन ।।४०८।।
पर मुक्तिमग ना लिंग क्योंकि लिंग तज अरिहंत जैन ।
निज आत्म अरु सद्-ज्ञान-दर्शन-चरित का सेवन करें ।।४०९।।
बस इसलिए गृहिलिंग या मुनिलिंग ना मग मुक्ति का ।
जिनवर कहें बस ज्ञान-दर्शन-चरित ही मग मुक्ति का ।।४१०।।
बस इसलिए अनगार या सागर लिंग को त्यागकर ।
जुड़ जा स्वयं के ज्ञान-दर्शन-चरणमय शिव पंथ में ।।४११।।
मोक्ष पथ में थाप निज को चेतकर निज ध्यान धर । -
निज में ही नित्य विहार कर परद्रव्य में न विहार कर।।४१२।।
ग्रहण कर मुनिलिंग या गृहिलिंग विविध प्रकार के।
उनमें करें ममता न जाने वे समय के सार को ।।४१३।।
व्यवहार से ये लिंग दोनों कहे मुक्तीमार्ग में ।
परमार्थ से तो नहीं कोई लिंग मुक्ति मार्ग में ।।४१४।।
पढ़ समयप्राभृत ग्रंथ यह तत्वार्थ से जो जानकर ।
निज अर्थ में एकाग्र हों वे परमसुख हो प्राप्त हो ।।४१५।।
पंचविंशति पंचदश श्री वीर के निर्वाण दिन ।
पूरा हुआ इस ग्रन्थ का शुभ पद्यमय अनुवाद यह ।।४१६।।

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