समयसार पद्यानुवाद | Samaysar Padyanuvad

बंध अधिकार

ज्यों तेल मर्दन कर पुरुष रेणु बहुल स्थान में ।
व्यायाम करता शस्त्र से बहुविध बहुत उत्साह से ।।२३७।।
तरु ताड़ कदली बांस आदिक वनस्पति छेदन करे ।
सचित्त और अचित्त द्रव्यों का बहुत भेदन करे।।२३८।।
बहुविध बहुत उपकरण से उपघात करते पुरुष को ।
परमार्थ से चिन्तन करो रजबंध किस कारण हुआ।।२३९।।
चिकनाई ही रजबंध का कारण कहा जिनराज ने ।
पर कायचेष्टादिक नहीं यह जान लो परमार्थ से ।।२४०।।
बहु भाँति चेष्टारत तथा रागादि को करते हुए।
सबकर्मरज से लिप्त होते हैं जगत में अज्ञजन ।।२४१।।
ज्यों तेल मर्दन रहित जन रेणू बहुल स्थान में ।
व्यायाम करता शस्त्र से बहुविध बहुत उत्साह से ।।२४२।।
तरु तल कदली बाँस आदिक वनस्पति छेदन करे ।
सचित्त और अचित्त द्रव्यों का बहुत भेदन करे ।२४३।
बहुविध बहुत उपकरण से उपघात करते पुरुष को।
परमार्थ से चिन्तन करो रजबंध क्यों कर ना हुआ ?।।२४४।।
चिकनाई ही रजबंध का कारण कहा जिनराज ने।
पर काय चेष्टादिक नहीं यह जान लो परमार्थ से ।।२४५।।
बहु भाँति चेष्टारत तथा रागादि ना करते हुए।
बस कर्मरज से लिप्त होते नहीं जग में विज्ञजन ।।२४६।।
मैं मारता हूँ अन्य को या मुझे मारें अन्यजन।
यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन! ।।२४७।।
निज आयुक्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही।
तुम मार कैसे सकोगे जब आयु दे सकते नहीं ।।२४८।।
निज आयुक्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही।
वे मरण कैसे करें तब जब आयु हर सकते नहीं ।।२४९।।
मैं हूँ बचाता अन्य को मुझको बचावे अन्यजन ।
यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन! ।।२५०।।
सब आयु से जीवित रहें - यह बात जिनवर ने कही।
जीवित रखोगे किसतरह जब आयु दे सकते नहीं ।।२५१।।
सब आयु से जीवित रहें यह बात जिनवर ने कही।
कैसे बचावें वे तुझे जब आयु दे सकते नहीं ?।।२५२।।
मैं सुखी करता दुखी करता हूँ जगत में अन्य को ।
यह मान्यता अज्ञान है क्यों ज्ञानियों को मान्य हो ?।।२५३।।
हैं सुखी होते दुखी होते कर्म से सब जीव जब ।
तू कर्म दे सकता न जब सुख-दुख दे किस भाँति तब ।।२५४।।
हैं सुखी होते दुखी होते कर्म से सब जीव जब ।
दुष्कर्म दे सकते न जब दु:ख-दर्द दें किस भाँति तब? ।।२५५।।
हैं सुखी होते दुखी होते कर्म से सब जीव जब ।
सत्कर्म दे सकते न जब सुख-शांति दे किस भाँति तब? ।।२५६।।
जो मरे या जो दुखी हों वे सब करम के उदय से ।
मैं दुखी करता-मारता’ - यह बात क्यों मिथ्या न हो?।।२५७।।
जो ना मरे या दुखी ना हो सब करम के उदय से।
‘ना दुखी करता मारता’ - यह बात क्यों मिथ्या न हो।।२५८।।
मैं सुखी करता दुखी करता हूँ जगत में अन्य को ।
यह मान्यता ही मूढमति शुभ-अशुभ का बंधन करे ।।२५९।।
‘मैं सुखी करता दुखी करता’ यही अध्यवसान सब ।
पुण्य एवं पाप के बंधक कहे हैं सूत्र में ।।२६०।।
‘मैं मारता मैं बचाता हूँ’ यही अध्यवसान सब ।
पाप एवं पुण्य के बंधक कहते हैं सूत्र में ।।२६१।।
मारो न मारो जीव को हो बंध अध्यवसान से।
यह बंध का संक्षेप है तुम जान लो परमार्थ से।२६२।।
इस ही तरह चोरी असत्य कुशील एवं ग्रंथ में।
जो हुए अध्यवसान हों वे पाप का बंधन करें ।।२६३।।
इस ही तरह अचौर्य सत्य सुशील और अग्रन्थ में
जो हुए अध्यवसान हों वे पुण्य का बंधन करें ।।२६४।।
ये भाव अध्यवसान होते वस्तु के अवलम्ब से।
परवस्तु से ना बंध हो हो बंध अध्यवसान से ।।२६५।।
मैं सुखी करता दुखी करता बाँधता या छोड़ता।
यह मान्यता है मूढ़मति मिथ्या निरर्थक जाने।।२६६।।
जिय बँधे अध्यवसान से शिवपथ-गमन से छूटते ।
गहराई से सोचो जरा पर में तुम्हारा क्या चले ?।।२६७।।
यह जीव अध्यवसान से तिर्यंच नारक देव नर ।
अर पुण्य एवं पाप सब पर्यायमय निज को करे ।।२६८।।
वह जीव और अजीव एवं धर्म और अधर्म मय।
अर लोक और अलोक इन सबमय स्वयं निज को करे ।।२६९।।
ये और इनसे अन्य अध्यवसान जिनके हैं नहीं।
वे मुनीजन शुभ-अशुभ कर्मों से न कबहूँ लिप्त हों ।।२७०।।
व्यवसाय बुद्धी मती अध्यवसान अर विज्ञान भी।
एकार्थवाचक हैं सभी ये भाव चित परिणाम भी।।२७१।
इस तरह ही परमार्थ से कर नास्ति इस व्यवहार की।
निश्चयनयाश्रित श्रमण जन प्राप्ति करें निर्वाण की ।।२७२।।
व्रत-समिति-गुप्ति-शील-तप आदिक सभी जिनवर कथित।
करते हुए भी अभव्यजन अज्ञानि मिथ्यादृष्टि हैं।।२७३।।
मोक्ष क श्रद्धान बिन सब शास्त्र पढ़कर भी अभवि।
को पाठ गण करता नहीं है ज्ञान के श्रद्धान बिन ।।२७४।।
अभव्यजन श्रद्धा करें रुचि धरे अर रच-पच रहें ।
जो धर्म भोग निमित्त हैं न कर्मक्षय में निमित्त जो।।२७५।।
जीवादि का श्रद्धान दर्शन शास्त्र-अध्ययन ज्ञान है।
चारित्र है षट्काय रक्षा - यह कथन व्यवहार है ।।२७६।।
निज आत्मा ही ज्ञान है दर्शन चरित भी आत्मा।
अर योग संवर और प्रत्याख्यान भी है आत्मा ।।२७७।।
ज्यों लालिमामय स्वयं परिणत नहीं होता फटिकमणि।
पर लालिमायुत द्रव्य के संयोग से ही लाल वह ।।२७८।।
त्यों ज्ञानिजन रागादिमय परिणत न होते स्वयं ही।
रागादि के ही उदय से वे किए जाते रागमय ।।२७९।।
ना स्वयं करता मोह एवं राग-द्वेष-कषाय को ।
इसलिए ज्ञानी जीव कर्ता नहीं है रागादि का ।।२८०।।
राग-द्वेष-कषाय कर्मों के उदय में भाव जो।
उनरूप परिणत जीव फिर रागादि का बंधन कहे।।२८१।।
राग-द्वेष-कषाय कर्मों के उदय में भाव जो।
उनरूप परिणत आत्मा रागादि का बंधन करे ।।२८२।।
है द्विविध अप्रतिक्रमण एवं द्विविध है अत्याग भी।
इसलिए जिनदेव ने अकारक कहा है आत्मा ।।२८३।।
अत्याग अप्रतिक्रमण दोनों द्विविध हैं द्रवभाव से।
इसलिए जिनदेव ने अकारक कहा है आत्मा ।।२८४।।
द्रवभाव से अत्याग अप्रतिक्रमण होवें जबतलक ।
तबतलक यह आत्मा कर्ता रहे - यह जानना ।।२८५।।
अध:कर्म आदि जो पुद्गल दरब के दोष हैं।
परद्रव्य के गुणरूप उनको ज्ञानिजन कैसे करें ?।।२८६ ।।
उद्देशिक अध:कर्म जो पुद्गल दरबमय अचेतन ।
कहे जाते वे सदा मेरे किये किस भाँति हों? ।।२८७।।

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