समयसार पद्यानुवाद | Samaysar Padyanuvad

मोक्ष अधिकार

कोई पुरुष चिरकाल से आबद्ध होकर बंध के।
तीव्र-मन्द स्वभाव एवं काल को हो जानता।।२८८।।
किन्तु यदि वह बंध का छेदन न कर छूटे नहीं।
तो वह पुरुष चिरकाल तक निज मुक्ति को पाता नहीं ।।२८९।।
इस ही तरह प्रकृति प्रदेश स्थिति अर अनुभाग को।
जानकर भी नहीं छूटे शुद्ध हो तब छूटता ।।२९०।।
चिन्तवन से बंध के ज्यों बंधे जन न मुक्त हों।
त्यों चिन्तवन से बंध के सब बंधे जीव न मुक्त हों ।।२९१।।
छेदकर सब बंधनों को बद्धजन ज्यों मुक्त हों।
त्यों छेदकर सब बंधनों को बद्धजिय सब मुक्त हों ।।२९२।।
जो जानकर निजभाव निज में और बंधस्वभाव को ।
विरक्त हो जो बंध से वे जीव कर्मविमुक्त हों ।।२९३।।
जीव एवं बंध निज-निज लक्षणों से भिन्न हो।
दोनों पृथक हो जाय प्रज्ञाछैनि से जब छिन्न हों ।।२९४।।
जीव एवं बंध निज-निज लक्षणों से भिन्न हों।
बंध को है छेदना अर ग्रहण करना आत्मा ।।२९५।।
जिस भाँति प्रज्ञा छैनी से पर से विभक्त किया इसे ।
उस भाँति प्रज्ञा छैनी से ही अरे ग्रहण करो इसे ।।२९६।।
इस भाँति प्रज्ञा ग्रहे की मैं हूँ वही जो चेतता।
अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना ।।२९७।।
इस भाँति प्रज्ञा ग्रहे कि मैं हूँ वही जो देखता ।
अवशेष जो है भाव वे मेरे नहीं यह जानना ।।२९८।।
इसभाँति प्रज्ञा ग्रहों की मैं है वही जो जानता।
अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना ।।२९९।।
निज आत्मा को शुद्ध अर पररूप पर को जानता।
है कौन बुध जो जगत में परद्रव्य को अपना कहे ।।३००।।
अपराध चौर्यादिक करें जो पुरुष वे शंकित रहें ।
कि चोर है यह जानकर कोई मुझे ना बाँध ले ।।३०१।।
अपराध जो करता नहीं नि:शंक जनपद में रहे।
बंध जाऊँगा ऐसी कभी चिन्ता न उसके चित रहे ।।३०२।
अपराधि जिय ‘मैं बनूंगा’ इस तरह नित शंकित रहे।
पर निरपराधी आत्मा भयरहित है नि:शंक है ।।३०३।।
साधित अराधित राध अर संसिद्धि सिद्धि एक है।
बस राध से जो रहित है वह आतमा अपराध है।।३०४।।
अपराध है जो आतमा वह आतमा नि:शंक है।
“मैं शुद्ध हैं”-यह जानता आराधना में रत रहे ।।३०५।।
प्रतिक्रमण अर प्रतिसरण परिहार निवृत्ति धारणा।
निन्दा गरहा और शुद्धि अष्टविध विषकुम्भ है।।३०६।
अप्रतिक्रमण अप्रतिसरण अर अपरिहार अधारणा।
अनिन्दा अनिवृत्त्यशुद्धि अगर्हा अमृतकुंभ है ।।३०७।।

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