समयसार पद्यानुवाद | Samaysar Padyanuvad

रंगभूमि/पूर्वरंग अधिकार

ध्रुव अचल अनुपम सिद्ध की कर वंदना मैं स्व-परहित ।
यह समय प्राभृत कह रहा श्रुतकेवली द्वारा कथित ।।१।।
सदज्ञान दर्शन चरित परिणत जीव ही हैं स्वसमय।
जो कर्म पुद्गल के प्रदेशों में रहें वे पर समय ।।२।।
एकत्वनिश्चयगत समय सर्वत्र सुन्दर लोक में ।
विसंवाद है पर बंध की यह कथा ही एकत्व में ।।३।।
सबकी सुनी अनुभूत परिचित भोग बंधन की कथा।
पर से पृथक् एकत्व की उपलब्धि केवल सुलभ न ।।४।।
निज विभव से एकत्व ही दिखला रहा करना मनन ।
पर नहीं करना छलग्रहण यदि हो कहीं कुछ स्खलन ।।५।।
न अप्रमत्त है न प्रमत्त है बस एक ज्ञायकभाव है।
इस भाँति कहते शुद्ध पर जो ज्ञात वह तो वही है ।।६।।
दृग ज्ञान चारित जीव के हैं - यह कहा व्यवहार से ।
ना ज्ञान दर्शन चरण ज्ञायक शुद्ध है परमार्थ से ।।७।।
अनार्य भाषा के बिना समझा सके न अनार्य को।
बस त्योंहि समझा सके ना व्यवहार बिन परमार्थ को ।।८।।
श्रुतज्ञान से जो जानते हैं शुद्ध केवल आत्मा।
श्रुतकेवली उनको कहें ऋषिगण प्रकाशक लोक के।।९।।
जो सर्वश्रुत को जानते उनको कहें श्रुतकेवली
सब ज्ञान ही है आत्मा बस इसलिए श्रुतकेवली ।।१०।।
शुद्धनय भूतार्थ है अभूतार्थ है व्यवहार नय।
भूतार्थ की ही शरण गह यह आत्मा सम्यक् लहे ।।११।।
परमभाव को जो प्राप्त है वे शुद्धनय ज्ञातव्य हैं।
जा रहे अपरमभाव में व्यवहार से उपदिष्ट हैं ।।१२।।
चिदचिदास्रव पाप-पुण्य शिव बंध संवर निर्जरा।
तत्वार्थ ये भूतार्थ से जाने हुए सम्यक्त्व हैं।१३।
अबद्धपुट्ठ अनन्य नियत अविशेष जाने आत्म को।
संयोग विरहित भी कहे जो शुद्धनय उसको कहें ।।१४।
अबद्धपुट्ठ अनन्य अरु अविशेष जाने आत्म को।
अपदेश एवं शान्त वह सम्पूर्ण जिनशासन लहे ।।१५।।
चारित्र दर्शन ज्ञान को सब साधुजन सेवें सदा ।
ये तीन ही हैं आत्मा बस कहे निश्चयनय सदा ।।१६।।
‘यह नृपति है’ - यह जानकर अर्थार्थिजन श्रद्धा करें ।
अनुचरण उसका ही करें अति प्रीति से सेवा करें ।।१७।।
यदि मोक्ष की है कामना तो जीव नृप को जानिए।
अति प्रीति से अनुचरण करिए प्रीति से पहिचानिए ।।१८।।
मैं कर्म हूँ नोकर्म हूँ ये हैं हमारे ये सभी।
यह मान्यता जबतक रहे अज्ञानि हैं तबतक सभी ।।१९।।
सचित्त और अचित्त एवं मिश्र सब पर द्रव्य ये।
हैं मेरे ये मैं इनका हूँ ये मैं हूँ या मैं हूँ वे ही ।।२०।।
हम थे सभी के या हमारे थे सभी गत काल में ।
हम होंयगे उनके हमारे वे अनागत काल में ।।२१।।
ऐसी असंभव कल्पनाएं मूढजन नित ही करें।
भूतार्थ जाननहार जन ऐसे विकल्प नहीं करें ।।२२।।
अज्ञान-मोहित-मती बहुविध भाव से संयुक्त जिय।
अबद्ध एवं बद्ध पुद्गल द्रव्य को अपना कहें ।।२३।।
सर्वज्ञ ने देखा सदा उपयोग लक्षण जीव यह ।
पुद्गगलमयी हो किसतरह किसतरह तू अपना कहे ?।।२४।।
जीव मय पुद्गल तथा पुद्गलमयी हो जीव जब ।
ये मेरे पुद्गल द्रव्य हैं - यह कहा जा सकता है तब ।।२५॥
यदि देह ना हो जीव तो तीर्थंकरों का स्तवन ।
सब असत् होगा इसलिए बस देह ही है आतमा ।।२६।।
‘देह-चेतन एक हैं’ - यह वचन है व्यवहार का ।
‘ये एक हो सकते नहीं’ - यह कथन है परमार्थ का ।।२७।।
इस आत्मा से भिन्न पुद्गल रचित तन का स्तवन ।
कर मानना कि हो गया है केवली का स्तवन ।।२८।।
परमार्थ से सत्यार्थ ना वह केवली का स्तवन ।
केवलि-गुणों का स्तवन ही केवली का स्तवन ।।२९।।
वर्णन नहीं है नगरपति का नगर-वर्णन जिसतरह ।
केवली-वंदन नहीं है देह वंदन उसतरह ।।३०।।
जो इन्द्रियों को जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा ।
वे हैं जितेन्द्रिय जिन कहें परमार्थ साधक आतमा ।।३१।।
मोह को जो जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा ।
जितमोह जिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा ।।३२।।
सब मोह क्षय हो जाय जब जितमोह सम्यक् श्रमण का।
तब क्षीणमोही जिन कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा ।।३३।।
परभाव को पर जानकर परित्याग उनका जब करे ।
तब त्याग हो बस इसलिए ही ज्ञान प्रत्याख्यान है।।३४।।
जिसतरह कोई पुरुष पर को जानकर पर परित्यजे ।
बस उसतरह पर जानकर परभाव ज्ञानी परित्यजे ।।३५।।
मोहादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय।
है मोह-निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ।।३६।।
धर्मादिक मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय ।
है धर्म-निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ।।३७।।
मैं एक दर्शन-ज्ञानमय नित शुद्ध हूँ रूपी नहीं।
ये अन्य सब परद्रव्य किंचित् मात्र भी मेरे नहीं ।।३८।।

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