समयसार पद्यानुवाद | Samaysar Padyanuvad

पुण्य-पाप अधिकार

सुशील है शुभ कर्म और अशुभ कर्म कुशील है।
संसार के हैं हेतु वे कैसे कहें कि सुशील हैं ?।।१४५।।
ज्यों लोह बेड़ी बाँधती त्यों स्वर्ण की भी बांधती ।
इस भाँति ही शुभ-अशुभ दोनों कर्म बेड़ी बांधती ।।१४६।।
दुःशील के संसर्ग से स्वाधीनता का नाश हो।
दुःशील से संसर्ग एवं राग को तुम मत करो ।।१४७।।
जगतजन जिसतरह कुत्सितशील जन को जानकर ।
उस पुरुष से संसर्ग एवं राग करना त्यागते ।।१४८।।
बस उसतरह ही कर्म कुत्सित शील हैं - यह जानकर ।
निजभावरत जन कर्म से संसर्ग को हैं त्यागते ।।१४९।।
विरक्त शिव रमणी वरें अनुरक्त बांधे कर्म को।
जिनदेव का उपदेश यह मत कर्म में अनुरक्त हो ।।१५०।।
परमार्थ है है ज्ञानमय है समय शुध मुनि केवली ।
इसमें रहें थिर अचल जो निर्वाण पावें वे मुनी ।।१५१।।
परमार्थ से हो दूर पर तप करें व्रत धारण करें।
सब बालतप है बालव्रत वृषभादि सब जिनवर कहें।।१५२।।
व्रत नियम सब धारण करें तप शील भी पालन करें ।
पर दूर हो परमार्थ से ना मुक्ति की प्राप्ति करें ।।१५३।।
परमार्थ से हैं बाह्य वे जो मोक्ष मार्ग नहीं जानते ।
अज्ञान से भवगमन-कारण पुण्य हो हैं चाहते ।।१५४।।
जीव का श्रद्धान सम्यक ज्ञान सम्यग्ज्ञान है।
रागादि का परिहार चारित - यही मुक्तिमार्ग है ।।१५५।।
विद्वानगण भूतार्थ तज वर्तन करें व्यवहार में।
पर कर्मक्षय तो कहा है परमार्थ-आश्रित संत के ।।१५६।।
ज्यों श्वेतपन हो नष्ट पट का मैल के संयोग से ।
सम्यक्त्व भी त्यों नष्ट हो मिथ्यात्व मल के लेप से ।।१५७।।
ज्यों श्वेतपन हो नष्ट पट का मैल के संयोग से ।
सद्ज्ञान भी त्यों नष्ट हो अज्ञानमल के लेप से ।।१५८।।
ज्यों श्वेतपन हो नष्ट पट का मैल के संयोग से ।
चारित्र भी त्यों नष्ट होय कषायमल के लेप से ।।१५९।।
सर्वदर्शी सर्वज्ञानी कर्मरज आछन्न हो।
संसार को सम्प्राप्त कर सबको न जाने सर्वत: ।।१६०।।
सम्यक्त्व प्रतिबन्धक करम मिथ्यात्व जिनवर ने कहा।
उसके उदय से जीव मिथ्यादृष्टि होता है सदा ।।१६१।।
सद्ज्ञान प्रतिबन्धक करम अज्ञान जिनवर ने कहा।
उसके उदय से जीव अज्ञानी बने - यह जानना ।।१६२।।
चारित्र प्रतिबन्धक करम जिन ने कषायों को कहा।
उसके उदय से जीव चारित्रहीन हो यह जानना ।।१६३।।

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