समयसार पद्यानुवाद | Samaysar Padyanuvad

निर्जरा अधिकार

चेतन अचेतन द्रव्य का उपभोग सम्यग्दृष्टि जन ।
जो इन्द्रियों से करें वह सब निर्जरा का हेतु है ।।१९३।।
सुख-दुख नियम से हो सदा पर द्रव्य के उपभोग से ।
अर भोगने के बाद सुख-दुख निर्जरा को प्राप्त हों।।१९४।।
ज्यों वैद्यजन मरते नहीं हैं जहर के उपभोग से।
त्यों ज्ञानीजन बँधते नहीं हैं कर्म के उपभोग से।।१९५।।
ज्यों अरुचिपूर्वक मद्य पीकर मत्त जन होते नहीं।
त्यों अरुचि से उपभोग करते ज्ञानिजन बंधते नहीं।।१९६।।
ज्यों प्रकरणगत चेष्टा करें पर प्राकरणिक नहीं बनें ।
त्यों ज्ञानिजन सेवन करें पर विषय के सेवक नहीं।।१९७।।
उदय कर्मों के विविध-विध सूत्र में जिनवर के।
किन्तु वे मेरे नहीं मैं एक ज्ञायकभाव हूँ।।१९८॥
पुद्गल करम है राग उसके उदय ये परिणाम हैं।
किन्तु वे मेरे नहीं मैं एक ज्ञायकभाव हूँ।।१९९।।
इसतरह ज्ञानी जानते ज्ञान स्वभावी आत्मा ।
कर्मोदयों को छोड़ते निजतत्त्व को पहचान कर।२००।।
अणुमात्र भी रागादि का सद् भाव है जिस जीव के।
वह भले ही हो सर्व आगमधर न जाने जीव को ।।२०१।।
जो न जाने जीव को वे अजीव भी जाने नहीं।
कैसे कहें सद् दृष्टि जीवाजीव जब जाने नहीं? ।।२०२।।
सहानुभूतिगम्य है जो नियत थिर निजभाव ही।
अपद पद सब छोड़ ग्रह वह एक नित्यस्वभाव ही।।२०३।।
मतिश्रुतावधिमन:पर्यय और केवलज्ञान भी।
सब एक पद परमार्थ हैं पा इसे जन शिवपद लहें ।।२०४।।
इस ज्ञानगुण के बिना जन प्राप्ती न शिवपद की करें ।
यदि चाहते हो मुक्त होना ज्ञान का आश्रय करो।।२०५।।
इस ज्ञान में ही रत रहो सन्तुष्ट नित इसमें रहो ।
बस तृप्त भी इसमें रहो तो परमसुख को प्राप्त हो ।।२०६ ।।
आतमा ही आतमा का परीग्रह - यह जानकर ।
‘पर द्रव्य मेरा है '- बताओ कौन बुध ऐसा कहे?।।२०७।।
यदि परग्रह मेरा बने तो मैं अजीव बनूँ अरे ।
पर मैं तो ज्ञायकभाव है इसलिए पर मेरे नहीं।।२०८।।
छिद जाय या ले जाय कोइ अथवा प्रलय को प्राप्त हो।
जावे चला चाहे जहाँ पर परीग्रह मेरा नहीं ।।२०९।।
है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे धर्म को।
है परीग्रह ना धर्म का वह धर्म का ज्ञायक रहे ।।२१०।।
है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे अधर्म को।
है परिग्रह न अधर्म का वह अधर्म का ज्ञायक रहे।।२११।।
है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे असन को ।
है परिग्रह ना असन का वह असन का ज्ञायक रहे ।।२१२।।
है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे पेय को।
है परिग्रह ना पेय का वह पेय का ज्ञायक रहे ।।२१३।।
इत्यादि विध-विध भाव जो ज्ञानी न चाहे सभी को।
सर्वत्र ही वह निरालम्बी नियत ज्ञायकभाव है।।२१४॥
उदयगत जो भोग हैं उनमें वियोगीबुद्धि है।
अर अनागत भोग की सद्ज्ञानि के कांक्षा नहीं ।।२१५।।
वेद्य-वेदक भाव दोनों नष्ट होते प्रतिसमय।
ज्ञानी रहे ज्ञायक सदा ना उभय की कांक्षा करे ।।२१६।।
बंध-भोग-निमित्त में अर देह में संसार में।
सदज्ञानियों को राग होता नहीं अध्यवसान में ।।२१७।।
पंकगत ज्यों कनक निर्मल कर्मगत त्यों ज्ञानी जन।
राग विरहित कर्मरज से लिप्त होते हैं नहीं ।।२१८।।
पंकगत ज्यों लोह त्यों ही कर्मगत अज्ञानिजन ।
रक्त हो परद्रव्य में अर कर्मरज से लिप्त हों ।।२१९।।
ज्यों अचित्त और सचित्त एवं मिश्र वस्तु भोगते ।
भी शंख के शुक्लत्व को ना कृष्ण कोई कर सके।।२२०।।
त्यों अचित्त और सचित्त एवं मिश्र वस्तु भोगते ।
भी ज्ञानि के ना ज्ञान को अज्ञान कोई कर सके ।।२२१।।
जब स्वयं शुक्लत्व तज वह कृष्ण होकर परिणमें ।
तब स्वयं ही हो कृष्ण एवं शुक्ल भाव परित्यजे ।।२२२।।
इस ही तरह जब ज्ञानीजन निजभाव का परित्यागकर।
अज्ञानमय हों परिणमित तब स्वयं अज्ञानी बनें ।।२२३।।
आजीविका के हेतु नर ज्यों नृपति की सेवा करे।
तो नरपती भी सबतरह उसके लिए सुविधा करे ।।२२४।।
इस ही तरह जब जीव सुख के हेतु सेवे कर्मरज ।
तो कर्ज भी सबतरह उसके लिए सुविधा करें।।२२५।।
आजीविका के हेतु जब नर नृपति सेवा ना करे ।
तब नृपति भी उसके लिए उसतरह सुविधा न करे।।२२६।।
त्यों कर्मरज सेवे नहीं जब जीव सुख के हेतु से।
तो कर्ज उसके लिए उसतरह सुविधा ना करे ।।२२७।।
निःशंक हो सद् दृष्टि बस इसलिए ही निर्भय रहें।
वे सप्त भय से मुक्त हैं इसलिए ही नि:शंक हैं।।२२८।।
जो कर्म बंधन मोह कर्ता चार पाये छेदते ।
वे आत्मा नि:शंक सम्यग्दृष्टि हैं - यह जानना ।।२२९।।
सब धर्म एवं कर्मफल की ना करें आकांक्षा।
वे आत्मा निकांक्ष सम्यग्दृष्टि हैं - यह जानना ।।२३०।।
जो नहीं करते जुगुप्सा सब वस्तु धर्मों के प्रति ।
वे आतमा ही निर्जुगुप्सक समकिती हैं जानना ।।२३१।।
सर्व भावों के प्रति सद्दृष्टि हैं असंमूढ़ हैं।
अमूढदृष्टि समकिती वे आत्मा ही जानना ।।२३२।।
जो सिद्ध भक्ति युक्त हैं सब धर्म का गोपन करें ।
वे आत्मा गोपनकरी सद् दृष्टि हैं यह जानना ।।२३३।।
उन्मार्गगत निजभाव को लावें स्वयं सन्मार्ग में ।
वे आतमा थितिकरण सम्यग्दृष्टि हैं यह जानना ।।२३४।।
मुक्तिमगगत साधुत्रय प्रति रखें वत्सल भाव जो ।
वे आतमा वत्सली सम्यग्दृष्टि हैं यह जानना ।।२३५।।
सद्ज्ञानरथ आरूढ़ हो जो भ्रमे मनरथ मार्ग में ।
वे प्रभावक जिनमार्ग के सदृष्टि उनको जानना।।२३६।।

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