समयसार पद्यानुवाद | Samaysar Padyanuvad

संवर अधिकार

उपयोग में उपयोग है क्रोधादि में उपयोग ना।
बस क्रोध में है क्रोध पर उपयोग में है क्रोध ना ।।१८१।।
अष्टविध द्रवकर्म में नोकर्म में उपयोग ना।
इस ही तरह उपयोग में भी कर्म ना नाकर्म न ।।१८२।।
विपरीतता से रहित इस विधि जीव को जब ज्ञान हो।
उपयोग के अतिरिक्त कुछ भी ना करे तब आत्मा ।।१८३।।
ज्यों अग्नि से संतप्त सोना स्वर्णभाव नहीं तजे ।
त्यों कर्म से संतप्त ज्ञानी ज्ञानभाव नहीं तजे ।।१८४।।
जानता यह ज्ञानि पर अज्ञानतम आछन्न जो।
वे आतमा जाने न माने राग को ही आतमा ।।१८५।।
जो जानता मैं शुद्ध हूँ वह शुद्धता को प्राप्त हो।
जो जानता अविशुद्ध वह अविशुद्धता को प्राप्त हो ।।१८६।।
पुण्य एवं पाप से निज आत्मा को रोककर ।
अन्य आशा से विरत हो ज्ञान-दर्शन में रहें ।।१८७।।
विरहित करम नोकरम से निज आत्मा के एकत्व को ।
निज आत्मा को स्वयं ध्यावे सर्व संग विमुक्त हो ।।१८८।।
ज्ञान-दर्शन मय निजातम को सदा जो ध्यावते ।
अत्यल्पकाल स्वकाल में वे सर्व कर्म विमुक्त हों ।।१८९।।
बंध के कारण कहे हैं भाव अध्यवसान ही ।
मिथ्यात्व अर अज्ञान अविरत-भाव एवं योग भी ।।१९०।।
इनके बिना है आस्रवों का रोध सम्यग्ज्ञानि के।
अर आस्रवों के रोध से ही कर्म का भी रोध है ।।१९१।।
कर्म के अवरोध से नोकर्म का अवरोध हो।
नोकर्म के अवरोध से संसार का अवरोध हो ।।१९२ ।।

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