समयसार पद्यानुवाद | Samaysar Padyanuvad

कर्ता कर्म अधिकार

आतमा अर आस्रवों में भेद जब जाने नहीं।
हैं अज्ञ तब तक जीव सब क्रोधादि में वर्तन करें ।।६९।।
क्रोधादि में वर्तन करें तब कर्म का संचय करें ।
हो कमबंधन इसतरह इस जीव को जिनवर कहें ।।७०।।
आतमा अर आस्रवों में भेद जाने जीव जब ।
जिनदेव ने ऐसा कहा कि नहीं होवे बंध तब ।।७१।।
इन आस्रवों की अशुचिता विपरीतता को जानकर ।
आतम करे उनसे निवर्तन दुःख कारण मानकर ।।७२।।
मैं एक हूँ मैं शुद्ध निर्मम ज्ञान दर्शन पूर्ण हूँ ।
थित लीन निज में ही रहूँ सब आस्रवों का क्षय करूँ ।।७३।।
ये सभी जीवनिबद्ध अध्रुव शरणहीन अनित्य हैं।
दुःखरूप दुखफल जानकर इनसे निवर्तन बुध करें ।।७४।।
करम के परिणाम को नोकरम के परिणाम को।
जो ना करे बस मात्र जाने प्राप्त हो सद्ज्ञान को ।।७५।।
परद्रव्य कार्यालय में उपजे ग्रहों का परिणाम ।
बहुभाँति पुद्गल कर्म को ज्ञानी पुरुष जाना करें ।।७६।।
परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें।
बहुभाँति निज परिणाम सब ज्ञानी पुरुष जाना करें ।।७७।।
परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें ।
पुद्गल करम का नंतफल ज्ञानी पुरुष जाना करें।।७८।।
परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें ।
इस ही तरह पुद्गल दरव निज भाव से ही परिणमें ।।७९।।
जीव के परिणाम से जड़ कर्म पुद्गल परिणमें ।
पुद्गल करम के निमित्त से यह आत्मा भी परिणमें ।।८०।।
आतम करे ना कर्मगुण ना कर्म आतमगुण करे।
पर परस्पर परिणमन में दोनों परस्पर निमित्त हैं ।।८१।।
बस इसलिए यह आत्मा निज भाव का कर्ता कहा।
अन्य सब पुद्गल कर्म कृत भाव का कर्ता नहीं ।।८२।।
हे भव्यजन ! तुम जान लो परमार्थ से यह आत्मा।
निजभाव को करता तथा निजभाव को ही भोगता ।।८३।।
अनेक विध पुद्गल कर्म को करे भोगे आत्मा।
व्यवहारनय का कथन है यह जान लो भव्यात्मा ।।८४।।
पुद्गल कर्म को करे भोगे जगत में यदि आत्मा।
द्विक्रिया अव्यतिरिक्त हों संमत न जो जिनधर्म में ।।८५।।
यदि आत्मा जड़भाव चेतनभाव दोनों को करे ।
तो आतमा द्विक्रियावादी मिथ्यादृष्टि अवतरे ।८६।
मिथ्यात्व-अविरति-जोग-मोहाज्ञान और कषाय हैं।
ये सभी जीवाजीव हैं ये सभी द्विविधप्रकार हैं ।।८७।।
मिथ्यात्व आदि अजीव जो वे सभी पुद्गल कर्म है।
मिथ्यात्व आदि जीव हैं जो वे सभी उपयोग है।।८८।।
मोहयुत उपयोग के परिणाम तीन अनादि से ।
जानों उन्हें मिथ्यात्व अविरतभाव अर अज्ञान ये ।।८९।।
यद्यपि उपयोग तो नित ही निरंजन शुद्ध है।
जिसरूप परिणत हो त्रिविध वह उसी का कर्ता बने ।।१०।।
आतम करे जिस भाव को उस भाव का कर्ता बने।
बस स्वयं ही उस समय पुद्गल कर्मभावे परिणमें ।।९१।।
पर को करे निजरूप जो पररूप जो निज को करे ।
अज्ञानमय वह आत्मा पर करम का कर्ता बने ।।९२।।
पररूप न निज को करे पर को करे निज रूप ना।
अकर्ता रहे पर करम का सद्ज्ञानमय वह आत्मा ।।९३।।
त्रिविध यह उपयोग जब “मैं क्रोध हूँ” इम परिणमे ।
तब जीव उस उपयोगमय परिणाम का कर्ता बने ।।९४।।
त्रिविध यह उपयोग जब “मैं धर्म हूँ” इम परिणमे ।
तब जीव उस उपयोगमय परिणाम का कर्ता बने ।।९५।।
इसतरह यह मंदबुद्धि स्वयं के अज्ञान से।
निज द्रव्य को पर करे अरु परद्रव्य को अपना करे ।।१६।।
बस इसतरह कर्ता कहें परमार्थ ज्ञायक आत्मा ।
जो जानते यह तथ्य वे छोड़े सकल कर्तापना।।९७।।
व्यवहार से यह आतमा घटपटरथादिक द्रव्य का।
इन्द्रियों का कर्म का नोकर्म का कर्ता कहा ।।९८।।
परद्रव्यमय हो जाय यदि पर द्रव्य में कुछ भी करे।
परद्रव्यमय होता नहीं बस इसलिए कर्ता नहीं ९९।।
ना घट करे ना पट करे ना अन्य द्रव्यों को करे।
कर्ता कहा तत् रूप परिणत योग अर उपयोग का ।।१०० ।।
ज्ञानावरण आदिक जु पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं।
उनको करे ना आत्मा जो जानते वे ज्ञानि हैं।।१०१।।
निजकृत शुभाशुभभाव का कर्ता कहा है आत्मा ।
वे भाव उसके कर्म हैं वेदक है उनका आतमा ।।१०२॥
जब संक्रमण ना करे कोई द्रव्य पर-गुण-द्रव्य में ।
तब करे कैसे परिणमन इक द्रव्य पर-गुण-द्रव्य में ।।१०३।।
कुछ भी करे ना जीव पुद्गल कर्म के गुण-द्रव्य में।
जब उभय का कर्ता नहीं तब किसतरह कर्ता कहें ?।।१०४।।
बंध का जो हेतु उस परिणाम को लख जीव में ।
करम कीने जीव ने बस कह दिया उपचार से ।।१०५।।
रण में लड़े भट पर कहे जग युद्ध राजा ने किया।
बस उसतरह द्रव कर्म आदि ने किए व्यवहार से ।।१०६।।
ग्रहे बाँधे परिणमावे करे या पैदा करे ।
पुद्गल दरव को आत्मा व्यवहार नय का कथन है ।।१०७।।
गुण-दोष उत्पादक कहा ज्यों भूप के व्यवहार से।
त्यों जीव पुद्गल द्रव्य का कर्ता कहा व्यवहार से ।।१०८।।
मिथ्यात्व अरु अविरमण योग कषाय के परिणाम हैं।
सामान्य से ये चार प्रत्यय कर्म के कर्ता कहे ।।१०९।।
मिथ्यात्व आदि सयोगि-जिन तक जो कहे गुणस्थान है।
बस ये त्रयोदश भेद प्रत्यय के कहे जिनसूत्र में ।।११०।।
पुद्गल कर्म के उदय से उत्पन्न ये सब अचेतन ।
करम को कर्ता हैं ये वेदक नहीं है आतमा ।।१११।।
गुण नाम के ये सभी प्रत्यय कर्म के कर्ता कहे।
कर्ता रहा ना जीव ये गुणस्थान ही कर्ता रहे ।।११२।।
उपयोग जीव अनन्य ज्यों यदि त्यों हि क्रोध अनन्य हो।
तो जीव और अजीव दोनों एक ही हो जायेंगे ।।११३।।
यदि जीव और अजीव दोनों एक हो तो इस तरह।
का दोष प्रत्यय कर्म अर नोकर्म में भी आयगा ।।११४।।
क्रोधान्य है अर अन्य है उपयोगमय यह आतमा ।
तो कर्म अरु नोकर्म प्रत्यय अन्य होंगे क्यों नहीं ?।।११५।।
यदि स्वयं ही कर्म भाव में परिणत न हो ना बंधे ही।
तो अपरिणामी सिद्ध होगा कर्ममय पुद्गल दरव ।।११६।।
कर्मत्व में यदि वर्गणाएँ परिणमित होंगी नहीं।
तो सिद्ध होगा सांख्यमत संसार की हो नास्ति ।।११७।।
यदि परिणमावे जीव पुद्गल दरव को कर्मत्व में ।
पर परिणमावे किसतरह वह अपरिणामी वस्तु को ।।११८।।
यदि स्वयं ही परिणमें वे पुद्गल दरव कर्मत्व में ।
मिथ्या रही यह बात उनको परिणमावें आतमा ।।११९।।
जड़कर्म परिणत जिसतरह पुद्गल दरव ही कर्म है।
जड़ज्ञान-आवरणादि परिणत ज्ञान-आवरणादि हैं ।।१२०।।
यदि स्वयं ही न बंधे अर क्रोधादिमय परिणत न हो।
तो अपरिणामी सिद्ध होगा जीव तेरे मत विषे ।।१२१ ।।
स्वयं ही क्रोधादि में यदि जीव ना हो परिणमित ।
तो सिद्ध होगा सांख्यमत संसार की हो नास्ति ।।१२२।।
यदि परिणाम कर्म जड़ क्रोधादि में इस जीव को।
पर परिणाम किस तरह वह अपरिणामी वस्तु को ।।१२३।।
यदि स्वयं ही क्रोधादि में परिणमित हो यह आत्मा ।
मिथ्या रही यह बात उसको परिणमावे कर्म जड़ ।।१२४।।
क्रोधोपयोगी क्रोध है मानोपयोगी मान है।
मायोपयोगी माया है लोभोपयोगी लोभ है ।।१२५।।
जो भाव आतम करे वह उस कर्म का कर्ता बने।
ज्ञानियों के ज्ञानमय अज्ञानि के अज्ञानमय ।।१२६॥
अज्ञानमय हैं भाव इससे अज्ञ कर्ता कर्म का।
बस ज्ञानमय हैं इसलिए ना विज्ञ कर्ता कर्म का।१२७।।
ज्ञानमय परिणाम से परिणाम हो सब ज्ञानमय।
बस इसलिए सद्ज्ञानियों के भाव हों सद्ज्ञानमय ।१२८।
अज्ञानमय परिणाम से परिणाम हो अज्ञानमय।
बस इसलिए अज्ञानियों के भाव हों अज्ञानमय ।।१२९।।
स्वर्णनिर्मित कुंडलादि स्वर्णमय ही हों सदा ।
लोहनिर्मित कटक आदि लोहमय ही हों सदा ।।१३०।।
इस ही तरह अज्ञानियों के भाव हों अज्ञानमय ।
इस ही तरह सब भाव हो सद्ज्ञानियों के ज्ञानमय ।।१३१।।
निजतत्त्व का अज्ञान ही बस उदय है अज्ञान का ।
निजतत्त्व का अश्रद्धान ही बस उदय है मिथ्यात्व का ।।१३२।।
अविरमण का सद्भाव ही बस असंयम क उदय है।
उपयोग की यह कलुषिता ही कषायों का उदय है ।।१३३।।
शुभ अशुभ चेष्टा में तथा निवृत्ति में या प्रवृत्ति में।
जो चित्त का उत्साह है वह ही उदय है योग का ।।१३४।।
इनके निमित्त के योग से जड़ वर्गणाएँ कर्म की।
परिणमित हों ज्ञान-आवरणादि बसुविध कर्म में ।।१३५।।
इस तरह बसुविध कर्म से आबद्ध जिय जब हो तभी।
अज्ञानमय निजभाव का हो हेतु जिय जिनवर कही ।।१३६।।
यदि कर्ममय परिणाम पुद्गल द्रव्य का जिय साथ हो।
तो जीव भी जड़कर्मवत् कर्मत्व को ही प्राप्त हो ।।१३७।।
किन्तु जब जियभाव बिन ही एक पुद्गल द्रव्य का ।
यह कर्ममय परिणाम है तो जीव जड़मय क्यों बने ? ।।१३८।।
इस जीव के रागादि पुद्गल कर्म में भी हो यदि।
तो जीववत जड़कर्म भी रागादिमय हो जावेंगे ।।१३९।।
किन्तु जब जड़ कर्म बिन ही जीव के रागादि हों।
तब कर्मजड़ पुद्गलमयी रागादिमय कैसे बनें ।।१४०।।
कर्म से आबद्ध जिय यह कथन है व्यवहार का ।
पर कर्म से ना बद्ध जिय यह कथन है परमार्थ का ।।१४१।
अबद्ध है या बद्ध है जिय यह सभी नयपक्ष हैं।
नयपक्ष से अतिक्रान्त जो वह ही समय का सार है।।१४२।।
दोनों नयों को जानते पर ना ग्रहे नयपक्ष को ।
नयपक्ष से परिहीन पर निज समय से प्रतिबद्ध वे।।१४३।।
विरहित सभी नयपक्ष से जो सो समय का सार है।
है वही सम्यग्ज्ञान एवं वही समकित सार है ।।१४४।।

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