समयसार पद्यानुवाद | Samaysar Padyanuvad

जीव-अजीव अधिकार

परात्मवादी मूढ़ जन निज आत्मा जाने नहीं।
अध्यवसान को आतम कहें या कर्म को आतम कहें ।।३९।।
अध्यवसानगत जो तीव्रता या मंदता वह जीव है।
पर अन्य कोई यह कहे नोकर्म ही बस जीव है ।।४०॥
मन्द अथवा तीव्रतम जो कर्म का अनुभाग है।
वह जीव है या कर्म का जो उदय है वह जीव है ।।४१।।
द्रव कर्म का अर जीव का सम्मिलन ही बस जीव है ।
अथवा कहे कोइ करम का संयोग ही बस जीव है ।।४२।।
बस इसतरह दुर्बुद्धिजन परवस्तु को आत्म कहें ।
परमार्थवादी वे नहिं परमार्थ वादी यह कहें ।।४३।।
ये भाव सब पुद्गल द्रव्य परिणाम से निष्पन्न हैं।
यह कहा है जिनदेव ने ये जीव हैं’ - कैसे कहें ।।४४।।
अष्टविध सब कर्म पुद्गल मय कहे जिनदेव ने।
सब कर्म का परिणाम दुःखमय यह कहा जिनदेव ने।।४५।।
ये भाव सब हैं जीव के जो यह कहा जिनदेव ने।
व्यवहार नय का पक्ष यह प्रस्तुत किया जिनदेव ने ।।४६।।
सेना सहित नरपती निकले नृप चला ज्यों जन कहें ।
यह कथन है व्यवहार का पर नृपति उनमें एक है ।।४७।।
बस उसतरह ही सूत्र में व्यवहार से इन सभी को।
जीव कहते किन्तु इनमें जीव तो बस एक है ।।४८।।
चैतन्य गुणमय आत्मा अव्यक्त अरस अरूप है।
जानो अलिंग ग्रहण उसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है ।।४९।।
शुध जीव के रस गंध ना अर वर्ण न स्पर्श ना।
यह देह न जड़रूप न संस्थान ना संहनन न।५०।।
ना राग है न द्वेष हो न मोह है इस जीव के।
प्रत्यय नहीं है कर्म ना कर्म ना इस जीव के ।।५१।।
ना वर्ग है ना वर्गणा अर कोई स्पर्धक नहीं।
अर नहीं हैं अनुभाग के अध्यात्म के स्थान भी ।।५२।।
योग के स्थान नहिं अर बंध के स्थान ना।
उदय के स्थान नहिं अर मार्गणा स्थान न ।।५३।।
थितिबंध के स्थान नहिं संक्लेश के स्थान ना ।
संयमलब्धि के स्थान ना सुविशुद्धि के स्थान न ।।५४।।
जीव के स्थान नहीं गुणस्थान के स्थान ना ।
क्योंकि ये सब भाव पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं ।।५५।।
वर्णादि के व्यवहार से ही कहा जाता जीव के।
परमार्थ से ये भाव भी होते नहीं है जीव के।।५६।।
दूध-पानी की तरह सम्बन्ध इनका जानना ।
उपयोगमय इस जीव के परमार्थ से ये हैं नहीं ।।५७।।
पथिक लुटते देखकर पथ लुट रहा जग-जन कहें।
पर पथ तो लुटता है नहीं बस पथिक ही लुटते रहें ।।५८।।
उस ही तरह रंग देखकर जड़कर्म अर नोकर्म का ।
जिनवर कहें व्यवहार से यह वर्ण है इस जीव का ।।५९।।
इस ही तरह रस गंध तन संस्थान आदिक जीव के।
व्यवहार से हैं - कहें वे जो जानते परमार्थ को ।।६०।।
जो जीव है संसार में वर्णादि उनके ही कहें।
जो मुक्त हो संसार से वर्णादि उनके हैं नहीं ।।६१।।
वर्णादिमय ही जीव हैं तुम यदी मानो इस तरह।
तब जीव और अजीव में अन्तर करोगे किसतरह ?।।६२।।
मानो उन्हें वर्णादि मय जो जीव हैं संसार में।
तब जीव संसारी सभी वर्णादिमय हो जायेंगे।।६३।।
यदि लक्षणों की एकता से जीव हों पुद्गल सभी।
बस इसतरह तो सिद्ध होंगे सिद्ध भी पुद्गलमयी ।।६४।।
एकेन्द्रियादिक प्रकृति हैं जो नाम नामक कर्म की।
पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म-वादर आदि सब ।।६५।।
इनकी अपेक्षा कहे जाते जीव के स्थान जो।
कैसे कहें - वे जीव हैं’ - जब प्रकृतियाँ पुद्गलमयी ।।६६।।
पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म वादर आदि सब।
जड़ देह की है जीव संज्ञा सूत्र में व्यवहार से ।।६७।।
मोहन-करम के उदय से गुणस्थान जो जिनवर के।
वे जीव कैसे करें नित अचेतन ही कहैं ।।६८।।

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