समयसार पद्यानुवाद | Samaysar Padyanuvad

सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार

है जगत में कटकादि गहनों से स्वर्ण अनन्य ज्यों ।
जिन गुणों में जो द्रव्य उपजे उनसे जान अनन्य त्यों ।।३०८।।
जीव और अजीव के परिणाम जो जिनवर के।
वे जीव और अजीव जानों अनन्य उन परिणाम से ।।३०९।।
ना करे पैदा किसी को बस इसलिए कारण नहीं ।
किसी से ना हो अत: यह आत्मा कारज नहीं ।।३१०।।
कर्म आश्रय होय कर्ता कर्ता आश्रय कर्म भी।
यह नियम अन्यप्रकार से सिद्धि न कर्ता-कर्म की ।।३११।।
उत्पन्न होता नष्ट होता जीव प्रकृति निमित्त से ।
उत्पन्न होती नष्ट होती प्रकृति जीव निमित्त से ।।३१२।।
यों परस्पर निमित्त से हो बंध जीव रु कर्म का।
बस इसतरह ही उभय से संसार की उत्पत्ति हो ।।३१३।।
जब तक न छोड़े आत्मा प्रकृति निमित्तक परिणमन ।
तब तक रहे अज्ञानि मिथ्यादृष्टि एवं असंयत ।।३१४।।
जब अनन्ता कर्म का फल छोड़ दे यह आत्मा।
तब मुक्त होता बंध से सद् दृष्टि ध्यानी संयमी ।।३१५।।
प्रकृति स्वभाव स्थित अज्ञ जन ही नित्य भोगें कर्मफल ।
पर नहीं भोगे विज्ञजन वे जानते हैं कर्मफल।।३१६।।
गुड़-दूध पीता हुआ भी निर्विष न होता सर्प ज्यों।
त्यों भलीभाँति शास्त्र पढ़कर अभवि प्रकृति न तजे ।।३१७।।
निर्वेद से सम्पन्न ज्ञानी मधुर-कड़वे नेक विध।
वे जानते हैं कर्मफल को हैं अवेदक इसलिए।।३१८।।
ज्ञानी करे-भोगे नहीं बस सभी विध-विध करम को ।
वह जानता है कर्मफल बंध पुण्य एवं पाप को ।।३१९।।
ज्यों दृष्टि त्यों ही ज्ञान जग में है अकारक आवेदक।
जाने करम के बंध उदय मोक्ष एवं निर्जरा ।।३२०।।
जगत-जन यों कहें विष्णु करे सुर-नरलोक को ।
रक्षा करूँ षट्काय की यदि श्रमण भी माने यही ।।३२१।।
तो ना श्रमण अर लोक के सिद्धान्त में अन्तर रहा।
सम मान्यता में विष्णु एवं आत्मा कर्ता रहा ।।३२२।।
इसतरह कर्तृत्व से नित ग्रसित लोक रु श्रमण को।
मोक्ष दोनों को दिखाई नहीं देता है मुझे ।।३२३।।
अतत्वविद् व्यवहार ग्रह परद्रव्य को अपना कहें।
पर तत्वविद् जाने कि पर परमाणु भी मेरा नहीं ।।३२४।।
ग्राम जनपद राष्ट्र मेरा कहे कोई जिस तरह।
किन्तु वे उसके नहीं हैं मोह से ही वह कहे ।।३२५।।
इसतरह जो ‘परद्रव्य मेरा’ - जानकर अपना करे।
संशय नहीं वह ज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही है जानना ।।३२६।।
‘मेरे नहीं ये’- जानकर तत्त्वज्ञ ऐसा मानते।
हु अज्ञता कर्तृत्वबुद्धि लोक एवं श्रमण की ।।३२७।।
मिथ्यात्व नामक प्रकृति मिथ्यात्वी करे यदि जीव को।
फिर तो अचेतन प्रकृति ही कर्तापने को प्राप्त हो ।।३२८।।
अथवा करे यह जीव पुद्गल द्रव्य के मिथ्यात्व को।
मिथ्यात्व मय पुद्गल द्रव्य ही सिद्ध होगा जीव ना ।।३२९।।
यदि जीव प्रकृति उभय मिल मिथ्यात्व मय पुद्गल करे।
फल भोगना होगा उभय को उभयकृत मिथ्यात्व का ।।३३०।।
यदि जीव प्रकृति ना करें मिथ्यात्व मय पुद्गल द्रव्य।
मिथ्यात्वमय पुद्गल सहज,क्या नही यह मिथ्या कहो?।।३३१।।
कर्म अज्ञानी करे अर कर्म ही ज्ञानी करे।
जिय को सुलावे कर्म ही अर कर्म ही जाग्रत करे ।।३३२।।
कर्म करते सुखी एवं दुखी करते कर्म ही।
मिथ्यात्वमय कर्महि करे अर असंयमी भी कर्म ही ।।३३३।।
कर्म ही जिय भ्रमाते हैं उर्ध्व-अध-त्रिलोक में ।
जो कुछ जगत में शुभ-अशुभ वह कर्म ही करते रहें ।।३३४।।
कर्म करते कर्म देते कर्म हरते हैं सदा ।
यह सत्य है तो सिद्ध होंगे अकारक सब आत्मा ।।३३५।।
नर वेद है महिलाभिलाषी नार चाहे पुरुष को।
परम्परा आचार्यों से बात यह श्रुतपूर्व है ।।३३६।।
अब्रह्मचारी नहीं कोई हमारे उपदेश में ।
क्योंकि ऐसा कहा है कि कर्म चाहे कर्म को ।।३३७।।
जो मारता है अन्य को या मारा जावे अन्य से ।
परघात नामक कर्म की ही प्रकृति का यह काम है ।।३३८।।
परघात करता नहीं कोई हमारे उपदेश में ।
क्योंकि ऐसा कहा है कि कर्म मारे कर्म को ।।३३९।।
सांख्य के उपदेश सम जो श्रमण प्रतिपादन करें।
कर्ता प्रकृति उनके यहां पर है अकारक आत्मा ।।३४०।।
या मानते हो यह कि मेरा आतमा निज को करे ।
तो यह तुम्हारा मानना मिथ्यास्वभावी जानना ।।३४१।।
क्योंकि आत्मा नित्य है एवं असंख्य-प्रदेशमय।
ना उसे इससे हीन अथवा अधिक करना शक्य है।।३४२।।
विस्तार से भी जीव का जीवत्व लोकप्रमाण है।
ना होय हीनाधिक कभी कैसे करे जिय द्रव्य को ।।३४३।।
यदी माने रहे ज्ञायकभाव ज्ञानस्वभाव में ।
तो भी आतम स्वयं अपने आतमा को ना करे ।।३४४।।
यह आत्मा हो नष्ट कुछ पर्याय से कुछ से नहीं।
जो भोगता वह करे अथवा अन्य यह एकांत ना ।।३४५।।
यह आत्मा हो नष्ट कुछ पर्याय से कुछ से नहीं।
जो करे भोगे वही अथवा अन्य यह एकांत ना ।।३४६।।
जो करे, भोगे नहीं वह; सिद्धान्त यह जिस जीव का ।
वह जीव मिथ्यादृष्टि आर्हतमत विरोधी जानना ।।३४७।।
कोई करे कोई भरे यह मान्यता जिस जीव की।
वह जीव मिथ्यादृष्टि आर्हतमत विरोधी जानना ।।३४८।।
ज्यों शिल्पि कर्म करे परन्तु कर्ममय वह ना बने।
त्यों जीव कर्म करे परन्तु कर्ममय वह ना बने ।।३४९।।
ज्यों शिल्पि करणों से करे पर करणमय वह ना बने ।
त्यों जीव करणों से करें और किरणमय वह ना बने ।।३५०।।
ज्यों शिल्पि करणों को ग्रहे पर करणमय वह ना बने ।
त्यों जीव करणों को ग्रहे पर करणमय वह ना बने ।।३५१।।
ज्यों शिल्पि भोगे कर्मफल तन्मय परन्तु होय ना ।
त्यों जीव भोगे कर्मफल तन्मय परन्तु होय ना ।।३५२।।
संक्षेप में व्यवहार का यह कथन दर्शाया गया।
अब सुनो परिणाम विषयक कथन जो परमार्थ का ।।३५३।।
शिल्पी करे जो चेष्टा उससे अनन्य रहे सदा ।
जीव भी जो करे वह उससे अनन्य रहे सदा ।।३५४।।
चेष्टा में मगन शिल्पी नित्य ज्यों दुःख भोगता ।
यह चेष्टा रत जीव भी त्यों नित्य ही दुःख भोगता ।।३५५।।
ज्यों कलई नहीं है अन्य को यह कलई तो बस कलई है।
ज्ञायक नहीं त्यों अन्य का ज्ञायक तो बस ज्ञायक ही है।।३५६।।
ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है।
दर्शक नहीं त्यों अन्य का दर्शक तो बस दर्शक ही है ।।३५७।।
ज्यों कलाई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है।
संयत नहीं त्यों अन्य का संयत तो बस संयत ही है ।३५८।।
ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है।
दर्शन नहीं त्यों अन्य का दर्शन तो बस दर्शन ही है ।।३५९।।
यह ज्ञान-दर्शन-चरण विषयक कथन है परमार्थ का।
अब सुनो अतिसंक्षेप में तुम कथन नय व्यवहार का ।।३६०।।
परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से।
बस त्योंहि ज्ञाता जानता परद्रव्य को निजभाव से ।।३६१।।
परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से ।
बस त्योंहि दृष्टा देखता परद्रव्य को निजभाव से ।।३६२।।
परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से ।
बस त्योंहि ज्ञाता त्यागता परद्रव्य को निजभाव से ।।३६३।।
परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से ।
सुदृष्टि त्यों ही श्रद्धता परद्रव्य को निजभाव से ।।३६४।।
यह ज्ञान-दर्शन-चरण विषयक कथन है व्यवहार का।
अर अन्य पर्यय विषय में भी इसतरह ही जानना।।३६५।।
ज्ञान-दर्शन-चरित ना किंचित् अचेतन विषय में।
इसलिए यह आत्मा क्या कर सके उस विषय में ।।३६६।।
ज्ञान-दर्शन-चरित ना किंचित् अचेतन कर्म में।
इसलिए यह आत्मा क्या कर सके उस कर्म में ।।३६७ ।।
ज्ञान-दर्शन-चरित ना किंचित् अचेतन काय में।
इसलिए यह आत्मा क्या कर सके उस काय में ।।३६८।।
सद्ज्ञान का सम्यक्त्व का उपघात चारित्र का कहा।
अन्य पुद्गल द्रव्य का ना घाट किंचित् भी कहा ।।३६९।।
जीव के जो गुण कहे वे हैं नहीं परद्रव्य में ।
बस इसलिए सद् दृष्टि को है राग विषयों में नहीं ।।३७०।।
अनन्य हैं परिणाम जिय के राग-द्वेष-विमोह ये।
बस इसलिए शब्दादि विषयों में नहीं रागादि ये ।।३७१।।
गुणोत्पादन द्रव्य का कोई अन्य द्रव्य नहीं करे।
क्योंकि सब ही द्रव्य निज-निज भाव से उत्पन्न हों ।।३७२।।
स्तवन निन्दा रूप परिणत पुद्गलों को श्रवण कर।
मुझ को कहे यह मान तोष-रु-रोष अज्ञानी करें ।।३७३।।
शब्दत्व में परिणमित पुद्गल द्रव्य का गुण अन्य है।
इसलिए तुम से ना कहा तुष-रुष्ट होते अबुध क्यों ?।।३७४।।
शुभ या अशुभ ये शब्द तुझसे ना कहें कि हमें सुन ।
और आत्मा भी कर्णगत शब्दों के पीछे ना भागे।।३७५।।
शुभ या अशुभ यह रूप तुझ से न कहे कि हमें लख।
यह आत्मा भी चक्षुगत वर्षों के पीछे ना भगे ।।३७६।।
शुभ या अशुभ यह गंध तुम सूँघो मुझे यह ना कहे ।
यह आत्मा भी घ्राणगत गंधों के पीछे ना भगे ।।३७७।।
शुभ या अशुभ यह सरस रस यह ना कहे कि हमें चख ।
यह आत्मा भी जीभगत स्वादों के पीछे ना भगे ।।३७८।।
शुभ या अशुभ स्पर्श तुझसे ना कहें कि हमें छु।
यह आत्मा भी कायगत स्पर्शों के पीछे ना भगे ।।३७९।।
शुभ या अशुभ गुण ना कहे तुम हमें जानो आत्मन् ।
यह आत्मा भी बुद्धिगत सुगुणों के पीछे ना भागे ।।३८०।।
शुभ या अशुभ द्रव्य ना कहे तुम हमें जानो आत्मन् ।
यह आत्मा भी बुद्धिगत द्रव्यों के पीछे ना भागे ।।३८१।।
यह जानकर भी मूढजन ना ग्रहें उपशमभाव को ।
मंगलमती को ना ग्रहे पर के ग्रहण का मन करें ।।३८२।।
शुभ-अशुभ कर्म अनेकविध हैं जो किए गतकाल में ।
उनसे निवर्तन जो करे वह आत्मा प्रतिक्रमण है ।।३८३।।
बंधेगे जिस भाव से शुभ-अशुभ कर्म भविष्य में ।
उससे निवर्तन जो करे वह जीव है आलोचना ।।३८४।।
शुभ-अशुभ भाव अनेकविध हो रहे सम्प्रति काल में ।
इस दोष का ज्ञाता रहे वह जीव है आलोचना ।।३८५।।
जो करें नित प्रतिक्रमण एवं करें नित आलोचना।
जो करें प्रत्याख्यान नित चारित्र हैं वे आत्मा ।।३८६।।
जो कर्मफल को वेदते निजरूप माने करमफल ।
हैं बाँधते वे जीव दुख के बीज वसुविध करम को ।।३८७।।
जो कर्मफल को वेदते माने करमफल मैं किया।
हैं बाँधते वे जीव दुख के बीज वसुविध करम को ।।३८८।।
जो कर्मफल को वेदते हों सुखी अथवा दुखी हों ।
हैं बाँधते वे जीव दुख के बीज वसुविध करम को ।।३८९।।
शास्त्र ज्ञान नहीं है क्योंकि शास्त्र कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए ही शास्त्र अन्य रू ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।३९०।।
शब्द ज्ञान नहीं है क्योंकि शब्द कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए ही शब्द अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।३९१।।
रूप ज्ञान नहीं है क्योंकि रूप कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए ही रूप अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहे ।।३९२।।
वर्ण ज्ञान नहीं है क्योंकि वर्ण कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए ही वर्ण अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें।।३९३।।
गंध ज्ञान नहीं है क्योंकि गंध कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए ही गंध अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।३९४।।
रस नहीं है ज्ञान क्योंकि कुछ भी रस जाने नहीं।
बस इसलिए ही अन्य रस अरु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।३९५।।
स्पर्श ज्ञान नहीं है क्योंकि स्पर्श कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए स्पर्श अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।३९६।।
कर्म ज्ञान नहीं है क्योंकि कर्म कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए ही कर्म अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।३९७।।
धर्म ज्ञान नहीं है क्योंकि धर्म कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए ही धर्म अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।३९८।।
अधर्म ज्ञान नहीं है क्योंकि अधर्म कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए ही अधर्म अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।३९९।।
काल ज्ञान नहीं है क्योंकि काल कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए ही काल अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें।।४००।।
आकाश ज्ञान नहीं है क्योंकि आकाश कुछ जाने नहीं।
बस इसलिए आकाश अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।४०१।।
अध्यवसान ज्ञान नहीं है क्योंकि वे अचेतन जिन कहे।
इसलिए अध्यवसान अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।।४०२।।
नित्य जाने जीव बस इसलिए ज्ञायकभाव है।
है ज्ञान अव्यतिरिक्त ज्ञायकभाव से यह जानना ।।४०३।।
ज्ञान ही समदृष्टि संयम सूत्र पूर्वगतांग भी।
सद् धर्म अधर्म दीक्षा ज्ञान हैं - यह बुध कहे ।।४०४।।
आहार पुद्गलमयी है बस इसलिए है मूर्तिक ।
ना अहारक इसलिए ही यह अमूर्तिक आतमा।४०५।।
परद्रव्य का जो ग्रहण हो ना त्याग हो इस जीव के।
क्योंकि प्रायोगिक तथा वैस्रसिक स्वयं गुण जीव के।।४०६।।
इसलिए यह शुद्ध आत्मा पर जीव और अजीव से।
कुछ भी ग्रहण करता नहीं कुछ भी नहीं है छोड़ता ।।४०७।।
ग्रहण कर मुनिलिंग या गृहिलिंग विविध प्रकार के।
यह लिंग ही है मुक्तिमग यह कहें कतिपय मूढजन ।।४०८।।
पर मुक्तिमग ना लिंग क्योंकि लिंग तज अरिहंत जैन ।
निज आत्म अरु सद्-ज्ञान-दर्शन-चरित का सेवन करें ।।४०९।।
बस इसलिए गृहिलिंग या मुनिलिंग ना मग मुक्ति का ।
जिनवर कहें बस ज्ञान-दर्शन-चरित ही मग मुक्ति का ।।४१०।।
बस इसलिए अनगार या सागर लिंग को त्यागकर ।
जुड़ जा स्वयं के ज्ञान-दर्शन-चरणमय शिव पंथ में ।।४११।।
मोक्ष पथ में थाप निज को चेतकर निज ध्यान धर । -
निज में ही नित्य विहार कर परद्रव्य में न विहार कर।।४१२।।
ग्रहण कर मुनिलिंग या गृहिलिंग विविध प्रकार के।
उनमें करें ममता न जाने वे समय के सार को ।।४१३।।
व्यवहार से ये लिंग दोनों कहे मुक्तीमार्ग में ।
परमार्थ से तो नहीं कोई लिंग मुक्ति मार्ग में ।।४१४।।
पढ़ समयप्राभृत ग्रंथ यह तत्वार्थ से जो जानकर ।
निज अर्थ में एकाग्र हों वे परमसुख हो प्राप्त हो ।।४१५।।
पंचविंशति पंचदश श्री वीर के निर्वाण दिन ।
पूरा हुआ इस ग्रन्थ का शुभ पद्यमय अनुवाद यह ।।४१६।।

8 Likes