समयसार कलश l Samaysar Kalash (Sanskrit +Arth) with Audio

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आश्रव अधिकार

(द्रुतविलम्बित)
अथ महामदनिर्भरमन्थरं
समररंगपरागतमास्रवम् ।
अयमुदारगभीरमहोदयो
जयति दुर्जयबोधधनुर्धरः ।।११३।।

प्रथम टीकाकार कहते हैं कि — ‘अब आस्रव प्रवेश करता है’ जैसे नृत्यमंच पर नृत्यकार स्वाँग धारण कर प्रवेश करता है उसी प्रकार यहाँ आस्रवका स्वाँग है । उस स्वाँग को यथार्थतया जाननेवाला सम्यग्ज्ञान है; उसकी महिमारूप मंगल करते हैं : —

श्लोकार्थ : — [अथ ] अब [समररंगपरागतम् ] समरांगण में आये हुए,[महामदनिर्भरमन्थरं ] महामद से भरे हुए मदोन्मत्त [आस्रवम् ] आस्रव को [अयम् दुर्जयबोधधनुर्धरः ] यह दुर्जय ज्ञान-धनुर्धर [जयति ] जीत लेता है — [उदारगभीरमहोदयः ] जिसका (ज्ञानरूपी बाणावली का) महान् उदय उदार है (अर्थात् आस्रव को जीतने के लिये जितना पुरुषार्थ चाहिए उतना वह पूरा करता हैै) और गंभीर है (अर्थात् छद्मस्थ जीव जिसका पार नहीं पा सकते) ।

भावार्थ : — यहाँ आस्रव ने नृत्यमंच पर प्रवेश किया है । नृत्य में अनेक रसों का वर्णन होता है, इसलिये यहाँ रसवत् अलंकार के द्वारा शान्त रस में वीर रस को प्रधान करके वर्णन किया है कि ‘ज्ञानरूप धनुर्धर आस्रव को जीतता है’। समस्त विश्व को जीतकर मदोन्मत हुआ आस्रव संग्रामभूमि में आकर खड़ा हो गया; किन्तु ज्ञान तो उससे अधिक बलवान योद्धा है, इसलिये वह आस्रव को जीत लेता है अर्थात् अन्तर्मुहूर्त में कर्मों का नाश करके केवलज्ञान उत्पन्न करता है ज्ञान का ऐसा सामर्थ्य है ।११३।

(शालिनी)
भावो रागद्वेषमोहैर्विना यो
जीवस्य स्याद् ज्ञाननिर्वृत्त एव ।
रुन्धन् सर्वान् द्रव्यकर्मास्रवौघान्
एषोऽभावः सर्वभावास्रवाणाम् ।।११४।।

अब, ‘ज्ञानमय भाव ही भावास्रव का अभाव है’ इस अर्थ का कलशरूप काव्य कहते हैं : —

श्लोकार्थ : — [जीवस्य ] जीव का [यः ] जो [रागद्वेषमोहैः बिना ] राग-द्वेष-मोह रहित, [ज्ञाननिर्वृत्तः एव भावः ] ज्ञान से ही रचित भाव [स्यात् ] है और [सर्वान्द्रव्यकर्मास्रव- ओघान्रुन्धन् ] जो सर्वद्रव्यकर्म के आस्रव-समूह को (-अर्थात् थोकबन्ध द्रव्यकर्म के प्रवाह को) रोकनेवाला है, [एषः सर्व-भावास्रवाणाम् अभावः ] वह (ज्ञानमय) भाव सर्व भावास्रव के अभावस्वरूप है ।

भावार्थ : — मिथ्यात्व रहित भाव ज्ञानमय है । वह ज्ञानमय भाव राग-द्वेष-मोह रहित है और द्रव्यकर्म के प्रवाह को रोकनेवाला है; इसलिये वह भाव ही भावास्रव के अभावस्वरूप है । संसार का कारण मिथ्यात्व ही है; इसलिये मिथ्यात्वसंबंधी रागादि का अभाव होने पर, सर्व भावास्रवों का अभाव हो जाता है- यह यहाँ कहा गया है ।।११४।।

(उपजाति)
भावास्रवाभावमयं प्रपन्नो
द्रव्यास्रवेभ्यः स्वत एव भिन्नः ।
ज्ञानी सदा ज्ञानमयैकभावो
निरास्रवो ज्ञायक एक एव ।।११५।।


श्लोकार्थ : — [भावास्रव-अभावम् प्रपन्नः ] भावास्रवों के अभाव को प्राप्त और [द्रव्यास्रवेभ्यः स्वतः एव भिन्नः ] द्रव्यास्रवों से तो स्वभाव से ही भिन्न [अयं ज्ञानी ] यह ज्ञानी — [सदा ज्ञानमय-एक -भावः ] जो कि सदा एक ज्ञानमय भाववाला है — [निरास्रवः ] निरास्रव ही है, [एक : ज्ञायक : एव ] मात्र एक ज्ञायक ही है।

भावार्थ : - ज्ञानी के राग-द्वेष-मोह स्वरूप भावास्रव का अभाव हुआ है और वह द्रव्यास्रव से तो सदा ही स्वयमेव भिन्न ही है, क्योंकि द्रव्यास्रव पुद्गलपरिणामस्वरूप है और ज्ञानी चैतन्यस्वरूप है । इसप्रकार ज्ञानी के भावास्रव तथा द्रव्यास्रव का अभाव होने से वह निरास्रव ही है।

(शार्दूलविक्रीडित)
संन्यस्यन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं रागं समग्रं स्वयं
वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं स्वशक्तिं स्पृशन्।
उच्छिन्दन्परवृत्तिमेव सकलां ज्ञानस्य पूर्णो भव-
न्नात्मा नित्यनिरास्रवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा।।११६।


श्लोकार्थ : — [आत्मा यदा ज्ञानी स्यात् तदा ] आत्मा जब ज्ञानी होता है तब, [स्वयं ] स्वयं [निजबुद्धिपूर्वम् समग्रं रागं ] अपने समस्त बुद्धिपूर्वक राग को [अनिशं ] निरन्तर [संन्यस्यन् ] छोड़ता हुआ अर्थात् न करता हुआ, [अबुद्धिपूर्वम् ] और जो अबुद्धिपूर्वक राग है [तं अपि ] उसे भी [जेतुं ] जीतने के लिये [वारम्वारम् ] बारम्बार [स्वशक्तिं स्पृशन् ] (ज्ञानानुभवनरूप) स्वशक्ति को स्पर्श करता हुआ और (इसप्रकार) [सकलां परवृत्तिम् एव उच्छिन्दन् ]समस्त परवृत्ति को – परपरिणति को – उखाड़ता हुआ [ज्ञानस्य पूर्णः भवन् ] ज्ञान के पूर्णभावरूप होता हुआ,[हि ] वास्तव में [नित्यनिरास्रवः भवति ] सदा निरास्रव है।

भावार्थ : - ज्ञानी ने समस्त राग को हेय जाना है । वह राग को मिटाने के लिये उद्यम करता है; उसके आस्रवभाव की भावना का अभिप्राय नहीं है; इसलिये वह सदा निरास्रव ही कहलाता है।

परवृत्ति (परपरिणति) दो प्रकार की है — अश्रद्धारूप और अस्थिरतारूप । ज्ञानी ने अश्रद्धारूप परवृत्ति को छोड़ दिया है और वह अस्थिरतारूप परवृत्ति को जीतने के लिये निजशक्ति को बारम्बार स्पर्श करता है अर्थात् परिणति को स्वरूप के प्रति बारम्बार उन्मुख किया करता है । इसप्रकार सकल परवृत्ति को उखाड़ करके केवलज्ञान प्रगट करता है।

‘बुद्धिपूर्वक’ और ‘अबुद्धिपूर्वक’ का अर्थ इसप्रकार है:— जो रागादिपरिणाम इच्छा सहित होते हैं सो बुद्धिपूर्वक हैं और जो इच्छा रहित — परनिमित्त की बलवत्ता से होते हैं सो अबुद्धिपूर्वक हैं । ज्ञानी के जो रागादिपरिणाम होते हैं वे सभी अबुद्धिपूर्वक ही हैं; सविकल्प दशा में होने वाले रागादि परिणाम ज्ञानी को ज्ञात तो हैं तथापि वे अबुद्धिपूर्वक हैं, क्योंकि वे बिना ही इच्छा के होते हैं ।

(पण्डित राजमलजी ने इस कलश की टीका करते हुए ‘बुद्धिपूर्वक’ और ‘अबुद्धिपूर्वक’ का अर्थ इसप्रकार किया है : — जो रागादिपरिणाम मन के द्वारा, बाह्य विषयों का अवलम्बन लेकर प्रवर्तते हुए जीव को स्वयं को ज्ञात होते हैं तथा दूसरों को भी अनुमान से ज्ञात होते हैं वे परिणाम बुद्धिपूर्वक हैं; और जो रागादिपरिणाम इन्द्रिय-मन के व्यापार के अतिरिक्त मात्र मोहोदय के निमित्त से होते हैं तथा जीव को ज्ञात नहीं होते वे अबुद्धिपूर्वक हैं । इन अबुद्धिपूर्वक परिणामों को प्रत्यक्ष ज्ञानीजानता है और उनके अविनाभावी चिह्नों से वे अनुमान से भी ज्ञात होते हैं।)।११६।

(अनुष्टुभ्)
सर्वस्यामेव जीवन्त्यां द्रव्यप्रत्ययसन्ततौ ।
कुतो निरास्रवो ज्ञानी नित्यमेवेति चेन्मतिः।।११७।।

अब शिष्य की आशंका का श्लोक कहते हैं -

श्लोकार्थ : —सर्वस्याम् एव द्रव्यप्रत्ययसंततौ जीवन्त्यां ] ज्ञानी के समस्त द्रव्यास्रव की सन्तति विद्यमान होने पर भी [कुतः ] यह क्यों कहा है कि [ज्ञानी ] ज्ञानी [नित्यम् एव ] सदा ही [निरास्रवः ] निरास्रव है ?’ — [इति चेत् मतिः ] यदि तेरी यह मति (आशंका) है तो अब उसका उत्तर कहा जाता है ।११७।

(मालिनी)
विजहति न हि सत्तां प्रत्ययाः पूर्वबद्धाः
समयमनुसरन्तो यद्यपि द्रव्यरूपाः ।
तदपि सकलरागद्वेषमोहव्युदासा-
दवतरति न जातु ज्ञानिनः कर्मबन्धः।।११८।।


श्लोकार्थ : — [यद्यपि ] यद्यपि [समयम् अनुसरन्तः ] अपने अपने समय का अनुसरण करनेवाला (अपने अपने समय में उदय में आनेवाले) [पूर्वबद्धाः ] पूर्वबद्ध (पहले अज्ञान-अवस्था में बँधे हुवे) [द्रव्यरूपाः प्रत्ययाः ] द्रव्यरूप प्रत्यय [सत्तां ] अपनी सत्ता को [न हि विजहति ] नहीं छोड़ते (वे सत्ता में रहते हैं ), [तदपि ] तथापि [सकलरागद्वेषमोहव्युदासात् ] सर्व राग-द्वेष-मोह का अभाव होने से [ज्ञानिनः ] ज्ञानी के [कर्मबन्धः] कर्मबन्ध [जातु ] कदापि [अवतरति न ] अवतार नहीं धरता — उत्पन्न ही नहीं होता।

भावार्थ :-ज्ञानी के भी पहले अज्ञान-अवस्था में बाँधे हुए द्रव्यास्रव सत्ता अवस्था में विद्यमान हैं और वे अपने उदयकाल में उदय में आते रहते हैं । किन्तु वे द्रव्यास्रव ज्ञानी के कर्मबन्ध के कारण नहीं होते, क्योंकि ज्ञानी के समस्त राग-द्वेष-मोह भावों का अभाव है । यहाँ समस्त राग-द्वेष-मोह का अभाव बुद्धिपूर्वक रागद्वेषमोह की अपेक्षा से समझना चाहिये।११८।

(अनुष्टुभ्)
रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो यदसम्भवः ।
तत एव न बन्धोऽस्य ते हि बन्धस्य कारणम्।।११९।।


श्लोकार्थ : — [यत् ] क्योंकि [ज्ञानिनः रागद्वेषविमोहानां असम्भवः ] ज्ञानीयों के राग द्वेष मोह का असम्भव है, [ततः एव ] इसलिये [अस्य बन्धः न ] उसको बन्ध नहीं है; [हि ] कारण कि [ते बन्धस्य कारणम् ] वे (राग-द्वेष-मोह) ही बंधका कारण है।११९।

(वसन्ततिलका)
अध्यास्य शुद्धनयमुद्धतबोधचिह्न-
मैकाग्य्रमेव कलयन्ति सदैव ये ते ।
रागादिमुक्तमनसः सततं भवन्तः
पश्यन्ति बन्धविधुरं समयस्य सारम्।।१२०।।

अब, ज्ञानी को बन्ध नहीं होता यह शुद्धनय का माहात्म्य है, इसलिये शुद्धनय की महिमा दर्शक काव्य कहते हैं : —

श्लोकार्थ : — [उद्धतबोधचिह्नम् शुद्धनयम् अध्यास्य ] उद्धत ज्ञान ( – जो कि किसी के दबाये नहीं दब सकता ऐसा उन्नत ज्ञान) जिसका लक्षण है ऐसे शुद्धनय में रहकर अर्थात् शुद्धनय का आश्रय लेकर [ये ] जो [सदा एव ] सदा ही [ऐकाग्रयम् एव ] एकाग्रता का ही [क लयन्ति ] अभ्यास करते हैं [ते ] वे, [सततं ] निरन्तर [रागादिमुक्तमनसः भवन्तः ] रागादि से रहित चित्तवाले वर्तते हुए, [बन्धविधुरं समयस्य सारम् ] बंधरहित समय के सार को (अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को) [पश्यन्ति ] देखते हैं — अनुभव करते हैं।

भावार्थ : — यहाँ शुद्धनय के द्वारा एकाग्रता का अभ्यास करने को कहा है । ‘मैं केवलज्ञानस्वरूप हूँ, शुद्ध हूँ’ — ऐसा जो आत्मद्रव्य का परिणमन वह शुद्धनय । ऐसे परिणमन के कारणवृत्ति ज्ञान की ओर उन्मुख होती रहे और स्थिरता बढ़ती जाये सो एकाग्रता का अभ्यास है।
शुद्धनय श्रुतज्ञान का अंश है और श्रुतज्ञान तो परोक्ष है, इसलिये इस अपेक्षा से शुद्धनय के द्वारा होनेवाला शुद्ध स्वरूप का अनुभव भी परोक्ष है । और वह अनुभव एकदेश शुद्ध है इस अपेक्षा से उसे व्यवहार से प्रत्यक्ष भी कहा जाता है । साक्षात् शुद्धनय तो केवलज्ञान होने पर होता है ।१२०।

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(वसन्ततिलका)
प्रच्युत्य शुद्धनयतः पुनरेव ये तु
रागादियोगमुपयान्ति विमुक्तबोधाः ।
ते कर्मबन्धमिह बिभ्रति पूर्वबद्ध-
द्रव्यास्रवैः कृतविचित्रविकल्पजालम् ।।१२१।।

अब यह कहते हैं कि जो शुद्धनय से च्युत होते हैं वे कर्म बांधते हैं : —

श्लोकार्थ : — [इह ] जगत् में [ये ] जो [शुद्धनयतः प्रच्युत्य ] शुद्धनय से च्युत होकर [पुनः एव तु ] पुनः [रागादियोगम्] रागादि के सम्बन्ध को [उपयान्ति ] प्राप्त होते हैं [ते ] ऐसे जीव, [विमुक्तबोधाः ] जिन्होंने ज्ञान को छोड़ा है ऐसे होते हुए, [पूर्वबद्धद्रव्यास्रवैः ] पूर्वबद्ध द्रव्यास्रवों के द्वारा [कर्मबन्धम् ] कर्मबंध को [विभ्रति ] धारण करते हैं (कर्मों को बाँधते हैं) — [कृत-विचित्र-विकल्प-जालम् ] जो कि कर्मबन्ध अनेक प्रकार के विकल्पजाल को करता है (अर्थात् जो कर्मबन्ध अनेक प्रकार का है)।

भावार्थ : — शुद्धनय से च्युत होना अर्थात् ‘मैं शुद्ध हूँ’ ऐसे परिणमन से छूटकर अशुद्धरूप परिणमित होना अर्थात् मिथ्यादृष्टि हो जाना । ऐसा होने पर, जीव के मिथ्यात्व सम्बन्धी रागादिक उत्पन्न होते हैं, जिससे द्रव्यास्रव कर्मबन्ध के कारण होते हैं और इसलिये अनेक प्रकार के कर्म बंधते हैं । इसप्रकार यहाँ शुद्धनय से च्युत होने का अर्थ शुद्धता की प्रतीति से (सम्यक्त्व से) च्युत होना समझना चाहिए । यहाँ उपयोग की अपेक्षा गौण है,शुद्धनय से च्युत होना अर्थात् शुद्ध उपयोग से च्युत होना ऐसा अर्थ यहाँ मुख्य नहीं है; क्योंकि शुद्धोपयोगरूप रहने का समय अल्प रहता है, इसलिये मात्र अल्पकाल शुद्धोपयोगरूप रहकर और फिर उससे छूटकर ज्ञान अन्य ज्ञेयों में उपयुक्त हो तो भी मिथ्यात्व के बिना जो राग का अंश है वह अभिप्राय पूर्वक नहीं है, इसलिये ज्ञानी के मात्र अल्पबन्ध होता है और अल्पबन्ध संसार का कारण नहीं है । इसलिये यहाँ उपयोग की अपेक्षा मुख्य नहीं है ।

अब यदि उपयोग की अपेक्षा ली जाये तो इसप्रकार अर्थ घटित होता है : —

यदि जीव शुद्धस्वरूप के निर्विकल्प अनुभव से छूटे, परन्तु सम्यक्त्व से न छूटे तो उसे चारित्रमोह के राग से कुछ बन्ध होता है । यद्यपि वह बन्ध अज्ञान के पक्ष में नहीं है तथापि वह बन्ध तो है ही । इसलिये उसे मिटाने के लिये सम्यदृष्टि ज्ञानी को शुद्धनय से न छूटने का अर्थात् शुद्धोपयोग में लीन रहने का उपदेश है । केवलज्ञान होने पर साक्षात् शुद्धनय होता है ।१२१।

(अनुष्टुभ्)
इदमेवात्र तात्पर्यं हेयः शुद्धनयो न हि ।
नास्ति बन्धस्तदत्यागात्तत्त्यागाद्बन्ध एव हि ।।१२२।।


श्लोकार्थ : — [अत्र ] यहाँ [इदम् एव तात्पर्यं ] यही तात्पर्य है कि [शुद्धनयः न हिहेयः ] शुद्धनय त्याग ने योग्य नहीं है; [हि ] क्योंकि [तत्-अत्यागात् बन्धः नास्ति ] उसके अत्याग से (कर्म का) बन्ध नहीं होता और [तत्-त्यागात् बन्धः एव ] उसके त्याग से बन्ध ही होता है ।१२२।

(शार्दूलविक्रीडित)
धीरोदारमहिम्न्यनादिनिधने बोधे निबध्नन्धृतिं
त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वंकषः कर्मणाम्।
तत्रस्थाः स्वमरीचिचक्रमचिरात्संहृत्य निर्यद्बहिः
पूर्ण ज्ञानघनौघमेकमचलं पश्यन्ति शान्तं महः ।।१२३।।

‘शुद्धनय त्याग करने योग्य नहीं है’ इस अर्थ को दृढ करनेवाला काव्य पुनः कहते हैं : —

श्लोकार्थ : — [धीर-उदार-महिम्नि अनादिनिधने बोधे धृतिं निबध्नन् शुद्धनयः ] धीर(चलाचलता रहित) और उदार (सर्व पदार्थों में विस्तार युक्त) जिसकी महिमा है ऐसे अनादिनिधन ज्ञान में स्थिरता को बाँधता हुआ (अर्थात् ज्ञान में परिणति को स्थिर रखता हुआ) शुद्धनय — [कर्मणाम् सर्वंकषः ] जो कि कर्मों का समूल नाश करनेवाला है — [कृतिभिः ] पवित्र धर्मात्मा (सम्यग्दृष्टि) पुरुषों के द्वारा [जातु ] कभी भी [न त्याज्यः ] छोड़ने योग्य नहीं है । [तत्रस्थाः ]शुद्धनय में स्थित वे पुरुष, [बहिः निर्यत् स्व-मरीचि-चक्रम् अचिरात् संहृत्य ] बाहार निकलती हुई अपनी ज्ञान किरणों के समूह को (अर्थात् कर्म के निमित्त से परोन्मुख जानेवाली ज्ञान की विशेष व्यक्तियों को) अल्पकाल में ही समेटकर, [पूर्णं ज्ञान-घन-ओघम् एकम् अचलं शान्तं महः ] पूर्ण, ज्ञानघन के पुञ्जरूप, एक , अचल, शान्त तेज को – तेजः पुंज को – [पश्यन्ति ] देखते हैं अर्थात् अनुभव करते हैं।

भावार्थ : — शुद्धनय, ज्ञान के समस्त विशेषों को गौण करके तथा परनिमित्त से होने वाले समस्त भावों को गौण करके, आत्मा को शुद्ध, नित्य, अभेदरूप, एक चैतन्यमात्र ग्रहण करता है और इसलिये परिणति शुद्धनय के विषय स्वरूप चैतन्यमात्र शुद्ध आत्मा में एकाग्र – स्थिर – होती जाती है ।इसप्रकार शुद्धनय का आश्रय लेनेवाले जीव बाहर निकलती हुई ज्ञान की विशेष व्यक्तताओं को अल्पकाल में ही समेटकर, शुद्धनय में (आत्मा की शुद्धता के अनुभव में) निर्विकल्पतया स्थिर होने पर अपने आत्मा को सर्व कर्मों से भिन्न, केवल ज्ञानस्वरूप, अमूर्तिक पुरुषाकार, वीतराग ज्ञानमूर्तिस्वरूप देखते हैं और शुक्लध्यान में प्रवृत्ति करके अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्रगट करते हैं । शुद्धनय का ऐसा माहात्म्य है । इसलिये श्री गुरुओं का यह उपदेश है कि जब तक शुद्धनय के अवलम्बन से केवलज्ञान उत्पन्न न हो तबतक सम्यग्दृष्टि जीवों को शुद्धनय का त्याग नहीं करना चाहिये । १२३।

(मन्दाक्रान्ता)
रागादीनां झगिति विगमात्सर्वतोऽप्यास्रवाणां
नित्योद्योतं किमपि परमं वस्तु सम्पश्यतोऽन्तः ।
स्फारस्फारैः स्वरसविसरैः प्लावयत्सर्वभावा-
नालोकान्तादचलमतुलं ज्ञानमुन्मग्नमेतत् ।।१२४।।

अब, आस्रवों का सर्वथा नाश करने से जो ज्ञान प्रगट हुआ उस ज्ञान की महिमा का सूचककाव्य कहते हैं : —

श्लोकार्थ : — [नित्य-उद्योतं ] जिसका उद्योत (प्रकाश) नित्य है ऐसी [किम् अपि परमं वस्तु ] किसी परम वस्तु को [अन्तः सम्पश्यतः ] अन्तरंग में देखने वाले पुरुष को, [रागादीनां आस्रवाणां ] रागादि आस्रवों का [झगिति ] शीघ्र ही [सर्वतः अपि ] सर्व प्रकार [ विगमात् ] नाश होने से, [एतत् ज्ञानम् ] यह ज्ञान [ उन्मग्नम् ] प्रगट हुआ — [स्फारस्फारैः ] कि जो ज्ञान अत्यन्तात्यन्त (–अनन्तानन्त) विस्तार को प्राप्त [स्वरसविसरैः ] निजरस के प्रसार से [आ -लोक- अन्तात् ] लोक के अन्त तक के [सर्वभावान् ] सर्व भावों को [प्लावयत् ] व्याप्त कर देता है अर्थात् सर्व पदार्थों को जानता है, [अचलम् ] वह ज्ञान प्रगट हुआ तभी से सदाकाल अचल है अर्थात् प्रगट होने के पश्चात् सदा ज्यों का त्यों ही बना रहता है — चलायमान नहीं होता, और [अतुलं ] वह ज्ञान अतुल है अर्थात् उसके समान दूसरा कोई नहीं है ।

भावार्थ : — जो पुरुष अंतरंग में चैतन्यमात्र परम वस्तु को देखता है और शुद्धनय के आलम्बन द्वारा उसमें एकाग्र होता जाता है उस पुरुष को, तत्काल सर्व रागादिक आस्रवभावों का सर्वथा अभाव होकर, सर्व अतीत, अनागत और वर्तमान पदार्थों को जानने वाला निश्चल, अतुल केवलज्ञान प्रगट होता है । वह ज्ञान सबसे महान है। उसके समान दूसरा कोई नहीं है।१२४।

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६. संवर अधिकार :arrow_up:
कलश 125-130
कलश 131-132

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(शार्दूलविक्रीडित)
आसंसारविरोधिसंवरजयैकान्तावलिप्तास्रव-
न्यक्कारात्प्रतिलब्धनित्यविजयं सम्पादयत्संवरम् ।
व्यावृत्तं पररूपतो नियमितं सम्यक्स्वरूपे स्फुर-
ज्ज्योतिश्चिन्मयमुज्ज्वलं निजरसप्राग्भारमुज्जृम्भते।१२५।


यहाँ पहले टीकाकार आचार्यदेव सर्व स्वाँग को जानने वाले सम्यग्ज्ञान की महिमा दर्शक मंगलाचरण करते हैं : —

श्लोकार्थ: - [आसंसार-विरोधि-संवर-जय-एकान्त- अवलिप्त-आस्रव-न्यक्कारात् ]अनादि संसार से लेकर अपने विरोधी संवर को जीतने से जो एकान्त-गर्वित (अत्यन्त अहंकारयुक्त)हुआ है ऐसे आस्रव का तिरस्कार करने से [प्रतिलब्ध-नित्य-विजयं संवरम् ] जिसनेे सदा विजय प्राप्त की है ऐसे संवरको [सम्पादयत् ] उत्पन्न क रती हुई, [पररूपतः व्यावृत्तं ] पररूपसे भिन्न(अर्थात् परद्रव्य और परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले भावों से भिन्न), [सम्यक्-स्वरूपे नियमितं स्फुरत् ] अपने सम्यक् स्वरूप में निश्चलता से प्रकाश करती हुई, [चिन्मयम् ] चिन्मय, [उज्ज्वलं ]उज्ज्वल ( – निराबाध, निर्मल, दैदीप्यमान) और [निज-रस-प्राग्भारम् ] निज रस के (अपने चैतन्यरस के) भारसे युक्त –अतिशयता से युक्त [ज्योतिः ] ज्योति [उज्जृम्भते ] प्रगट होती है, प्रसारित होती है।
भावार्थ : - अनादि काल से जो आस्रवका विरोधी है ऐसे संवरको जीतकर आस्रव मद से गर्वित हुआ है । उस आस्रव का तिरस्कार करके उस पर जिसने सदा के लिये विजय प्राप्त की है ऐसे संवरको उत्पन्न करता हुआ, समस्त पररूपसे भिन्न और अपने स्वरूप में निश्चल यह चैतन्यप्रकाश निजरसकी अतिशयतापूर्वक निर्मलतासे उदय को प्राप्त हुआ है ।१२५।

(शार्दूलविक्रीडित)
चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतोः कृत्वा विभागं द्वयो-
रन्तर्दारुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च ।
भेदज्ञानमुदेति निर्मलमिदं मोदध्वमध्यासिताः
शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युताः ।।१२६।।


श्लोकार्थ : — [चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतोः ज्ञानस्य रागस्य च ] चिद्रूपता को धारण करने वाला ज्ञान और जड़रूपता को धारण करनेवाला राग — [द्वयोः ] दोनों का, [अन्तः ] अन्तरंग में[दारुणदारणेन ] दारुण विदारणके द्वारा (भेद करनेवाला उग्र अभ्यास के द्वारा), [परितः विभागं कृत्वा ] सभी ओर से विभाग करके ( — सम्पूर्णतया दोनों को अलग करके — ), [इदं निर्मलम्भेदज्ञानम् उदेति ] यह निर्मल भेदज्ञान उदय को प्राप्त हुआ है; [अधुना ] इसलिये अब [एकम् शुद्ध-ज्ञानघन-ओघम् अध्यासिताः ] एक शुद्धविज्ञानघन के पुञ्ज में स्थित और द्वितीय-च्युताः] अन्य से अर्थात् राग से रहित [सन्तः ] हे सत्पुरुषों! [मोदध्वम्] मुदित होओ ।
भावार्थ : — ज्ञान तो चेतनास्वरूप है और रागादिक पुद्गलविकार होने से जड़ हैं; किन्तु अज्ञान से ऐसा भासित होता है कि मानों ज्ञान भी रागादिरूप हो गया हो, अर्थात् ज्ञान और रागादिक दोनों एकरूप – जड़रूप – भासित होते हैं । जब अंतरंगमें ज्ञान और रागादिका भेद करनेका तीव्र अभ्यास करने से भेदज्ञान प्रगट होता है तब यह ज्ञात होता है कि ज्ञानका स्वभाव तो मात्र जानने का ही है, ज्ञान में जो रागादि की कलुषता – आकुलतारूप सङ्कल्प-विकल्प भासित होते हैं वे सबपुद्गलविकार हैं, जड़ हैं । इसप्रकार ज्ञान और रागादिके भेद का स्वाद आता है अर्थात् अनुभव होता है । जब ऐसा भेदज्ञान होता है तब आत्मा आनन्दित होता है, क्योंकि उसे ज्ञात है कि ‘‘स्वयं सदा ज्ञानस्वरूप ही रहा है, रागादिरूप कभी नहीं हुआ’’ । इसलिये आचार्यदेवने कहा है कि ‘‘हे सत्पुरुषों ! अब मुदित होओ"।१२६।

(मालिनी)
यदि कथमपि धारावाहिना बोधनेन
ध्रुवमुपलभमानः शुद्धमात्मानमास्ते ।
तदयमुदयदात्माराममात्मानमात्मा
परपरिणतिरोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति ।।१२७।।


श्लोकार्थ : — [यदि ] यदिे [कथम् अपि ] किसी भी प्रकारसे (तीव्र पुरुषार्थ करके)[धारावाहिना बोधनेन ] धारावाही ज्ञान से [शुद्धम् आत्मानम् ] शुद्ध आत्मा को [ध्रुवम् उपलभमानः आस्ते ] निश्चलतया अनुभव किया करे [तत् ] तो [अयम् आत्मा ] यह आत्मा, [उदयत्-आत्म- आरामम् आत्मानम् ] जिसका आत्मानंद प्रगट होता जाता है (अर्थात् जिसकी आत्मस्थिरता बढ़ती जाती है) ऐसे आत्माको [पर-परिणति-रोधात् ] परपरिणतिके निरोध से [शुद्धम् एव अभ्युपैति ] शुद्ध ही प्राप्त करता है ।
भावार्थ : — धारावाही ज्ञान के द्वारा शुद्ध आत्मा का अनुभव करने से रागद्वेषमोहरूप परपरिणति का (भावास्रवों का) निरोध होता है और उससे शुद्ध आत्मा की प्राप्ति होती है ।धारावाही ज्ञान का अर्थ है प्रवाहरूपज्ञान – अखण्ड रहने वाला ज्ञान । वह दो प्रकार से कहा जाता है :— एक तो, जिसमें बीच में मिथ्याज्ञान न आये ऐसा सम्यग्ज्ञान धारावाही ज्ञान है । दूसरा,एक ही ज्ञेय मे उपयोग के उपयुक्त रहने की अपेक्षा से ज्ञान की धारावाहिकता कही जाती है, अर्थात् जहाँ तक उपयोग एक ज्ञेयमें उपयुक्त रहता है वहाँ तक धारावाही ज्ञान कहलाता है; इसकी स्थिति (छद्मस्थ के)अन्तर्मुहूर्त ही है, तत्पश्चात् वह खण्डित होती है । इन दो अर्थ में से जहाँ जैसी विवक्षा हो वहाँ वैसा अर्थ समझना चाहिये । अविरतसम्यग्दृष्टि इत्यादि नीचेके गुणस्थानवाले जीवोंकेमुख्यतया पहली अपेक्षा लागू होगी; और श्रेणी चढ़ने वाले जीव के मुख्यतया दूसरी अपेक्षा लागू होगी, क्योंकि उसका उपयोग शुद्ध आत्मा में ही उपयुक्त है ।१२७।

(मालिनी)
निजमहिमरतानां भेदविज्ञानशक्त्या
भवति नियतमेषां शुद्धतत्त्वोपलम्भः ।
अचलितमखिलान्यद्रव्यदूरेस्थितानां
भवति सति च तस्मिन्नक्षयः कर्ममोक्षः ।।१२८।।


श्लोकार्थ : — [भेदविज्ञानशक्त्या निजमहिमरतानां एषां ] जो भेदविज्ञान की शक्ति के द्वारा निज (स्वरूप की) महिमा में लीन रहते हैं उन्हें [नियतम् ] नियम से[शुद्धतत्त्वोपलम्भः] शुद्ध तत्त्व की उपलब्धि [भवति ] होती है; [तस्मिन् सति च] शुद्ध तत्त्वकी उपलब्धि होने पर, [अचलितम् अखिल - अन्यद्रव्य-दूरे-स्थितानां ]अचलितरूप से समस्त अन्यद्रव्यों से दूर वर्तते हुए ऐसे उनके, [अक्षयः कर्ममोक्षः भवति ] अक्षय कर्ममोक्ष होता है (अर्थात् उनका कर्मों से छुटकारा हो जाता है कि पुनः कभी कर्मबन्ध नहीं होता) ।१२८।

(उपजाति)
सम्पद्यते संवर एष साक्षा-
च्छुद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलम्भात्।
स भेदविज्ञानत एव तस्मात्
तद्भेदविज्ञानमतीव भाव्यम् ।।१२९।।


श्लोकार्थ : — [एषः साक्षात् संवरः ] यह साक्षात् (सर्व प्रकार से) संवर [किल वास्तव में [शुद्ध- आत्म- तत्त्वस्यउपलम्भात् ] शुद्ध आत्मतत्त्वकी उपलब्धि से [सम्पद्यते ] होता है; और [सः ]वह शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि [भेदविज्ञानतः एव ] भेदविज्ञान से ही होती है । [तस्मात् ] इसलिये[तत् भेदविज्ञानम्] वह भेदविज्ञान [अतीव ] अत्यंत [भाव्यम् ] भाने योग्य है ।
भावार्थ : — जब जीवको भेदविज्ञान होता है अर्थात् जब जीव आत्मा और कर्म को यथार्थतया भिन्न जानता है तब वह शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है, शुद्ध आत्मा के अनुभव से आस्रवभाव रुकता है और अनुक्रम से सर्व प्रकार से संवर होता है । इसलिये भेदविज्ञान को अत्यन्तभाने का उपदेश किया है ।१२९।

(अनुष्टुभ्)
भावयेद्भेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया ।
तावद्यावत्पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते ।।१३०।।

अब काव्य द्वारा यह बतलाते हैं कि भेदविज्ञान कहाँ तक भाना चाहिये ।

श्लोकार्थ : — [इदम् भेदविज्ञानम् ] यह भेदविज्ञान [अच्छिन्न-धारया ] अच्छिन्न-धारासे(जिसमें विच्छेद न पडे़ ऐसे अखण्ड प्रवाहरूप से) [तावत् ] तब तक [भावयेत् ] भाना चाहिये [यावत् ] जब तक [परात् च्युत्वा ] परभावों से छूटकर [ज्ञानं ] ज्ञान [ज्ञाने ] ज्ञान में ही (अपने स्वरूप में ही) [प्रतिष्ठते ] स्थिर हो जाये ।
भावार्थ : — यहाँ ज्ञान का ज्ञान में स्थिर होना दो प्रकार से जानना चाहिये । एक तो, मिथ्यात्व का अभाव होकर सम्यग्ज्ञान हो और फिर मिथ्यात्व न आये तब ज्ञान ज्ञान में स्थिर हुआ कहलाता है; दूसरे, जब ज्ञान शुद्धोपयोगरूप से स्थिर हो जाये और फिर अन्यविकाररूप परिणमित न हो तब वह ज्ञान में स्थिर हुआ कहलाता है । जब तक ज्ञान दोनों प्रकार से ज्ञान में स्थिर न होजाये तब तक भेदविज्ञान को भाते रहना चाहिये ।१३०।
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(अनुष्टुभ्)
भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन ।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ।।१३१।।


अब पुनः भेदविज्ञान की महिमा बतलाते हैं :-

श्लोकार्थ : — [ये केचन किल सिद्धाः ] जो कोई सिद्ध हुए हैं [भेदविज्ञानतः सिद्धाः ]वे भेदविज्ञान से सिद्ध हुए हैं; और [ये केचन किल बद्धाः ] जो कोई बँधे हैं [अस्य एव अभावतः बद्धाः ] वे उसी के ( – भेदविज्ञान के ही) अभाव से बँधे हैं ।

भावार्थ : — अनादिकाल से लेकर जब तक जीव को भेदविज्ञान नहीं हो तब तक वहकर्मसे बँधता ही रहता है — संसार में परिभ्रमण ही करता रहता है; जिस जीव को भेदविज्ञान होता है वह कर्मोंसे छूट जाता है — मोक्षको प्राप्त कर ही लेता है । इसलिये कर्मबन्ध का – संसार का – मूल भेदविज्ञान का अभाव ही है और मोक्षका प्रथम कारण भेदविज्ञान ही है । भेदविज्ञान के बिना कोई सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता ।यहाँ ऐसा भी समझना चाहिये कि — विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध और वेदान्ती जो कि वस्तु को अद्वैत कहते हैं और अद्वैत के अनुभव से ही सिद्धि कहते हैं उनका, भेदविज्ञान से ही सिद्धि कहने से,निषेध हो गया; क्योंकि वस्तु का स्वरूप सर्वथा अद्वैत न होने पर भी जो सर्वथा अद्वैत मानते हैं उनके किसी भी प्रकार से भेदविज्ञान कहा ही नहीं जा सकता; जहाँ द्वैत (दो वस्तुएँ) ही नहीं मानते वहाँ भेदविज्ञान कैसा ? यदि जीव और अजीव — दो वस्तुएँ मानी जाये और उनका संयोग मानाजाये तभी भेदविज्ञान हो सकता है, और सिद्धि हो सकती है । इसलिये स्याद्वादियों को ही सब कुछ निर्बाधतया सिद्ध होता है ।१३१।

(मन्दाक्रान्ता)
भेदज्ञानोच्छलनकलनाच्छुद्धतत्त्वोपलम्भा–
द्रागग्रामप्रलयकरणात्कर्मणां संवरेण ।
बिभ्रत्तोषं परमममलालोकमम्लानमेकं
ज्ञानं ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत् ।।१३२।।

अब, संवर अधिकार पूर्ण करते हुए, संवर होनेसे जो ज्ञान हुआ उस ज्ञानकी महिमाकाकाव्य कहते हैं : —

श्लोकार्थ : — [भेदज्ञान-उच्छलन-क लनात् ] भेदज्ञान प्रगट करने के अभ्यास से [शुद्धतत्त्वउपलम्भात्] शुद्ध तत्त्व की उपलब्धि हुई, शुद्ध तत्त्व की उपलब्धि से [रागग्रामप्रलयकरणात् ] राग-समूह का विलय हुआ, राग-समूह के विलय करने से [कर्मणां संवरेण ] कर्मों का संवर हुआ और कर्मों का संवर होने से, [ज्ञाने नियतम् एतत् ज्ञानं उदितं ] ज्ञान में ही निश्चल हुआ ऐसा यह ज्ञान उदय को प्राप्त हुआ — [बिभ्रत् परमम् तोषं ] कि जो ज्ञान परमसंतोष को (परम अतीन्द्रिय आनंदको) धारण करता है, [अमल-आलोकम् ] जिसका प्रकाश निर्मल है (अर्थात् रागादिक के कारण मलिनता थी वह अब नहीं है), [अम्लानम् ] जो अम्लान है (अर्थात् क्षायोपशमिक ज्ञानकी भाँति कुम्हलाया हुआ – निर्बल नहीं है, सर्व लोकालोक के जाननेवाला है), [एकं ] जो एक है (अर्थात् क्षयोपशम से जो भेद थे वह अब नहीं है) और [शाश्वत-उद्योतम् ] जिसका उद्योेत शाश्वत है (अर्थात् जिसका प्रकाश अविनश्वर है)।१३२।

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७. निर्जरा अधिकार :arrow_up:
कलश 133-140
कलश 141-150
कलश 151-160
कलश 161-162

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निर्जरा अधिकार

(शार्दूलविक्रीडित)
रागाद्यास्रवरोधतो निजधुरां धृत्वा परः संवरः
कर्मागामि समस्तमेव भरतो दूरान्निरुन्धन् स्थितः ।
प्राग्बद्धं तु तदेव दग्धुमधुना व्याजृम्भते निर्जरा
ज्ञानज्योतिरपावृतं न हि यतो रागादिभिर्मूर्छति।।१३३।।


अब, सर्व स्वाँगको यथार्थ जाननेवाले सम्यग्ज्ञानको मंगलरूप जानकर आचार्यदेव मंगलकेलिये प्रथम उसी को — निर्मल ज्ञानज्योति को ही प्रगट करते हैं : —

श्लोकार्थ : — [परः संवरः ] परम संवर, [रागादि-आस्रव-रोधतः ] रागादि आस्रवोंकोरोकनेसे [निज-धुरां धृत्वा ] अपनी कार्य-धुरा को धारण करके ( – अपने कार्य को यथार्थतया सँभालकर), [समस्तम् आगामि कर्म ] समस्त आगामी कर्म को [भरतः दूरात् एव ] अत्यंततया दूर से ही [निरुन्धन् स्थितः ] रोकता हुआ खड़ा है; [तु ] और [प्राग्बद्धं ] पूर्वबद्ध (संवर होने के पहेले बँधे हुए) [तत् एव दग्धुम् ] कर्मको जलाने के लिये [अधुना ] अब [निर्जरा व्याजृम्भते ]निर्जरा ( – निर्जरारूप अग्नि – ) फै ल रही है [यतः ] जिससे [ज्ञानज्योतिः ] ज्ञानज्योति [अपावृतं] निरावरण होती हुई (पुनः) [रागादिभिः न हि मूर्छति ] रागादिभावों के द्वारा मूर्छित नहीं होती — सदा अमूर्छित रहती है।

भावार्थ :- संवर होने के बाद नवीन कर्म तो नहीं बंधते । और जो कर्म पहले बँधे हुये थे उनकी जब निर्जरा होती है तब ज्ञान का आवरण दूर होने से वह (ज्ञान) ऐसा हो जाता है कि पुनः रागादिरूप परिणमित नहीं होता — सदा प्रकाशरूप ही रहता है ।१३३।

(अनुष्टुभ्)
तज्ज्ञानस्यैव सामर्थ्यं विरागस्यैव वा किल ।
यत्कोऽपि कर्मभिः कर्म भूञ्जानोऽपि न बध्यते।१३४।।


आगामी गाथाओं की सूचनाके रूपमें श्लोक कहते हैं : —

श्लोकार्थ : — [किल ] वास्तव में [तत् सामर्थ्यं ] वह (आश्चर्यकारक ) सामर्थ्य [ज्ञानस्यएव ] ज्ञान का ही है [वा ] अथवा [विरागस्य एव ] विराग का ही है [यत् ] कि [कः अपि ] कोई (सम्यग्दृष्टि जीव) [कर्म भुञ्जानः अपि ] कर्म को भोगता हुआ भी [कर्मभिः न बध्यते ]कर्मोंसे नहीं बन्धता ! (वह अज्ञानी को आश्चर्य उत्पन्न करता है और ज्ञानी उसे यथार्थ जानता है।)।१३४।

(रथोद्धता)
नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत्
स्वं फ लं विषयसेवनस्य ना ।
ज्ञानवैभवविरागताबलात्
सेवकोऽपि तदसावसेवकः।।१३५।।


श्लोकार्थ : —[यत् ] क्योंकि [ना ] यह (ज्ञानी) पुरुष [विषयसेवने अपि ] विषय सेवन करता हुआ भी [ज्ञानवैभव-विरागता-बलात् ] ज्ञानवैभव के और विरागता के बल से [विषयसेवनस्य स्वं फलं ] विषयसेवन के निज फल को ( – रंजित परिणामको) [न अश्नुते ] नहीं भोगता — प्राप्त नहीं होता, [तत् ] इसलिये [असौ ] यह (पुरुष) [सेवकः अपि असेवकः ] सेवक होने पर भी असेवक है (अर्थात् विषयों का सेवन करता हुआ भी सेवन नहीं करता) ।भावार्थ : — ज्ञान और विरागता का ऐसा कोई अचिंत्य सामर्थ्य है कि ज्ञानी इन्द्रियों के विषयों का सेवन करता हुआ भी उनका सेवन करनेवाला नहीं कहा जा सकता, क्योंकि विषयसेवन का फल तो रंजित परिणाम है उसे ज्ञानी नहीं भोगता — प्राप्त नहीं करता ।।१३५।।

(मन्दाक्रान्ता)
सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्ति :
स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या ।
यस्माज्ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च
स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात् ।।१३६।।

श्लोकार्थ : — [सम्यग्दृष्टेः नियतं ज्ञान-वैराग्य-शक्तिः भवति ] सम्यग्दृष्टि के नियम से ज्ञान और वैराग्य की शक्ति होती है; [यस्मात् ] क्योंकि [अयं ] वह (सम्यग्दृष्टि जीव) [स्व-अन्य-रूप-आप्ति-मुक्त्या ] स्वरूप का ग्रहण और पर का त्याग करने की विधि के द्वारा [स्वं वस्तुत्वं कलयितुम् ] अपने वस्तुत्व का (यथार्थ स्वरूप का) अभ्यास करने के लिये, [इदं स्वं च परं ] ‘यह स्व है (अर्थात् आत्मस्वरूप है) और यह पर है’ [व्यतिकरम् ]इस भेद को [तत्त्वतः ] परमार्थसे [ज्ञात्वा ] जानकर [स्वस्मिन् आस्ते ] स्वमें स्थिर होता है और [परात् रागयोगात् ] पर से — राग के योग से — [सर्वतः ] सर्वतः [विरमति ] विरमता है । (यहरीति ज्ञानवैराग्यकी शक्ति के बिना नहीं हो सकती ।) ।१३६।

(मन्दाक्रान्ता)
सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बन्धो न मे स्या-
दित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु।
आलम्बन्तां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा
आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः।।१३७।।

श्लोकार्थ : — ‘‘[अयम् अहं स्वयम् सम्यग्दृष्टिः, मे जातुः बन्धः न स्यात् ] ‘‘यहमैं स्वयं सम्यग्दृष्टि हूँ, मुझे कभी बन्ध नहीं होता (क्योंकि शास्त्रमें सम्यग्दृष्टिको बन्ध नहीं कहा है)’’ [इति ] ऐसा मानकर [उत्तान-उत्पुलक-वदनाः] जिसका मुख गर्व से ऊँचा और पुलकित हो रहा है ऐसे [रागिणः ] रागी जीव ( – परद्रव्यके प्रति रागद्वेषमोहभाव वालेजीव – ) [अपि ] भले ही [आचरन्तु ] महाव्रताादिका आचरण करें तथा [समितिपरतांआलम्बन्तां ] समितियोंक ी उत्कृष्टताका आलम्बन करें [अद्य अपि ] तथापि [ते पापाः ] वे पापी (मिथ्यादृष्टि) ही हैं, [यतः ] क्योंकि वे [आत्म-अनात्म-अवगम-विरहात् ] आत्मा और अनात्मा के ज्ञानसे रहित होनेसे [सम्यक्त्व-रिक्ताः सन्ति ] सम्यक्त्व से रहित है ।

भावार्थ : — परद्रव्य के प्रति राग होने पर भी जो जीव यह मानता है कि ‘मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, मुझे बन्ध नहीं होता’ उसे सम्यक्त्व कैसा ? वह व्रत-समिति का पालन भले ही करे तथापि स्व-पर का ज्ञान न होने से वह पापी ही है । जो ‘मुझे बन्ध नहीं होता’ यह मानकर स्वच्छन्दप्रवृत्ति करता है वह भला सम्यग्दृष्टि कैसा ? क्योंकि जब तक यथाख्यात चारित्र न हो तब तक चारित्रमोह के राग से बन्ध तो होता ही है और जब तक राग रहता है तब तक सम्यग्दृष्टि तो अपनी निंदा-गर्हा करता ही रहता है । ज्ञान के होनेमात्रसे बन्धसे नहीं छूटा जा सकता, ज्ञान होने के बाद उसीमें लीनतारूप – शुद्धोपयोगरूप – चारित्र से बन्ध कट जाते हैं । इसलिये राग होने पर भी ‘बन्ध नहीं होता’ यह मानकर स्वच्छन्दतया प्रवृत्ति करनेवाला जीव मिथ्यादृष्टि ही है ।यहाँ कोई पूछता है कि — ‘‘व्रत-समिति शुभ कार्य हैं, तब फिर उनका पालन करते हुए भी जीव को पापी क्यों कहा गया है ?’’ उसका समाधान यह है — सिद्धान्त में मिथ्यात्व को ही पाप कहा है; जब तक मिथ्यात्व रहता है तब तक शुभाशुभ सर्व क्रियाओं को अध्यात्म में परमार्थतः पाप ही कहा जाता है । और व्यवहारनय की प्रधानता में, व्यवहारी जीवों को अशुभसे छुड़ाकर शुभ में लगाने की शुभ क्रिया को कथंचित् पुण्य भी कहा जाता है । ऐसा कहने से स्याद्वादमत में कोई विरोध नहीं है ।

फिर कोई पूछता है कि — ‘‘परद्रव्यमें जब तक राग रहे तब तक जीव को मिथ्यादृष्टि कहा है सो यह बात हमारी समझ में नहीं आई । अविरतसम्यग्दृष्टि इत्यादि के चारित्रमोहके उदयसेरागादिभाव तो होते हैं, तब फिर उनके सम्यक्त्व कैसे है ?’’ उसका समाधान यह है : — यहाँ मिथ्यात्व सहित अनन्तानुबंधी राग प्रधानता से कहा है । जिसे ऐसा राग होता है अर्थात् जिसे परद्रव्य में तथा परद्रव्य से होनेवाले भावों में आत्मबुद्धिपूर्वक प्रीति-अप्रीति होती है, उसे स्व-पर का ज्ञानश्रद्धान नहीं है — भेदज्ञान नहीं है ऐसा समझना चाहिए । जो जीव मुनिपद लेकर व्रत-समिति का पालन करे तथापि जब तक पर जीवों की रक्षा तथा शरीर सन्बन्धी यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करना इत्यादि परद्रव्य की क्रिया से और परद्रव्य के निमित्त से होनेवाले अपने शुभ भावों से अपनी मुक्ति मानता है और पर जीवों का घात होना तथा अयत्नाचाररूप से प्रवृत्त करना इत्यादि परद्रव्य की क्रिया से और परद्रव्य के निमित्त से होनेवाले अपने अशुभ भावों से ही अपना बन्ध होना मानता है तब तक यह जानना चाहिए कि उसे स्व-पर का ज्ञान नहीं हुआ; क्योंकि बन्ध-मोक्ष अपने अशुद्ध तथा शुद्ध भावोंसे ही होता था, शुभाशुभ भाव तो बन्धके कारण थे और परद्रव्य तो निमित्तमात्र ही था, उसमें उसने विपर्ययरूप मान लिया । इसप्रकार जब तक जीव परद्रव्यसे ही भलाबुरा मानकर रागद्वेष करता है तब तक वह सम्यग्दृष्टि नहीं है ।

जब तक अपने में चारित्रमोहसम्बन्धी रागादिक रहता है तब तक सम्यग्दृष्टि जीव रागादि में तथा रागादि की प्रेरणा से जो परद्रव्यसम्बन्धी शुभाशुभ क्रिया में प्रवृत्ति करता है उन प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में यह मानता है कि — यह कर्म का जोर है; उससे निवृत्त होने में ही मेरा भला है । वह उन्हें रोगवत् जानता है । पीड़ा सहन नहीं होती, इसलिये रोग का इलाज करने में प्रवृत्त होता है तथापि उसके प्रति उसका राग नहीं कहा जा सकता; क्योंकि जिसे वह रोग मानता है उसके प्रति राग कैसा ? वह उसे मिटाने का ही उपाय करता है और उसका मिटना भी अपने ही ज्ञानपरिणामरूप परिणमन से मानता है । इस भाँति सम्यग्दृष्टि के राग नहीं है । इसप्रकार यहाँ परमार्थ अध्यात्मदृष्टिसे व्याख्यान जानना चाहिए । यहाँ मिथ्यात्व सहित राग को ही राग कहा है, मिथ्यात्व रहित चारित्रमोहसम्बन्धी उदय के परिणाम को राग नहीं कहा है, इसलिये सम्यग्दृष्टि के ज्ञानवैराग्यशक्ति अवश्य होती ही है । सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व सहित राग नहीं होता और जिसके मिथ्यात्व सहित राग हो वह सम्यग्दृष्टि नहीं है। ऐसे (मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि के भावों के) अन्तर को सम्यग्दृष्टि ही जानता है । पहले तो मिथ्यादृष्टि का अध्यात्मशास्त्र में प्रवेश ही नहीं है और यदि वह प्रवेश करता है तो विपरीत समझता है — व्यवहार को सर्वथा छोड़कर भ्रष्ट होता है अथवा निश्चय को भलीभाँति जाने बिना व्यवहार से ही मोक्ष मानता है, परमार्थ तत्त्वमें मूढ़ रहता है । यदि कोई विरल जीव यथार्थ स्याद्वादन्याय से सत्यार्थको समझ ले तो उसे अवश्य सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है — वह अवश्य सम्यग्दृष्टि हो जाता है ।१३७।

(मन्दाक्रान्ता)
आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ताः
सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमन्धाः ।
एतैतेतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः
शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति ।।१३८।।

अनादिकालसे रागादिको अपना पद जानकर सोये हुये रागी प्राणियों को उपदेश देते हैं : —

श्लोकार्थ : — (श्री गुरु संसारी भव्य जीवोंको सम्बोधन करते हैं कि – ) [अन्धाः ]हे अन्ध प्राणियों ! [आसंसारात् ] अनादि संसार से लेकर [प्रतिपदम् ] पर्याय-पर्याय में [अमी रागिणः ] यह रागी जीव [नित्यमत्ताः ] सदा मत्त वर्तते हुए [यस्मिन् सुप्ताः ] जिस पद में सो रहे हैं [तत् ] वह पद अर्थात् स्थान [अपदम् अपदं ] अपद है — अपद है, (तुम्हारा स्थान नहीं है,) [विबुध्यध्वम् ] ऐसा तुम समझो । (अपद शब्द को दो बार कहने से अतिकरुणाभाव सूचित होता है ।) [इतः एत एत ] इस ओर आओ — इस ओर आओ, (यहाँनिवास करो,) [पदम् इदम् इदं ] तुम्हारा पद यह है — यह है, [यत्र ] जहाँ [शुद्धः शुद्धःचैतन्यधातुः ] शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु [स्व-रस-भरतः ] निज रसकी अतिशयता के कारण [स्थायिभावत्वम् एति ] स्थायीभावत्व को प्राप्त है अर्थात् स्थिर है — अविनाशी है। (यहाँ‘शुद्ध’ शब्द दो बार कहा है जो कि द्रव्य और भाव दोनों की शुद्धता को सूचित करता है ।समस्त अन्यद्रव्योंसे भिन्न होने के कारण आत्मा द्रव्य से शुद्ध है और पर के निमित्त से होनेवाले अपने भावों से रहित होने से भाव से शुद्ध है ।)

भावार्थ : — जैसे कोई महान् पुरुष मद्य पी करके मलिन स्थान पर सो रहा हो उसे कोई आकर जगाये — सम्बोधित करे कि ‘‘यह तेरे सोने का स्थान नहीं है; तेरा स्थान तो शुद्धसुवर्णमय धातु से निर्मित है, अन्य कुधातुओं के मिश्रण से रहित शुद्ध है और अति सुदृढ़ है; इसलिये मैं तुझे जो बतलाता हूँ वहाँ आ और वहाँ शयनादि करके आनन्दित हो’’; इसीप्रकार ये प्राणी अनादि संसार से लेकर रागादिको भला जानकर, उन्हीं को अपना स्वभाव मानकर, उसीमें निश्चिन्त होकर सो रहे हैं — स्थित हैं, उन्हें श्री गुरु करुणापूर्वक सम्बोधित करते हैं — जगातेहैं — सावधान करते हैं कि ‘‘हे अन्ध प्राणियों ! तुम जिस पदमें सो रहे हो वह तुम्हारा पद नहीं है; तुम्हारा पद तो शुद्ध चैतन्यधातुमय है, बाह्यमें अन्य द्रव्योंकी मिलावट से रहित तथा अन्तरंगमें विकार रहित शुद्ध और स्थाई है; उस पदको प्राप्त हो — शुद्ध चैतन्यरूप अपने भावकाआश्रय करो’’ ।१३८।

(अनुष्टुभ्)
एकमेव हि तत्स्वाद्यं विपदामपदं पदम् ।
अपदान्येव भासन्ते पदान्यन्यानि यत्पुरः ।।१३९।।


अब इस अर्थका कलशरूप श्लोक कहते हैं : —

श्लोकार्थ : — [तत् एकम् एव हि पदम् स्वाद्यं ] वह एक ही पद आस्वादनके योग्य है [विपदाम् अपदं ] जो कि विपत्तियोंका अपद है (अर्थात् जिसके आपदायें स्थान नहीं पा सकतीं ) और [यत्पुरः ] जिसके आगे [अन्यानि पदानि ] अन्य (सर्व) पद [अपदानि एव भासन्ते ] अपद ही भासित होते हैं ।भावार्थ : — एक ज्ञान ही आत्मा का पद है । उसमें कोई भी आपदा प्रवेश नहीं कर सकती और उसके आगे सब पद अपदस्वरूप भासित होते हैं (क्योंकि वे आकुलतामय हैं — आपत्तिरूप हैं) ।१३९।

(शार्दूलविक्रीडित)
एकज्ञायकभावनिर्भरमहास्वादं समासादयन्
स्वादं द्वन्द्वमयं विधातुमसहः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन् ।
आत्मात्मानुभवानुभावविवशो भ्रश्यद्विशेषोदयं
सामान्यं कलयन् किलैष सकलं ज्ञानं नयत्येकताम्।।१४०।।


अब यहाँ कहते हैं कि जब आत्मा ज्ञानका अनुभव करता है तब इसप्रकार करता है : —

श्लोकार्थ : — [एक-ज्ञायकभाव-निर्भर-महास्वादं समासादयन् ] एक ज्ञायकभावसे भरे हुए महास्वादको लेता हुआ, (इसप्रकार ज्ञान में ही एकाग्र होने पर दूसरा स्वाद नहीं आता, इसलिये) [द्वन्द्वमयं स्वादं विधातुम् असहः ] द्वन्दमय स्वाद के लेने में असमर्थ (अर्थात् वर्णादिक, रागादिक तथा क्षायोपशमिक ज्ञानके भेदों का स्वाद लेने में असमर्थ ), [आत्म-अनुभव-अनुभाव-विवशः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन् ] आत्मानुभव के – आत्मस्वाद के — प्रभाव से आधीन होने से निजवस्तुवृत्ति को (आत्माकी शुद्ध परिणति को) जानता – आस्वाद लेता हुआ ( अर्थात् आत्मा के अद्वितीय स्वाद के अनुभवन में से बाहर न आता हुआ) [एषः आत्मा ] यह आत्मा [विशेष-उदयं भ्रश्यत् ] ज्ञानके विशेषोंके उदय को गौण करता हुआ, [सामान्यं कलयन् किल ] सामान्यमात्र ज्ञान का अभ्यास करता हुआ, [सकलं ज्ञानं ] सकल ज्ञान को [एकताम् नयति ] एकत्व में लाता है — एकरूप में प्राप्त करता है ।

भावार्थ : — इस एक स्वरूपज्ञान के रसीले स्वादके आगे अन्य रस फीके हैं । और स्वरूप ज्ञान का अनुभव करने पर सर्व भेदभाव मिट जाते हैं । ज्ञान के विशेष ज्ञेयके निमित्त से होते हैं । जब ज्ञान सामान्य का स्वाद लिया जाता है तब ज्ञान के समस्त भेद भी गौण हो जाते हैं, एक ज्ञान ही ज्ञेयरूप होता है ।यहाँ प्रश्न होता है कि छद्मस्थको पूर्णरूप केवलज्ञानका स्वाद कैसे आवे ? इस प्रश्नकाउत्तर पहले शुद्धनयका कथन करते हुए दिया जा चुका है कि शुद्धनय आत्माका शुद्ध पूर्ण स्वरूप बतलाता है, इसलिये शुद्धनयके द्वारा पूर्णरूप केवलज्ञानका परोक्ष स्वाद आता है ।१४०।

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(शार्दूलविक्रीडित)
अच्छाच्छाः स्वयमुच्छलन्ति यदिमाः संवेदनव्यक्त यो
निष्पीताखिलभावमण्डलरसप्राग्भारमत्ता इव ।
यस्माभिन्नरसः स एष भगवानेकोऽप्यनेकीभवन्
वल्गत्युत्कलिकाभिरद्भुतनिधिश्चैतन्यरत्नाकरः ।।१४१।।

श्लोकार्थ : — [निष्पीत-अखिल-भाव-मण्डल-रस-प्राग्भार-मत्ताः इव ] समस्तपदार्थों के समूहरूप रस को पी लेने की अतिशयतासे मानों मत्त हो गई हो ऐसी [यस्य इमाः अच्छ- अच्छाः संवेदनव्यक्तयः ] जिसकी यह निर्मलसे भी निर्मल संवेदनव्यक्ति( – ज्ञानपर्याय, अनुभवमें आनेवाले ज्ञानके भेद) [यद् स्वयम् उच्छलन्ति ] अपने आप उछलतीहैं, [सः एषः भगवान् अद्भुतनिधिः चैतन्यरत्नाकरः ] वह यह भगवान अद्भुत निधिवाला चैतन्यरत्नाकर, [अभिन्नरसः ] ज्ञानपर्यायरूप तरंगों के साथ जिसका रस अभिन्न है ऐसा, [एकः अपि अनेकीभवन् ] एक होने पर भी अनेक होता हुआ, [उत्कलिकाभिः ] ज्ञानपर्यायरूप तरंगों के द्वारा [वल्गति ] दोलायमान होता है — उछलता है ।

भावार्थ : — जैसे अनेक रत्नोंवाला समुद्र एक जल से ही भरा हुआ है और उसमें छोटी बड़ी अनेक तरंगें उठती रहती हैं जो कि एक जलरूप ही हैं, इसी प्रकार अनेक गुणों का भण्डार यह ज्ञानसमुद्र आत्मा एक ज्ञानजलसे ही भरा हुआ है और कर्म के निमित्त से ज्ञान के अनेक भेद (व्यक्तियें) अपने आप प्रगट होते हैं उन्हें एक ज्ञान रूप ही जानना चाहिये, खण्डखण्डरूप से अनुभव नहीं करना चाहिये ।१४१।

(शार्दूलविक्रीडित)
क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः
क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपोभारेण भगनश्चिरम् ।
साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं
ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि ।।१४२।।

श्लोकार्थ :- [दुष्करतरैः ] कोई जीव तो अति दुष्कर और [मोक्ष-उन्मुखैः ] मोक्ष से पराङ्मुख [कर्मभिः ] कर्मों के द्वारा [स्वयमेव ] स्वयमेव (जिनाज्ञाके बिना) [क्लिश्यन्तां ] क्लेश पाते हैं तो पाओ [च ] और [परे ] अन्य कोई जीव [महाव्रत-तपः-भारेण ] (मोक्ष के सन्मुख अर्थात् कथंचित् जिनाज्ञा में कथित) महाव्रत और तप के भार से [चिरम् ] बहुत समय तक [भग्नाः ] भग्न होते हुए [क्लिश्यन्तां ] क्लेश प्राप्त करें तो करोे; (किन्तु) [साक्षात् मोक्षः ] जो साक्षात् मोक्षस्वरूप है, [निरामयपदं ] निरामय (रोगादि समस्त क्लेशों से रहित) पद है और [स्वयं संवेद्यमानं ] स्वयं संवेद्यमान है ऐसे [इदं ज्ञानं ] इस ज्ञान को [ज्ञानगुणं विना ] ज्ञानगुण के बिना [कथम् अपि ] किसी भी प्रकार से [प्राप्तुं न हि क्षमन्ते ] वे प्राप्त नहीं कर सकते।

भावार्थ : — ज्ञान है वह साक्षात् मोक्ष है; वह ज्ञान से ही प्राप्त होता है, अन्य किसी क्रियाकांड से उसकी प्राप्ति नहीं होती ।१४२।

(द्रुतविलम्बित)
पदमिदं ननु कर्मदुरासदं
सहजबोधकलासुलभं किल ।
तत इदं निजबोधकलाबलात्
कलयितुं यततां सततं जगत् ।।१४३।।

श्लोकार्थ : — [इदं पदम् ] यह (ज्ञानस्वरूप) पद [ननु कर्मदुरासदं ] कर्म से वास्तव में दुरासद है और [सहज-बोध-कला-सुलभं किल ] सहज ज्ञान की कला के द्वारा वास्तव में सुलभ है; [ततः ] इसलिये [निज-बोध-कला-बलात् ] निजज्ञान की कला के बल से [इदं कलयितुं ] इस पदका अभ्यास करने के लिये [जगत् सततं यततां ] जगत सतत प्रयत्न करो ।

भावार्थ : — समस्त कर्म को छुड़ाकर ज्ञानकला के बल द्वारा ही ज्ञान का अभ्यास करने का आचार्यदेव ने उपदेश दिया है । ज्ञान की ‘कला’ कहने से यह सूचित होता है कि — जब तक पूर्णकला (केवलज्ञान) प्रगट न हो तब तक ज्ञान हीनकलास्वरूप — मतिज्ञानादिरूप है; ज्ञान की उसकलाके आलम्बनसे ज्ञान का अभ्यास करने से केवलज्ञान अर्थात् पूर्ण कला प्रगट होती है ।१४३।

(उपजाति)
अचिन्त्यशक्ति : स्वयमेव देव-
श्चिन्मात्रचिन्तामणिरेष यस्मात् ।
सर्वार्थसिद्धात्मतया विधत्ते
ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण ।।१४४।।

श्लोकार्थ : — [यस्मात् ] क्योंकि [एषः ] यह (ज्ञानी) [स्वयम् एव ] स्वयं ही [अचिन्त्यशक्तिः देवः ] अचिंत्य शक्तिवाला देव है और [चिन्मात्र-चिन्तामणिः ] चिन्मात्र चिंतामणि है, इसलिये [सर्व-अर्थ-सिद्ध-आत्मतया ] जिसके सर्व अर्थ (प्रयोजन) सिद्ध हैं ऐसे स्वरूप होने से [ज्ञानी ] ज्ञानी [अन्यस्य परिग्रहेण ] दूसरे के परिग्रह से [किम् विधत्ते] क्या करेगा ? (कुछ भी करने का नहीं है ।)

भावार्थ : — यह ज्ञानमूर्ति आत्मा स्वयं ही अनन्त शक्तिका धारक देव है और स्वयंही चैतन्यरूप चिंतामणि होनेसे वांछित कार्य की सिद्धि करनेवाला है; इसलिये ज्ञानीके सर्व प्रयोजन सिद्ध होने से उसे अन्य परिग्रहका सेवन करने से क्या साध्य है ? अर्थात् कुछ भी साध्य नहीं है । ऐसा निश्चयनयका उपदेश है ।१४४।

(वसन्ततिलका)
इत्थं परिग्रहमपास्य समस्तमेव
सामान्यतः स्वपरयोरविवेकहेतुम् ।
अज्ञानमुज्झितुमना अधुना विशेषाद्
भूयस्तमेव परिहर्तुमयं प्रवृत्तः ।।१४५।।

श्लोकार्थ : — [इत्थं ] इसप्रकार [समस्तम् एव परिग्रहम् ] समस्त परिग्रह को [सामान्यतः ] सामान्यतः [अपास्य ] छोड़कर [अधुना ] अब [स्वपरयोः अविवेकहेतुम् अज्ञानम् उज्झितुमनाः अयं ] स्व-पर के अविवेक के कारणरूप अज्ञान को छोड़ने का जिसका मन है ऐसा यह [भूयः ] पुनः [तम् एव ] उसीको ( – परिग्रहको – ) [विशेषात् ] विशेषतः [परिहर्तुम् ] छोड़ने कोे [प्रवृत्तः ] प्रवृत्त हुआ है ।

भावार्थ : — स्व-पर को एकरूप जानने का कारण अज्ञान है । उस अज्ञान को सम्पूर्णतया छोड़ने के इच्छुक जीव ने पहले तो परिग्रह का सामान्यतः त्याग किया और अब (आगामी गाथाओं में) उस परिग्रह को विशेषतः (भिन्न-भिन्न नाम लेकर) छोड़ता है ।१४५।

(स्वागता)
पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकाद्
ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः ।
तद्भवत्वथ च रागवियोगा-
न्नूनमेति न परिग्रहभावम् ।।१४६।।

श्लोकार्थ : — [पूर्वबद्ध-निज-कर्म-विपाकाद् ] पूर्वबद्ध अपने कर्म के विपाक के कारण [ज्ञानिनः यदि उपभोगः भवति तत् भवतु ] ज्ञानी के यदि उपभोग हो तो हो, [अथ च ] परंतु [रागवियोगात् ] रागके वियोग ( – अभाव)के कारण [नूनम् ] वास्तव में [परिग्रहभावम् न एति ]वह उपभोग परिग्रहभाव को प्राप्त नहीं होता ।

भावार्थ : — पूर्वबद्ध कर्म का उदय आने पर जो उपभोग सामग्री प्राप्त होती है उसे यदिअज्ञानमय रागभाव से भोगा जाये तो वह उपभोग परिग्रहत्व को प्राप्त हो । परन्तु ज्ञानीके अज्ञानमय रागभाव नहीं होता । वह जानता है कि जो पहले बाँधा था वह उदय में आ गया और छूट गया;अब मैं उसे भविष्य में नहीं चाहता । इसप्रकार ज्ञानी के रागरूप इच्छा नहीं है, इसलिये उसका उपभोग परिग्रहत्वको प्राप्त नहीं होता ।१४६।

(स्वागता)
वेद्यवेदकविभावचलत्वाद्
वेद्यते न खलु कांक्षितमेव ।
तेन कांक्षति न किंचन विद्वान्
सर्वतोऽप्यतिविरक्ति मुपैति ।।१४७।।

श्लोकार्थ : — [वेद्य-वेदक-विभाव-चलत्वात् ] वेद्य-वेदक रूप विभावभावोंकी चलता(अस्थिरता) होनेसे [खलु ] वास्तवमें [कांक्षितम् एव वेद्यते न ] वाँछितका वेदन नहीं होता;[तेन ]इसलिये [विद्वान् किञ्चन कांक्षति न ] ज्ञानी कुछ भी वाँछा नहीं करता; [सर्वतः अपि अतिविरक्तिम् उपैति ] सबके प्रति अत्यन्त विरक्तता को (वैराग्यभाव को) प्राप्त होता है ।

भावार्थ : — अनुभवगोचर वेद्य-वेदक विभावों में काल भेद है, उनका मिलाप नहीं होता,(क्योंकि वे कर्मके निमित्तसे होते हैं, इसलिये अस्थिर हैं); इसलिये ज्ञानी आगामी काल सम्बन्धी वाँछा क्यों करे ? ।१४७।

(स्वागता)
ज्ञानिनो न हि परिग्रहभावं
कर्म रागरसरिक्त तयैति ।
रंगयुक्ति रकषायितवस्त्रे-
ऽस्वीकृतैव हि बहिर्लुठतीह ।।१४८।।

श्लोकार्थ : — [इह अकषायितवस्त्रे ] जैसे लोध और फि टकरी इत्यादि से जोे कसायला नहीं किया गया हो ऐसे वस्त्र में [रंगयुक्तिः ] रंग का संयोग, [अस्वीकृता ] वस्त्र के द्वारा अंगीकार न किया जाने से, [बहिः एव हि लुठति ] ऊपर ही लौटता है (रह जाता है) — वस्त्रके भीतर प्रवेश नहीं करता, [ज्ञानिनः रागरसरिक्ततया कर्म परिग्रहभावं न हि एति ] इसीप्रकार ज्ञानी रागरूप रस से रहित है, इसलिये कर्मोदयका भोग उसे परिग्रहत्वको प्राप्त नहीं होता ।

भावार्थ : —जैसे लोध और फिटकरी इत्यादि के लगाये बिना वस्त्र में रंग नहीं चढ़ता उसीप्रकार रागभाव के बिना ज्ञानी के कर्मोदय का भोग परिग्रहत्व को प्राप्त नहीं होता ।१४८।

(स्वागता)
ज्ञानवान् स्वरसतोऽपि यतः स्यात्
सर्वरागरसवर्जनशीलः ।
लिप्यते सकलकर्मभिरेषः
कर्ममध्यपतितोऽपि ततो न ।।१४९।।

श्लोकार्थ: — [यतः ] क्योंकि [ज्ञानवान् ] ज्ञानी [स्वरसतः अपि ] निज रस से ही [सर्वरागरसवर्जनशीलः ] सर्व रागरस के त्यागरूप स्वभाववाला [स्यात् ] है, [ततः ] इसलिये [एषः ] वह [कर्ममध्यपतितः अपि ] कर्म के बीच पड़ा हुआ भी [सकलकर्मभिः ] सर्व कर्मों से [न लिप्यते ] लिप्त नहीं होता ।१४९।

(शार्दूलविक्रीडित)
याद्रक् ताद्रगिहास्ति तस्य वशतो यस्य स्वभावो हि यः
कर्तुं नैष कथंचनापि हि परैरन्याद्रशः शक्यते ।
अज्ञानं न कदाचनापि हि भवेज्ज्ञानं भवत्सन्ततं
ज्ञानिन् भुंक्ष्व परापराधजनितो नास्तीह बन्धस्तव ।।१५०।।

अब इस अर्थका और आगामी कथनका सूचक कलशरूप काव्य कहते हैं : —

श्लोकार्थ : — [इह ] इस लोक में [यस्य याद्रक् यः हि स्वभावः ताद्रक् तस्य वशतःअस्ति ] जिस वस्तु का जैसा स्वभाव होता है उसका वैसा स्वभाव उस वस्तु के अपने वश से ही (अपने आधीन ही) होता है । [एषः ] ऐसा वस्तु का जो स्वभाव वह, [परैः ] परवस्तुओंके द्वारा [कथंचनअपि हि ] किसी भी प्रकारसे [अन्याद्रशः ] अन्य जैसा [कर्तुं न शक्यते ] नहीं किया जा सकता ।[हि ] इसलिये [सन्ततं ज्ञानं भवत् ] जो निरन्तर ज्ञानरूप परिणमित होता है वह [कदाचन अपि अज्ञानं न भवेत् ] कभी भी अज्ञान नहीं होता; [ज्ञानिन् ] इसलिये हे ज्ञानी ! [भुंक्ष्व ] तू (कर्मोदयजनित) उपभोग को भोग, [इह ] इस जगत में [पर-अपराध-जनितः बन्धः तव नास्ति ] पर के अपराध से उत्पन्न होनेवाला बन्ध तुझे नहीं है (अर्थात् परके अपराध से तुझे बन्ध नहीं होता) ।

भावार्थ : — वस्तुका स्वभाव वस्तुके अपने आधीन ही है । इसलिये जो आत्मा स्वयं ज्ञानरूप परिणमित होता है उसे परद्रव्य अज्ञानरूप कभी भी परिणमित नहीं करा सकता । ऐसा होने से यहाँ ज्ञानीसे कहा है कि — तुझे पर के अपराध से बन्ध नहीं होता, इसलिये तू उपभोग को भोग । तू ऐसी शंका मत कर कि उपभोग के भोगने से मुझे बन्ध होगा । यदि ऐसी शंका करेगा तो ‘परद्रव्य से आत्मा का बुरा होता है’ ऐसी मान्यता का प्रसंग आ जायेगा । इसप्रकार यहाँ परद्रव्य से अपना बुरा होना मानने की जीव की शंका मिटाई है; यह नहीं समझना चाहिये कि भोग भोगनेकी प्रेरणा करके स्वच्छंद कर दिया है । स्वेच्छाचारी होना तो अज्ञानभाव है यह आगे कहेंगे ।१५०।

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(शार्दूलविक्रीडित)
ज्ञानिन् कर्म न जातु कर्तुमुचितं किंचित्तथाप्युच्यते
भुंक्षे हन्त न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः ।
बन्धः स्यादुपभोगतो यदि न तत्किं कामचारोऽस्ति ते
ज्ञानं सन्वस बन्धमेष्यपरथा स्वस्यापराधाद् ध्रुवम् ।।१५१।।

श्लोकार्थ : — [ज्ञानिन् ] हे ज्ञानी, [जातु किचिंत् कर्म कर्तुम् उचितं न ] तुझेे क भी कोई भी कर्म क रना उचित नहीं है [तथापि ] तथापि [यदि उच्यते ] यदि तू यह कहे कि ‘‘[परं मे जातु न, भुंक्षे ] परद्रव्य मेरा क भी भी नहीं है और मैं उसे भोगता हूँं’’, [भोः दुर्भुक्तः एव असि ] तो तुझसे क हा जाता है कि हे भाई, तू खराब प्रकारसे भोगनेवाला है; [हन्त ] जो तेरा नहीं है उसे तू भोगता है यह महा खेदकी बात है ! [यदि उपभोगतः बन्धः न स्यात् ] यदि तू क हे कि ‘सिद्धान्तमें यह कहा है कि परद्रव्यके उपभोगसे बन्ध नहीं होता, इसलिये भोगता हूँ ’, [तत् किं ते कामचारः अस्ति ] तो क्या तुझे भोगनेकी इच्छा है ? [ज्ञानं सन् वस ] तू ज्ञानरूप होकर ( – शुद्ध स्वरूपमें) निवास क र, [अपरथा ] अन्यथा (अर्थात् यदि भोगनेकी इच्छा क रेगा — अज्ञानरूप परिणमित होगा तो) [ध्रुवम् स्वस्य अपराधात् बन्धम् एषि ] तू निश्चयतः अपने अपराध से बन्धको प्राप्त होगा ।
भावार्थ : — ज्ञानीको कर्म तो करना ही उचित नहीं है । यदि परद्रव्य जानकर भी उसे भोगे तो यह योग्य नहीं है । परद्रव्यके भोक्ताको तो जगतमें चोर कहा जाता है, अन्यायी कहा जाता है । और जो उपभोगसे बन्ध नहीं कहा सो तो, ज्ञानी इच्छाके बिना ही परकी जबरदस्तीसे उदयमें आये हुएको भोगता है वहाँ उसे बन्ध नहीं कहा । यदि वह स्वयं इच्छासे भोगे तब तो स्वयं अपराधी हुआ और तब उसे बन्ध क्यों न हो ? ।१५१।

(शार्दूलविक्रीडित)
कर्तारं स्वफ लेन यत्किल बलात्कर्मैव नो योजयेत्
कुर्वाणः फ ललिप्सुरेव हि फ लं प्राप्नोति यत्कर्मणः ।
ज्ञानं संस्तदपास्तरागरचनो नो बध्यते कर्मणा
कुर्वाणोऽपि हि कर्म तत्फ लपरित्यागैकशीलो मुनिः ।।१५२।।

श्लोकार्थ : — [यत् किल कर्म एव कर्तारं स्वफ लेन बलात् नो योजयेत् ] कर्म ही उसके कर्ताको अपने फ लके साथ बलात् नहीं जोड़ता (कि तू मेरे फलको भोग), [फ ललिप्सुः एव हि कुर्वाणः कर्मणः यत् फ लं प्राप्नोति ] ❃ फलकी इच्छावाला ही कर्मको क रता हुआ कर्मके फलको पाता है; [ज्ञानं सन् ] इसलिए ज्ञानरूप रहता हुआ और [तद्-अपास्त-रागरचनः ] जिसने कर्मके प्रति रागकी रचना दूर क ी है ऐसा [मुनिः ] मुनि, [तत्-फल-परित्याग-एक-शीलः ] कर्मफ लके परित्यागरूप ही एक स्वभाववाला होनेसे, [कर्म कुर्वाणः अपि हि ] क र्म क रता हुआ भी [कर्मणा नो बध्यते ] क र्मसे नहीं बन्धता ।
भावार्थ : — कर्म तो कर्ताको बलात् अपने फ लके साथ नहीं जोड़ता, किन्तु जो कर्मको करता हुआ उसके फ लकी इच्छा करता है वही उसका फल पाता है । इसलिये जो ज्ञानरूप वर्तता है और बिना ही रागके कर्म करता है वह मुनि कर्मसे नहीं बँधता, क्योंकि उसे कर्मफ लकी इच्छा नहीं है ।१५२।

(शार्दूलविक्रीडित)
त्यक्तं येन फ लं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं
किंत्वस्यापि कुतोऽपि किंचिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् ।
तस्मिन्नापतिते त्वकम्पपरमज्ञानस्वभावे स्थितो
ज्ञानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः ।।१५३।।

श्लोकार्थ : — [येन फ लं त्यक्तं सः कर्म कुरुते इति वयं न प्रतीमः ] जिसने कर्मका फल छोड़ दिया है वह क र्म क रता है ऐसी प्रतीति तो हम नहीं क र सक ते । [किन्तु ] किन्तु वहाँ इतना विशेष है कि — [अस्य अपि कुतः अपि किंचित् अपि तत् कर्म अवशेन आपतेत् ] उसे (ज्ञानीको) भी किसी क ारणसे कोई ऐसा क र्म अवशतासेे ( – उसके वश बिना) आ पड़ता है । [तस्मिन् आपतिते तु ] उसके आ पड़ने पर भी, [अकम्प-परम-ज्ञानस्वभावे स्थितः ज्ञानी ] जो अकं प परमज्ञानस्वभावमें स्थित है ऐसा ज्ञानी [कर्म ] क र्म [किं कुरुते अथ किं न कुरुते ] करता है या नहीं [इति कः जानाति ] यह कौन जानता है ?
भावार्थ : — ज्ञानीके परवशतासे कर्म आ पड़ता है तो भी वह ज्ञानसे चलायमान नहीं होता । इसलिये ज्ञानसे अचलायमान वह ज्ञानी कर्म करता है या नहीं यह कौन जानता है ? ज्ञानीकी बात ज्ञानी ही जानता है । ज्ञानीके परिणामोंको जाननेकी सामर्थ्य अज्ञानीकी नहीं है ।
अविरत सम्यग्दृष्टिसे लेकर ऊ परके सभी ज्ञानी ही समझना चाहिए । उनमेंसे, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत सम्यग्दृष्टि और आहारविहार करनेवाले मुनियोंके बाह्यक्रियाकर्म होते हैं, तथापि ज्ञानस्वभावसे अचलित होनेके कारण निश्चयसे वे, बाह्यक्रियाकर्मके कर्ता नहीं हैं, ज्ञानके ही कर्ता हैं । अन्तरङ्ग मिथ्यात्वके अभावसे तथा यथासम्भव कषायके अभावसे उनके परिणाम उज्ज्वल हैं । उस उज्ज्वलताको ज्ञानी ही जानते हैं, मिथ्यादृष्टि उस उज्ज्वलताको नहीं जानते । मिथ्यादृष्टि तो बहिरात्मा हैं, वे बाहरसे ही भला-बुरा मानते हैं; अन्तरात्माकी गतिक ो बहिरात्मा क्या जाने ? ।१५३।

(शार्दूलविक्रीडित)
सम्यग्द्रष्टय एव साहसमिदं कर्तुं क्षमन्ते परं
यद्वज्रेऽपि पतत्यमी भयचलत्त्रैलोक्यमुक्त ाध्वनि ।
सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शंक ां विहाय स्वयं
जानन्तः स्वमवध्यबोधवपुषं बोधाच्च्यवन्ते न हि ।।१५४।।

श्लोकार्थ : — [यत् भय-चलत्-त्रैलोक्य-मुक्त-अध्वनि वज्रे पतति अपि] जिसके भयसे चलायमान होते हुवे — खलबलाते हुवे — तीनों लोक अपनेे मार्गको छोड़ देते हैं ऐसा वज्रपात होने पर भी, [अमी ] ये सम्यग्दृष्टि जीव, [निसर्ग-निर्भयतया ] स्वभावतः निर्भय होनेसेे, [सर्वाम् एव शंक ां विहाय ] समस्त शंक ाको छोड़कर, [स्वयं स्वम् अवध्य-बोध-वपुषं जानन्तः ] स्वयं अपनेको (आत्माक ो) जिसका ज्ञानरूप शरीर अवध्य है ऐसा जानते हुए, [बोधात् च्यवन्ते न हि ] ज्ञानसे च्युत नहीं होते । [इदं परं साहसम् सम्यग्दृष्टयः एव क र्तुं क्षमन्ते ] ऐसा परम साहस क रनेके लिये मात्र सम्यग्दृष्टि ही समर्थ हैं ।
भावार्थ : — सम्यग्दृष्टि जीव निःशंकितगुणयुक्त होते हैं, इसलिये चाहे जैसे शुभाशुभ कर्मोदयके समय भी वे ज्ञानरूप ही परिणमित होते हैं । जिसके भयसे तीनों लोकके जीव काँप उठते हैं — चलायमान हो उठते हैं और अपना मार्ग छोड़ देते हैं ऐसा वज्रपात होने पर भी सम्यग्दृष्टि जीव अपने स्वरूपको ज्ञानशरीरी मानता हुआ ज्ञानसे चलायमान नहीं होता। उसे ऐसी शंका नहीं होती कि इस वज्रपातसे मेरा नाश हो जायेगा; यदि पर्यायका विनाश हो तो ठीक ही है, क्योंकि उसका तो विनश्वर स्वभाव ही है ।१५४।

(शार्दूलविक्रीडित)
लोकः शाश्वत एक एष सकलव्यक्त ो विविक्त ात्मन-
श्चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येककः ।
लोकोऽयं न तवापरस्तदपरस्तस्यास्ति तद्भीः कुतो
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१५५।।

श्लोकार्थ : — [एषः ] यह चित्स्वरूप लोक ही [विविक्त ात्मनः ] भिन्न आत्माका (परसे भिन्नरूप परिणमित होनेवाले आत्माका) [शाश्वतः एक : सक ल-व्यक्त : लोक : ] शाश्वत, एक और सक लव्यक्त ( – सर्व क ालमें प्रगट) लोक है; [यत् ] क्योंकि [के वलम् चित्-लोकं ] मात्र चित्स्वरूप लोक को [अयं स्वयमेव एक क : लोक यति] यह ज्ञानी आत्मा स्वयमेव एकाकी देखता है — अनुभव करता है । यह चित्स्वरूप लोक ही तेरा है, [तद्-अपरः ] उससे भिन्न दूसरा कोई लोक — [अयं लोक : अपरः ] यह लोक या परलोक — [तव न ] तेरा नहीं है ऐसा ज्ञानी विचार करता है, जानता है, [तस्य तद्-भीः कु तः अस्ति ] इसलिये ज्ञानीको इस लोकका तथा परलोक क ा भय क हाँसे हो? [सः स्वयं सततं निश्शंक : सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशङ्क वर्तता हुआ सहज ज्ञानका (अपने ज्ञानस्वभावका) सदा अनुभव करता है ।
भावार्थ : — ‘इस भवमें जीवन पर्यन्त अनुकूल सामग्री रहेगी या नहीं ?’ ऐसी चिन्ता रहना इहलोकका भय है । ‘परभवमें मेरा क्या होगा ?’ ऐसी चिन्ताका रहना परलोकक ा भय है । ज्ञानी जानता है कि — यह चैतन्य ही मेरा एक, नित्य लोक है जो कि सदाकाल प्रगट है । इसके अतिरिक्त दूसरा कोई लोक मेरा नहीं है । यह मेरा चैतन्यस्वरूप लोक किसीके बिगाड़े नहीं बिगड़ता । ऐसा जाननेवाले ज्ञानीके इस लोकका अथवा परलोकका भय कहाँसे हो ? कभी नहीं हो सकता । वह तो अपनेको स्वाभाविक ज्ञानरूप ही अनुभव करता है ।१५५।

(शार्दूलविक्रीडित)
एषैकैव हि वेदना यदचलं ज्ञानं स्वयं वेद्यते
निर्भेदोदितवेद्यवेदकबलादेकं सदानाकुलैः ।
नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१५६।।

श्लोकार्थ : — [निर्भेद-उदित-वेद्य-वेदक -बलात् ] अभेदस्वरूप वर्तनेवाले वेद्य -वेदक के बलसे (वेद्य और वेदक अभेद ही होते हैं ऐसी वस्तुस्थितिके बलसे) [यद् एकं अचलं ज्ञानं स्वयं अनाकु लैः सदा वेद्यते] एक अचल ज्ञान ही स्वयं निराकु ल पुरुषोंके द्वारा ( – ज्ञानयोंके द्वारा) सदा वेदनमें आता है, [एषा एक ा एव हि वेदना ] यह एक ही वेदना (ज्ञानवेदन) ज्ञानीयोंके है । (आत्मा वेदक है और ज्ञान वेद्य है ।) [ज्ञानिनः अन्या आगत-वेदना एव हि न एव भवेत् ] ज्ञानीके दूसरी कोई आगत ( – पुद्गलसे उत्पन्न) वेदना होती ही नहीं, [तद्-भीः कु तः ] इसलिए उसे वेदनाका भय क हाँसे हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंक : सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशङ्क वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है ।
भावार्थ : — सुख-दुःखको भोगना वेदना है । ज्ञानीके अपने एक ज्ञानमात्र स्वरूपका ही उपभोग है । वह पुद्गलसे होनेवाली वेदनाको वेदना ही नहीं समझता । इसलिए ज्ञानीके वेदनाभय नहीं है । वह तो सदा निर्भय वर्तता हुआ ज्ञानका अनुभव करता है ।१५६।

(शार्दूलविक्रीडित)
यत्सन्नाशमुपैति तन्न नियतं व्यक्ते ति वस्तुस्थिति-
र्ज्ञानं सत्स्वयमेव तत्किल ततस्त्रातं किमस्यापरैः ।
अस्यात्राणमतो न किंचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१५७।।

श्लोकार्थ : — [यत् सत् तत् नाशं न उपैति इति वस्तुस्थितिः नियतं व्यक्त ा ] जो सत् है वह नष्ट नहीं होता ऐसी वस्तुस्थिति नियमरूपसे प्रगट है । [तत् ज्ञानं किल स्वयमेव सत् ] यह ज्ञान भी स्वयमेव सत् (सत्स्वरूप वस्तु) है (इसलिये नाशको प्राप्त नहीं होता), [ततः अपरैः अस्य त्रातं किं ] इसलिये परके द्वारा उसका रक्षण कैसा ? [अतः अस्य किंचन अत्राणं न भवेत् ] इसप्रकार (ज्ञान निजसे ही रक्षित है, इसलिये) उसका किञ्चित्मात्र भी अरक्षण नहीं हो सकता [ज्ञानिनः तद्-भी कुतः ] इसलिये (ऐसा जाननेवाले) ज्ञानीको अरक्षाका भय क हाँसे हो सकता ? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है।
भावार्थ : — सत्तास्वरूप वस्तुका कभी नाश नहीं होता । ज्ञान भी स्वयं सत्तास्वरूप वस्तु है; इसलिए वह ऐसा नहीं है कि जिसकी दूसरोंके द्वारा रक्षा की जाये तो रहे, अन्यथा नष्ट हो जाये । ज्ञानी ऐसा जानता है, इसलिये उसे अरक्षाका भय नहीं होता; वह तो निःशंक वर्तता हुआ स्वयं अपने स्वाभाविक ज्ञानका सदा अनुभव करता है ।१५७।

(शार्दूलविक्रीडित)
स्वं रूपं किल वस्तुनोऽस्ति परमा गुप्तिः स्वरूपे न य-
च्छक्त : कोऽपि परः प्रवेष्टुमकृतं ज्ञानं स्वरूपं च नुः ।
अस्यागुप्तिरतो न काचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१५८।।

श्लोकार्थ : — [किल स्वं रूपं वस्तुनः परमा गुप्तिः अस्ति ] वास्तवमें वस्तुका स्व-रूप ही (निज रूप ही) वस्तुकी परम ‘गुप्ति’ है, [यत् स्वरूपे कः अपि परः प्रवेष्टुम् न शक्त : ] क्योंकि स्वरूपमें कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता; [च ] और [अकृतं ज्ञानं नुः स्वरूपं ] अकृत ज्ञान( – जो किसीके द्वारा नहीं किया गया है ऐसा स्वाभाविक ज्ञान – ) पुरुषका अर्थात् आत्माका स्वरूप है; (इसलिये ज्ञान आत्माकी परम गुप्ति है ।) [अतः अस्य न काचन अगुप्तिः भवेत् ] इसलिये आत्माकी किंचित्मात्र भी अगुप्तता न होनेसे [ज्ञानिनः तद्-भीः कुतः ] ज्ञानीको अगुप्तिका भय क हाँसे हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है ।
भावार्थ : — ‘गुप्ति’ अर्थात् जिसमें कोई चोर इत्यादि प्रवेश न कर सके ऐसा किला, भोंयरा (तलघर) इत्यादि; उसमें प्राणी निर्भयतासे निवास कर सकता है । ऐसा गुप्त प्रदेश न हो और खुला स्थान हो तो उसमें रहनेवाले प्राणीको अगुप्तताके कारण भय रहता है । ज्ञानी जानता है कि — वस्तुके निज स्वरूपमें कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता, इसलिये वस्तुका स्वरूप ही वस्तुकी परम गुप्ति अर्थात् अभेद्य किला है । पुरुषका अर्थात् आत्माका स्वरूप ज्ञान है; उस ज्ञानस्वरूपमें रहा हुआ आत्मा गुप्त है, क्योंकि ज्ञानस्वरूपमें दूसरा कोई प्रवेश नहीं कर सकता । ऐसा जाननेवाले ज्ञानीको अगुप्तताका भय कहाँसे हो सकता है ? वह तो निःशंक वर्तता हुआ अपने स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपका निरन्तर अनुभव करता है ।१५८।

(शार्दूलविक्रीडित)
प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो
ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिद्यते जातुचित् ।
तस्यातो मरणं न किंचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंक सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१५९।।


श्लोकार्थ : — [प्राणोच्छेदम् मरणं उदाहरन्ति ] प्राणोंके नाशको (लोग) मरण क हते हैं । [अस्य आत्मनः प्राणाः किल ज्ञानं ] निश्चयसे आत्माके प्राण तो ज्ञान है । [तत् स्वयमेव शाश्वततया जातुचित् न उच्छिद्यते ] वह (ज्ञान) स्वयमेव शाश्वत होनेसे उसका क दापि नाश नहीं होता; [अतः तस्य मरणं किंचन न भवेत् ] इसलिये आत्माका मरण किञ्चित्मात्र भी नहीं होता । [ज्ञानिनः तद्- भीः कुतः ] अतः (ऐसा जाननेवाले) ज्ञानीको मरणका भय क हाँसे हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंक : सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है ।
भावार्थ : — इन्द्रियादि प्राणोंके नाश होनेको लोग मरण कहते हैं । किन्तु परमार्थतः आत्माके इन्द्रियादिक प्राण नहीं हैं, उसके तो ज्ञान प्राण हैं । ज्ञान अविनाशी है — उसका नाश नहीं होता; अतः आत्माको मरण नहीं है । ज्ञानी ऐसा जानता है, इसलिये उसे मरणका भय नहीं है; वह तो निःशंक वर्तता हुआ अपने ज्ञानस्वरूपका निरन्तर अनुभव करता है ।१५९।

(शार्दूलविक्रीडित)
एकं ज्ञानमनाद्यनन्तमचलं सिद्धं किलैतत्स्वतो
यावत्तावदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः ।
तन्नाकस्मिकमत्र किंचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१६०।।

श्लोकार्थ : — [एतत् स्वतः सिद्धं ज्ञानम् किल एकं ] यह स्वतःसिद्ध ज्ञान एक है, [अनादि ] अनादि है, [अनन्तम् ] अनन्त है, [अचलं ] अचल है । [इदं यावत् तावत् सदा एव हि भवेत् ] वह जब तक है तब तक सदा ही वही है, [अत्र द्वितीयोदयः न ] उसमें दूसरेका उदय नहीं है । [तत् ] इसलिये [अत्र आकस्मिकम् किंचन न भवेत् ] इस ज्ञानमें आकस्मिक कुछ भी नहीं होता । [ज्ञानिनः तद्-भीः कुतः ] ऐसा जाननेवाले ज्ञानीको अक स्मात्का भय कहाँसे हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है ।
भावार्थ : — ‘यदि कुछ अनिर्धारित अनिष्ट एकाएक उत्पन्न होगा तो ?’ ऐसा भय रहना आकस्मिकभय है । ज्ञानी जानता है कि — आत्माका ज्ञान स्वतःसिद्ध, अनादि, अनंत, अचल, एक है । उसमें दूसरा कुछ उत्पन्न नहीं हो सकता; इसलिये उसमें कुछ भी अनिर्धारित कहाँसे होगा अर्थात् अकस्मात् कहाँसे होगा ? ऐसा जाननेवाले ज्ञानीको आकस्मिक भय नहीं होता, वह तो निःशंक वर्तता हुआ अपने ज्ञानभावका निरन्तर अनुभव करता है ।

इसप्रकार ज्ञानी को सात भय नहीं होते ।
प्रश्न : — अविरतसम्यग्दृष्टि आदिको भी ज्ञानी कहा है और उनके भयप्रकृतिका उदय होता है तथा उसके निमित्तसे उनके भय होता हुआ भी देखा जाता है; तब फिर ज्ञानी निर्भय कैसे है ?

समाधान : — भयप्रकृतिके उदयके निमित्तसे ज्ञानीको भय उत्पन्न होता है । और अन्तरायके प्रबल उदयसे निर्बल होनेके कारण उस भयकी वेदनाको सहन न कर सकनेसे ज्ञानी उस भयका इलाज भी करता है । परन्तु उसे ऐसा भय नहीं होता कि जिससे जीव स्वरूपके ज्ञानश्रद्धानसे च्युत हो जाये । और जो भय उत्पन्न होता है वह मोहकर्मकी भय नामक प्रकृतिका दोष है; ज्ञानी स्वयं उसका स्वामी होकर कर्ता नहीं होता, ज्ञाता ही रहता है । इसलिये ज्ञानीके भय नहीं है ।१६०।
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(मन्दाक्रान्ता)
टंकोत्कीर्णस्वरसनिचितज्ञानसर्वस्वभाजः ०
सम्यग्दृष्टेर्यदिह सकलं घन्न्ति लक्ष्माणि कर्म ।
तत्तस्यास्मिन्पुनरपि मनाक्कर्मणो नास्ति बन्धः
पूर्वोपात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्ज̄रैव ।।१६१।।


श्लोकार्थ : — [टंक ोत्कीर्ण-स्वरस-निचित-ज्ञान-सर्वस्व-भाजः सम्यग्दृष्टेः ] टंक ोत्क ीर्ण निजरससे परिपूर्ण ज्ञानके सर्वस्वको भोगनेवाले सम्यग्दृष्टिके [यद् इह लक्ष्माणि ] जो निःशंकित आदि चिह्न हैं वे [सकलं कर्म ] समस्त क र्मोंको [घन्न्ति ] नष्ट करते हैं; [तत् ] इसलिये, [अस्मिन् ] क र्मका उदय वर्तता होने पर भी, [तस्य ] सम्यग्दृष्टिको [पुनः ] पुनः [कर्मणः बन्धः ] कर्मका बन्ध [मनाक् अपि ] किञ्चित्मात्र भी [नास्ति ] नहीं होता, [पूर्वोपात्तं ] परंतु जो कर्म पहले बन्धा था [तद्-अनुभवतः ] उसके उदयको भोगने पर उसको [निश्चितं ] नियमसे [निर्जरा एव ] उस क र्मकी निर्जरा ही होती है।

भावार्थ : — सम्यग्दृष्टि पहले बन्धी हुई भय आदि प्रकृतियोंके उदयको भोगता है तथापि १निःशंकित आदि गुणोंके विद्यमान होनेसे+२शंकादिकृत (शंकादिके निमित्तसे होनेवाला) बन्ध नहीं होता, किन्तु पूर्वकर्मकी निर्जरा ही होती है ।१६१।

(मन्दाक्रान्ता)
रुन्धन् बन्धं नवमिति निजैः संगतोऽष्टाभिरंगैः
प्राग्बद्धं तु क्षयमुपनयन् निर्जरोज्जृम्भणेन ।
सम्यग्द्रष्टिः स्वयमतिरसादादिमध्यान्तमुक्तं
ज्ञानं भूत्वा नटति गगनाभोगरंगंं विगाह्य ।।१६२।।


श्लोकार्थ : — [इति नवम् बन्धं रुन्धन् ] इसप्रकार नवीन बन्धको रोकता हुआ और [निजैः अष्टाभिः अगैः संगतः निर्जरा-उज्जृम्भणेन प्राग्बद्धं तु क्षयम् उपनयम् ] (स्वयं) अपने आठ अंगोंसे युक्त होनेके क ारण निर्जरा प्रगट होनेसे पूर्वबद्ध कर्मोंका नाश करता हुआ [सम्यग्दृष्टिः] सम्यग्दृष्टि जीव [स्वयम् ] स्वयं [अतिरसात् ] अति रससे (निजरसमें मस्त हुआ) [आदि-मध्य- अन्तमुक्तं ज्ञानं भूत्वा ] आदि-मध्य-अंत रहित (सर्वव्यापक , एकप्रवाहरूप धारावाही) ज्ञानरूप होकर [गगन-आभोग-रंगं विगाह्य ] आक ाशके विस्ताररूप रंगभूमिमें अवगाहन करके (ज्ञानके द्वारा समस्त गगनमंडलमें व्याप्त होकर) [नटति ] नृत्य करता है।

भावार्थ : — सम्यग्दृष्टिको शंकादिकृत नवीन बन्ध तो नहीं होता और स्वयं अष्टांगयुक्त होनेसे निर्जराका उदय होनेके कारण उसके पूर्वके बन्धका नाश होता है । इसलिये वह धारावाही ज्ञानरूप रसका पान करके, निर्मल आकाशरूप रंगभूमिमें ऐसे नृत्य करता है जैसे कोई पुरुष मद्य पीकर मग्न हुआ नृत्यभूमिमें नाचता है ।

प्रश्न : — आप यह कह चुके हैं कि सम्यग्दृष्टिके निर्जरा होती है, बन्ध नहीं होता । किन्तु सिद्धान्तमें गुणस्थानोंकी परिपाटीमें अविरत सम्यग्दृष्टि इत्यादिके बन्ध कहा गया है । और घातिकर्मोंका कार्य आत्माके गुणोंका घात करना है, इसलिये दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य — इन गुणोंका घात भी विद्यमान है । चारित्रमोहका उदय नवीन बन्ध भी करता है । यदि मोहके उदयमें भी बन्ध न माना जाये तो यह भी क्यों न मान लिया जाये कि मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धीका उदय होने पर भी बन्ध नहीं होता ?

उत्तर : — बन्धके होनेंमें मुख्य कारण मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धीका उदय ही है; और सम्यग्दृष्टिके तो उनके उदयका अभाव है । चारित्रमोहके उदयसे यद्यपि सुखगुणका घात होता है तथा मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धीके अतिरिक्त और उनके साथ रहनेवाली अन्य प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष घातिकर्मोंकी प्रकृतियोंका अल्प स्थिति-अनुभागवाला बन्ध तथा शेष अघातिकर्मोंकी प्रकृतियोंका बन्ध होता है, तथापि जैसा मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धी सहित होता है वैसा नहीं होता । अनन्त संसारका कारण तो मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धी ही है; उनका अभाव हो जाने पर फिर उनका बन्ध नहीं होता; और जहाँ आत्मा ज्ञानी हुआ वहाँ अन्य बन्धकी गणना कौन करता है ? वृक्षकी जड़ कट जाने पर फि र हरे पत्ते रहनेकी अवधि कितनी होती है ? इसलिये इस अध्यात्मशास्त्रमें सामान्यतया ज्ञानी-अज्ञानी होनेके सम्बन्धमें ही प्रधान कथन है । ज्ञानी होनेके बाद जो कुछ कर्म रहे हों वे सहज ही मिटते जायेंगे । निम्नलिखित दृष्टान्तके अनुसार ज्ञानीके सम्बन्धमें समझ लेना चाहिए । कोई पुरुष दरिद्रताके कारण एक झोपड़ेमें रहता था । भाग्योदयसे उसे धन-धान्यसे परिपूर्ण बड़े महलकी प्राप्ति हो गई, इसलिये वह उसमें रहनेको गया । यद्यपि उस महलमें बहुत दिनोंका कूड़ा-कचरा भरा हुआ था तथापि जिस दिन उसने आकर महलमें प्रवेश किया उस दिनसे ही वह उस महलका स्वामी हो गया, सम्पत्तिवान हो गया । अब वह कूड़ा-कचरा साफ करना है सो वह क्रमशः अपनी शक्तिके अनुसार साफ करता है । जब सारा कचरा साफ हो जायेगा और महल उज्ज्वल हो जायेगा तब वह परमानन्दको भोगेगा । इसीप्रकार ज्ञानीके सम्बन्धमें समझना चाहिए।१६२।

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8. बंध अधिकार :arrow_up:
कलश 163-170
कलश 171-179

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(शार्दूलविक्रीडित)
रागोद्गारमहारसेन सक लं कृत्वा प्रमत्तं जगत्
क्रीडन्तं रसभावनिर्भरमहानाटयेन बन्धं धुनत् ।
आनन्दामृतनित्यभोजि सहजावस्थां स्फु टं नाटयद्
रोदारमनाकुलं निरुपधि ज्ञानं समुन्मज्जति ।।१६३।।

श्लोकार्थ : — [राग-उद्गार-महारसेन सकलं जगत् प्रमत्तं कृत्वा ] जो (बन्ध) रागके उदयरूप महारस(मदिरा)के द्वारा समस्त जगतको प्रमत्त ( – मतवाला) करके, [रस-भाव-निर्भर- महानाटयेन क्रीडन्तं बन्धं ] रसके भावसे (रागरूप मतवालेपनसे) भरे हुए महा नृत्यके द्वारा खेल (नाच) रहा है ऐसे बन्धको [धुनत् ] उड़ाता — दूर क रता हुआ, [ज्ञानं ] ज्ञान [समुन्मज्जति ] उदयको प्राप्त होता है । वह ज्ञान [आनन्द-अमृत-नित्य-भोजि ] आनंदरूप अमृतका नित्य भोजन करनेवाला है, [सहज-अवस्थां स्फु टं नाटयत् ] अपनी ज्ञातृक्रियारूप सहज अवस्थाको प्रगट नचा रहा है, [धीर-उदारम् ] धीर है, उदार (अर्थात् महान विस्तारवाला, निश्चल) है, [अनाकुलं ] अनाकुल है (अर्थात् जिसमें किंचित् भी आकु लताका क ारण नहीं है), [निरूपधि ] उपाधि रहित (अर्थात् परिग्रह रहित या जिसमें किञ्चित् भी परद्रव्य सम्बन्धी ग्रहण-त्याग नहीं है ऐसा) है ।

भावार्थ : — बन्धतत्त्वने ‘रंगभूमिमें’ प्रवेश किया है, उसे दूर करके जो ज्ञान स्वयं प्रगट होकर नृत्य करेगा, उस ज्ञानकी महिमा इस काव्यमें प्रगट की गई है । ऐसे अनन्त ज्ञानस्वरूप जो आत्मा वह सदा प्रगट रहो।१६३।

(पृथ्वी)
न कर्मबहुलं जगन्न चलनात्मकं कर्म वा
न नैककरणानि वा न चिदचिद्वधो बन्धकृत् ।
यदैक्यमुपयोगभूः समुपयाति रागादिभिः
स एव किल केवलं भवति बन्धहेतुर्नृणाम् ।।१६४।।

कार्थ : — [बन्धकृत् ] क र्मबन्धको क रनेवाला क ारण, [न कर्मबहुलं जगत् ] न तो बहुत क र्मयोग्य पुद्गलोंसे भरा हुआ लोक है, [न चलनात्मकं कर्म वा ] न चलनस्वरूप कर्म (अर्थात् क ाय-वचन-मनकी क्रियारूप योग) है, [न नैककरणानि ] न अनेक प्रक ारके क रण हैं [वा न चिद्-अचिद्-वधः ] और न चेतन-अचेतनका घात है । किन्तु [उपयोगभूः रागादिभिः यद्- ऐक्यम् समुपयाति ] ‘उपयोगभू’ अर्थात् आत्मा रागादिक के साथ जो ऐक्यको प्राप्त होता है [सः एव केवलं ] वही एक ( – मात्र रागादिक के साथ एक त्व प्राप्त करना वही – ) [किल ] वास्तवमें [नृणाम् बन्धहेतुः भवति ] पुरुषोंके बन्धका क ारण है ।

भावार्थ : — यहाँ निश्चयनयसे एकमात्र रागादिकको ही बन्धका कारण कहा है ।१६४।

(शार्दूलविक्रीडित)
लोकः कर्म ततोऽस्तु सोऽस्तु च परिस्पन्दात्मकं कर्म तत्
तान्यस्मिन्करणानि सन्तु चिदचिद्व्यापादनं चास्तु तत् ।
रागादीनुपयोगभूमिमनयन् ज्ञानं भवन्केवलं
बन्धं नैव कुतोऽप्युपैत्ययमहो सम्यग्द्रगात्मा ध्रुवम् ।।१६५।।

श्लोकार्थ : — [कर्मततः लोकः सः अस्तु ] इसलिए वह (पूर्वोक्त) बहुत कर्मोंसे (कर्मयोग्य पुद्गलोंसे) भरा हुआ लोक है सो भले रहो, [परिस्पन्दात्मकं कर्म तत् च अस्तु ] वह काय-वचन-मनक ा चलनस्वरूप कर्म (योग) है सो भी भले रहो, [तानि करणानि अस्मिन् सन्तु ] वे (पूर्वोक्त) क रण भी उसके भले रहें [च ] और [तत् चिद्-अचिद्- व्यापादनं अस्तु ] वह चेतन-अचेतनका घात भी भले हो, परंतु [अहो ] अहो! [अयम् सम्यग्दृग्-आत्मा ] यह सम्यग्दृष्टि आत्मा, [रागादीन् उपयोगभूमिम् अनयन् ] रागादिक को उपयोगभूमिमें न लाता हुआ, [केवलं ज्ञानं भवन् ] के वल (एक) ज्ञानरूप परिणमित होता हुआ, [कुतः अपि बन्धम् ध्रुवम् न एव उपैति ] किसी भी क ारणसे निश्चयतः बन्धको प्राप्त नहीं होता । (अहो ! देखो ! यह सम्यग्दर्शनकी अद्भुत महिमा है ।)

भावार्थ : — यहाँ सम्यग्दृष्टिकी अद्भुत महिमा बताई है, और यह कहा है कि — लोक, योग, करण, चैतन्य-अचैतन्यका घात — वे बन्धके कारण नहीं हैं । इसका अर्थ यह नहीं है कि परजीवकी हिंसासे बन्धका होना नहीं कहा, इसलिए स्वच्छन्द होकर हिंसा करनी । किन्तु यहाँ यह आशय है कि अबुद्धिपूर्वक कदाचित् परजीवका घात भी हो जाये तो उससे बन्ध नहीं होता । किन्तु जहाँ बुद्धिपूर्वक जीवोंको मारनेके भाव होंगे वहाँ तो अपने उपयोगमें रागादिका अस्तित्व होगा और उससे वहाँ हिंसाजन्य बन्ध होगा ही । जहाँ जीवको जिलानेका अभिप्राय हो वहाँ भी अर्थात् उस अभिप्रायको भी निश्चयनयमें मिथ्यात्व कहा है, तब फिर जीवको मारनेका अभिप्राय मिथ्यात्व क्यों न होगा ? अवश्य होगा । इसलिये कथनको नयविभागसे यथार्थ समझकर श्रद्धान करना चाहिए । सर्वथा एकान्त मानना मिथ्यात्व है ।१६५।

(पृथ्वी)
तथापि न निरर्गलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनां
तदायतनमेव सा किल निरर्गला व्यापृतिः ।
अकामकृतकर्म तन्मतमकारणं ज्ञानिनां
द्वयं न हि विरुध्यते किमु करोति जानाति च ।।१६६।।

श्लोकार्थ : — [तथापि ] तथापि (अर्थात् लोक आदि क ारणोंसे बन्ध नहीं कहा और रागादिक से ही बन्ध क हा है तथापि) [ज्ञानिनां निरर्गलं चरितुम् न इष्यते ] ज्ञानियोंको निरर्गल (स्वच्छन्दतापूर्वक) प्रवर्तना योग्य नहीं है, [सा निरर्गला व्यापृतिः किल तद्-आयतनम् एव ] क्योंकि वह निरर्गल प्रवर्तन वास्तवमें बन्धका ही स्थान है । [ज्ञानिनां अकाम-कृत-कर्म तत् अकारणम् मतम् ] ज्ञानियोंके वाँछारहित कर्म (क ार्य) होता है वह बन्धका क ारण नहीं क हा, क्योंकि [जानाति च करोति ] जानता भी है और (क र्मको ) क रता भी है — [द्वयं किमु न हि विरुध्यते ] यह दोनों क्रियाएँ क्या विरोधरूप नहीं हैं ? (क रना और जानना निश्चयसे विरोधरूप ही है ।)

भावार्थ : — पहले काव्यमें लोक आदिको बन्धका कारण नहीं कहा, इसलिए वहाँ यह नहीं समझना चाहिए कि बाह्यव्यवहारप्रवृत्तिका बन्धके कारणोंमें सर्वथा ही निषेध किया है; बाह्यव्यवहारप्रवृत्ति रागादि परिणामकी — बन्धके कारणकी — निमित्तभूत है, उस निमित्तका यहाँ निषेध नहीं समझना चाहिए । ज्ञानियोंके अबुद्धिपूर्वक — वाँछा रहित — प्रवृत्ति होती है, इसलिये बन्ध नहीं कहा है, उन्हें कहीं स्वच्छन्द होकर प्रवर्तनेको नहीं क हा है; क्योंकि मर्यादा रहित (निरंकुश) प्रवर्तना तो बन्धका ही कारण है । जाननेमें और करनेमें तो परस्पर विरोध है; ज्ञाता रहेगा तो बन्ध नहीं होगा, कर्ता होगा तो अवश्य बन्ध होगा ।१६६।

(वसन्ततिलका)
जानाति यः स न करोति करोति यस्तु
जानात्ययं न खलु तत्किल कर्मरागः ।
रागं त्वबोधमयमध्यवसायमाहु-
र्मिथ्याद्रशः स नियतं स च बन्धहेतुः ।।१६७।।

श्लोकार्थ : — [यः जानाति सः न करोति ] जो जानता है सो क रता नहीं [तु ] और [यः करोति अयं खलु जानाति न ] जो क रता है सो जानता नहीं । [तत् किल कर्मरागः ] क रना तो वास्तवमें क र्मराग है [तु ] और [रागं अबोधमयम् अध्यवसायम् आहुः ] रागको (मुनियोंने) अज्ञानमय अध्यवसाय क हा है; [सः नियतं मिथ्यादृशः ] जो कि वह (अज्ञानमय अध्यवसाय) नियमसे मिथ्यादृष्टिके होता है [च ] और [सः बन्धहेतुः ] वह बन्धका क ारण है ।१६७।

(वसन्ततिलका)
सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीय-
कर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् ।
अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य
कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् ।।१६८।।

श्लोकार्थ : — [इह ] इस जगतमें [मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् ] जीवोंके मरण, जीवित, दुःख, सुख — [सर्वं सदैव नियतं स्वकीय-कर्मोदयात् भवति ] सब सदैव नियमसे ( – निश्चितरूपसे) अपने क र्मोदयसे होता है; [परः पुमान् परस्य मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् कुर्यात् ] ‘दूसरा पुरुष दूसरेके मरण, जीवन, दुःख, सुखको करता है’ [यत् तु ] ऐसा जो मानना, [एतत् अज्ञानम् ] वह तो अज्ञान है ।१६८।

(वसन्ततिलका)
अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य
पश्यन्ति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम् ।
कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते
मिथ्याद्रशो नियतमात्महनो भवन्ति ।।१६९।।

श्लोकार्थ : — [एतत् अज्ञानम् अधिगम्य ] इस (पूर्वकथित मान्यतारूप) अज्ञानको प्राप्त करके [ये परात् परस्य मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् पश्यन्ति ] जो पुरुष परसे परके मरण, जीवन, दुःख, सुखक ो देखते हैं अर्थात् मानते हैं, [ते ] वे पुरुष — [अहंकृतिरसेन क र्माणि चिक ीर्षवः] जो कि इसप्रकार अहंक ाररससे क र्मोंको करनेके इच्छुक हैं (अर्थात् ‘मैं इन कर्मोंको करता हूँ’ ऐसे अहंक ाररूप रससे जो क र्म क रनेकी — मारने-जिलानेकी, सुखी-दुःखी क रनेकी — वाँछा क रनेवाले हैं) वे — [नियतम् ] नियमसे [मिथ्यादृशः आत्महनः भवन्ति ] मिथ्यादृष्टि है, अपने आत्माका घात क रनेवाले हैं ।

भावार्थ : — जो परको मारने-जिलानेका तथा सुख-दुःख करनेका अभिप्राय रखते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं । वे अपने स्वरूपसे च्युत होते हुए रागी, द्वेषी, मोही होकर स्वतः ही अपना घात करते हैं, इसलिये वे हिंसक हैं ।१६९।

(अनुष्टुभ्)
मिथ्याद्रष्टेः स एवास्य बन्धहेतुर्विपर्ययात् ।
य एवाध्यवसायोऽयमज्ञानात्माऽस्य द्रश्यते ।।१७०।।

श्लोकार्थ : — [अस्य मिथ्यादृष्टेः ] मिथ्यादृष्टिके [यः एव अयम् अज्ञानात्मा अध्यवसायः दृश्यते ] जो यह अज्ञानस्वरूप १अध्यवसाय दिखाई देता है [सः एव] वह अध्यवसाय ही, [विपर्ययात् ] विपर्ययस्वरूप ( – मिथ्या) होनेसे, [अस्य बन्धहेतुः ] उस मिथ्यादृष्टिके बन्धका क ारण है ।

भावार्थ : — मिथ्या अभिप्राय ही मिथ्यात्व है और वही बन्धका कारण है — ऐसा जानना चाहिए ।१७०।

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(अनुष्टुभ्)
अनेनाध्यवसायेन निष्फ लेन विमोहितः ।
तत्किञ्चनापि नैवास्ति नात्मात्मानं करोति यत् ।।१७१।।

श्लोकार्थ : — [अनेन निष्फ लेन अध्यवसायेन मोहितः ] इस निष्फ ल (निरर्थक) अध्यवसायसे मोहित होता हुआ [आत्मा ] आत्मा [तत् किञ्चन अपि न एव अस्ति यत् आत्मानं न करोति ] अपनेको सर्वरूप क रता है, — ऐसा कुछ भी नहीं है जिसरूप अपनेको न करता हो ।

भावार्थ : — यह आत्मा मिथ्या अभिप्रायसे भूला हुआ चतुर्गति-संसारमें जितनी अवस्थाएँ हैं, जितने पदार्थ हैं उन सर्वरूप अपनेको हुआ मानता है; अपने शुद्ध स्वरूपको नहीं पहिचानता ।१७१।

(इन्द्रवज्रा)
विश्वाद्विभक्तोऽपि हि यत्प्रभावा-
दात्मानमात्मा विदधाति विश्वम् ।
मोहैककन्दोऽध्यवसाय एष
नास्तीह येषां यतयस्त एव ।।१७२।।

श्लोकार्थ : — [विश्वात् विभक्तः अपि हि ] विश्वसे (समस्त द्रव्योंसे) भिन्न होने पर भी [आत्मा ] आत्मा [यत्-प्रभावात् आत्मानम् विश्वम् विदधाति ] जिसके प्रभावसे अपनेको विश्वरूप करता है [एषः अध्यवसायः ] ऐसा यह अध्यवसाय — [मोह-एक-कन्दः ] कि जिसका मोह ही एक मूल है वह — [येषां इह नास्ति ] जिनके नहीं है [ते एव यतयः ] वे ही मुनिे हैं ।१७२।

(शार्दूलविक्रीडित)
सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै-
स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः ।
सम्यङ्निश्चयमेकमेव तदमी निष्कम्पमाक्रम्य किं
शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम् ।।१७३।।

श्लोकार्थ : — आचार्यदेव कहते हैं कि : — [सर्वत्र यद् अध्यवसानम् ] सर्व वस्तुओंमें जो अध्यवसान होते हैं, [अखिलं ] वे सभी (अध्यवसान) [जिनैः ] जिनेन्द्र भगवानने [एवम् ] पूर्वाेक्त रीतिसे [त्याज्यं उक्तं ] त्यागने योग्य कहे हैं, [तत् ] इसलिये [मन्ये ] हम यह मानते हैं कि [अन्य-आश्रयः व्यवहारः एव निखिलः अपि त्याजितः ] ‘पर जिसका आश्रय है ऐसा व्यवहार ही सम्पूर्ण छुड़ाया है’ । [तत् ] तब फि र, [अमी सन्तः ] यह सत्पुरुष [एकम् सम्यक् निश्चयम् एव निष्कम्पम् आक्रम्य ] एक सम्यक् निश्चयको ही निश्चलतया अंगीक ार करके [शुद्धज्ञानघने निजे महिम्नि ] शुद्धज्ञानघनस्वरूप निज महिमामें ( – आत्मस्वरूपमें) [धृतिम् किं न बध्नन्ति ] स्थिरता क्यों धारण नहीं करते ?

भावार्थ : — जिनेन्द्रदेवने अन्य पदार्थोंमें आत्मबुद्धिरूप अध्यवसान छुड़ाये हैं, इससे यह समझना चाहिए कि यह समस्त पराश्रित व्यवहार ही छुड़ाया है । इसलिये आचार्यदेवने शुद्धनिश्चयके ग्रहणका ऐसा उपदेश दिया है कि — ‘शुद्धज्ञानस्वरूप अपने आत्मामें स्थिरता रखो’ । और, ‘‘जब कि भगवानने अध्यवसान छुड़ाये हैं तब फिर सत्पुरुष निश्चयको निश्चलतापूर्वक अंगीकार करके स्वरूपमें स्थिर क्यों नहीं होते ? — यह हमें आश्चर्य होता है’’ यह कहकर आचार्यदेवने आश्चर्य प्रगट किया है।१७३।

(उपजाति)
रागादयो बन्धनिदानमुक्त ा-
स्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्त ाः ।
आत्मा परो वा किमु तन्निमित्त-
मिति प्रणुन्नाः पुनरेवमाहुः ।।१७४।।

श्लोकार्थ : — ‘‘[रागादयः बन्धनिदानम् उक्त ाः ] रागादिक ो बन्धका क ारण क हा और [ते शुद्ध-चिन्मात्र-महः-अतिरिक्त ाः ] उन्हें शुद्धचैतन्यमात्र ज्योतिसे ( – अर्थात् आत्मासे) भिन्न क हा; [तद्-निमित्तम् ] तब फि र उस रागादिक ा निमित्त [किमु आत्मा वा परः ] आत्मा है या क ोई अन्य ?’’ [इति प्रणुन्नाः पुनः एवम् आहुः ] इसप्रकार (शिष्यके) प्रश्नसे प्रेरित होते हुए आचार्यभगवान पुनः इसप्रकार (निम्नप्रकारसे) क हते हैं ।१७४।

(उपजाति)
न जातु रागादिनिमित्तभाव-
मात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः ।
तस्मिन्निमित्तं परसंग एव
वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ।।१७५।।

श्लोकार्थ : — [यथा अर्ककान्तः ] सूर्यक ान्तमणिकी भाँति (-जैसे सूर्यक ान्तमणि स्वतः ही अग्निरूप परिणमित नहीं होता, उसके अग्निरूप परिणमनमें सूर्यबिम्ब निमित्त है, उसीप्रकार) [आत्मा आत्मनः रागादिनिमित्तभावम् जातु न याति ] आत्मा अपनेको रागादिक ा निमित्तक भी भी नहीं होता, [तस्मिन् निमित्तं परसंगः एव ] उसमें निमित्त परसंग ही ( – परद्रव्यका संग ही) है — [अयम् वस्तुस्वभावः उदेति तावत् ] ऐसा वस्तुस्वभाव प्रक ाशमान है । (सदैव वस्तुका ऐसा ही स्वभाव है, इसे किसीने बनाया नहीं है ।) ।१७५।

(अनुष्टुभ्)
इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन सः ।
रागादीन्नात्मनः कुर्यान्नातो भवति कारकः ।।१७६।।

श्लोकार्थ : — [इति स्वं वस्तुस्वभावं ज्ञानी जानाति ] ज्ञानी ऐसे अपने वस्तुस्वभावको जानता है, [तेन सः रागादीन् आत्मनः न कुर्यात् ] इसलिये वह रागादिक ो निजरूप नहीं करता, [अतः कारकः न भवति ] अतः वह (रागादिक ा) क र्ता नहीं है ।१७६।

(अनुष्टुभ्)
इति वस्तुस्वभावं स्वं नाज्ञानी वेत्ति तेन सः ।
रागादीनात्मनः कुर्यादतो भवति कारकः ।।१७७।।

श्लोकार्थ : — [इति स्वं वस्तुस्वभावं अज्ञानी न वेत्ति ] अज्ञानी अपने ऐसे वस्तुस्वभावको नहीं जानता, [तेन सः रागादीन् आत्मनः कुर्यात् ] इसलिये वह रागादिक ो ( – रागादिभावोंको) अपना करता है, [अतः कारकः भवति ] अतः वह उनका क र्ता होता है ।१७७।

(शार्दूलविक्रीडित)
इत्यालोच्य विवेच्य तत्किल परद्रव्यं समग्रं बलात्
तन्मूलां बहुभावसन्ततिमिमामुद्धर्तुकामः समम् ।
आत्मानं समुपैति निर्भरवहत्पूर्णैकसंविद्युतं
येनोन्मूलितबन्ध एष भगवानात्मात्मनि स्फू र्जति ।।१७८।।

श्लोकार्थ : — [इति ] इसप्रकार (परद्रव्य और अपने भावकी निमित्त-नैमित्तिक ताको) [आलोच्य ] विचार करके, [तद्-मूलां इमाम् बहुभावसन्ततिम् समम् उद्धर्तुकामः ] परद्रव्यमूलक बहुभावोंकी सन्ततिको एक ही साथ उखाड़ फें कनेका इच्छुक पुरुष, [तत् किल समग्रं परद्रव्यं बलात् विवेच्य ] उस समस्त परद्रव्यको बलपूर्वक ( – उद्यमपूर्वक, पराक्रमपूर्वक) भिन्न क रके ( – त्याग करके), [निर्भरवहत्-पूर्ण-एक-संविद्-युतं आत्मानं ] अतिशयतासे बहते हुए ( – धारावाही) पूर्ण एक संवेदनसे युक्त अपने आत्माको [समुपैति ] प्राप्त करता है, [येन ] कि जिससे [उन्मूलितबन्धः एषः भगवान् आत्मा ] जिसने क र्मबन्धनको मूलसे उखाड़ फेंका है, ऐसा यह भगवान आत्मा [आत्मनि ] अपनेमें ही ( – आत्मामें ही) [स्फू र्जति ] स्फु रायमान होता है ।

भावार्थ : — जब परद्रव्यकी और अपने भावकी निमित्त-नैमित्तिकता जानकर समस्त परद्रव्यको भिन्न करनेमें-त्यागनेमें आते हैं, तब समस्त रागादिभावोंकी सन्तति कट जाती है और तब आत्मा अपना ही अनुभव करता हुआ कर्मबन्धनको काटकर अपनेमें ही प्रकाशित होता है । इसलिये जो अपना हित चाहते हैं वे ऐसा ही करें ।१७८।

(मन्दाक्रान्ता)
रागादीनामुदयमदयं दारयत्कारणानां
कार्यं बन्धं विविधमधुना सद्य एव प्रणुद्य ।
ज्ञानज्योतिः क्षपिततिमिरं साधु सन्नद्धमेतत्
तद्वद्यद्वत्प्रसरमपरः कोऽपि नास्यावृणोति ।।१७९।।

श्लोकार्थ : — [कारणानां रागादीनाम् उदयं ] बन्धके क ारणरूप रागादिके उदयको [अदयम् ] निर्दयता पूर्वक (उग्र पुरुषार्थसे) [दारयत् ] विदारण करती हुई, [कार्यं विविधम् बन्धं ] उस रागादिके क ार्यरूप (ज्ञानावरणादि) अनेक प्रक ारके बन्धको [अधुना ] अब [सद्यः एव ] तत्काल ही [प्रणुद्य ] दूर क रके, [एतत् ज्ञानज्योतिः ] यह ज्ञानज्योति — [क्षपिततिमिरं ] कि जिसने अज्ञानरूप अन्धक ारका नाश किया है वह — [साधु ] भलीभाँति [सन्नद्धम् ] सज्ज हुई, — [तद्-वत् यद्-वत् ] ऐसी सज्ज हुई कि [अस्य प्रसरम् अपरः कः अपि न आवृणोति ] उसके विस्तारको अन्य कोई आवृत नहीं कर सकता ।

भावार्थ : — जब ज्ञान प्रगट होता है, रागादिक नहीं रहते, उनका कार्य जो बन्ध वह भी नहीं रहता, तब फि र उस ज्ञानको आवृत करनेवाला कोई नहीं रहता, वह सदा प्रकाशमान ही रहता है ।१७९।

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9. मोक्ष अधिकार :arrow_up:
कलश 180-190
कलश 191-192

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(शिखरिणी)
द्विधाकृत्य प्रज्ञाक्रकचदलनाद्बन्धपुरुषौ
नयन्मोक्षं साक्षात्पुरुषमुपलम्भैकनियतम् ।
इदानीमुन्मज्जत्सहजपरमानन्दसरसं
परं पूर्णं ज्ञानं कृतसकलकृत्यं विजयते ।।१८०।।

श्लोकार्थ : — [इदानीम् ] अब (बन्ध पदार्थके पश्चात्), [प्रज्ञा-क्रकच-दलनात् बन्ध- पुरुषौ द्विधाकृत्य ] प्रज्ञारूपी क रवतसे विदारण द्वारा बन्ध और पुरुषको द्विधा (भिन्न भिन्न – दो) करके, [पुरुषम् उपलम्भ-एक-नियतम् ] पुरुषको — कि जो पुरुष मात्र १अनुभूति द्वारा ही निश्चित है उसे — [साक्षात् मोक्षं नयत् ] साक्षात् मोक्ष प्राप्त कराता हुआ, [पूर्णं ज्ञानं विजयते ] पूर्ण ज्ञान जयवंत प्रवर्तता है । वह ज्ञान [उन्मज्जत्-सहज-परम-आनन्द-सरसं ] प्रगट होनेवाले सहज परमानंदके द्वारा सरस अर्थात् रसयुक्त है, [परं ] उत्कृ ष्ट है, और [कृत-सकल-कृत्यं ] जिसने करने योग्य समस्त कार्य कर लिये हैं ( – जिसे कुछ भी करना शेष नहीं है) ऐसा है।

भावार्थ : — ज्ञान बन्ध और पुरुषको पृथक् करके, पुरुषको मोक्ष पहुँचाता हुआ, अपना सम्पूर्ण स्वरूप प्रगट करके जयवन्त प्रवर्तता है । इसप्रकार ज्ञानकी सर्वोत्कृष्टताका कथन ही मंगलवचन है ।१८०।

(स्रग्धरा)
प्रज्ञाछेत्री शितेयं कथमपि निपुणैः पातिता सावधानैः
सूक्ष्मेऽन्तःसन्धिबन्धे निपतति रभसादात्मकर्मोभयस्य ।
आत्मानं मग्नमन्तःस्थिरविशदलसद्धाम्नि चैतन्यपूरे
बन्धं चाज्ञानभावे नियमितमभितः कुर्वती भिन्नभिन्नौ ।।१८१।।

श्लोकार्थ : — [इयं शिता प्रज्ञाछेत्री ] यह प्रज्ञारूप तीक्ष्ण छैनी [निपुणैः] प्रवीण पुरुषोंके द्वारा [कथम् अपि ] किसी भी प्रक ारसे ( – यत्नपूर्वक) [सावधानैः ] सावधानतया (निष्प्रमादतया) [पातिता ] पटक ने पर, [आत्म-कर्म-उभयस्य सूक्ष्मे अन्तःसन्धिबन्धे ] आत्मा और कर्म — दोनोंके सूक्ष्म अन्तरंगमें सन्धिके बन्धमें [रभसात् ] शीघ्र [निपतति ] पड़ती है । किस प्रकार पड़ती है? [आत्मानम् अन्तः-स्थिर-विशद-लसद्-धाम्नि चैतन्यपूरे मग्नम् ] वह आत्माको तो जिसका तेज अन्तरंगमें स्थिर और निर्मलतया देदीप्यमान है, ऐसे चैतन्यप्रवाहमें मग्न क रती हुई [च ] और [बन्धम् अज्ञानभावे नियमितम् ] बन्धको अज्ञानभावमें निश्चल (नियत) क रती हुई — [अभितः भिन्नभिन्नौ कुर्वती ] इसप्रकार आत्मा और बन्धको सर्वतः भिन्न-भिन्न क रती हुई पड़ती है ।

भावार्थ : — यहाँ आत्मा और बन्धको भिन्न-भिन्न करनेरूप कार्य है । उसका कर्ता आत्मा है । वहाँ करणके बिना कर्ता किसके द्वारा कार्य करेगा? इसलिये करण भी आवश्यक है । निश्चयनयसे कर्तासे करण भिन्न नहीं होता; इसलिये आत्मासे अभिन्न ऐसी यह बुद्धि ही इस कार्यमें करण है । आत्माके अनादि बन्ध ज्ञानावरणादि कर्म है, इसका कार्य भावबन्ध तो रागादिक है तथा नोकर्म शरीरादिक है । इसलिये बुद्धिके द्वारा आत्माको शरीरसे, ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मसे तथा रागादिक भावकर्मसे भिन्न एक चैतन्यभावमात्र अनुभव कर ज्ञानमें ही लीन रखना सो यही (आत्मा और बन्धको) भिन्न करना है । इसीसे सर्व कर्मोंका नाश होता है, सिद्धपदकी प्राप्ति होती है, ऐसा जानना चाहिए ।१८१।

(शार्दूलविक्रीडित)
भित्त्वा सर्वमपि स्वलक्षणबलाद्भेत्तुं हि यच्छक्यते
चिन्मुद्रांकि तनिर्विभागमहिमा शुद्धश्चिदेवास्म्यहम् ।
भिद्यन्ते यदि कारकाणि यदि वा धर्मा गुणा वा यदि
भिद्यन्तां न भिदास्ति काचन विभौ भावे विशुद्धे चिति ।।१८२।।


श्लोकार्थ : — [यत् भेत्तुं हि शक्यते सर्वम् अपि स्वलक्षणबलात् भित्त्वा] जो कुछ भी भेदा जा सकता है उस सबको स्वलक्षणके बलसे भेदकर, [चिन्मुद्रा-अंकि त-निर्विभाग-महिमा शुद्धः चिद् एव अहम् अस्मि] जिसकी चिन्मुड्डद्रासे अंकि त निर्विभाग महिमा है (अर्थात् चैतन्यकी मुद्रासे अंकित विभाग रहित जिसकी महिमा है) ऐसा शुद्ध चैतन्य ही मैं हूँ । [यदि कारकाणि वा यदि धर्माः वा यदि गुणाः भिद्यन्ते, भिद्यन्ताम् ] यदि क ारक ोंके, अथवा धर्मोंके, या गुणोंके भेद हों तो भले हों; [विभौ विशुद्धे चिति भावे काचन भिदा न अस्ति ] किन्तु १विभु ऐसे शुद्ध ( – समस्त विभावोंसे रहित – ) चैतन्यभावमें तो क ोई भेद नहीं है । (इसप्रकार प्रज्ञाके द्वारा आत्माको ग्रहण किया जाता है ।)

भावार्थ : — जिनका स्वलक्षण चैतन्य नहीं है ऐसे परभाव तो मुझसे भिन्न हैं, मैं तो मात्र शुद्ध चैतन्य ही हूँ । कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरणरूप कारकभेद, सत्त्व, असत्त्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व आदि धर्मभेद और ज्ञान, दर्शन आदि गुणभेद यदि कथंचित् हों तो भले हों, परन्तु शुद्ध चैतन्यमात्र भावमें तो कोई भेद नहीं है । — इसप्रकार शुद्धनयसे आत्माको अभेदरूप ग्रहण करना चाहिए ।१८२।

(शार्दूलविक्रीडित)
अद्वैतापि हि चेतना जगति चेद् द्रग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत्
तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्साऽस्तित्वमेव त्यजेत् ।
तत्त्यागे जडता चितोऽपि भवति व्याप्यो बिना व्यापका-
दात्मा चान्तमुपैति तेन नियतं द्रग्ज्ञप्तिरूपाऽस्तु चित् ।।१८३।।


श्लोकार्थ : — [जगति हि चेतना अद्वैता ] जगतमें निश्चयतः चेतना अद्वैत है [अपि चेत् सा दृग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत् ] तथापि यदि वह दर्शनज्ञानरूपको छोड़ दे [तत्सामान्यविशेषरूपविरहात् ] तो सामान्यविशेषरूपके अभावसे (वह चेतना) [अस्तित्वम् एव त्यजेत् ] अपने अस्तित्वको छोड़ देगी; और [तत्-त्यागे ] इसप्रकार चेतना अपने अस्तित्वको छोड़ने पर, (१) [चितः अपि जडता भवति ] चेतनके जड़त्व आ जायेगा अर्थात् आत्मा जड़ हो जाय, [च ] और (२) [व्यापकात् विना व्याप्यः आत्मा अन्तम् उपैति ] व्यापक (चेताना)के बिना व्याप्य जो आत्मा वह नष्ट हो जायेगा ( – इसप्रकार दो दोष आते हैं)। [तेन चित् नियतं दृग्ज्ञप्तिरूपा अस्तु ] इसलिये चेतना नियमसे दर्शनज्ञानरूप ही हो।

भावार्थ : — समस्त वस्तुऐं सामान्यविशेषात्मक हैं । इसलिए उन्हें प्रतिभासनेवाली चेतना भी सामान्यप्रतिभासरूप ( – दर्शनरूप) और विशेषप्रतिभासरूप ( – ज्ञानरूप) होनी चाहिए । यदि चेतना अपनी दर्शनज्ञानरूपताको छोड़ दे तो चेतनाका ही अभाव होने पर, या चेतन आत्माको (अपने चेतना गुणका अभाव होने पर) जड़त्व आ जायगा, अथवा तो व्यापकके अभावसे व्याप्य ऐसे आत्माका अभाव हो जायेगा । (चेतना आत्माकी सर्व अवस्थाओंमें व्याप्त होनेसे व्यापक है और आत्मा चेतन होनेसे चेतनाका व्याप्य है । इसलिए चेतनाका अभाव होने पर आत्माका भी अभाव हो जायेगा ।) इसलिये चेतनाको दर्शनज्ञानस्वरूप ही मानना चाहिए ।

यहाँ तात्पर्य यह है कि — सांख्यमतावलम्बी आदि कितने ही लोग सामान्य चेतनाको ही मानकर एकान्त कथन करते हैं, उनका निषेध करनेके लिए यहाँ यह बताया गया है कि ‘वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषरूप है, इसलिए चेतनाको सामान्यविशेषरूप अंगीकार करना चाहिए’ ।१८३।

(इन्द्रवज्रा)
एकश्चितश्चिन्मय एव भावो
भावाः परे ये किल ते परेषाम् ।
ग्राह्यस्ततश्चिन्मय एव भावो
भावाः परे सर्वत एव हेयाः ।।१८४।।

श्लोकार्थ : — [चितः ] चैतन्यका (आत्माका) तो [एकः चिन्मयः एव भावः ] एक चिन्मय ही भाव है, और [ये परे भावाः ] जो अन्य भाव हैं [ते किल परेषाम् ] वे वास्तवमें दूसरोंके भाव हैं; [तत : ] इसलिए [चिन्मयः भावः एव ग्राह्यः ] (एक) चिन्मय भाव ही ग्रहण करने योग्य है, [परे भावाः सर्वतः एव हेयाः ] अन्य भाव सर्वथा त्याज्य हैं ।१८४।

(शार्दूलविक्रीडित)
सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्तचरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यतां
शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम् ।
एते ये तु समुल्लसन्ति विविधा भावाः पृथग्लक्षणा-
स्तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ।।१८५।।


श्लोकार्थ : — [उदात्तचित्तचरितैः मोक्षार्थिभिः ] जिनके चित्तका चरित्र उदात्त ( – उदार, उच्च, उज्ज्वल) है ऐसे मोक्षार्थी [अयम् सिद्धान्तः ] इस सिद्धांतका [सेव्यताम् ] सेवन करें कि — ‘[अहम् शुद्धं चिन्मयम् एकम् परमं ज्योतिः एव सदा एव अस्मि ] मैं तो सदा ही शुद्ध चैतन्यमय एक परम ज्योति ही हूँ; [तु] और [एते ये पृथग्लक्षणाः विविधाः भावाः समुल्लसन्ति ते अहं न अस्मि ] जो यह भिन्न लक्षणवाले विविध प्रक ारके भाव प्रगट होते हैं वे मैं नहीं हूँ, [यतः अत्र ते समग्राः अपि मम परद्रव्यम् ] क्योंकि वे सभी मेरे लिए परद्रव्य हैं ’ ।१८५।

(अनुष्टुभ्)
परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बध्येतैवापराधवान् ।
बध्येतानपराधो न स्वद्रव्ये संवृतो यतिः ।।१८६।।

श्लोकार्थ : — [परद्रव्यग्रहं कुर्वन् ] जो परद्रव्यको ग्रहण क रता है [अपराधवान् ] वह अपराधी है, [बध्येत एव] इसलिये बन्धमें पड़ता है, और [स्वद्रव्ये संवृतः यतिः ] जो स्वद्रव्यमें ही संवृत है (अर्थात ् जो अपने द्रव्यमें ही गुप्त है — मग्न है — संतुष्ट है, परद्रव्यका ग्रहण नहीं करता) ऐसा यति [अनपराधः ] निरपराधी है, [न बध्येत ] इसलिये बँधता नहीं है ।१८६।

(मालिनी)
अनवरतमनन्तैर्बध्यते सापराधः
स्पृशति निरपराधो बन्धनं नैव जातु ।
नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सापराधो
भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी ।।१८७।।


श्लोकार्थ : — [सापराधः ] सापराध आत्मा [अनवरतम् ] निरन्तर [अनन्तैः ] अनंत पुद्गलपरमाणुरूप क र्मोंसे [बध्यते ] बँधता है; [निरपराधः ] निरपराध आत्मा [बन्धनम् ] बन्धनको [जातु ] क दापि [स्पृशति न एव ] स्पर्श नहीं करता । [अयम् ] जो सापराध आत्मा है वह तो [नियतम् ] नियमसे [स्वम् अशुद्धं भजन् ] अपनेको अशुद्ध सेवन करता हुआ [सापराधः ] सापराध है; [निरपराधः ] निरपराध आत्मा तो [साधु ] भलीभाँति [शुद्धात्मसेवी भवति ] शुद्ध आत्माका सेवन करनेवाला होता है ।१८७।

( अज्ञात )
अतो हताः प्रमादिनो गताः सुखासीनतां
प्रलीनं चापलमुन्मूलितमालम्बनम् ।
आत्मन्येवालानितं च चित्त-
मासम्पूर्णविज्ञानघनोपलब्धेः ।।१८८।।

श्लोकार्थ : — [अतः ] इस क थनसे, [सुख-आसीनतां गताः ] सुखासीन (सुखसे बैठे हुए) [प्रमादिनः ] प्रमादी जीवों क ो [हताः ] हत क हा है (अर्थात् उन्हें मोक्षका सर्वथा अनधिक ारी क हा है), [चापलम् प्रलीनम्] चापल्यका ( – अविचारित क ार्यका) प्रलय किया है (अर्थात् आत्मभानसे रहित क्रियाओंको मोक्षके क ारणमें नहीं माना), [आलम्बनम् उन्मूलितम् ] आलंबनको उखाड़ फें का है (अर्थात् सम्यग्दृष्टिके द्रव्यप्रतिक्र मण इत्यादिको भी निश्चयसे बन्धका क ारण मानकर हेय क हा है), [आसम्पूर्ण-विज्ञान-घन-उपलब्धेः ] जब तक सम्पूर्ण विज्ञानघन आत्माकी प्राप्ति न हो तब तक [आत्मनि एव चित्तम् आलानितं च ] (शुद्ध) आत्मारूप स्तम्भसे ही चित्तको बाँध रखा है ( – अर्थात् व्यवहारके आलम्बनसे अनेक प्रवृत्तियोंमें चित्त भ्रमण करता था, उसे शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मामें ही लगानेको क हा है, क्योंकि वही मोक्षका क ारण है) ।१८८।

(वसन्ततिलका)
यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं
तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात् ।
तत्किं प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽधः
किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः ।।१८९।।

श्लोकार्थ : — [यत्र प्रतिक्रमणम् एव विषं प्रणीतं ] (हे भाई !) जहाँ प्रतिक्र मणक ो ही विष क हा है, [तत्र अप्रतिक्रमणम् एव सुधा कुतः स्यात् ] वहाँ अप्रतिक्र मण अमृत कहाँसे हो सकता है ? (अर्थात् नहीं हो सक ता ।) [तत् ] तब फि र [जनः अधः अधः प्रपतन् किं प्रमाद्यति ] मनुष्य नीचे ही नीचे गिरते हुए प्रमादी क्यों होते हैं ? [निष्प्रमादः ] निष्प्रमादी होते हुए [ऊ र्ध्वम् ऊ र्ध्वम् किं न अधिरोहति ] ऊ पर ही ऊ पर क्यों नहीं चढ़ते ?

भावार्थ : — अज्ञानावस्थामें जो अप्रतिक्रमणादि होते हैं उनकी तो बात ही क्या ? किन्तु यहाँ तो, शुभप्रवृत्तिरूप द्रव्यप्रतिक्रमणादिका पक्ष छुड़ानेके लिए उन्हें (द्रव्यप्रतिक्रमणादिको) तो निश्चयनयकी प्रधानतासे विषकुम्भ कहा है, क्योंकि वे कर्मबन्धके ही कारण हैं, और प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिसे रहित ऐसी तीसरी भूमि, जो कि शुद्ध आत्मस्वरूप है तथा प्रतिक्रमणादिसे रहित होनेसे अप्रतिक्रमणादिरूप है, उसे अमृतकुम्भ कहा है अर्थात् वहाँके अप्रतिक्रमणादिको अमृतकुम्भ कहा है । तृतीय भूमि पर चढ़ानेके लिये आचार्यदेवने यह उपदेश दिया है । प्रतिक्रमणादिको विषकुम्भ कहनेकी बात सुनकर जो लोग उल्टे प्रमादी होते हैं उनके सम्बन्धमें आचार्य कहते हैं कि — ‘यह लोग नीचे ही नीचे क्यों गिरते हैं ? तृतीय भूमिमें ऊ पर ही ऊ पर क्यों नहीं चढ़ते ?’ जहाँ प्रतिक्रमणको विषकुम्भ कहा है वहाँ निषेधरूप अप्रतिक्रमण ही अमृतकुम्भ हो सकता है, अज्ञानीका नहीं । इसलिये जो अप्रतिक्रमणादि अमृतकुम्भ कहे हैं वे अज्ञानीके अप्रतिक्रमणादि नहीं जानने चाहिए, किन्तु तीसरी भूमिके शुद्ध आत्मामय जानने चाहिए ।१८९।

(पृथ्वी)
प्रमादकलितः कथं भवति शुद्धभावोऽलसः
कषायभरगौरवादलसता प्रमादो यतः ।
अतः स्वरसनिर्भरे नियमितः स्वभावे भवन्
मुनिः परमशुद्धतां व्रजति मुच्यते वाऽचिरात् ।।१९०।।


श्लोकार्थ : — [कषाय-भर-गौरवात् अलसता प्रमादः ] क षायके भारसे भारी होनेसे आलस्यका होना सो प्रमाद है, [यतः प्रमादकलितः अलसः शुद्धभावः कथं भवति ] इसलिये यह प्रमादयुक्त आलस्यभाव शुद्धभाव कैसे हो सकता है ? [अतः स्वरसनिर्भरे स्वभावे नियमितः भवन् मुनिः ] इसलिये निज रससे परिपूर्ण स्वभावमें निश्चल होनेवाला मुनि [परमशुद्धतां व्रजति ] परम शुद्धताको प्राप्त होता है [वा ] अथवा [अचिरात् मुच्यते ] शीघ्र — अल्प क ालमें ही – (क र्मबन्धसे) छूट जाता है।

भावार्थ : — प्रमाद तो कषायके गौरवसे होता है, इसलिये प्रमादीके शुद्ध भाव नहीं होता । जो मुनि उद्यमपूर्वक स्वभावमें प्रवृत्त होता है, वह शुद्ध होकर मोक्षको प्राप्त करता है ।१९०।

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(शार्दूलविक्रीडित)
त्यक्त्वाऽशुद्धिविधायि तत्किल परद्रव्यं समग्रं स्वयं
स्वद्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराधच्युतः ।
बन्धध्वंसमुपेत्य नित्यमुदितः स्वज्योतिरच्छोच्छल-
च्चैतन्यामृतपूरपूर्णमहिमा शुद्धो भवन्मुच्यते ।।१९१।।

श्लोकार्थ : — [यः किल अशुद्धिविधायि परद्रव्यं तत् समग्रं त्यक्त्वा ] जो पुरुष वास्तवमें अशुद्धता क रनेवाले समस्त परद्रव्यको छोड़कर [स्वयं स्वद्रव्ये रतिम् एति ] स्वयं स्वद्रव्यमें लीन होता है, [सः ] वह पुरुष [नियतम् ] नियमसे [सर्व-अपराध-च्युतः ] सर्व अपराधोंसे रहित होता हुआ, [बन्ध-ध्वंसम् उपेत्य नित्यम् उदितः ] बन्धके नाशको प्राप्त होकर नित्य-उदित (सदा प्रक ाशमान) होता हुआ, [स्व-ज्योतिः-अच्छ-उच्छलत्-चैतन्य-अमृत-पूर- पूर्ण-महिमा ] अपनी ज्योतिसे (आत्मस्वरूपके प्रक ाशसे) निर्मलतया उछलता हुआ जो चैतन्यरूप अमृतका प्रवाह उसके द्वारा जिसक ी पूर्ण महिमा है ऐसा [शुद्धः भवन् ] शुद्ध होता हुआ, [मुच्यते ] क र्मोंसे मुक्त होता है ।

भावार्थ : — जो पुरुष, पहले समस्त परद्रव्यका त्याग करके निज द्रव्यमें (आत्मस्वरूपमें) लीन होता है, वह पुरुष समस्त रागादिक अपराधोंसे रहित होकर आगामी बन्धका नाश करता है और नित्य उदयस्वरूप केवलज्ञानको प्राप्त करके, शुद्ध होकर समस्त कर्मोंका नाश करके, मोक्षको प्राप्त करता है । यह, मोक्ष होनेका अनुक्रम है ।१९१।

(मन्दाक्रान्ता)
बन्धच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेत-
न्नित्योद्योतस्फु टितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम् ।
एकाकारस्वरसभरतोऽत्यन्तगम्भीरधीरं
पूर्णं ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि ।।१९२।।

श्लोकार्थ : — [बन्धच्छेदात् अतुलम् अक्षय्यम् मोक्षम् कलयत् ] कर्मबन्धके छेदनेसे अतुल अक्षय (अविनाशी) मोक्षका अनुभव करता हुआ, [नित्य-उद्योत-स्फु टित-सहज- अवस्थम् ] नित्य उद्योतवाली (जिसका प्रक ाश नित्य है ऐसी) सहज अवस्था जिसकी खिल उठी है ऐसा, [एकान्त-शुद्धम् ] एक ान्त शुद्ध ( – क र्ममलके न रहनेसे अत्यन्त शुद्ध), और [एकाकार-स्व-रस-भरतः अत्यन्त-गम्भीर-धीरम् ] एक ाक ार (एक ज्ञानमात्र आक ारमें परिणमित) निजरसकी अतिशयतासे जो अत्यन्त गम्भीर और धीर है ऐसा, [एतत् पूर्णं ज्ञानम् ] यह पूर्ण ज्ञान [ज्वलितम् ] प्रकाशित हो उठा है (सर्वथा शुद्ध आत्मद्रव्य जाज्वल्यमान प्रगट हुआ है); और [स्वस्य अचले महिम्नि लीनम् ] अपनी अचल महिमामें लीन हुआ है ।

भावार्थ : — कर्मका नाश करके मोक्षका अनुभव करता हुआ, अपनी स्वाभाविक अवस्थारूप, अत्यन्त शुद्ध, समस्त ज्ञेयाकारोंको गौण करता हुआ, अत्यन्त गम्भीर (जिसका पार नहीं है ऐसा) और धीर (आकुलता रहित) — ऐसा पूर्ण ज्ञान प्रगट देदीप्यमान होता हुआ, अपनी महिमामें लीन हो गया ।१९२।

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10. सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार :arrow_up:
कलश 193-200
कलश 201-210
कलश 211-220
कलश 221-230
कलश 231-240
कलश 241-246

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(मन्दाक्रान्ता)
नीत्वा सम्यक् प्रलयमखिलान् कर्तृभोक्त्रादिभावान्
दूरीभूतः प्रतिपदमयं बन्धमोक्षप्रक्लृप्तेः ।
शुद्धः शुद्धः स्वरसविसरापूर्णपुण्याचलार्चि-
ष्टंक ोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फू र्जति ज्ञानपुंजः ।।१९३।।

श्लोकार्थ : — [अखिलान् कर्तृ-भोक्तृ-आदि-भावान् सम्यक् प्रलयम् नीत्वा ] समस्त क र्ता- भोक्ता आदि भावों क ो सम्यक् प्रक ारसे (भलीभाँति) नाशक ो प्राप्त क राके [प्रतिपदम् ] पद-पद पर (अर्थात ् क र्मोंके क्षयोपशमके निमित्तसे होनेवाली प्रत्येक पर्यायमें) [बन्ध-मोक्ष-प्रक्लृप्तेः दूरीभूतः ] बन्ध-मोक्षकी रचनासे दूर वर्तता हुआ, [शुद्धः शुद्धः ] शुद्ध – शुद्ध (अर्थात ् रागादि मल तथा आवरणसे रहित), [स्वरस-विसर-आपूर्ण-पुण्य-अचल-अर्चिः ] जिसका पवित्र अचल तेज निजरसके ( – ज्ञानरसके, ज्ञानचेतनारूप रसके) विस्तारसे परिपूर्ण है ऐसा, और [टंक ोत्कीर्ण-प्रकट-महिमा] जिसकी महिमा टंक ोत्क ीर्ण प्रगट है ऐसा, [अयं ज्ञानपुंजः स्फू र्जति] यह ज्ञानपुञ्ज आत्मा प्रगट होता है ।

(अनुष्टुभ्)
कर्तृत्वं न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत् ।
अज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारकः ।।१९४।।

श्लोकार्थ : — [कर्तृत्वं अस्य चितः स्वभावः न ] क र्तृत्व इस चित्स्वरूप आत्माका स्वभाव नहीं है, [वेदयितृत्ववत् ] जैसे भोक्तृत्व स्वभाव नहीं है। [अज्ञानात् एव अयं कर्ता ] वह अज्ञानसे ही क र्ता है, [तद्-अभावात् अकारकः ] अज्ञानका अभाव होने पर अकर्ता है ।१९४।

(शिखरिणी)
अकर्ता जीवोऽयं स्थित इति विशुद्धः स्वरसतः
स्फु रच्चिज्जयोतिर्भिश्छुरितभुवनाभोगभवनः ।
तथाप्यस्यासौ स्याद्यदिह किल बन्धः प्रकृतिभिः
स खल्वज्ञानस्य स्फु रति महिमा कोऽपि गहनः ।।१९५।।

श्लोकार्थ : — [स्वरसतः विशुद्धः ] जो निजरससे विशुद्ध है, और [स्फु रत्-चित्- ज्योतिर्भिः छुरित-भुवन-आभोग-भवनः ] जिसक ी स्फु रायमान होती हुई चैतन्यज्योतियोंके द्वारा लोक का समस्त विस्तार व्याप्त हो जाता है ऐसा जिसका स्वभाव है, [अयं जीवः ] ऐसा यह जीव [इति ] पूर्वोक्त प्रकारसे (परद्रव्यका तथा परभावोंका) [अकर्ता स्थितः ] अकर्ता सिद्ध हुआ, [तथापि ] तथापि [अस्य ] उसे [इह ] इस जगतमें [प्रकृतिभिः ] कर्मप्रकृ तियोंके साथ [यद् असौ बन्धः किल स्यात् ] जो यह (प्रगट) बन्ध होता है, [सः खलु अज्ञानस्य कः अपि गहनः महिमा स्फु रति ] सो वह वास्तवमें अज्ञानकी कोई गहन महिमा स्फु रायमान है।

भावार्थ : — जिसका ज्ञान सर्व ज्ञेयोंमें व्याप्त होनेवाला है ऐसा यह जीव शुद्धनयसे परद्रव्यका कर्ता नहीं है, तथापि उसे कर्मका बन्ध होता है यह अज्ञानकी कोई गहन महिमा है — जिसका पार नहीं पाया जाता ।१९५।

(अनुष्टुभ्)
भोक्तृत्वं न स्वभावोऽस्य स्मृतः कर्तृत्ववच्चितः ।
अज्ञानादेव भोक्त ायं तदभावादवेदकः ।।१९६।।

श्लोकार्थ : — [कर्तृत्ववत् ] कर्तृत्वकी भाँति [भोक्तृत्वं अस्य चितः स्वभावः स्मृतः न ] भोक्तृत्व भी इस चैतन्यका (चित्स्वरूप आत्माका) स्वभाव नहीं कहा है । [अज्ञानात् एव अयं भोक्ता ] वह अज्ञानसे ही भोक्त ा है, [तद्-अभावात् अवेदकः ] अज्ञानका अभाव होने पर वह अभोक्त है ।१९६।

(शार्दूलविक्रीडित)
अज्ञानी प्रकृतिस्वभावनिरतो नित्यं भवेद्वेदको
ज्ञानी तु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातुचिद्वेदकः ।
इत्येवं नियमं निरूप्य निपुणैरज्ञानिता त्यज्यतां
शुद्धैकात्ममये महस्यचलितैरासेव्यतां ज्ञानिता ।।१९७।।


श्लोकार्थ : — [अज्ञानी प्रकृति-स्वभाव-निरतः नित्यं वेदकः भवेत् ] अज्ञानी प्रकृति- स्वभावमें लीन – रक्त होनेसे ( – उसीको अपना स्वभाव जानता है इसलिये – ) सदा वेदक है, [तु ] और [ज्ञानी प्रकृति-स्वभाव-विरतः जातुचित् वेदकः नो ] ज्ञानी तो प्रकृ तिस्वभावसे विरक्त होनेसे ( – उसे परका स्वभाव जानता है इसलिए – ) क दापि वेदक नहीं है । [इति एवं नियमं निरूप्य ] इसप्रकार के नियमको भलीभाँति विचार करके — निश्चय करके [निपुणैः अज्ञानिता त्यज्यताम्] निपुण पुरुषो अज्ञानीपनको छोड़ दो और [शुद्ध-एक-आत्ममये महसि ] शुद्ध-एक -आत्मामय तेजमें [अचलितैः ] निश्चल होकर [ज्ञानिता आसेव्यताम् ] ज्ञानीपनेका सेवन करो ।१९७।

(वसन्ततिलका)
ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म
जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावम् ।
जानन्परं करणवेदनयोरभावा-
च्छुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव ।।१९८।।

श्लोकार्थ : — [ज्ञानी कर्म न करोति च न वेदयते ] ज्ञानी कर्मको न तो करता है और न वेदता (भोगता) है, [तत्स्वभावम् अयं किल केवलम् जानाति ] वह कर्मके स्वभावको मात्र जानता ही है । [परं जानन् ] इसप्रकार मात्र जानता हुआ [करण-वेदनयोः अभावात् ] क रने और वेदनेके (भोगनेके) अभावके कारण [शुद्ध-स्वभाव-नियतः सः हि मुक्त : एव ] शुद्ध स्वभावमें निश्चल ऐसा वह वास्तवमें मुक्त ही है ।

भावार्थ : — ज्ञानी कर्मका स्वाधीनतया कर्ता-भोक्ता नहीं है, मात्र ज्ञाता ही है; इसलिये वह मात्र शुद्धस्वभावरूप होता हुआ मुक्त ही है । कर्म उदयमें आता भी है, फिर भी वह ज्ञानीका क्या कर सकता है ? जब तक निर्बलता रहती है तबतक कर्म जोर चला ले; ज्ञानी क्रमशः शक्ति बढ़ाकर अन्तमें कर्मका समूल नाश करेगा ही ।१९८।

(अनुष्टुभ्)
ये तु कर्तारमात्मानं पश्यन्ति तमसा तताः ।
सामान्यजनवत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षताम् ।।१९९।।

श्लोकार्थ : — [ये तु तमसा तताः आत्मानं कर्तारम् पश्यन्ति ] जो अज्ञान-अंधक ारसे आच्छादित होते हुए आत्माको कर्ता मानते हैं, [मुमुक्षताम् अपि ] वे भले ही मोक्षके इच्छुक हों तथापि [सामान्यजनवत्] सामान्य (लौकि क ) जनोंकी भाँति [तेषां मोक्षः न ] उनकी भी मुक्ति नहीं होती । १९९ ।

(अनुष्टुभ्)
नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः ।
कर्तृकर्मत्वसम्बन्धाभावे तत्कर्तृता कुतः ।।२००।।


श्लोकार्थ : — [परद्रव्य-आत्मतत्त्वयोः सर्वः अपि सम्बन्धः नास्ति ] परद्रव्य और आत्म- तत्त्वका सम्पूर्ण ही (कोई भी) सम्बन्ध नहीं है; [कर्तृ-कर्मत्व-सम्बन्ध-अभावे ] इसप्रकार क र्तृ- क र्मत्वके सम्बन्धका अभाव होनेसे, [तत्कर्तृता कुतः ] आत्माके परद्रव्यका क र्तृत्व क हाँसे हो सकता है ?

भावार्थ : — परद्रव्य और आत्माका कोई भी सम्बन्ध नहीं है, तब फिर उनमें कर्ताकर्मसम्बन्ध कैसे हो सकता है ? इसप्रकार जहाँ कर्ताकर्मसम्बन्ध नहीं है, वहाँ आत्माके परद्रव्यका कर्तृत्व कैसे हो सकता है ? २००।

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(वसन्ततिलका)
एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्धं
सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः ।
तत्कर्तृकर्मघटनास्ति न वस्तुभेदे
पश्यन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम् ।।२०१।।

श्लोकार्थ : — [यतः ] क्योंकि [इह ] इस लोक में [एकस्य वस्तुनः अन्यतरेण सार्धं सकलः अपि सम्बन्धः एव निषिद्धः] एक वस्तुका अन्य वस्तु के साथ सम्पूर्ण सम्बन्ध ही निषेध किया गया है, [तत् ] इसलिये [वस्तुभेदे ] जहाँ वस्तुभेद है अर्थात् भिन्न वस्तुएँ हैं वहाँ [कर्तृकर्मघटना अस्ति न] कर्ताकर्म घटना नहीं होती — [मुनयः च जनाः च ] इसप्रकार मुनिजन और लौकिक जन [तत्त्वम् अकर्तृ पश्यन्तु ] तत्त्वको (–वस्तु के यथार्थ स्वरूपको) अकर्ता देखो, (यह श्रद्धामें लाओ कि — कोई किसी का कर्ता नहीं है, परद्रव्य परका अकर्ता ही है) ।२०१।

(वसन्ततिलका)
ये तु स्वभावनियमं कलयन्ति नेम-
मज्ञानमग्नमहसो बत ते वराकाः ।
कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्म-
कर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः ।।२०२।।

श्लोकार्थ : — (आचार्यदेव खेदपूर्वक कहते हैं कि:) [बत ] अरेरे! [ये तु इमम्स्वभावनियमं न कलयन्ति ] जो इस वस्तुस्वभाव के नियमको नहीं जानते [ते वराकाः ] वे बेचारे, [अज्ञानमग्नमहसः ] जिनका (पुरुषार्थरूप – पराक्रमरूप) तेज अज्ञानमें डूब गया है ऐसे, [कर्म कुर्वन्ति ] कर्म को करते हैं; [ततः एव हि ] इसलिये [भावकर्मकर्ता चेतनः एव स्वयं भवति ] भाव कर्मका कर्ता चेतन ही स्वयं होता है, [अन्यः न ] अन्य कोई नहीं ।

भावार्थ : — वस्तुके स्वरूपके नियमको नहीं जानता, इसलिये परद्रव्यका कर्ता होता हुआ अज्ञानी (–मिथ्यादृष्टि) जीव स्वयं ही अज्ञानभाव में परिणमित होता है; इसप्रकार अपने भावकर्म का कर्ता अज्ञानी स्वयं ही है, अन्य नहीं ।२०२।

(शार्दूलविक्रीडित)
कार्यत्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्वयो-
रज्ञायाः प्रकृतेः स्वकार्यफ लभुग्भावानुषंगात्कृतिः ।
नैकस्याः प्रकृतेरचित्त्वलसनाज्जीवोऽस्य कर्ता ततो
जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः ।।२०३।।

श्लोकार्थ : — [कर्म कार्यत्वात् अकृतं न ] जो कर्म (अर्थात् भावकर्म) है वह कार्य है, इसलिये वह अकृत नहीं हो सकता अर्थात् किसी के द्वारा किये बिना नहीं हो सकता । [च ] और [तत् जीव-प्रकृत्योः द्वयोः कृतिः न ] ऐसे भी नहीं है कि वह (भावकर्म) जीव और प्रकृति दोनोंकी कृति हो, [अज्ञायाः प्रकृतेः स्व-कार्य-फल-भुग्-भाव-अनुषंगात् ] क्योंकि यदि वह दोनों का कार्य हो तो ज्ञानरहित (जड़) प्रकृति को भी अपने कार्य का फल भोगने का प्रसंग आ जायेगा । [एकस्याः प्रकृतेः न ] और वह (भावकर्म) एक प्रकृति की कृति (–अकेली प्रकृति का कार्य–) भी नहीं है, [अचित्त्वलसनात् ] क्योंकि प्रकृति का तो अचेतनत्व प्रगट है (अर्थात् प्रकृति तो अचेतन है और भावकर्म चेतन है) । [ततः ] इसलिये [अस्य कर्ता जीवः ] उस भावकर्म का कर्ता जीव ही है [च ] और [चिद्-अनुगं ] चेतन का अनुसरण करनेवाला अर्थात् चेतन के साथ अन्वयरूप ( – चेतन के परिणामरूप – ) ऐसा [तत् ] वह भावकर्म [जीवस्य एव कर्म ] जीवका ही कर्म है, [यत् ] क्योंकि [पुद्गलः ज्ञाता न ] पुद्गल तो ज्ञाता नहीं है (इसलिये वह भावकर्म पुद्गलका कर्म नहीं हो सकता) ।

भावार्थ : — चेतनकर्म चेतन के ही होता है; पुद्गल जड़ है, उससे चेतनकर्म कैसे हो सकता है ? ।२०३।

(शार्दूलविक्रीडित)
कर्मैव प्रवितर्क्य कर्तृ हतकैः क्षिप्त्वात्मनः कर्तृतां
कर्तात्मैष कथंचिदित्यचलिता कैश्चिच्छ्रुतिः कोपिता।
तेषामुद्धतमोहमुद्रितधियां बोधस्य संशुद्धये
स्याद्वादप्रतिबन्धलब्धविजया वस्तुस्थितिः स्तूयते ।।२०४।।

श्लोकार्थ : — [कैश्चित् हतकैः ] कोई आत्माके घातक (सर्वथा एकान्तवादी) [कर्म एव कर्तृ प्रवितर्क्य ] कर्म को ही कर्ता विचार कर [आत्मनः कर्तृतां क्षिप्त्वा ] आत्माके कर्तृत्व को उड़ाकर, ‘[एषः आत्मा कथंचित् कर्ता ] यह आत्मा कथंचित् कर्ता है’ [इति अचलिता श्रुतिः कोपिता ] ऐसा कहनेवाली अचलित श्रुति को कोपित करते हैं ( – निर्बाध जिनवाणी की विराधना करते हैं); [उद्धत-मोह-मुद्रित-धियां तेषाम् बोधस्य संशुद्धये ] जिनकी बुद्धि तीव्र मोह से मुद्रित हो गई है ऐसे उन आत्मघातकों के ज्ञान की संशुद्धि के लिये (निम्नलिखित गाथाओं द्वारा) [वस्तुस्थितिः स्तूयते ] वस्तुस्थिति कही जाती है — [स्याद्वाद-प्रतिबन्ध-लब्ध-विजया ] जिस वस्तुस्थिति ने स्याद्वाद के प्रतिबन्ध से विजय प्राप्त की है (अर्थात् जो वस्तुस्थिति स्याद्वादरूप नियम से निर्बाधतया सिद्ध होती है) ।

भावार्थ : — कोई एकान्तवादी सर्वथा एकान्ततः कर्म का कर्ता कर्मको ही कहते हैं और आत्मा को अकर्ता ही कहते हैं; वे आत्माके घातक हैं । उन पर जिनवाणीका कोप है, क्योंकि स्याद्वाद से वस्तुस्थिति को निर्बाधतया सिद्ध करनेवाली जिनवाणी तो आत्मा को कथंचित् कर्ता कहती है । आत्मा को अकर्ता ही कहनेवाले एकान्तवादियों की बुद्धि उत्कट मिथ्यात्व से ढक गई है; उनके मिथ्यात्व को दूर करने के लिये आचार्यदेव स्याद्वादानुसार जैसी वस्तुस्थिति है, वह निम्नलिखित गाथाओं में कहते हैं ।२०४।

(शार्दूलविक्रीडित)
माऽकर्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या इवाप्यार्हताः
कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः ।
ऊर्ध्वं तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं
पश्यन्तु च्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परम् ।।२०५।।

श्लोकार्थ : — [अमी आर्हताः अपि ] इस आर्हत् मतके अनुयायी अर्थात् जैन भी [पुरुषं ] आत्माको, [सांख्याः इव ] सांख्यमतियों की भाँति, [अकर्तारम् मा स्पृशन्तु ] (सर्वथा) अकर्ता मत मानो; [भेद-अवबोधात् अधः ] भेदज्ञान होनेसे पूर्व [तं किल ] उसे [सदा ] निरन्तर [कर्तारं कलयन्तु ] कर्ता मानो, [तु ] और [ऊर्ध्वं ] भेदज्ञान होनेके बाद [उद्धत-बोध-धाम-नियतं स्वयं प्रत्यक्षम् एनम् ] उद्धत ज्ञानधाममें निश्चित इस स्वयं प्रत्यक्ष आत्मा को [च्युत-कर्तृभावम् अचलं एकं परम् ज्ञातारम् ] कर्तृत्व रहित, अचल, एक परम ज्ञाता ही [पश्यन्तु ] देखो।

भावार्थ : — सांख्यमतावलम्बी पुरुषको सर्वथा एकान्त से अकर्ता, शुद्ध उदासीन चैतन्यमात्र मानते हैं । ऐसा मानने से पुरुषको संसार के अभावका प्रसंग आता है; और यदि प्रकृति को संसार माना जाये तो वह भी घटित नहीं होता, क्योंकि प्रकृति तो जड़ है, उसे सुखदुःखादिका संवेदन नहीं है, तो उसे संसार कैसा ? ऐसे अनेक दोष एकान्त मान्यता में आते हैं । सर्वथा एकान्त वस्तु का स्वरूप ही नहीं है । इसलिये सांख्यमती मिथ्यादृष्टि हैं; और यदि जैन भी ऐसा मानें तो वे भी मिथ्यादृष्टि हैं । इसलिये आचार्यदेव उपदेश देते हैं कि — सांख्यमतियोंकी भाँति जैन आत्माको सर्वथा अकर्ता न मानें; जब तक स्व-पर का भेदविज्ञान न हो तब तक तो उसे रागादिका — अपने चेतनरूप भावकर्मों का — कर्ता मानो, और भेदविज्ञान होनेके बाद शुद्ध विज्ञानघन, समस्त कर्तृत्वके भावसे रहित, एक ज्ञाता ही मानो । इसप्रकार एक ही आत्मा में कर्तृत्व तथा अकर्तृत्व — ये दोनों भाव विवक्षावश सिद्ध होते हैं । ऐसा स्याद्वाद मत जैनोंका है; और वस्तुस्वभाव भी ऐसा ही है, कल्पना नहीं है । ऐसा (स्याद्वादानुसार) मानने से पुरुषको संसार-मोक्ष आदिकी सिद्धि होती है; और सर्वथा एकान्त मानने से सर्व निश्चय-व्यवहारका लोप होता है ।२०५।

(मालिनी)
क्षणिकमिदमिहैकः कल्पयित्वात्मतत्त्वं
निजमनसि विधत्ते कर्तृभोक्त्रोर्विभेदम् ।
अपहरति विमोहं तस्य नित्यामृतौघैः
स्वयमयमभिषिंचंश्चिच्चमत्कार एव ।।२०६।।

श्लोकार्थ : — [इह ] इस जगतमें [एकः ] कोई एक तो (अर्थात् क्षणिक वादी बौद्धमती तो) [इदम् आत्मतत्त्वं क्षणिकम् कल्पयित्वा ] इस आत्मतत्त्वको क्षणिक कल्पित करके [निज-मनसि ] अपने मनमें [कर्तृ-भोक्त्रोः विभेदम् विधत्ते ] कर्ता और भोक्ताका भेद करते हैं ( – कर्ता अन्य है और भोक्ता अन्य है, ऐसा मानते हैं); [तस्य विमोहं ] उनके मोह को (अज्ञानको) [अयम् चित्-चमत्कारः एव स्वयम् ] यह चैतन्य चमत्कार ही स्वयं [नित्य-अमृत-ओघैः ] नित्यतारूप अमृतके ओघ (–समूह) के द्वारा [अभिषिंचं ] अभिसिंचन करता हुआ, [अपहरति ] दूर करता है ।

भावार्थ : — क्षणिकवादी कर्ता-भोक्ता में भेद मानते हैं, अर्थात् वे यह मानते हैं कि — प्रथम क्षण में जो आत्मा था, वह दूसरे क्षण में नहीं है । आचार्यदेव कहते हैं कि — हम उसे क्या समझायें ? यह चैतन्य ही उसका अज्ञान दूर कर देगा — कि जो (चैतन्य) अनुभवगोचर नित्य है ।

प्रथम क्षणमें जो आत्मा था, वही द्वितीय क्षण में कहता है कि ‘मैं जो पहले था वही हूँ’; इसप्रकारका स्मरणपूर्वक प्रत्यभिज्ञान आत्मा की नित्यता बतलाता है । यहाँ बौद्धमती कहता है कि — ‘जो प्रथम क्षण में था, वही मैं दूसरे क्षण में हूँ’ ऐसा मानना वह तो अनादिकालीन अविद्यासे भ्रम है; यह भ्रम दूर हो तो तत्त्व सिद्ध हो, और समस्त क्लेश मिटे । उसका उत्तर देते हुये कहते हैं कि — ‘‘हे बौद्ध ! तू यह जो तर्क ( – दलील) करता है, उस संपूर्ण तर्कको करनेवाला एक ही आत्मा है या अनेक आत्मा हैं ? और तेरे संपूर्ण तर्क को एक ही आत्मा सुनता है ऐसा मानकर तू तर्क करता है या संपूर्ण तर्क पूर्ण होने तक अनेक आत्मा बदल जाते हैं, ऐसा मानकर तर्क करता है ? यदि अनेक आत्मा बदल जाते हैं, तो तेरे संपूर्ण तर्कको तो कोई आत्मा सुनता नहीं है; तब फिर तर्क करने का क्या प्रयोजन है ? यों अनेक प्रकार से विचार करने पर तुझे ज्ञात होगा कि आत्माको क्षणिक मानकर प्रत्यभिज्ञान को भ्रम कह देना वह यथार्थ नहीं है । इसलिये यह समझना चाहिये कि — आत्मा को एकान्ततः नित्य या एकान्ततः अनित्य मानना वह दोनों भ्रम हैं, वस्तुस्वरूप नहीं; हम (जैन) कथंचित् नित्यानित्यात्मक वस्तुस्वरूप कहते हैं वही सत्यार्थ है ।’’ ।२०६।

(अनुष्टुभ्)
वृत्त्यंशभेदतोऽत्यन्तं वृत्तिमन्नाशकल्पनात् ।
अन्यः करोति भुंक्ते ऽन्य इत्येकान्तश्चकास्तु मा ।।२०७।।

श्लोकार्थ : — [वृत्ति-अंश-भेदतः ] वृत्त्यंशोंके अर्थात् पर्यायों के भेदके कारण [अत्यन्तं वृत्तिमत्-नाश-कल्पनात् ] ‘वृत्तिमान् अर्थात् द्रव्य अत्यन्त (सर्वथा) नष्ट हो जाता है’ ऐसी क ल्पनाके द्वारा [अन्यः करोति ] ‘अन्य करता है और [अन्यः भुंक्ते ] अन्य भोगता है’ [इति एकान्तः मा चकास्तु ] ऐसा एकान्त प्रकाशित मत करो ।

भावार्थ : — द्रव्यकी पर्यायें प्रतिक्षण नष्ट होती हैं, इसलिये बौद्ध यह मानते हैं कि ‘द्रव्य ही सर्वथा नष्ट होता है’ । ऐसी एकान्त मान्यता मिथ्या है । यदि पर्यायवान पदार्थका ही नाश हो जाये तो पर्याय किसके आश्रय से होगी ? इसप्रकार दोनोंके नाशका प्रसंग आनेसे शून्यका प्रसंग आता है ।२०७।

(शार्दूलविक्रीडित)
आत्मानं परिशुद्धमीप्सुभिरतिव्याप्तिं प्रपद्यान्धकैः
कालोपाधिबलादशुद्धिमधिकां तत्रापि मत्वा परैः ।
चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य पृथुकैः शुद्धर्जुसूत्रे रतै-
रात्मा व्युज्झित एष हारवदहो निःसूत्रमुक्ते क्षिभिः ।।२०८।।

श्लोकार्थ : — [आत्मानं परिशुद्धम् ईप्सुभिः परैः अन्धकैः ] आत्माको सम्पूर्णतया शुद्ध चाहनेवाले अन्य किन्हीं अन्धोंने — [पृथुकैः ] बालिशजनों ने (बौद्धों ने) — [काल-उपाधि-बलात् अपि तत्र अधिकाम् अशुद्धिम् मत्वा ] कालकी उपाधिके कारण भी आत्मामें अधिक अशुद्धि मानकर [अतिव्याप्तिं प्रपद्य ] अतिव्याप्तिको प्राप्त होकर, शुद्ध-ऋजुसूत्रे रतैः ] शुद्ध ऋजुसूत्रनय में रत होते हुए [चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य ] तन्यको क्षणिक कल्पित करके, [अहो एषः आत्मा व्युज्झितः ] इस आत्माको छोड़ दिया; [निःसूत्र-मुक्ता-ईक्षिभिः हारवत् ] जैसे हारके सूत्र(डोरे) को न देखकर मोतियों को ही देखनेवाले हारको छोड़ देते हैं ।

भावार्थ : — आत्मा को सम्पूर्णतया शुद्ध माननेके इच्छुक बौद्धोंने विचार किया कि — ‘‘यदि आत्माको नित्य माना जाय तो नित्य में कालकी अपेक्षा होती है, इसलिये उपाधि लग जायेगी; इसप्रकार कालकी उपाधि लगनेसे आत्माको बहुत बड़ी अशुद्धि लग जायेगी और इससे अतिव्याप्ति दोष लगेगा ।’’ इस दोषके भय से उन्होंने शुद्ध ऋजुसूत्रनयका विषय जो वर्तमान समय है, उतना मात्र ( – क्षणिक ही – ) आत्मा को माना और उसे (आत्माको) नित्यनित्यास्वरूप नहीं माना । इसप्रकार आत्मा को सर्वथा क्षणिक मानने से उन्हें नित्यानित्यस्वरूप — द्रव्यपर्यायस्वरूप सत्यार्थ आत्माकी प्राप्ति नहीं हुई; मात्र क्षणिक पर्याय में आत्माकी कल्पना हुई; किन्तु वह आत्मा सत्यार्थ नहीं है ।

मोतियोंके हारमें, डोरेमें अनेक मोती पिरोये होते हैं; जो मनुष्य उस हार नामक वस्तुको मोतियों तथा डोरे सहित नहीं देखता — मात्र मोतियोंको ही देखता है, वह पृथक् पृथक् मोतियों को ही ग्रहण करता है, हारको छोड़ देता है; अर्थात् उसे हार की प्राप्ति नहीं होती । इसीप्रकार जो जीव आत्माके एक चैतन्यभाव को ग्रहण नहीं करते और समय समय पर वर्तनापरिणामरूप उपयोगकी प्रवृत्ति को देखकर आत्माको अनित्य कल्पित करके, ऋजुसूत्रनयका विषय जो वर्तमान-समयमात्र क्षणिकत्व है, उतना मात्र ही आत्माको मानते हैं (अर्थात् जो जीव आत्माको द्रव्यपर्यायस्वरूप नहीं मानते — मात्र क्षणिक पर्यायरूप ही मानते हैं ), वे आत्माको छोड़ देते हैं; अर्थात् उन्हें आत्मा की प्राप्ति नहीं होती ।२०८।

(शार्दूलविक्रीडित)
कर्तृर्वेदयितुश्च युक्ति वशतो भेदोऽस्त्वभेदोऽपि वा
कर्ता वेदयिता च मा भवतु वा वस्त्वेव संचिन्त्यताम् ।
प्रोता सूत्र इवात्मनीह निपुणैर्भेत्तुं न शक्या क्वचि-
च्चिच्चिन्तामणिमालिकेयमभितोऽप्येका चकास्त्वेव नः ।।२०९।।

श्लोकार्थ : — [कर्तुः च वेदयितुः युक्ति वशतः भेदः अस्तु वा अभेदः अपि ] कर्ताका और भोक्ताका युक्ति के वशसे भेद हो या अभेद हो, [वा कर्ता च वेदयिता मा भवतु ] अथवा कर्ता और भोक्ता दोनों न हों; [वस्तु एव संचिन्त्यताम् ] वस्तुका ही अनुभव करो । [निपुणैः सूत्रे इव इह आत्मनि प्रोता चित्-चिन्तामणि-मालिका क्वचित् भेत्तुं न शक्या ] जैसे चतुर पुरुषोंके द्वारा डोरेमें पिरोई गई मणियोंकी माला भेदी नहीं जा सकती, उसीप्रकार आत्मा में पिरोई गई चैतन्यरूप चिन्तामणि की माला भी कभी किसी से भेदी नहीं जा सकती; [इयम् एका ] ऐसी यह आत्मारूप माला एक ही, [नः अभितः अपि चकास्तु एव ] हमें समस्ततया प्रकाशमान हो (अर्थात् नित्यत्व, अनित्यत्व आदिके विक ल्प छूटकर हमें आत्माका निर्विकल्प अनुभव हो)

भावार्थ : — आत्मा वस्तु होनेसे द्रव्यपर्यायात्मक है । इसलिये उसमें चैतन्य के परिणमनरूप पर्यायके भेदोंकी अपेक्षा से तो कर्ता-भोक्ताका भेद है और चिन्मात्रद्रव्यकी अपेक्षा से भेद नहीं है; इसप्रकार भेद-अभेद हो । अथवा चिन्मात्र अनुभवनमें भेद-अभेद क्यों कहना चाहिये ? (आत्माको) कर्ता-भोक्ता ही न कहना चाहिये, वस्तुमात्रका अनुभव करना चाहिये । जैसे मणियोंकी माला में मणियोंकी और डोरेकी विवक्षासे भेद-अभेद है, परन्तु माला मात्र के ग्रहण करने पर भेदाभेद-विकल्प नहीं है, इसीप्रकार आत्मा में पर्यायोंकी और द्रव्यकी विवक्षासे भेद-अभेद है, परन्तु आत्मवस्तुमात्र का अनुभव करने पर विकल्प नहीं है । आचार्यदेव कहते हैं कि — ऐसा निर्विकल्प आत्माका अनुभव हमें प्रकाशमान हो ।२०९।

(रथोद्धता)
व्यावहारिकद्रशैव केवलं
कर्तृ कर्म च विभिन्नमिष्यते ।
निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते
कर्तृ कर्म च सदैकमिष्यते ।।२१०।।

श्लोकार्थ : — [केवलं व्यावहारिकदृशा एव कर्तृ च कर्म विभिन्नम् इष्यते ] केवल व्यावहारिक दृष्टिसे ही कर्ता और कर्म भिन्न माने जाते हैं; [निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते ] यदि निश्चय से वस्तुका विचार किया जाये, [कर्तृ च कर्म सदा एकम् इष्यते ] तो कर्ता और कर्म सदा एक माना जाता है ।

भावार्थ : — मात्र व्यवहार-दृष्टि से ही भिन्न द्रव्योंमें कर्तृत्व-कर्मत्व माना जाता है; निश्चय-दृष्टिसे तो एक ही द्रव्यमें कर्तृत्व-कर्मत्व घटित होता है ।२१०।

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(नर्दटक)
ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः
स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत् ।
न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चैकतया
स्थितिरिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव ततः ।।२११।।

श्लोकार्थ : — [ननु परिणाम एव किल विनिश्चयतः कर्म ] वास्तवमें परिणाम ही निश्चय से कर्म है, और [सः परिणामिन एव भवेत्, अपरस्य न भवति ] परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामीका ही होता है, अन्यका नहीं (क्योंकि परिणाम अपने अपने द्रव्यके आश्रित हैं, अन्यके परिणामका अन्य आश्रय नहीं होता); [इह कर्म कर्तृशून्यम् न भवति ] और कर्म कर्ता के बिना नहीं होता, [च वस्तुनः एकतया स्थितिः इह न ] तथा वस्तुकी एकरूप (कूटस्थ) स्थिति नहीं होती (क्योंकि वस्तु द्रव्यपर्यायस्वरूप होनेसे सर्वथा नित्यत्व बाधा सहित है); [ततः तद् एव कर्तृ भवतु ] इसलिये वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप क र्मकी कर्ता है ( – यह निश्चय सिद्धांत है)

(पृथ्वी)
बहिर्लुठति यद्यपि स्फु टदनन्तशक्ति : स्वयं
तथाप्यपरवस्तुनो विशति नान्यवस्त्वन्तरम् ।
स्वभावनियतं यतः सकलमेव वस्त्विष्यते
स्वभावचलनाकुलः किमिह मोहितः क्लिश्यते ।।२१२।।

श्लोकार्थ : — [स्वयं स्फु टत्-अनन्त-शक्ति : ] जिसको स्वयं अनंत शक्ति प्रकाशमान है, ऐसी वस्तु [बहिः यद्यपि लुठति ] अन्य वस्तुके बाहर यद्यपि लोटती है [तथापि अन्य-वस्तु अपरवस्तुनः अन्तरम् न विशति ] तथापि अन्य वस्तु अन्य वस्तुके भीतर प्रवेश नहीं करती, [यतःसकलम् एव वस्तु स्वभाव-नियतम् इष्यते ] क्योंकि समस्त वस्तुएँ अपने अपने स्वभावमें निश्चित हैं, ऐसा माना जाता है । (आचार्यदेव क हते हैं कि – ) [इह ] ऐसा होने पर भी, [मोहितः ] मोहित जीव, [स्वभाव-चलन-आकुलः ] अपने स्वभावसे चलित होकर आकुल होता हुआ, [किम् क्लिश्यते ] क्यों क्लेश पाता है ?

भावार्थ : — वस्तुस्वभाव तो नियमसे ऐसा है कि किसी वस्तुमें कोई वस्तु नहीं मिलती । ऐसा होने पर भी, यह मोही प्राणी, ‘परज्ञेयोंके साथ अपनेको पारमार्थिक सम्बन्ध है’ ऐसा मानकर, क्लेश पाता है, यह महा अज्ञान है ।२१२।

(रथोद्धता)
वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुनो
येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत् ।
निश्चयोऽयमपरोऽपरस्य कः
किं करोति हि बहिर्लुठन्नपि ।।२१३।।

श्लोकार्थ : — [इह च ] इस लोक में [येन एकम् वस्तु अन्यवस्तुनः न ] एक वस्तु अन्य वस्तुकी नहीं है, [तेन खलु वस्तु तत् वस्तु ] इसलिये वास्तवमें वस्तु वस्तु ही है — [अयम् निश्चयः ] यह निश्चय है । [कः अपरः ] ऐसा होनेसे कोई अन्य वस्तु [अपरस्य बहिः लुठन् अपि हि ] अन्य वस्तु के बाहर लोटती हुई भी [किं करोति ] उसका क्या कर सकती है ?

भावार्थ : — वस्तु का स्वभाव तो ऐसा है कि एक वस्तु अन्य वस्तुको नहीं बदला सकती । यदि ऐसा न हो तो वस्तुका वस्तुत्व ही न रहे । इसप्रकार जहाँ एक वस्तु अन्यको परिणमित नहीं कर सकती, वहाँ एक वस्तुने अन्यका क्या किया ? कुछ नहीं । चेतन-वस्तुके साथ पुद्गल एकक्षेत्रावगाहरूप से रह रहे हैं तथापि वे चेतन को जड़ बनाकर अपनेरूपमें परिणमित नहीं कर सके; तब फिर पुद्गलने चेतनका क्या किया ? कुछ भी नहीं ।

इससे यह समझना चाहिए कि — व्यवहार से परद्रव्योंका और आत्माका ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध होने पर भी परद्रव्य ज्ञायकका कुछ भी नहीं कर सकते और ज्ञायक परद्रव्यका कुछ भी नहीं कर सकता ।२१३।

(रथोद्धता)
यत्तु वस्तु कुरुतेऽन्यवस्तुनः
किंचनापि परिणामिनः स्वयम् ।
व्यावहारिकद्रशैव तन्मतं
नान्यदस्ति किमपीह निश्चयात् ।।२१४।।

श्लोकार्थ : — [वस्तु ] एक वस्तु [स्वयम् परिणामिनः अन्य-वस्तुनः ] स्वयं परिणमित होती हुई अन्य वस्तुका [किंचन अपि कुरुते ] कुछ भी क र सकती है — [यत् तु ] ऐसा जो माना जाता है, [तत् व्यावहारिक-दृशा एव मतम् ] वह व्यवहारदृष्टिसे ही माना जाता है । [निश्चयात् ] निश्चयसे [इह अन्यत् किम् अपि न अस्ति ] इस लोक में अन्य वस्तुको अन्य वस्तु कुछ भी नहीं (अर्थात् एक वस्तुको अन्य वस्तुके साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं) है ।

भावार्थ : — एक द्रव्यके परिणमनमें अन्य द्रव्यको निमित्त देखकर यह कहना कि ‘अन्य द्रव्य ने यह किया’, वह व्यवहारनय की दृष्टिसे ही (क हा जाता) है; निश्चयसे तो उस द्रव्यमें अन्य द्रव्य ने कुछ भी नहीं किया है। वस्तु के पर्यायस्वभाव के कारण वस्तु का अपना ही एक अवस्था से दूसरी अवस्थारूप परिणमन होता है; उसमें अन्य वस्तु अपना कुछ भी नहीं मिला सकती ।

इससे यह समझना चाहिये कि — परद्रव्यरूप ज्ञेय पदार्थ उनके भावसे परिणमित होते हैं और ज्ञायक आत्मा अपने भावरूप परिणमन करता है; वे एक-दूसरेका परस्पर कुछ नहीं कर सकते । इसलिये यह व्यवहार से ही माना जाता है कि ‘ज्ञायक परद्रव्योंको जानता है’; निश्चय से ज्ञायक तो बस ज्ञायक ही है ।२१४।

(शार्दूलविक्रीडित)
शुद्धद्रव्यनिरूपणार्पितमतेस्तत्त्वं समुत्पश्यतो
नैकद्रव्यगतं चकास्ति किमपि द्रव्यान्तरं जातुचित् ।
ज्ञानं ज्ञेयमवैति यत्तु तदयं शुद्धस्वभावोदयः
किं द्रव्यान्तरचुम्बनाकुलधियस्तत्त्वाच्च्यवन्ते जनाः ।।२१५।।

श्लोकार्थ : — [शुद्ध-द्रव्य-निरूपण-अर्पित-मतेः तत्त्वं समुत्पश्यतः ] जिसने शुद्ध द्रव्यके निरूपणमें बुद्धिको लगाया है, और जो तत्त्वका अनुभव करता है, उस पुरुषको [एक-द्रव्य-गतं किम्-अपि द्रव्य-अन्तरं जातुचित् न चकास्ति ] एक द्रव्यके भीतर कोई भी अन्य द्रव्य रहता हुआ क दापि भासित नहीं होता । [यत् तु ज्ञानं ज्ञेयम् अवैति तत् अयं शुद्ध-स्वभाव-उदयः ] ज्ञान ज्ञेयको जानता है वह तो यह ज्ञानके शुद्ध स्वभावका उदय है । [जनाः ] जब कि ऐसा है तब फिर लोग [द्रव्य-अन्तर-चुम्बन-आकुल-धियः ] ज्ञानको अन्य द्रव्यके साथ स्पर्श होनेकी मान्यतासे आकुल बुद्धिवाले होते हुए [तत्त्वात् ] तत्त्वसे (शुद्ध स्वरूपसे) [किं च्यवन्ते ] क्यों च्युत होते हैं ?

भावार्थ : — शुद्धनयकी दृष्टि से तत्त्वका स्वरूप विचार करने पर अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यमें प्रवेश दिखाई नहीं देता । ज्ञानमें अन्य द्रव्य प्रतिभासित होते हैं सो तो यह ज्ञानकी स्वच्छताका स्वभाव है; कहीं ज्ञान उन्हें स्पर्श नहीं करता अथवा वे ज्ञानको स्पर्श नहीं करते । ऐसा होने पर भी, ज्ञानमें अन्य द्रव्योंका प्रतिभास देखकर यह लोग ऐसा मानते हुए ज्ञानस्वरूपसे च्युत होते हैं कि ‘ज्ञान को परज्ञेयोंके साथ परमार्थ सम्बन्ध है’; यह उनका अज्ञान है । उन पर करुणा करके आचार्य देव कहते हैं कि — यह लोग तत्त्वसे क्यों च्युत हो रहे हैं ? ।२१५।

(मन्दाक्रान्ता)
शुद्धद्रव्यस्वरसभवनात्किं स्वभावस्य शेष-
मन्यद्द्रव्यं भवति यदि वा तस्य किं स्यात्स्वभावः ।
ज्योत्स्नारूपं स्नपयति भुवं नैव तस्यास्ति भूमि-
र्ज्ञानं ज्ञेयं कलयति सदा ज्ञेयमस्यास्ति नैव ।।२१६।।

श्लोकार्थ : — [शुद्ध-द्रव्य-स्वरस-भवनात् ] शुद्ध द्रव्यका (आत्मा आदि द्रव्यका) निजरसरूप (-ज्ञानादि स्वभावरूप) परिणमन होता है इसलिये, [शेषम् अन्यत्-द्रव्यं किं स्वभावस्य भवति ] क्या शेष कोई अन्यद्रव्य उस ( – ज्ञानादि) स्वभावका हो सकता है ? (नहीं।) [यदि वा स्वभावः किं तस्य स्यात् ] अथवा क्या वह (ज्ञानादि) स्वभाव किसी अन्यद्रव्य का हो सकता है ? (नहीं। परमार्थसे एक द्रव्यका अन्य द्रव्यके साथ सम्बन्ध नहीं है।) [ज्योत्स्नारूपं भुवं स्नपयति ] चाँंदनीका रूप पृथ्वीको उज्ज्वल करता है [भूमिः तस्य न एव अस्ति ] तथापि पृथ्वी चाँदनीकी कदापि नहीं होती; [ज्ञानं ज्ञेयं सदा कलयति ] इसप्रकार ज्ञान ज्ञेय को सदा जानता है [ज्ञेयम् अस्य अस्ति न एव ] तथापि ज्ञेय ज्ञानका कदापि नहीं होता ।

भावार्थ : — शुद्धनय की दृष्टिसे देखा जाये तो किसी द्रव्यका स्वभाव किसी अन्य द्रव्यरूप नहीं होता । जैसे चाँदनी पृथ्वीको उज्ज्वल करती है, किन्तु पृथ्वी चाँदनी की किंचित्मात्र भी नहीं होती, इसीप्रकार ज्ञान ज्ञेयको जानता है, किन्तु ज्ञेय ज्ञानका किंचित्मात्र भी नहीं होता। आत्माका ज्ञानस्वभाव है, इसलिये उसकी स्वच्छता में ज्ञेय स्वयमेव झलकता है, किन्तु ज्ञान में उन ज्ञेयोंका प्रवेश नहीं होता ।२१६।

(मन्दाक्रान्ता)
रागद्वेषद्वयमुदयते तावदेतन्न यावद्
ज्ञानं ज्ञानं भवति न पुनर्बोध्यतां याति बोध्यम् ।
ज्ञानं ज्ञानं भवतु तदिदं न्यक्कृताज्ञानभावं
भावाभावौ भवति तिरयन् येन पूर्णस्वभावः ।।२१७।।

श्लोकार्थ : — [तावत् राग-द्वेष-द्वयम् उदयते ] राग-द्वेषका द्वन्द्व तब तक उदयको प्राप्त होता है [यावद् एतत् ज्ञानं ज्ञानं न भवति ] कि जब तक यह ज्ञान ज्ञानरूप न हो [पुनः बोध्यम् बोध्यतां न याति ] और ज्ञेय ज्ञेयत्वको प्राप्त न हो । [तत् इदं ज्ञानं न्यक्कृत-अज्ञानभावं ज्ञानं भवतु ] इसलिये यह ज्ञान, अज्ञान-भावको दूर क रके, ज्ञानरूप हो — [येन भाव-अभावौ तिरयन् पूर्णस्वभावः भवति ] कि जिससे भाव-अभाव(राग-द्वेष)को रोकता हुआ पूर्णस्वभाव (प्रगट) हो जाये ।

भावार्थ : — जब तक ज्ञान ज्ञानरूप न हो, ज्ञेय ज्ञेयरूप न हो, तब तक राग-द्वेष उत्पन्न होता है; इसलिये यह ज्ञान, अज्ञानभावको दूर करके, ज्ञानरूप होओ, कि जिससे ज्ञानमें जो भाव और अभावरूप दो अवस्थाऐं होती हैं वे मिट जायें और ज्ञान पूर्णस्वभावको प्राप्त हो जाये । यह प्रार्थना है ।२१७।

(मन्दाक्रान्ता)
रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात्
तौ वस्तुत्वप्रणिहितद्रशा द्रश्यमानौ न किंचित् ।
सम्यग्द्रष्टिः क्षपयतु ततस्तत्त्वद्रष्टया स्फुटं तौ
ज्ञानज्योतिर्ज्वलति सहजं येन पूर्णाचलार्चिः ।।२१८।।

श्लोकार्थ : — [इह ज्ञानम् हि अज्ञानभावात् राग-द्वेषौ भवति ] इस जगतमें ज्ञान ही अज्ञानभावसे रागद्वेषरूप परिणमित होता है; [वस्तुत्व-प्रणिहित-दशा दृश्यमानौ तो किंचित् न ] वस्तुत्वमें स्थापित ( – एकाग्र की गई) दृष्टिसे देखने पर (अर्थात् द्रव्यदृष्टिसे देखने पर), वे राग -द्वेष कुछ भी नहीं हैं ( – द्रव्यरूप पृथक् वस्तु नहीं हैं)। [ततः सम्यग्दृष्टिः तत्त्वदृष्टया तौ स्फुटं क्षपयतु ] इसलिये (आचार्यदेव प्रेरणा करते हैं कि) सम्यग्दृष्टि पुरुष तत्त्वदृष्टिसे उन्हें (राग-द्वेषको) स्पष्टतया क्षय करो, [येन पूर्ण-अचल-अर्चिः सहजं ज्ञानज्योतिः ज्वलति ] कि जिससे, पूर्ण और अचल जिसका प्रकाश है ऐसी (दैदीप्यमान) सहज ज्ञानज्योति प्रकाशित हो।

भावार्थ : — राग-द्वेष कोई पृथक् द्रव्य नहीं है, वे (राग-द्वेषरूप परिणाम) जीवके अज्ञानभावसे होते हैं; इसलिये सम्यग्दृष्टि होकर तत्त्वदृष्टिसे देखा जाये तो वे (राग-द्वेष) कुछ भी वस्तु नहीं हैं ऐसा दिखाई देता है, और घातिकर्मोंका नाश होकर केवलज्ञान उत्पन्न होता है। ।२१८।।

(शालिनी)
रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वद्रष्टया
नान्यद्द्रव्यं वीक्ष्यते किंचनापि ।
सर्वद्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति
व्यक्तात्यन्तं स्वस्वभावेन यस्मात् ।।२१९।।

श्लोकार्थ : — [तत्त्वदृष्टया ] तत्त्वदृष्टिसे देखा जाये तो, [राग-द्वेष-उत्पादकं अन्यत् द्रव्यं किंचन अपि न वीक्ष्यते ] राग-द्वेषको उत्पन्न करनेवाला अन्य द्रव्य किंचित्मात्र भी दिखाई नहीं देता, [यस्मात् सर्व-द्रव्य-उत्पत्तिः स्वस्वभावेन अन्तः अत्यन्तं व्यक्ता चकास्ति ] क्योंकि सर्व द्रव्योंकी उत्पत्ति अपने स्वभावसे ही होती हुई अन्तरंगमें अत्यन्त प्रगट (स्पष्ट) प्रकाशित होती है।

भावार्थ : — राग-द्वेष चेतनके ही परिणाम हैं। अन्य द्रव्य आत्माको राग-द्वेष उत्पन्न नहीं करा सकता; क्योंकि सर्व द्रव्योंकी उत्पत्ति अपने अपने स्वभावसे ही होती है, अन्य द्रव्यमें अन्य द्रव्यके गुणपर्यायोंकी उत्पत्ति नहीं होती।।२१९।।

(मालिनी)
यदिह भवति रागद्वेषदोषप्रसूतिः
कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र ।
स्वयमयमपराधी तत्र सर्पत्यबोधो
भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः ।।२२०।।


श्लोकार्थ : — [इह ] इस आत्मामें [यत् राग-द्वेष-दोष-प्रसूतिः भवति ] जो रागद्वेषरूप दोषोंकी उत्पत्ति होती है [तत्र परेषां कतरत् अपि दूषणं नास्ति ] उसमें परद्रव्यका कोई भी दोष नहीं है, [तत्र स्वयम् अपराधी अयम् अबोधः सर्पति ] वहाँ तो स्वयं अपराधी यह अज्ञान ही फैलता है; — [विदितम् भवतु ] इसप्रकार विदित हो और [अबोधः अस्तं यातु ] अज्ञान अस्त हो जाये; [बोधः अस्मि ] मैं तो ज्ञान हूँ।

भावार्थ : — अज्ञानी जीव परद्रव्यसे रागद्वेषकी उत्पत्ति होती हुई मानकर परद्रव्य पर क्रोध करता है कि – ‘यह परद्रव्य मुझे राग-द्वेष उत्पन्न कराता है, उसे दूर करूँ’। ऐसे अज्ञानी जीवको समझानेके लिये आचार्यदेव उपदेश देते हैं कि — राग-द्वेषकी उत्पत्ति अज्ञानसे आत्मामें ही होती है और वे आत्माके ही अशुद्ध परिणाम हैं। इसलिये इस अज्ञानको नाश करो, सम्यग्ज्ञान प्रगट करो, आत्मा ज्ञानस्वरूप है ऐसा अनुभव करो; परद्रव्यको राग-द्वेषका उत्पन्न करनेवाला मानकर उस पर कोप न करो।।२२०।।

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