समयसार कलश l Samaysar Kalash (Sanskrit +Arth) with Audio

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(अनुष्टुभ्)
अनेनाध्यवसायेन निष्फ लेन विमोहितः ।
तत्किञ्चनापि नैवास्ति नात्मात्मानं करोति यत् ।।१७१।।

श्लोकार्थ : — [अनेन निष्फ लेन अध्यवसायेन मोहितः ] इस निष्फ ल (निरर्थक) अध्यवसायसे मोहित होता हुआ [आत्मा ] आत्मा [तत् किञ्चन अपि न एव अस्ति यत् आत्मानं न करोति ] अपनेको सर्वरूप क रता है, — ऐसा कुछ भी नहीं है जिसरूप अपनेको न करता हो ।

भावार्थ : — यह आत्मा मिथ्या अभिप्रायसे भूला हुआ चतुर्गति-संसारमें जितनी अवस्थाएँ हैं, जितने पदार्थ हैं उन सर्वरूप अपनेको हुआ मानता है; अपने शुद्ध स्वरूपको नहीं पहिचानता ।१७१।

(इन्द्रवज्रा)
विश्वाद्विभक्तोऽपि हि यत्प्रभावा-
दात्मानमात्मा विदधाति विश्वम् ।
मोहैककन्दोऽध्यवसाय एष
नास्तीह येषां यतयस्त एव ।।१७२।।

श्लोकार्थ : — [विश्वात् विभक्तः अपि हि ] विश्वसे (समस्त द्रव्योंसे) भिन्न होने पर भी [आत्मा ] आत्मा [यत्-प्रभावात् आत्मानम् विश्वम् विदधाति ] जिसके प्रभावसे अपनेको विश्वरूप करता है [एषः अध्यवसायः ] ऐसा यह अध्यवसाय — [मोह-एक-कन्दः ] कि जिसका मोह ही एक मूल है वह — [येषां इह नास्ति ] जिनके नहीं है [ते एव यतयः ] वे ही मुनिे हैं ।१७२।

(शार्दूलविक्रीडित)
सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै-
स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः ।
सम्यङ्निश्चयमेकमेव तदमी निष्कम्पमाक्रम्य किं
शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम् ।।१७३।।

श्लोकार्थ : — आचार्यदेव कहते हैं कि : — [सर्वत्र यद् अध्यवसानम् ] सर्व वस्तुओंमें जो अध्यवसान होते हैं, [अखिलं ] वे सभी (अध्यवसान) [जिनैः ] जिनेन्द्र भगवानने [एवम् ] पूर्वाेक्त रीतिसे [त्याज्यं उक्तं ] त्यागने योग्य कहे हैं, [तत् ] इसलिये [मन्ये ] हम यह मानते हैं कि [अन्य-आश्रयः व्यवहारः एव निखिलः अपि त्याजितः ] ‘पर जिसका आश्रय है ऐसा व्यवहार ही सम्पूर्ण छुड़ाया है’ । [तत् ] तब फि र, [अमी सन्तः ] यह सत्पुरुष [एकम् सम्यक् निश्चयम् एव निष्कम्पम् आक्रम्य ] एक सम्यक् निश्चयको ही निश्चलतया अंगीक ार करके [शुद्धज्ञानघने निजे महिम्नि ] शुद्धज्ञानघनस्वरूप निज महिमामें ( – आत्मस्वरूपमें) [धृतिम् किं न बध्नन्ति ] स्थिरता क्यों धारण नहीं करते ?

भावार्थ : — जिनेन्द्रदेवने अन्य पदार्थोंमें आत्मबुद्धिरूप अध्यवसान छुड़ाये हैं, इससे यह समझना चाहिए कि यह समस्त पराश्रित व्यवहार ही छुड़ाया है । इसलिये आचार्यदेवने शुद्धनिश्चयके ग्रहणका ऐसा उपदेश दिया है कि — ‘शुद्धज्ञानस्वरूप अपने आत्मामें स्थिरता रखो’ । और, ‘‘जब कि भगवानने अध्यवसान छुड़ाये हैं तब फिर सत्पुरुष निश्चयको निश्चलतापूर्वक अंगीकार करके स्वरूपमें स्थिर क्यों नहीं होते ? — यह हमें आश्चर्य होता है’’ यह कहकर आचार्यदेवने आश्चर्य प्रगट किया है।१७३।

(उपजाति)
रागादयो बन्धनिदानमुक्त ा-
स्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्त ाः ।
आत्मा परो वा किमु तन्निमित्त-
मिति प्रणुन्नाः पुनरेवमाहुः ।।१७४।।

श्लोकार्थ : — ‘‘[रागादयः बन्धनिदानम् उक्त ाः ] रागादिक ो बन्धका क ारण क हा और [ते शुद्ध-चिन्मात्र-महः-अतिरिक्त ाः ] उन्हें शुद्धचैतन्यमात्र ज्योतिसे ( – अर्थात् आत्मासे) भिन्न क हा; [तद्-निमित्तम् ] तब फि र उस रागादिक ा निमित्त [किमु आत्मा वा परः ] आत्मा है या क ोई अन्य ?’’ [इति प्रणुन्नाः पुनः एवम् आहुः ] इसप्रकार (शिष्यके) प्रश्नसे प्रेरित होते हुए आचार्यभगवान पुनः इसप्रकार (निम्नप्रकारसे) क हते हैं ।१७४।

(उपजाति)
न जातु रागादिनिमित्तभाव-
मात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः ।
तस्मिन्निमित्तं परसंग एव
वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ।।१७५।।

श्लोकार्थ : — [यथा अर्ककान्तः ] सूर्यक ान्तमणिकी भाँति (-जैसे सूर्यक ान्तमणि स्वतः ही अग्निरूप परिणमित नहीं होता, उसके अग्निरूप परिणमनमें सूर्यबिम्ब निमित्त है, उसीप्रकार) [आत्मा आत्मनः रागादिनिमित्तभावम् जातु न याति ] आत्मा अपनेको रागादिक ा निमित्तक भी भी नहीं होता, [तस्मिन् निमित्तं परसंगः एव ] उसमें निमित्त परसंग ही ( – परद्रव्यका संग ही) है — [अयम् वस्तुस्वभावः उदेति तावत् ] ऐसा वस्तुस्वभाव प्रक ाशमान है । (सदैव वस्तुका ऐसा ही स्वभाव है, इसे किसीने बनाया नहीं है ।) ।१७५।

(अनुष्टुभ्)
इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन सः ।
रागादीन्नात्मनः कुर्यान्नातो भवति कारकः ।।१७६।।

श्लोकार्थ : — [इति स्वं वस्तुस्वभावं ज्ञानी जानाति ] ज्ञानी ऐसे अपने वस्तुस्वभावको जानता है, [तेन सः रागादीन् आत्मनः न कुर्यात् ] इसलिये वह रागादिक ो निजरूप नहीं करता, [अतः कारकः न भवति ] अतः वह (रागादिक ा) क र्ता नहीं है ।१७६।

(अनुष्टुभ्)
इति वस्तुस्वभावं स्वं नाज्ञानी वेत्ति तेन सः ।
रागादीनात्मनः कुर्यादतो भवति कारकः ।।१७७।।

श्लोकार्थ : — [इति स्वं वस्तुस्वभावं अज्ञानी न वेत्ति ] अज्ञानी अपने ऐसे वस्तुस्वभावको नहीं जानता, [तेन सः रागादीन् आत्मनः कुर्यात् ] इसलिये वह रागादिक ो ( – रागादिभावोंको) अपना करता है, [अतः कारकः भवति ] अतः वह उनका क र्ता होता है ।१७७।

(शार्दूलविक्रीडित)
इत्यालोच्य विवेच्य तत्किल परद्रव्यं समग्रं बलात्
तन्मूलां बहुभावसन्ततिमिमामुद्धर्तुकामः समम् ।
आत्मानं समुपैति निर्भरवहत्पूर्णैकसंविद्युतं
येनोन्मूलितबन्ध एष भगवानात्मात्मनि स्फू र्जति ।।१७८।।

श्लोकार्थ : — [इति ] इसप्रकार (परद्रव्य और अपने भावकी निमित्त-नैमित्तिक ताको) [आलोच्य ] विचार करके, [तद्-मूलां इमाम् बहुभावसन्ततिम् समम् उद्धर्तुकामः ] परद्रव्यमूलक बहुभावोंकी सन्ततिको एक ही साथ उखाड़ फें कनेका इच्छुक पुरुष, [तत् किल समग्रं परद्रव्यं बलात् विवेच्य ] उस समस्त परद्रव्यको बलपूर्वक ( – उद्यमपूर्वक, पराक्रमपूर्वक) भिन्न क रके ( – त्याग करके), [निर्भरवहत्-पूर्ण-एक-संविद्-युतं आत्मानं ] अतिशयतासे बहते हुए ( – धारावाही) पूर्ण एक संवेदनसे युक्त अपने आत्माको [समुपैति ] प्राप्त करता है, [येन ] कि जिससे [उन्मूलितबन्धः एषः भगवान् आत्मा ] जिसने क र्मबन्धनको मूलसे उखाड़ फेंका है, ऐसा यह भगवान आत्मा [आत्मनि ] अपनेमें ही ( – आत्मामें ही) [स्फू र्जति ] स्फु रायमान होता है ।

भावार्थ : — जब परद्रव्यकी और अपने भावकी निमित्त-नैमित्तिकता जानकर समस्त परद्रव्यको भिन्न करनेमें-त्यागनेमें आते हैं, तब समस्त रागादिभावोंकी सन्तति कट जाती है और तब आत्मा अपना ही अनुभव करता हुआ कर्मबन्धनको काटकर अपनेमें ही प्रकाशित होता है । इसलिये जो अपना हित चाहते हैं वे ऐसा ही करें ।१७८।

(मन्दाक्रान्ता)
रागादीनामुदयमदयं दारयत्कारणानां
कार्यं बन्धं विविधमधुना सद्य एव प्रणुद्य ।
ज्ञानज्योतिः क्षपिततिमिरं साधु सन्नद्धमेतत्
तद्वद्यद्वत्प्रसरमपरः कोऽपि नास्यावृणोति ।।१७९।।

श्लोकार्थ : — [कारणानां रागादीनाम् उदयं ] बन्धके क ारणरूप रागादिके उदयको [अदयम् ] निर्दयता पूर्वक (उग्र पुरुषार्थसे) [दारयत् ] विदारण करती हुई, [कार्यं विविधम् बन्धं ] उस रागादिके क ार्यरूप (ज्ञानावरणादि) अनेक प्रक ारके बन्धको [अधुना ] अब [सद्यः एव ] तत्काल ही [प्रणुद्य ] दूर क रके, [एतत् ज्ञानज्योतिः ] यह ज्ञानज्योति — [क्षपिततिमिरं ] कि जिसने अज्ञानरूप अन्धक ारका नाश किया है वह — [साधु ] भलीभाँति [सन्नद्धम् ] सज्ज हुई, — [तद्-वत् यद्-वत् ] ऐसी सज्ज हुई कि [अस्य प्रसरम् अपरः कः अपि न आवृणोति ] उसके विस्तारको अन्य कोई आवृत नहीं कर सकता ।

भावार्थ : — जब ज्ञान प्रगट होता है, रागादिक नहीं रहते, उनका कार्य जो बन्ध वह भी नहीं रहता, तब फि र उस ज्ञानको आवृत करनेवाला कोई नहीं रहता, वह सदा प्रकाशमान ही रहता है ।१७९।

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