(नर्दटक) ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत् । न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चैकतया स्थितिरिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव ततः ।।२११।।
श्लोकार्थ : — [ननु परिणाम एव किल विनिश्चयतः कर्म ] वास्तवमें परिणाम ही निश्चय से कर्म है, और [सः परिणामिन एव भवेत्, अपरस्य न भवति ] परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामीका ही होता है, अन्यका नहीं (क्योंकि परिणाम अपने अपने द्रव्यके आश्रित हैं, अन्यके परिणामका अन्य आश्रय नहीं होता); [इह कर्म कर्तृशून्यम् न भवति ] और कर्म कर्ता के बिना नहीं होता, [च वस्तुनः एकतया स्थितिः इह न ] तथा वस्तुकी एकरूप (कूटस्थ) स्थिति नहीं होती (क्योंकि वस्तु द्रव्यपर्यायस्वरूप होनेसे सर्वथा नित्यत्व बाधा सहित है); [ततः तद् एव कर्तृ भवतु ] इसलिये वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप क र्मकी कर्ता है ( – यह निश्चय सिद्धांत है)
(पृथ्वी) बहिर्लुठति यद्यपि स्फु टदनन्तशक्ति : स्वयं तथाप्यपरवस्तुनो विशति नान्यवस्त्वन्तरम् । स्वभावनियतं यतः सकलमेव वस्त्विष्यते स्वभावचलनाकुलः किमिह मोहितः क्लिश्यते ।।२१२।।
श्लोकार्थ : — [स्वयं स्फु टत्-अनन्त-शक्ति : ] जिसको स्वयं अनंत शक्ति प्रकाशमान है, ऐसी वस्तु [बहिः यद्यपि लुठति ] अन्य वस्तुके बाहर यद्यपि लोटती है [तथापि अन्य-वस्तु अपरवस्तुनः अन्तरम् न विशति ] तथापि अन्य वस्तु अन्य वस्तुके भीतर प्रवेश नहीं करती, [यतःसकलम् एव वस्तु स्वभाव-नियतम् इष्यते ] क्योंकि समस्त वस्तुएँ अपने अपने स्वभावमें निश्चित हैं, ऐसा माना जाता है । (आचार्यदेव क हते हैं कि – ) [इह ] ऐसा होने पर भी, [मोहितः ] मोहित जीव, [स्वभाव-चलन-आकुलः ] अपने स्वभावसे चलित होकर आकुल होता हुआ, [किम् क्लिश्यते ] क्यों क्लेश पाता है ?
भावार्थ : — वस्तुस्वभाव तो नियमसे ऐसा है कि किसी वस्तुमें कोई वस्तु नहीं मिलती । ऐसा होने पर भी, यह मोही प्राणी, ‘परज्ञेयोंके साथ अपनेको पारमार्थिक सम्बन्ध है’ ऐसा मानकर, क्लेश पाता है, यह महा अज्ञान है ।२१२।
(रथोद्धता) वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुनो येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत् । निश्चयोऽयमपरोऽपरस्य कः किं करोति हि बहिर्लुठन्नपि ।।२१३।।
श्लोकार्थ : — [इह च ] इस लोक में [येन एकम् वस्तु अन्यवस्तुनः न ] एक वस्तु अन्य वस्तुकी नहीं है, [तेन खलु वस्तु तत् वस्तु ] इसलिये वास्तवमें वस्तु वस्तु ही है — [अयम् निश्चयः ] यह निश्चय है । [कः अपरः ] ऐसा होनेसे कोई अन्य वस्तु [अपरस्य बहिः लुठन् अपि हि ] अन्य वस्तु के बाहर लोटती हुई भी [किं करोति ] उसका क्या कर सकती है ?
भावार्थ : — वस्तु का स्वभाव तो ऐसा है कि एक वस्तु अन्य वस्तुको नहीं बदला सकती । यदि ऐसा न हो तो वस्तुका वस्तुत्व ही न रहे । इसप्रकार जहाँ एक वस्तु अन्यको परिणमित नहीं कर सकती, वहाँ एक वस्तुने अन्यका क्या किया ? कुछ नहीं । चेतन-वस्तुके साथ पुद्गल एकक्षेत्रावगाहरूप से रह रहे हैं तथापि वे चेतन को जड़ बनाकर अपनेरूपमें परिणमित नहीं कर सके; तब फिर पुद्गलने चेतनका क्या किया ? कुछ भी नहीं ।
इससे यह समझना चाहिए कि — व्यवहार से परद्रव्योंका और आत्माका ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध होने पर भी परद्रव्य ज्ञायकका कुछ भी नहीं कर सकते और ज्ञायक परद्रव्यका कुछ भी नहीं कर सकता ।२१३।
श्लोकार्थ : — [वस्तु ] एक वस्तु [स्वयम् परिणामिनः अन्य-वस्तुनः ] स्वयं परिणमित होती हुई अन्य वस्तुका [किंचन अपि कुरुते ] कुछ भी क र सकती है — [यत् तु ] ऐसा जो माना जाता है, [तत् व्यावहारिक-दृशा एव मतम् ] वह व्यवहारदृष्टिसे ही माना जाता है । [निश्चयात् ] निश्चयसे [इह अन्यत् किम् अपि न अस्ति ] इस लोक में अन्य वस्तुको अन्य वस्तु कुछ भी नहीं (अर्थात् एक वस्तुको अन्य वस्तुके साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं) है ।
भावार्थ : — एक द्रव्यके परिणमनमें अन्य द्रव्यको निमित्त देखकर यह कहना कि ‘अन्य द्रव्य ने यह किया’, वह व्यवहारनय की दृष्टिसे ही (क हा जाता) है; निश्चयसे तो उस द्रव्यमें अन्य द्रव्य ने कुछ भी नहीं किया है। वस्तु के पर्यायस्वभाव के कारण वस्तु का अपना ही एक अवस्था से दूसरी अवस्थारूप परिणमन होता है; उसमें अन्य वस्तु अपना कुछ भी नहीं मिला सकती ।
इससे यह समझना चाहिये कि — परद्रव्यरूप ज्ञेय पदार्थ उनके भावसे परिणमित होते हैं और ज्ञायक आत्मा अपने भावरूप परिणमन करता है; वे एक-दूसरेका परस्पर कुछ नहीं कर सकते । इसलिये यह व्यवहार से ही माना जाता है कि ‘ज्ञायक परद्रव्योंको जानता है’; निश्चय से ज्ञायक तो बस ज्ञायक ही है ।२१४।
श्लोकार्थ : — [शुद्ध-द्रव्य-निरूपण-अर्पित-मतेः तत्त्वं समुत्पश्यतः ] जिसने शुद्ध द्रव्यके निरूपणमें बुद्धिको लगाया है, और जो तत्त्वका अनुभव करता है, उस पुरुषको [एक-द्रव्य-गतं किम्-अपि द्रव्य-अन्तरं जातुचित् न चकास्ति ] एक द्रव्यके भीतर कोई भी अन्य द्रव्य रहता हुआ क दापि भासित नहीं होता । [यत् तु ज्ञानं ज्ञेयम् अवैति तत् अयं शुद्ध-स्वभाव-उदयः ] ज्ञान ज्ञेयको जानता है वह तो यह ज्ञानके शुद्ध स्वभावका उदय है । [जनाः ] जब कि ऐसा है तब फिर लोग [द्रव्य-अन्तर-चुम्बन-आकुल-धियः ] ज्ञानको अन्य द्रव्यके साथ स्पर्श होनेकी मान्यतासे आकुल बुद्धिवाले होते हुए [तत्त्वात् ] तत्त्वसे (शुद्ध स्वरूपसे) [किं च्यवन्ते ] क्यों च्युत होते हैं ?
भावार्थ : — शुद्धनयकी दृष्टि से तत्त्वका स्वरूप विचार करने पर अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यमें प्रवेश दिखाई नहीं देता । ज्ञानमें अन्य द्रव्य प्रतिभासित होते हैं सो तो यह ज्ञानकी स्वच्छताका स्वभाव है; कहीं ज्ञान उन्हें स्पर्श नहीं करता अथवा वे ज्ञानको स्पर्श नहीं करते । ऐसा होने पर भी, ज्ञानमें अन्य द्रव्योंका प्रतिभास देखकर यह लोग ऐसा मानते हुए ज्ञानस्वरूपसे च्युत होते हैं कि ‘ज्ञान को परज्ञेयोंके साथ परमार्थ सम्बन्ध है’; यह उनका अज्ञान है । उन पर करुणा करके आचार्य देव कहते हैं कि — यह लोग तत्त्वसे क्यों च्युत हो रहे हैं ? ।२१५।
(मन्दाक्रान्ता) शुद्धद्रव्यस्वरसभवनात्किं स्वभावस्य शेष- मन्यद्द्रव्यं भवति यदि वा तस्य किं स्यात्स्वभावः । ज्योत्स्नारूपं स्नपयति भुवं नैव तस्यास्ति भूमि- र्ज्ञानं ज्ञेयं कलयति सदा ज्ञेयमस्यास्ति नैव ।।२१६।।
श्लोकार्थ : — [शुद्ध-द्रव्य-स्वरस-भवनात् ] शुद्ध द्रव्यका (आत्मा आदि द्रव्यका) निजरसरूप (-ज्ञानादि स्वभावरूप) परिणमन होता है इसलिये, [शेषम् अन्यत्-द्रव्यं किं स्वभावस्य भवति ] क्या शेष कोई अन्यद्रव्य उस ( – ज्ञानादि) स्वभावका हो सकता है ? (नहीं।) [यदि वा स्वभावः किं तस्य स्यात् ] अथवा क्या वह (ज्ञानादि) स्वभाव किसी अन्यद्रव्य का हो सकता है ? (नहीं। परमार्थसे एक द्रव्यका अन्य द्रव्यके साथ सम्बन्ध नहीं है।) [ज्योत्स्नारूपं भुवं स्नपयति ] चाँंदनीका रूप पृथ्वीको उज्ज्वल करता है [भूमिः तस्य न एव अस्ति ] तथापि पृथ्वी चाँदनीकी कदापि नहीं होती; [ज्ञानं ज्ञेयं सदा कलयति ] इसप्रकार ज्ञान ज्ञेय को सदा जानता है [ज्ञेयम् अस्य अस्ति न एव ] तथापि ज्ञेय ज्ञानका कदापि नहीं होता ।
भावार्थ : — शुद्धनय की दृष्टिसे देखा जाये तो किसी द्रव्यका स्वभाव किसी अन्य द्रव्यरूप नहीं होता । जैसे चाँदनी पृथ्वीको उज्ज्वल करती है, किन्तु पृथ्वी चाँदनी की किंचित्मात्र भी नहीं होती, इसीप्रकार ज्ञान ज्ञेयको जानता है, किन्तु ज्ञेय ज्ञानका किंचित्मात्र भी नहीं होता। आत्माका ज्ञानस्वभाव है, इसलिये उसकी स्वच्छता में ज्ञेय स्वयमेव झलकता है, किन्तु ज्ञान में उन ज्ञेयोंका प्रवेश नहीं होता ।२१६।
श्लोकार्थ : — [तावत् राग-द्वेष-द्वयम् उदयते ] राग-द्वेषका द्वन्द्व तब तक उदयको प्राप्त होता है [यावद् एतत् ज्ञानं ज्ञानं न भवति ] कि जब तक यह ज्ञान ज्ञानरूप न हो [पुनः बोध्यम् बोध्यतां न याति ] और ज्ञेय ज्ञेयत्वको प्राप्त न हो । [तत् इदं ज्ञानं न्यक्कृत-अज्ञानभावं ज्ञानं भवतु ] इसलिये यह ज्ञान, अज्ञान-भावको दूर क रके, ज्ञानरूप हो — [येन भाव-अभावौ तिरयन् पूर्णस्वभावः भवति ] कि जिससे भाव-अभाव(राग-द्वेष)को रोकता हुआ पूर्णस्वभाव (प्रगट) हो जाये ।
भावार्थ : — जब तक ज्ञान ज्ञानरूप न हो, ज्ञेय ज्ञेयरूप न हो, तब तक राग-द्वेष उत्पन्न होता है; इसलिये यह ज्ञान, अज्ञानभावको दूर करके, ज्ञानरूप होओ, कि जिससे ज्ञानमें जो भाव और अभावरूप दो अवस्थाऐं होती हैं वे मिट जायें और ज्ञान पूर्णस्वभावको प्राप्त हो जाये । यह प्रार्थना है ।२१७।
श्लोकार्थ : — [इह ज्ञानम् हि अज्ञानभावात् राग-द्वेषौ भवति ] इस जगतमें ज्ञान ही अज्ञानभावसे रागद्वेषरूप परिणमित होता है; [वस्तुत्व-प्रणिहित-दशा दृश्यमानौ तो किंचित् न ] वस्तुत्वमें स्थापित ( – एकाग्र की गई) दृष्टिसे देखने पर (अर्थात् द्रव्यदृष्टिसे देखने पर), वे राग -द्वेष कुछ भी नहीं हैं ( – द्रव्यरूप पृथक् वस्तु नहीं हैं)। [ततः सम्यग्दृष्टिः तत्त्वदृष्टया तौ स्फुटं क्षपयतु ] इसलिये (आचार्यदेव प्रेरणा करते हैं कि) सम्यग्दृष्टि पुरुष तत्त्वदृष्टिसे उन्हें (राग-द्वेषको) स्पष्टतया क्षय करो, [येन पूर्ण-अचल-अर्चिः सहजं ज्ञानज्योतिः ज्वलति ] कि जिससे, पूर्ण और अचल जिसका प्रकाश है ऐसी (दैदीप्यमान) सहज ज्ञानज्योति प्रकाशित हो।
भावार्थ : — राग-द्वेष कोई पृथक् द्रव्य नहीं है, वे (राग-द्वेषरूप परिणाम) जीवके अज्ञानभावसे होते हैं; इसलिये सम्यग्दृष्टि होकर तत्त्वदृष्टिसे देखा जाये तो वे (राग-द्वेष) कुछ भी वस्तु नहीं हैं ऐसा दिखाई देता है, और घातिकर्मोंका नाश होकर केवलज्ञान उत्पन्न होता है। ।२१८।।
श्लोकार्थ : — [तत्त्वदृष्टया ] तत्त्वदृष्टिसे देखा जाये तो, [राग-द्वेष-उत्पादकं अन्यत् द्रव्यं किंचन अपि न वीक्ष्यते ] राग-द्वेषको उत्पन्न करनेवाला अन्य द्रव्य किंचित्मात्र भी दिखाई नहीं देता, [यस्मात् सर्व-द्रव्य-उत्पत्तिः स्वस्वभावेन अन्तः अत्यन्तं व्यक्ता चकास्ति ] क्योंकि सर्व द्रव्योंकी उत्पत्ति अपने स्वभावसे ही होती हुई अन्तरंगमें अत्यन्त प्रगट (स्पष्ट) प्रकाशित होती है।
भावार्थ : — राग-द्वेष चेतनके ही परिणाम हैं। अन्य द्रव्य आत्माको राग-द्वेष उत्पन्न नहीं करा सकता; क्योंकि सर्व द्रव्योंकी उत्पत्ति अपने अपने स्वभावसे ही होती है, अन्य द्रव्यमें अन्य द्रव्यके गुणपर्यायोंकी उत्पत्ति नहीं होती।।२१९।।
श्लोकार्थ : — [इह ] इस आत्मामें [यत् राग-द्वेष-दोष-प्रसूतिः भवति ] जो रागद्वेषरूप दोषोंकी उत्पत्ति होती है [तत्र परेषां कतरत् अपि दूषणं नास्ति ] उसमें परद्रव्यका कोई भी दोष नहीं है, [तत्र स्वयम् अपराधी अयम् अबोधः सर्पति ] वहाँ तो स्वयं अपराधी यह अज्ञान ही फैलता है; — [विदितम् भवतु ] इसप्रकार विदित हो और [अबोधः अस्तं यातु ] अज्ञान अस्त हो जाये; [बोधः अस्मि ] मैं तो ज्ञान हूँ।
भावार्थ : — अज्ञानी जीव परद्रव्यसे रागद्वेषकी उत्पत्ति होती हुई मानकर परद्रव्य पर क्रोध करता है कि – ‘यह परद्रव्य मुझे राग-द्वेष उत्पन्न कराता है, उसे दूर करूँ’। ऐसे अज्ञानी जीवको समझानेके लिये आचार्यदेव उपदेश देते हैं कि — राग-द्वेषकी उत्पत्ति अज्ञानसे आत्मामें ही होती है और वे आत्माके ही अशुद्ध परिणाम हैं। इसलिये इस अज्ञानको नाश करो, सम्यग्ज्ञान प्रगट करो, आत्मा ज्ञानस्वरूप है ऐसा अनुभव करो; परद्रव्यको राग-द्वेषका उत्पन्न करनेवाला मानकर उस पर कोप न करो।।२२०।।