समयसार कलश l Samaysar Kalash (Sanskrit +Arth) with Audio

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(वसन्ततिलका)
एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्धं
सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः ।
तत्कर्तृकर्मघटनास्ति न वस्तुभेदे
पश्यन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम् ।।२०१।।

श्लोकार्थ : — [यतः ] क्योंकि [इह ] इस लोक में [एकस्य वस्तुनः अन्यतरेण सार्धं सकलः अपि सम्बन्धः एव निषिद्धः] एक वस्तुका अन्य वस्तु के साथ सम्पूर्ण सम्बन्ध ही निषेध किया गया है, [तत् ] इसलिये [वस्तुभेदे ] जहाँ वस्तुभेद है अर्थात् भिन्न वस्तुएँ हैं वहाँ [कर्तृकर्मघटना अस्ति न] कर्ताकर्म घटना नहीं होती — [मुनयः च जनाः च ] इसप्रकार मुनिजन और लौकिक जन [तत्त्वम् अकर्तृ पश्यन्तु ] तत्त्वको (–वस्तु के यथार्थ स्वरूपको) अकर्ता देखो, (यह श्रद्धामें लाओ कि — कोई किसी का कर्ता नहीं है, परद्रव्य परका अकर्ता ही है) ।२०१।

(वसन्ततिलका)
ये तु स्वभावनियमं कलयन्ति नेम-
मज्ञानमग्नमहसो बत ते वराकाः ।
कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्म-
कर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः ।।२०२।।

श्लोकार्थ : — (आचार्यदेव खेदपूर्वक कहते हैं कि:) [बत ] अरेरे! [ये तु इमम्स्वभावनियमं न कलयन्ति ] जो इस वस्तुस्वभाव के नियमको नहीं जानते [ते वराकाः ] वे बेचारे, [अज्ञानमग्नमहसः ] जिनका (पुरुषार्थरूप – पराक्रमरूप) तेज अज्ञानमें डूब गया है ऐसे, [कर्म कुर्वन्ति ] कर्म को करते हैं; [ततः एव हि ] इसलिये [भावकर्मकर्ता चेतनः एव स्वयं भवति ] भाव कर्मका कर्ता चेतन ही स्वयं होता है, [अन्यः न ] अन्य कोई नहीं ।

भावार्थ : — वस्तुके स्वरूपके नियमको नहीं जानता, इसलिये परद्रव्यका कर्ता होता हुआ अज्ञानी (–मिथ्यादृष्टि) जीव स्वयं ही अज्ञानभाव में परिणमित होता है; इसप्रकार अपने भावकर्म का कर्ता अज्ञानी स्वयं ही है, अन्य नहीं ।२०२।

(शार्दूलविक्रीडित)
कार्यत्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्वयो-
रज्ञायाः प्रकृतेः स्वकार्यफ लभुग्भावानुषंगात्कृतिः ।
नैकस्याः प्रकृतेरचित्त्वलसनाज्जीवोऽस्य कर्ता ततो
जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः ।।२०३।।

श्लोकार्थ : — [कर्म कार्यत्वात् अकृतं न ] जो कर्म (अर्थात् भावकर्म) है वह कार्य है, इसलिये वह अकृत नहीं हो सकता अर्थात् किसी के द्वारा किये बिना नहीं हो सकता । [च ] और [तत् जीव-प्रकृत्योः द्वयोः कृतिः न ] ऐसे भी नहीं है कि वह (भावकर्म) जीव और प्रकृति दोनोंकी कृति हो, [अज्ञायाः प्रकृतेः स्व-कार्य-फल-भुग्-भाव-अनुषंगात् ] क्योंकि यदि वह दोनों का कार्य हो तो ज्ञानरहित (जड़) प्रकृति को भी अपने कार्य का फल भोगने का प्रसंग आ जायेगा । [एकस्याः प्रकृतेः न ] और वह (भावकर्म) एक प्रकृति की कृति (–अकेली प्रकृति का कार्य–) भी नहीं है, [अचित्त्वलसनात् ] क्योंकि प्रकृति का तो अचेतनत्व प्रगट है (अर्थात् प्रकृति तो अचेतन है और भावकर्म चेतन है) । [ततः ] इसलिये [अस्य कर्ता जीवः ] उस भावकर्म का कर्ता जीव ही है [च ] और [चिद्-अनुगं ] चेतन का अनुसरण करनेवाला अर्थात् चेतन के साथ अन्वयरूप ( – चेतन के परिणामरूप – ) ऐसा [तत् ] वह भावकर्म [जीवस्य एव कर्म ] जीवका ही कर्म है, [यत् ] क्योंकि [पुद्गलः ज्ञाता न ] पुद्गल तो ज्ञाता नहीं है (इसलिये वह भावकर्म पुद्गलका कर्म नहीं हो सकता) ।

भावार्थ : — चेतनकर्म चेतन के ही होता है; पुद्गल जड़ है, उससे चेतनकर्म कैसे हो सकता है ? ।२०३।

(शार्दूलविक्रीडित)
कर्मैव प्रवितर्क्य कर्तृ हतकैः क्षिप्त्वात्मनः कर्तृतां
कर्तात्मैष कथंचिदित्यचलिता कैश्चिच्छ्रुतिः कोपिता।
तेषामुद्धतमोहमुद्रितधियां बोधस्य संशुद्धये
स्याद्वादप्रतिबन्धलब्धविजया वस्तुस्थितिः स्तूयते ।।२०४।।

श्लोकार्थ : — [कैश्चित् हतकैः ] कोई आत्माके घातक (सर्वथा एकान्तवादी) [कर्म एव कर्तृ प्रवितर्क्य ] कर्म को ही कर्ता विचार कर [आत्मनः कर्तृतां क्षिप्त्वा ] आत्माके कर्तृत्व को उड़ाकर, ‘[एषः आत्मा कथंचित् कर्ता ] यह आत्मा कथंचित् कर्ता है’ [इति अचलिता श्रुतिः कोपिता ] ऐसा कहनेवाली अचलित श्रुति को कोपित करते हैं ( – निर्बाध जिनवाणी की विराधना करते हैं); [उद्धत-मोह-मुद्रित-धियां तेषाम् बोधस्य संशुद्धये ] जिनकी बुद्धि तीव्र मोह से मुद्रित हो गई है ऐसे उन आत्मघातकों के ज्ञान की संशुद्धि के लिये (निम्नलिखित गाथाओं द्वारा) [वस्तुस्थितिः स्तूयते ] वस्तुस्थिति कही जाती है — [स्याद्वाद-प्रतिबन्ध-लब्ध-विजया ] जिस वस्तुस्थिति ने स्याद्वाद के प्रतिबन्ध से विजय प्राप्त की है (अर्थात् जो वस्तुस्थिति स्याद्वादरूप नियम से निर्बाधतया सिद्ध होती है) ।

भावार्थ : — कोई एकान्तवादी सर्वथा एकान्ततः कर्म का कर्ता कर्मको ही कहते हैं और आत्मा को अकर्ता ही कहते हैं; वे आत्माके घातक हैं । उन पर जिनवाणीका कोप है, क्योंकि स्याद्वाद से वस्तुस्थिति को निर्बाधतया सिद्ध करनेवाली जिनवाणी तो आत्मा को कथंचित् कर्ता कहती है । आत्मा को अकर्ता ही कहनेवाले एकान्तवादियों की बुद्धि उत्कट मिथ्यात्व से ढक गई है; उनके मिथ्यात्व को दूर करने के लिये आचार्यदेव स्याद्वादानुसार जैसी वस्तुस्थिति है, वह निम्नलिखित गाथाओं में कहते हैं ।२०४।

(शार्दूलविक्रीडित)
माऽकर्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या इवाप्यार्हताः
कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः ।
ऊर्ध्वं तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं
पश्यन्तु च्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परम् ।।२०५।।

श्लोकार्थ : — [अमी आर्हताः अपि ] इस आर्हत् मतके अनुयायी अर्थात् जैन भी [पुरुषं ] आत्माको, [सांख्याः इव ] सांख्यमतियों की भाँति, [अकर्तारम् मा स्पृशन्तु ] (सर्वथा) अकर्ता मत मानो; [भेद-अवबोधात् अधः ] भेदज्ञान होनेसे पूर्व [तं किल ] उसे [सदा ] निरन्तर [कर्तारं कलयन्तु ] कर्ता मानो, [तु ] और [ऊर्ध्वं ] भेदज्ञान होनेके बाद [उद्धत-बोध-धाम-नियतं स्वयं प्रत्यक्षम् एनम् ] उद्धत ज्ञानधाममें निश्चित इस स्वयं प्रत्यक्ष आत्मा को [च्युत-कर्तृभावम् अचलं एकं परम् ज्ञातारम् ] कर्तृत्व रहित, अचल, एक परम ज्ञाता ही [पश्यन्तु ] देखो।

भावार्थ : — सांख्यमतावलम्बी पुरुषको सर्वथा एकान्त से अकर्ता, शुद्ध उदासीन चैतन्यमात्र मानते हैं । ऐसा मानने से पुरुषको संसार के अभावका प्रसंग आता है; और यदि प्रकृति को संसार माना जाये तो वह भी घटित नहीं होता, क्योंकि प्रकृति तो जड़ है, उसे सुखदुःखादिका संवेदन नहीं है, तो उसे संसार कैसा ? ऐसे अनेक दोष एकान्त मान्यता में आते हैं । सर्वथा एकान्त वस्तु का स्वरूप ही नहीं है । इसलिये सांख्यमती मिथ्यादृष्टि हैं; और यदि जैन भी ऐसा मानें तो वे भी मिथ्यादृष्टि हैं । इसलिये आचार्यदेव उपदेश देते हैं कि — सांख्यमतियोंकी भाँति जैन आत्माको सर्वथा अकर्ता न मानें; जब तक स्व-पर का भेदविज्ञान न हो तब तक तो उसे रागादिका — अपने चेतनरूप भावकर्मों का — कर्ता मानो, और भेदविज्ञान होनेके बाद शुद्ध विज्ञानघन, समस्त कर्तृत्वके भावसे रहित, एक ज्ञाता ही मानो । इसप्रकार एक ही आत्मा में कर्तृत्व तथा अकर्तृत्व — ये दोनों भाव विवक्षावश सिद्ध होते हैं । ऐसा स्याद्वाद मत जैनोंका है; और वस्तुस्वभाव भी ऐसा ही है, कल्पना नहीं है । ऐसा (स्याद्वादानुसार) मानने से पुरुषको संसार-मोक्ष आदिकी सिद्धि होती है; और सर्वथा एकान्त मानने से सर्व निश्चय-व्यवहारका लोप होता है ।२०५।

(मालिनी)
क्षणिकमिदमिहैकः कल्पयित्वात्मतत्त्वं
निजमनसि विधत्ते कर्तृभोक्त्रोर्विभेदम् ।
अपहरति विमोहं तस्य नित्यामृतौघैः
स्वयमयमभिषिंचंश्चिच्चमत्कार एव ।।२०६।।

श्लोकार्थ : — [इह ] इस जगतमें [एकः ] कोई एक तो (अर्थात् क्षणिक वादी बौद्धमती तो) [इदम् आत्मतत्त्वं क्षणिकम् कल्पयित्वा ] इस आत्मतत्त्वको क्षणिक कल्पित करके [निज-मनसि ] अपने मनमें [कर्तृ-भोक्त्रोः विभेदम् विधत्ते ] कर्ता और भोक्ताका भेद करते हैं ( – कर्ता अन्य है और भोक्ता अन्य है, ऐसा मानते हैं); [तस्य विमोहं ] उनके मोह को (अज्ञानको) [अयम् चित्-चमत्कारः एव स्वयम् ] यह चैतन्य चमत्कार ही स्वयं [नित्य-अमृत-ओघैः ] नित्यतारूप अमृतके ओघ (–समूह) के द्वारा [अभिषिंचं ] अभिसिंचन करता हुआ, [अपहरति ] दूर करता है ।

भावार्थ : — क्षणिकवादी कर्ता-भोक्ता में भेद मानते हैं, अर्थात् वे यह मानते हैं कि — प्रथम क्षण में जो आत्मा था, वह दूसरे क्षण में नहीं है । आचार्यदेव कहते हैं कि — हम उसे क्या समझायें ? यह चैतन्य ही उसका अज्ञान दूर कर देगा — कि जो (चैतन्य) अनुभवगोचर नित्य है ।

प्रथम क्षणमें जो आत्मा था, वही द्वितीय क्षण में कहता है कि ‘मैं जो पहले था वही हूँ’; इसप्रकारका स्मरणपूर्वक प्रत्यभिज्ञान आत्मा की नित्यता बतलाता है । यहाँ बौद्धमती कहता है कि — ‘जो प्रथम क्षण में था, वही मैं दूसरे क्षण में हूँ’ ऐसा मानना वह तो अनादिकालीन अविद्यासे भ्रम है; यह भ्रम दूर हो तो तत्त्व सिद्ध हो, और समस्त क्लेश मिटे । उसका उत्तर देते हुये कहते हैं कि — ‘‘हे बौद्ध ! तू यह जो तर्क ( – दलील) करता है, उस संपूर्ण तर्कको करनेवाला एक ही आत्मा है या अनेक आत्मा हैं ? और तेरे संपूर्ण तर्क को एक ही आत्मा सुनता है ऐसा मानकर तू तर्क करता है या संपूर्ण तर्क पूर्ण होने तक अनेक आत्मा बदल जाते हैं, ऐसा मानकर तर्क करता है ? यदि अनेक आत्मा बदल जाते हैं, तो तेरे संपूर्ण तर्कको तो कोई आत्मा सुनता नहीं है; तब फिर तर्क करने का क्या प्रयोजन है ? यों अनेक प्रकार से विचार करने पर तुझे ज्ञात होगा कि आत्माको क्षणिक मानकर प्रत्यभिज्ञान को भ्रम कह देना वह यथार्थ नहीं है । इसलिये यह समझना चाहिये कि — आत्मा को एकान्ततः नित्य या एकान्ततः अनित्य मानना वह दोनों भ्रम हैं, वस्तुस्वरूप नहीं; हम (जैन) कथंचित् नित्यानित्यात्मक वस्तुस्वरूप कहते हैं वही सत्यार्थ है ।’’ ।२०६।

(अनुष्टुभ्)
वृत्त्यंशभेदतोऽत्यन्तं वृत्तिमन्नाशकल्पनात् ।
अन्यः करोति भुंक्ते ऽन्य इत्येकान्तश्चकास्तु मा ।।२०७।।

श्लोकार्थ : — [वृत्ति-अंश-भेदतः ] वृत्त्यंशोंके अर्थात् पर्यायों के भेदके कारण [अत्यन्तं वृत्तिमत्-नाश-कल्पनात् ] ‘वृत्तिमान् अर्थात् द्रव्य अत्यन्त (सर्वथा) नष्ट हो जाता है’ ऐसी क ल्पनाके द्वारा [अन्यः करोति ] ‘अन्य करता है और [अन्यः भुंक्ते ] अन्य भोगता है’ [इति एकान्तः मा चकास्तु ] ऐसा एकान्त प्रकाशित मत करो ।

भावार्थ : — द्रव्यकी पर्यायें प्रतिक्षण नष्ट होती हैं, इसलिये बौद्ध यह मानते हैं कि ‘द्रव्य ही सर्वथा नष्ट होता है’ । ऐसी एकान्त मान्यता मिथ्या है । यदि पर्यायवान पदार्थका ही नाश हो जाये तो पर्याय किसके आश्रय से होगी ? इसप्रकार दोनोंके नाशका प्रसंग आनेसे शून्यका प्रसंग आता है ।२०७।

(शार्दूलविक्रीडित)
आत्मानं परिशुद्धमीप्सुभिरतिव्याप्तिं प्रपद्यान्धकैः
कालोपाधिबलादशुद्धिमधिकां तत्रापि मत्वा परैः ।
चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य पृथुकैः शुद्धर्जुसूत्रे रतै-
रात्मा व्युज्झित एष हारवदहो निःसूत्रमुक्ते क्षिभिः ।।२०८।।

श्लोकार्थ : — [आत्मानं परिशुद्धम् ईप्सुभिः परैः अन्धकैः ] आत्माको सम्पूर्णतया शुद्ध चाहनेवाले अन्य किन्हीं अन्धोंने — [पृथुकैः ] बालिशजनों ने (बौद्धों ने) — [काल-उपाधि-बलात् अपि तत्र अधिकाम् अशुद्धिम् मत्वा ] कालकी उपाधिके कारण भी आत्मामें अधिक अशुद्धि मानकर [अतिव्याप्तिं प्रपद्य ] अतिव्याप्तिको प्राप्त होकर, शुद्ध-ऋजुसूत्रे रतैः ] शुद्ध ऋजुसूत्रनय में रत होते हुए [चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य ] तन्यको क्षणिक कल्पित करके, [अहो एषः आत्मा व्युज्झितः ] इस आत्माको छोड़ दिया; [निःसूत्र-मुक्ता-ईक्षिभिः हारवत् ] जैसे हारके सूत्र(डोरे) को न देखकर मोतियों को ही देखनेवाले हारको छोड़ देते हैं ।

भावार्थ : — आत्मा को सम्पूर्णतया शुद्ध माननेके इच्छुक बौद्धोंने विचार किया कि — ‘‘यदि आत्माको नित्य माना जाय तो नित्य में कालकी अपेक्षा होती है, इसलिये उपाधि लग जायेगी; इसप्रकार कालकी उपाधि लगनेसे आत्माको बहुत बड़ी अशुद्धि लग जायेगी और इससे अतिव्याप्ति दोष लगेगा ।’’ इस दोषके भय से उन्होंने शुद्ध ऋजुसूत्रनयका विषय जो वर्तमान समय है, उतना मात्र ( – क्षणिक ही – ) आत्मा को माना और उसे (आत्माको) नित्यनित्यास्वरूप नहीं माना । इसप्रकार आत्मा को सर्वथा क्षणिक मानने से उन्हें नित्यानित्यस्वरूप — द्रव्यपर्यायस्वरूप सत्यार्थ आत्माकी प्राप्ति नहीं हुई; मात्र क्षणिक पर्याय में आत्माकी कल्पना हुई; किन्तु वह आत्मा सत्यार्थ नहीं है ।

मोतियोंके हारमें, डोरेमें अनेक मोती पिरोये होते हैं; जो मनुष्य उस हार नामक वस्तुको मोतियों तथा डोरे सहित नहीं देखता — मात्र मोतियोंको ही देखता है, वह पृथक् पृथक् मोतियों को ही ग्रहण करता है, हारको छोड़ देता है; अर्थात् उसे हार की प्राप्ति नहीं होती । इसीप्रकार जो जीव आत्माके एक चैतन्यभाव को ग्रहण नहीं करते और समय समय पर वर्तनापरिणामरूप उपयोगकी प्रवृत्ति को देखकर आत्माको अनित्य कल्पित करके, ऋजुसूत्रनयका विषय जो वर्तमान-समयमात्र क्षणिकत्व है, उतना मात्र ही आत्माको मानते हैं (अर्थात् जो जीव आत्माको द्रव्यपर्यायस्वरूप नहीं मानते — मात्र क्षणिक पर्यायरूप ही मानते हैं ), वे आत्माको छोड़ देते हैं; अर्थात् उन्हें आत्मा की प्राप्ति नहीं होती ।२०८।

(शार्दूलविक्रीडित)
कर्तृर्वेदयितुश्च युक्ति वशतो भेदोऽस्त्वभेदोऽपि वा
कर्ता वेदयिता च मा भवतु वा वस्त्वेव संचिन्त्यताम् ।
प्रोता सूत्र इवात्मनीह निपुणैर्भेत्तुं न शक्या क्वचि-
च्चिच्चिन्तामणिमालिकेयमभितोऽप्येका चकास्त्वेव नः ।।२०९।।

श्लोकार्थ : — [कर्तुः च वेदयितुः युक्ति वशतः भेदः अस्तु वा अभेदः अपि ] कर्ताका और भोक्ताका युक्ति के वशसे भेद हो या अभेद हो, [वा कर्ता च वेदयिता मा भवतु ] अथवा कर्ता और भोक्ता दोनों न हों; [वस्तु एव संचिन्त्यताम् ] वस्तुका ही अनुभव करो । [निपुणैः सूत्रे इव इह आत्मनि प्रोता चित्-चिन्तामणि-मालिका क्वचित् भेत्तुं न शक्या ] जैसे चतुर पुरुषोंके द्वारा डोरेमें पिरोई गई मणियोंकी माला भेदी नहीं जा सकती, उसीप्रकार आत्मा में पिरोई गई चैतन्यरूप चिन्तामणि की माला भी कभी किसी से भेदी नहीं जा सकती; [इयम् एका ] ऐसी यह आत्मारूप माला एक ही, [नः अभितः अपि चकास्तु एव ] हमें समस्ततया प्रकाशमान हो (अर्थात् नित्यत्व, अनित्यत्व आदिके विक ल्प छूटकर हमें आत्माका निर्विकल्प अनुभव हो)

भावार्थ : — आत्मा वस्तु होनेसे द्रव्यपर्यायात्मक है । इसलिये उसमें चैतन्य के परिणमनरूप पर्यायके भेदोंकी अपेक्षा से तो कर्ता-भोक्ताका भेद है और चिन्मात्रद्रव्यकी अपेक्षा से भेद नहीं है; इसप्रकार भेद-अभेद हो । अथवा चिन्मात्र अनुभवनमें भेद-अभेद क्यों कहना चाहिये ? (आत्माको) कर्ता-भोक्ता ही न कहना चाहिये, वस्तुमात्रका अनुभव करना चाहिये । जैसे मणियोंकी माला में मणियोंकी और डोरेकी विवक्षासे भेद-अभेद है, परन्तु माला मात्र के ग्रहण करने पर भेदाभेद-विकल्प नहीं है, इसीप्रकार आत्मा में पर्यायोंकी और द्रव्यकी विवक्षासे भेद-अभेद है, परन्तु आत्मवस्तुमात्र का अनुभव करने पर विकल्प नहीं है । आचार्यदेव कहते हैं कि — ऐसा निर्विकल्प आत्माका अनुभव हमें प्रकाशमान हो ।२०९।

(रथोद्धता)
व्यावहारिकद्रशैव केवलं
कर्तृ कर्म च विभिन्नमिष्यते ।
निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते
कर्तृ कर्म च सदैकमिष्यते ।।२१०।।

श्लोकार्थ : — [केवलं व्यावहारिकदृशा एव कर्तृ च कर्म विभिन्नम् इष्यते ] केवल व्यावहारिक दृष्टिसे ही कर्ता और कर्म भिन्न माने जाते हैं; [निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते ] यदि निश्चय से वस्तुका विचार किया जाये, [कर्तृ च कर्म सदा एकम् इष्यते ] तो कर्ता और कर्म सदा एक माना जाता है ।

भावार्थ : — मात्र व्यवहार-दृष्टि से ही भिन्न द्रव्योंमें कर्तृत्व-कर्मत्व माना जाता है; निश्चय-दृष्टिसे तो एक ही द्रव्यमें कर्तृत्व-कर्मत्व घटित होता है ।२१०।

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