(रथोद्धता) रागजन्मनि निमित्ततां पर- द्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते । उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः ।।२२१।।
श्लोकार्थ : — [ये तु राग-जन्मनि परद्रव्यम् एव निमित्ततां कलयन्ति ] जो रागकी उत्पत्तिमें परद्रव्यका ही निमित्तत्व ( – कारणत्व) मानते हैं, (अपना कुछ भी कारणत्व नहीं मानते,) [ते शुद्ध-बोध-विधुर-अन्ध-बुद्धयः ] वे — जिनकी बुद्धि शुद्धज्ञान से रहित अंध है ऐसे (अर्थात् जिनकी बुद्धि शुद्धनयके विषयभूत शुद्ध आत्मस्वरूपके ज्ञानसे रहित अंध है ऐसे) — [मोह-वाहिनीं न हि उत्तरन्ति ] — मोह नदी को पार नहीं कर सकते।
भावार्थ : — शुद्धनय का विषय आत्मा अनन्त शक्तिवान, चैतन्य चमत्कारमात्र, नित्य, अभेद, एक है। वह अपने ही अपराध से रागद्वेषरूप परिणमित होता है। ऐसा नहीं है कि जिसप्रकार निमित्तभूत परद्रव्य परिणमित करता है उसीप्रकार आत्मा परिणमित होता है, और उसमें आत्मा का कोई पुरुषार्थ ही नहीं है। जिन्हें आत्माके ऐसे स्वरूपका ज्ञान नहीं है वे यह मानते हैं कि परद्रव्य आत्मा को जिसप्रकार परिणमन कराता है उसीप्रकार आत्मा परिणमित होता है। ऐसा माननेवाले मोहरूपी नदी को पार नहीं कर सकते (अथवा मोह-सैन्य को नहीं हरा सकते), उनके राग-द्वेष नहीं मिटते; क्योंकि राग-द्वेष करनेमें यदि अपना पुरुषार्थ हो तो वह उनके मिटाने में भी हो सकता है, किन्तु यदि दूसरेके कराये ही राग-द्वेष होता हो तो पर तो राग-द्वेष कराया ही करे, तब आत्मा उन्हें कहाँ से मिटा सकेगा?
इसलिये राग-द्वेष अपने किये होते हैं और अपने मिटाये मिटते हैं — इसप्रकार कथंचित् मानना सो सम्यग्ज्ञान है।।२२१।।
श्लोकार्थ : — [पूर्ण-एक-अच्युत-शुद्ध-बोध-महिमा अयं बोधो ] पूर्ण, एक, अच्युत और ( – निर्विकार) ज्ञान जिसकी महिमा है ऐसा यह ज्ञायक आत्मा [ततः इतः बोध्यात् ] उन (असमीपवर्ती) या इन (समीपवर्ती) ज्ञेय पदार्थोंसे [काम् अपि विक्रियां न यायात् ] किंचित् मात्र भी विक्रियाको प्राप्त नहीं होता, [दीपः प्रकाश्यात् इव ] जैसे दीपक प्रकाश्य ( – प्रकाशित होने योग्य घटपटादि) पदार्थोंसे विक्रियाको प्राप्त नहीं होता। तब फि र [तद्-वस्तुस्थिति-बोध-वन्ध्य-धिषणाः एते अज्ञानिनः ] जिनकी बुद्धि ऐसी वस्तुस्थितिके ज्ञानसे रहित है, ऐसे यह अज्ञानी जीव [किम् सहजाम् उदासीनताम् मुंचन्ति, रागद्वेषमयीभवन्ति ] अपनी सहज उदासीनता को क्यों छोड़ते हैं तथा रागद्वेषमय क्यों होते हैं ? (इसप्रकार आचार्य देव ने सोच किया है।)
भावार्थ : — जैसे दीपकका स्वभाव घटपटादिको प्रकाशित करनेका है, उसीप्रकार ज्ञानका स्वभाव ज्ञेयको जाननेका ही है। ऐसा वस्तुस्वभाव है। ज्ञेयको जाननेमात्रसे ज्ञान में विकार नहीं होता। ज्ञेयोंको जानकर, उन्हें अच्छा-बुरा मानकर, आत्मा रागीद्वेषी – विकारी होता है जो कि अज्ञान है।
इसलिये आचार्यदेवने सोच किया है कि — ‘वस्तुका स्वभाव तो ऐसा है, फि र भी यह आत्मा अज्ञानी होकर रागद्वेषरूप क्यों परिणमित होता है ? अपनी स्वाभाविक उदासीन-अवस्थारूप क्यों नहीं रहता ?’ इस प्रकार आचार्यदेवने जो सोच किया है सो उचित ही है, क्योंकि जब तक शुभ राग है तब तक प्राणियोंको अज्ञानसे दुःखी देखकर करुणा उत्पन्न होती है और उससे सोच भी होता है ।२२२।
श्लोकार्थ : — [राग-द्वेष-विभाव-मुक्त-महसः ] जिनका तेज रागद्वेषरूपी विभावसे रहित है, [नित्यं स्वभाव-स्पृशः ] जो सदा (अपने चैतन्यचमत्कारमात्र) स्वभावको स्पर्श करनेवाले हैं, [पूर्व-आगामि-समस्त-कर्म-विकलाः ] जो भूतकालके तथा भविष्यकालके समस्त कर्मोंसे रहित हैं और [तदात्व-उदयात् भिन्नाः ] जो वर्तमान कालके कर्मोदयसे भिन्न हैं, [दूर-आरूढ-चरित्र-वैभव-बलात् ज्ञानस्य सञ्चेतनाम् विन्दन्ति ] वे ( – ऐसे ज्ञानी – ) अति प्रबल चारित्र के वैभवके बलसे ज्ञानकी संचेतनाका अनुभव करते हैं – [चंचत्-चिद्-अर्चिर्मयीं ] जो ज्ञानचेतना-चमकती हुई चैतन्य ज्योतिमय है और [स्व-रस-अभिषिक्त-भुवनाम् ] जिसने अपने (ज्ञानरूपी) रस से समस्त लोकको सींचा है।
भावार्थ : — जिनका राग-द्वेष दूर हो गया, अपने चैतन्यस्वभावको जिन्होंने अंगीकार किया और अतीत, अनागत तथा वर्तमान कर्मका ममत्व दूर हो गया है ऐसे ज्ञानी सर्व परद्रव्योंसे अलग होकर चारित्र अंगीकार करते हैं। उस चारित्रके बलसे, कर्मचेतना और कर्मफ लचेतनासे भिन्न जो अपनी चैतन्यकी परिणमनस्वरूप ज्ञानचेतना है उसका अनुभव करते हैं।
यहाँ यह तात्पर्य समझना चाहिए कि : – जीव पहले तो कर्मचेतना और कर्मफलचेतना से भिन्न अपनी ज्ञानचेतनाका स्वरूप आगम-प्रमाण, अनुमान-प्रमाण और स्वसंवेदनप्रमाण से जानता है और उसका श्रद्धान (प्रतीति) दृढ़ करता है; यह तो अविरत, देशविरत, और प्रमत्त अवस्थामें भी होता है। और जब अप्रमत्त अवस्था होती है तब जीव अपने स्वरूपका ही ध्यान करता है;उस समय, उसने जिस ज्ञानचेतनाका प्रथम श्रद्धान किया था उसमें वह लीन होता है और श्रेणि चढ़कर, केवलज्ञान उत्पन्न करके, साक्षात् ज्ञानचेतनारूप हो जाता है।।२२३।।
श्लोकार्थ : — [नित्यं ज्ञानस्य संचेतनया एव ज्ञानम् अतीव शुद्धम् प्रकाशते ] निरन्तर ज्ञानकी संचेतनासे ही ज्ञान अत्यन्त शुद्ध प्रकाशित होता है; [तु ] और [अज्ञानसंचेतनया ] अज्ञानकी संचेतनासे [बन्धः धावन् ] बंध दौड़ता हुआ [बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि ] ज्ञानकी शुद्धताको रोकता है, अर्थात् ज्ञानकी शुद्धता नहीं होने देता।
भावार्थ : — किसी (वस्तु) के प्रति एकाग्र होकर उसीका अनुभवरूप स्वाद लिया करना वह उसका संचेतन कहलाता है। ज्ञान के प्रति ही एकाग्र उपयुक्त होकर उस ओर ही ध्यान रखना वह ज्ञानका संचेतन अर्थात् ज्ञानचेतना है। उससे ज्ञान अत्यन्त शुद्ध होकर प्रकाशित होता है अर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न होता है। केवलज्ञान उत्पन्न होने पर सम्पूर्ण ज्ञानचेतना कहलाती है। अज्ञानरूप (अर्थात् कर्मरूप और कर्मफ लरूप) उपयोगको करना, उसीकी ओर ( – कर्म और कर्मफलकी ओर ही – ) एकाग्र होकर उसीका अनुभव करना, वह अज्ञानचेतना है। उससे कर्मका बन्ध होता है, जो बन्ध ज्ञानकी शुद्धताको रोकता है।।२२४।।
श्लोकार्थ : — [त्रिकालविषयं ] त्रिकालके (अर्थात् अतीत, वर्तमान और अनागत काल संबंधी) [सर्व कर्म ] समस्त कर्मको [कृत-कारित-अनुमननैः ] कृत-कारित-अनुमोदनासे और — [मनः-वचन-कायैः ] मन-वचन-काय से [परिहृत्य ] त्याग करके [परमं नैष्कर्म्यम् अवलम्बे ] मैं परम नैष्कर्म्य का ( – उत्कृष्ट निष्कर्म अवस्थाका) अवलम्बन करता हूँ। (इसप्रकार,समस्त कर्मोंका त्याग करनेवाला ज्ञानी प्रतिज्ञा करता है।)।।२२५।।
श्लोकार्थ : — [यद् अहम् मोहात् अकार्षम् ] मैंने जो मोहसे अथवा अज्ञान से (भूतकालमें) कर्म किये हैं, [तत् समस्तम् अपि कर्म प्रतिक्रम्य ] उन समस्त कर्मोंका प्रतिक्रमण करके [निष्कर्मणि चैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते ] मैं निष्कर्म (अर्थात् समस्त कर्मोसें रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मा से ही ( – निजसे ही – ) निरन्तर वर्त रहा हूँ (इसप्रकार ज्ञानी अनुभव करता है)।
भावार्थ : — भूत कालमें किये गये कर्मको ४९ भंगपूर्वक मिथ्या करनेवाला प्रतिक्रमण करके ज्ञानी ज्ञानस्वरूप आत्मामें लीन होकर निरन्तर चैतन्यस्वरूप आत्माका अनुभव करे, इसकी यह विधि है। ‘मिथ्या’ कहनेका प्रयोजन इसप्रकार है : — जैसे, किसीने पहले धन कमाकर घरमें रख छोड़ा था; और फिर जब उसके प्रति ममत्व छोड़ दिया तब उसे भोगनेका अभिप्राय नहीं रहा; उस समय, भूत कालमें जो धन कमाया था वह नहीं कमाने के समान ही है; इसीप्रकार, जीवने पहले कर्म बन्ध किया था; फि र जब उसे अहितरूप जानकर उसके प्रति ममत्व छोड़ दिया और उसके फल में लीन न हुआ, तब भूतकालमें जो कर्म बाँधा था वह नहीं बाँधनेके समान मिथ्या ही है ।२२६।
श्लोकार्थ : — (निश्चय चारित्रको अंगीकार करनेवाला कहता है कि – ) [मोह-विलास-विजृम्भितम् इदम् उदयत् कर्म ] मोहके विलास से फैला हुआ जो यह उदयमान (उदयमें आता हुआ) कर्म [सकलम् आलोच्य ] उस सबकी आलोचना करके ( – उन सर्व कर्मोंकी आलोचना करके – ) [निष्कर्मणि चैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते ] मैं निष्कर्म (अर्थात् सर्वकर्मों से रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही निरन्तर वर्त रहा हूँ।
भावार्थ : — वर्तमान कालमें कर्मका उदय आता है, उसके विषयमें ज्ञानी यह विचार करता है कि — पहले जो कर्म बांधा था उसका यह कार्य है, मेरा तो यह कार्य नहीं। मैं इसका कर्ता नहीं हूँ, मै तो शुद्धचैतन्यमात्र आत्मा हूँ। उसकी दर्शनज्ञानरूप प्रवृत्ति है। उस दर्शनज्ञानरूप प्रवृत्तिके द्वारा मैं इस उदयागत कर्मका देखने-जाननेवाला हूँ। मैं अपने स्वरूपमें ही प्रवर्तमान हूँ। ऐसा अनुभव करना ही निश्चयचारित्र है ।२२७।
श्लोकार्थ : — (प्रत्याख्यान करनेवाला ज्ञानी कहता है कि : – ) [भविष्यत् समस्तं कर्म प्रत्याख्याय ] भविष्यके समस्त कर्मोंका प्रत्याख्यान ( – त्याग) करके, [निरस्त-सम्मोहः निष्कर्मणि चैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते ] जिसका मोह नष्ट हो गया है ऐसा मैं निष्कर्म (अर्थात् समस्त कर्मोसे रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही ( – अपनेसे ही – ) निरन्तर वर्त रहा हूँ।
भावार्थ : — निश्चयचारित्रमें प्रत्याख्यान विधान ऐसा है कि – समस्त आगामी कर्मोंसे रहित,चैतन्यकी प्रवृत्तिरूप (अपने) शुद्धोपयोगमें रहना सो प्रत्याख्यान है। इससे ज्ञानी आगामी समस्त कर्मोंका प्रत्याख्यान करके अपने चैतन्यस्वरूपमें रहता है।
यहाँ तात्पर्य इसप्रकार जानना चाहिएः — व्यवहारचारित्रमें तो प्रतिज्ञामें जो दोष लगता है उसका प्रतिक्रमण, आलोचना तथा प्रत्याख्यान होता है। यहाँ निश्चयचारित्रकी प्रधानतासे कथन है इसलिये शुद्धोपयोगसे विपरीत सर्व कर्म आत्माके दोष स्वरूप हैं। उन समस्त कर्मचेतनास्वरूप परिणामोंका — तीनों कालके कर्मोंका — प्रतिक्रमण, आलोचना तथा प्रत्याख्यान करके ज्ञानी सर्व कर्मचेतनासे भिन्न अपने शुद्धोपयोगरूप आत्माके ज्ञानश्रद्धान द्वारा और उसमें स्थिर होनेके विधान द्वारा निष्प्रमाद दशाको प्राप्त होकर श्रेणी चढ़कर, केवलज्ञान उत्पन्न करनेके सन्मुख होता है। यह,ज्ञानीका कार्य है ।२२८।
श्लोकार्थ : — (शुद्धनयका अवलंबन करनेवाला कहता है कि — ) [इति एवम् ] पूर्वोक्त प्रकारसे [त्रैकालिकं समस्तम् कर्म ] तीनोंकाल के समस्त कर्मोंको [अपास्य ] दूर करके – छोड़कर, [शुद्धनय-अवलंबी ] शुद्धनयावलंबी (अर्थात् शुद्धनयका अवलंबन करनेवाला) और [विलीन-मोहः ] विलीन मोह (अर्थात् जिसका मिथ्यात्व नष्ट हो गया है) ऐसा मैं [अथ ] अब [विकारैः रहितं चिन्मात्रम् आत्मानम् ] (सर्व) विकारोंसे रहित चैतन्यमात्र आत्माका [अवलम्बे ] अवलम्बन करता हूँ ।२२९।
श्लोकार्थ : — (समस्त कर्मफ लकी संन्यासभावनाका करनेवाला कहता है कि — ) [कर्म-विष-तरु-फ लानि ] कर्मरूपी विषवृक्षके फल [मम भुक्तिम् अन्तरेण एव ] मेरे द्वारा भोगे बिना ही, [विगलन्तु ] खिर जायें; [अहम् चैतन्य-आत्मानम् आत्मानम् अचलं सञ्चेतये ] मैं (अपने) चैतन्यस्वरूप आत्माका निश्चलतया संचेतन – अनुभव करता हूँ।
भावार्थ : — ज्ञानी कहता है कि — जो कर्म उदयमें आता है उसके फलको मैं ज्ञाताद्रष्टारूप से जानता-देखता हूँ, उसका भोक्ता नहीं होता, इसलिये मेरे द्वारा भोगे बिना ही वे कर्म खिर जायें; मैं अपने चैतन्यस्वरूप आत्मामें लीन होता हुआ उसका ज्ञाता-द्रष्टा ही होऊँ।
यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि — अविरत, देशविरत तथा प्रमत्तसंयत दशामें तो ऐसा ज्ञान-श्रद्धान ही प्रधान है, और जब जीव अप्रमत्त दशा को प्राप्त होकर श्रेणि चढ़ता है तब यह अनुभव साक्षात् होता है।।२३०।।