(रथोद्धता) रागजन्मनि निमित्ततां पर- द्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते । उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः ।।२२१।।
श्लोकार्थ : — [ये तु राग-जन्मनि परद्रव्यम् एव निमित्ततां कलयन्ति ] जो रागकी उत्पत्तिमें परद्रव्यका ही निमित्तत्व ( – कारणत्व) मानते हैं, (अपना कुछ भी कारणत्व नहीं मानते,) [ते शुद्ध-बोध-विधुर-अन्ध-बुद्धयः ] वे — जिनकी बुद्धि शुद्धज्ञान से रहित अंध है ऐसे (अर्थात् जिनकी बुद्धि शुद्धनयके विषयभूत शुद्ध आत्मस्वरूपके ज्ञानसे रहित अंध है ऐसे) — [मोह-वाहिनीं न हि उत्तरन्ति ] — मोह नदी को पार नहीं कर सकते।
भावार्थ : — शुद्धनय का विषय आत्मा अनन्त शक्तिवान, चैतन्य चमत्कारमात्र, नित्य, अभेद, एक है। वह अपने ही अपराध से रागद्वेषरूप परिणमित होता है। ऐसा नहीं है कि जिसप्रकार निमित्तभूत परद्रव्य परिणमित करता है उसीप्रकार आत्मा परिणमित होता है, और उसमें आत्मा का कोई पुरुषार्थ ही नहीं है। जिन्हें आत्माके ऐसे स्वरूपका ज्ञान नहीं है वे यह मानते हैं कि परद्रव्य आत्मा को जिसप्रकार परिणमन कराता है उसीप्रकार आत्मा परिणमित होता है। ऐसा माननेवाले मोहरूपी नदी को पार नहीं कर सकते (अथवा मोह-सैन्य को नहीं हरा सकते), उनके राग-द्वेष नहीं मिटते; क्योंकि राग-द्वेष करनेमें यदि अपना पुरुषार्थ हो तो वह उनके मिटाने में भी हो सकता है, किन्तु यदि दूसरेके कराये ही राग-द्वेष होता हो तो पर तो राग-द्वेष कराया ही करे, तब आत्मा उन्हें कहाँ से मिटा सकेगा?
इसलिये राग-द्वेष अपने किये होते हैं और अपने मिटाये मिटते हैं — इसप्रकार कथंचित् मानना सो सम्यग्ज्ञान है।।२२१।।
श्लोकार्थ : — [पूर्ण-एक-अच्युत-शुद्ध-बोध-महिमा अयं बोधो ] पूर्ण, एक, अच्युत और ( – निर्विकार) ज्ञान जिसकी महिमा है ऐसा यह ज्ञायक आत्मा [ततः इतः बोध्यात् ] उन (असमीपवर्ती) या इन (समीपवर्ती) ज्ञेय पदार्थोंसे [काम् अपि विक्रियां न यायात् ] किंचित् मात्र भी विक्रियाको प्राप्त नहीं होता, [दीपः प्रकाश्यात् इव ] जैसे दीपक प्रकाश्य ( – प्रकाशित होने योग्य घटपटादि) पदार्थोंसे विक्रियाको प्राप्त नहीं होता। तब फि र [तद्-वस्तुस्थिति-बोध-वन्ध्य-धिषणाः एते अज्ञानिनः ] जिनकी बुद्धि ऐसी वस्तुस्थितिके ज्ञानसे रहित है, ऐसे यह अज्ञानी जीव [किम् सहजाम् उदासीनताम् मुंचन्ति, रागद्वेषमयीभवन्ति ] अपनी सहज उदासीनता को क्यों छोड़ते हैं तथा रागद्वेषमय क्यों होते हैं ? (इसप्रकार आचार्य देव ने सोच किया है।)
भावार्थ : — जैसे दीपकका स्वभाव घटपटादिको प्रकाशित करनेका है, उसीप्रकार ज्ञानका स्वभाव ज्ञेयको जाननेका ही है। ऐसा वस्तुस्वभाव है। ज्ञेयको जाननेमात्रसे ज्ञान में विकार नहीं होता। ज्ञेयोंको जानकर, उन्हें अच्छा-बुरा मानकर, आत्मा रागीद्वेषी – विकारी होता है जो कि अज्ञान है।
इसलिये आचार्यदेवने सोच किया है कि — ‘वस्तुका स्वभाव तो ऐसा है, फि र भी यह आत्मा अज्ञानी होकर रागद्वेषरूप क्यों परिणमित होता है ? अपनी स्वाभाविक उदासीन-अवस्थारूप क्यों नहीं रहता ?’ इस प्रकार आचार्यदेवने जो सोच किया है सो उचित ही है, क्योंकि जब तक शुभ राग है तब तक प्राणियोंको अज्ञानसे दुःखी देखकर करुणा उत्पन्न होती है और उससे सोच भी होता है ।२२२।
श्लोकार्थ : — [राग-द्वेष-विभाव-मुक्त-महसः ] जिनका तेज रागद्वेषरूपी विभावसे रहित है, [नित्यं स्वभाव-स्पृशः ] जो सदा (अपने चैतन्यचमत्कारमात्र) स्वभावको स्पर्श करनेवाले हैं, [पूर्व-आगामि-समस्त-कर्म-विकलाः ] जो भूतकालके तथा भविष्यकालके समस्त कर्मोंसे रहित हैं और [तदात्व-उदयात् भिन्नाः ] जो वर्तमान कालके कर्मोदयसे भिन्न हैं, [दूर-आरूढ-चरित्र-वैभव-बलात् ज्ञानस्य सञ्चेतनाम् विन्दन्ति ] वे ( – ऐसे ज्ञानी – ) अति प्रबल चारित्र के वैभवके बलसे ज्ञानकी संचेतनाका अनुभव करते हैं – [चंचत्-चिद्-अर्चिर्मयीं ] जो ज्ञानचेतना-चमकती हुई चैतन्य ज्योतिमय है और [स्व-रस-अभिषिक्त-भुवनाम् ] जिसने अपने (ज्ञानरूपी) रस से समस्त लोकको सींचा है।
भावार्थ : — जिनका राग-द्वेष दूर हो गया, अपने चैतन्यस्वभावको जिन्होंने अंगीकार किया और अतीत, अनागत तथा वर्तमान कर्मका ममत्व दूर हो गया है ऐसे ज्ञानी सर्व परद्रव्योंसे अलग होकर चारित्र अंगीकार करते हैं। उस चारित्रके बलसे, कर्मचेतना और कर्मफ लचेतनासे भिन्न जो अपनी चैतन्यकी परिणमनस्वरूप ज्ञानचेतना है उसका अनुभव करते हैं।
यहाँ यह तात्पर्य समझना चाहिए कि : – जीव पहले तो कर्मचेतना और कर्मफलचेतना से भिन्न अपनी ज्ञानचेतनाका स्वरूप आगम-प्रमाण, अनुमान-प्रमाण और स्वसंवेदनप्रमाण से जानता है और उसका श्रद्धान (प्रतीति) दृढ़ करता है; यह तो अविरत, देशविरत, और प्रमत्त अवस्थामें भी होता है। और जब अप्रमत्त अवस्था होती है तब जीव अपने स्वरूपका ही ध्यान करता है;उस समय, उसने जिस ज्ञानचेतनाका प्रथम श्रद्धान किया था उसमें वह लीन होता है और श्रेणि चढ़कर, केवलज्ञान उत्पन्न करके, साक्षात् ज्ञानचेतनारूप हो जाता है।।२२३।।
श्लोकार्थ : — [नित्यं ज्ञानस्य संचेतनया एव ज्ञानम् अतीव शुद्धम् प्रकाशते ] निरन्तर ज्ञानकी संचेतनासे ही ज्ञान अत्यन्त शुद्ध प्रकाशित होता है; [तु ] और [अज्ञानसंचेतनया ] अज्ञानकी संचेतनासे [बन्धः धावन् ] बंध दौड़ता हुआ [बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि ] ज्ञानकी शुद्धताको रोकता है, अर्थात् ज्ञानकी शुद्धता नहीं होने देता।
भावार्थ : — किसी (वस्तु) के प्रति एकाग्र होकर उसीका अनुभवरूप स्वाद लिया करना वह उसका संचेतन कहलाता है। ज्ञान के प्रति ही एकाग्र उपयुक्त होकर उस ओर ही ध्यान रखना वह ज्ञानका संचेतन अर्थात् ज्ञानचेतना है। उससे ज्ञान अत्यन्त शुद्ध होकर प्रकाशित होता है अर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न होता है। केवलज्ञान उत्पन्न होने पर सम्पूर्ण ज्ञानचेतना कहलाती है। अज्ञानरूप (अर्थात् कर्मरूप और कर्मफ लरूप) उपयोगको करना, उसीकी ओर ( – कर्म और कर्मफलकी ओर ही – ) एकाग्र होकर उसीका अनुभव करना, वह अज्ञानचेतना है। उससे कर्मका बन्ध होता है, जो बन्ध ज्ञानकी शुद्धताको रोकता है।।२२४।।
श्लोकार्थ : — [त्रिकालविषयं ] त्रिकालके (अर्थात् अतीत, वर्तमान और अनागत काल संबंधी) [सर्व कर्म ] समस्त कर्मको [कृत-कारित-अनुमननैः ] कृत-कारित-अनुमोदनासे और — [मनः-वचन-कायैः ] मन-वचन-काय से [परिहृत्य ] त्याग करके [परमं नैष्कर्म्यम् अवलम्बे ] मैं परम नैष्कर्म्य का ( – उत्कृष्ट निष्कर्म अवस्थाका) अवलम्बन करता हूँ। (इसप्रकार,समस्त कर्मोंका त्याग करनेवाला ज्ञानी प्रतिज्ञा करता है।)।।२२५।।
श्लोकार्थ : — [यद् अहम् मोहात् अकार्षम् ] मैंने जो मोहसे अथवा अज्ञान से (भूतकालमें) कर्म किये हैं, [तत् समस्तम् अपि कर्म प्रतिक्रम्य ] उन समस्त कर्मोंका प्रतिक्रमण करके [निष्कर्मणि चैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते ] मैं निष्कर्म (अर्थात् समस्त कर्मोसें रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मा से ही ( – निजसे ही – ) निरन्तर वर्त रहा हूँ (इसप्रकार ज्ञानी अनुभव करता है)।
भावार्थ : — भूत कालमें किये गये कर्मको ४९ भंगपूर्वक मिथ्या करनेवाला प्रतिक्रमण करके ज्ञानी ज्ञानस्वरूप आत्मामें लीन होकर निरन्तर चैतन्यस्वरूप आत्माका अनुभव करे, इसकी यह विधि है। ‘मिथ्या’ कहनेका प्रयोजन इसप्रकार है : — जैसे, किसीने पहले धन कमाकर घरमें रख छोड़ा था; और फिर जब उसके प्रति ममत्व छोड़ दिया तब उसे भोगनेका अभिप्राय नहीं रहा; उस समय, भूत कालमें जो धन कमाया था वह नहीं कमाने के समान ही है; इसीप्रकार, जीवने पहले कर्म बन्ध किया था; फि र जब उसे अहितरूप जानकर उसके प्रति ममत्व छोड़ दिया और उसके फल में लीन न हुआ, तब भूतकालमें जो कर्म बाँधा था वह नहीं बाँधनेके समान मिथ्या ही है ।२२६।
श्लोकार्थ : — (निश्चय चारित्रको अंगीकार करनेवाला कहता है कि – ) [मोह-विलास-विजृम्भितम् इदम् उदयत् कर्म ] मोहके विलास से फैला हुआ जो यह उदयमान (उदयमें आता हुआ) कर्म [सकलम् आलोच्य ] उस सबकी आलोचना करके ( – उन सर्व कर्मोंकी आलोचना करके – ) [निष्कर्मणि चैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते ] मैं निष्कर्म (अर्थात् सर्वकर्मों से रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही निरन्तर वर्त रहा हूँ।
भावार्थ : — वर्तमान कालमें कर्मका उदय आता है, उसके विषयमें ज्ञानी यह विचार करता है कि — पहले जो कर्म बांधा था उसका यह कार्य है, मेरा तो यह कार्य नहीं। मैं इसका कर्ता नहीं हूँ, मै तो शुद्धचैतन्यमात्र आत्मा हूँ। उसकी दर्शनज्ञानरूप प्रवृत्ति है। उस दर्शनज्ञानरूप प्रवृत्तिके द्वारा मैं इस उदयागत कर्मका देखने-जाननेवाला हूँ। मैं अपने स्वरूपमें ही प्रवर्तमान हूँ। ऐसा अनुभव करना ही निश्चयचारित्र है ।२२७।
श्लोकार्थ : — (प्रत्याख्यान करनेवाला ज्ञानी कहता है कि : – ) [भविष्यत् समस्तं कर्म प्रत्याख्याय ] भविष्यके समस्त कर्मोंका प्रत्याख्यान ( – त्याग) करके, [निरस्त-सम्मोहः निष्कर्मणि चैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते ] जिसका मोह नष्ट हो गया है ऐसा मैं निष्कर्म (अर्थात् समस्त कर्मोसे रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही ( – अपनेसे ही – ) निरन्तर वर्त रहा हूँ।
भावार्थ : — निश्चयचारित्रमें प्रत्याख्यान विधान ऐसा है कि – समस्त आगामी कर्मोंसे रहित,चैतन्यकी प्रवृत्तिरूप (अपने) शुद्धोपयोगमें रहना सो प्रत्याख्यान है। इससे ज्ञानी आगामी समस्त कर्मोंका प्रत्याख्यान करके अपने चैतन्यस्वरूपमें रहता है।
यहाँ तात्पर्य इसप्रकार जानना चाहिएः — व्यवहारचारित्रमें तो प्रतिज्ञामें जो दोष लगता है उसका प्रतिक्रमण, आलोचना तथा प्रत्याख्यान होता है। यहाँ निश्चयचारित्रकी प्रधानतासे कथन है इसलिये शुद्धोपयोगसे विपरीत सर्व कर्म आत्माके दोष स्वरूप हैं। उन समस्त कर्मचेतनास्वरूप परिणामोंका — तीनों कालके कर्मोंका — प्रतिक्रमण, आलोचना तथा प्रत्याख्यान करके ज्ञानी सर्व कर्मचेतनासे भिन्न अपने शुद्धोपयोगरूप आत्माके ज्ञानश्रद्धान द्वारा और उसमें स्थिर होनेके विधान द्वारा निष्प्रमाद दशाको प्राप्त होकर श्रेणी चढ़कर, केवलज्ञान उत्पन्न करनेके सन्मुख होता है। यह,ज्ञानीका कार्य है ।२२८।
श्लोकार्थ : — (शुद्धनयका अवलंबन करनेवाला कहता है कि — ) [इति एवम् ] पूर्वोक्त प्रकारसे [त्रैकालिकं समस्तम् कर्म ] तीनोंकाल के समस्त कर्मोंको [अपास्य ] दूर करके – छोड़कर, [शुद्धनय-अवलंबी ] शुद्धनयावलंबी (अर्थात् शुद्धनयका अवलंबन करनेवाला) और [विलीन-मोहः ] विलीन मोह (अर्थात् जिसका मिथ्यात्व नष्ट हो गया है) ऐसा मैं [अथ ] अब [विकारैः रहितं चिन्मात्रम् आत्मानम् ] (सर्व) विकारोंसे रहित चैतन्यमात्र आत्माका [अवलम्बे ] अवलम्बन करता हूँ ।२२९।
श्लोकार्थ : — (समस्त कर्मफ लकी संन्यासभावनाका करनेवाला कहता है कि — ) [कर्म-विष-तरु-फ लानि ] कर्मरूपी विषवृक्षके फल [मम भुक्तिम् अन्तरेण एव ] मेरे द्वारा भोगे बिना ही, [विगलन्तु ] खिर जायें; [अहम् चैतन्य-आत्मानम् आत्मानम् अचलं सञ्चेतये ] मैं (अपने) चैतन्यस्वरूप आत्माका निश्चलतया संचेतन – अनुभव करता हूँ।
भावार्थ : — ज्ञानी कहता है कि — जो कर्म उदयमें आता है उसके फलको मैं ज्ञाताद्रष्टारूप से जानता-देखता हूँ, उसका भोक्ता नहीं होता, इसलिये मेरे द्वारा भोगे बिना ही वे कर्म खिर जायें; मैं अपने चैतन्यस्वरूप आत्मामें लीन होता हुआ उसका ज्ञाता-द्रष्टा ही होऊँ।
यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि — अविरत, देशविरत तथा प्रमत्तसंयत दशामें तो ऐसा ज्ञान-श्रद्धान ही प्रधान है, और जब जीव अप्रमत्त दशा को प्राप्त होकर श्रेणि चढ़ता है तब यह अनुभव साक्षात् होता है।।२३०।।
श्लोकार्थ : — (सकल कर्मोंके फ लका त्याग करके ज्ञानचेतनाकी भावना करनेवाला ज्ञानी कहता है किः — [एवं ] पूर्वोक्त प्रकारसे [निःशेष-कर्म-फ ल-संन्यसनात् ] समस्त कर्मके फ लका संन्यास करनेसे [चैतन्य-लक्ष्म आत्मतत्त्वं भृशम् भजतः सर्व-क्रियान्तर-विहारनिवृत्त-वृत्तेः ] मैं चैतन्यलक्षण आत्मतत्त्वको अतिशयतया भोगता हूँ और उसके अतिरिक्त अन्य सर्व क्रियामें विहारसे मेरी वृत्ति निवृत्त है (अर्थात् आत्मतत्त्वके उपभोगसे अतिरिक्त अन्य जो उपयोगकी क्रिया — विभावरूप क्रिया उसमें मेरी परिणति विहार – प्रवृत्ति नहीं करती); [अचलस्य मम ] इसप्रकार आत्मतत्त्वके उपभोगमें अचल ऐसे मुझे, [इयम् काल-आवली ] यह कालकी आवली जो कि [अनन्ता ] प्रवाहरूपसे अनन्त है वह, [वहतु ] आत्मतत्त्वके उपभोगमें ही बहती रहे (उपयोगकी प्रवृत्ति अन्यमें कभी भी न जाये)।
भावार्थ : — ऐसी भावना करनेवाला ज्ञानी ऐसा तृप्त हुआ है कि मानों भावना करता हुआ साक्षात् केवली ही हो गया हो; इससे वह अनन्तकाल तक ऐसा ही रहना चाहता है। और यह योग्य ही है; क्योंकि इसी भावनासे केवली हुआ जाता है। केवलज्ञान उत्पन्न करनेका परमार्थ उपाय यही है। बाह्य व्यवहारचारित्र इसी का साधनरूप है; और इसके बिना व्यवहारचारित्र शुभकर्मको बाँधता है, वह मोक्षका उपाय नहीं है ।२३१।
श्लोकार्थ : — [पूर्व-भाव-कृत-कर्म-विषद्रुमाणां फ लानि यः न भुङ्क्ते ] पहले अज्ञानभावसे उपार्जित कर्मरूपी विषवृक्षोंके फल को जो पुरुष (उसका स्वामी होकर) नहीं भोगता और [खलु स्वतः एव तृप्तः ] वास्तवमें अपनेसे ही ( – आत्मस्वरूपसे ही) तृप्त है, [सः आपात-काल-रमणीयम् उदर्क-रम्यम् निष्कर्म-शर्ममयम् दशान्तरम् एति ] वह पुरुष, जो वर्तमानकाल में रमणीय है और भविष्यकाल में भी जिसका फ ल रमणीय है ऐसे निष्कर्म – सुखमय दशांतरको प्राप्त होता है (अर्थात् जो पहले संसार अवस्थामें कभी नहीं हुई थी, ऐसी भिन्न प्रकारकी कर्म रहित स्वाधीन सुखमयदशाको प्राप्त होता है)।
भावार्थ : — ज्ञानचेतनाकी भावनाका फल यह है। उस भावनासे जीव अत्यन्त तृप्त रहता है — अन्य तृष्णा नहीं रहती, और भविष्यमें केवलज्ञान उत्पन्न करके समस्त कर्मोंसे रहित मोक्ष-अवस्थाको प्राप्त होता है ।२३२।
श्लोकार्थ : — [अविरतं कर्मणः तत्फ लात् च विरतिम् अत्यन्तं भावयित्वा ] ज्ञानीजन, अविरतपनेसे कर्मसे और कर्मफ लसे विरतिको अत्यन्त भाकर, (अर्थात् कर्म और कर्मफल के प्रति अत्यन्त विरक्त भावको निरन्तर भा कर, [अखिल-अज्ञान-संचेतनायाः प्रलयनम् प्रस्पष्टं नाटयित्वा ] (इस भाँति) समस्त अज्ञानचेतना के नाशको स्पष्टतया नचाकर, [स्व-रस-परिगतं स्वभावं पूर्णं कृत्वा ] निजरससे प्राप्त अपने स्वभावको पूर्ण करके, [स्वां ज्ञानसञ्चेतनां सानन्दं नाटयन्तः इतः सर्व-कालं प्रशमरसम् पिबन्तु ] अपनी ज्ञानचेतनाको आनन्द पूर्वक नचाते हुए अबसे सदाकाल प्रशमरसको पिओ अर्थात् कर्मके अभावरूप आत्मिकरसको – अमृतरसको – अभी से लेकर अनन्तकाल तक पिओ। इसप्रकार ज्ञानीजनोंको प्रेरणा की है)।
भावार्थ : — पहले तो त्रिकाल सम्बन्धी कर्मके कर्तृत्वरूप कर्मचेतनाके त्यागकी भावना (४९ भंगपूर्वक) कराई। और फिर १४८ कर्म प्रकृतियोंके उदयरूप कर्मफल के त्यागकी भावना कराई। इसप्रकार अज्ञानचेतनाका प्रलय कराकर ज्ञानचेतनामें प्रवृत्त होनेका उपदेश दिया है। यह ज्ञानचेतना सदा आनन्दरूप अपने स्वभावकी अनुभवरूप है। ज्ञानीजन सदा उसका उपभोग करो — ऐसा श्रीगुरुओंका उपदेश है।२३३।
श्लोकार्थ : — [इतः इह ] यहाँसे अब (इस सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारमें आगे की गाथाओं में यह कहते हैं कि — ) [समस्त-वस्तु-व्यतिरेक-निश्चयात् विवेचितं ज्ञानम् ] समस्त वस्तुओंके भिन्नत्वके निश्चय द्वारा पृथक् किया गया ज्ञान, [पदार्थ-प्रथन-अवगुण्ठनात् कृतेः विना ] पदार्थके विस्तारके साथ गुथित होने से ( – अनेक पदार्थोंके साथ, ज्ञेय-ज्ञान सम्बन्ध के कारण; एक जैसा दिखाई देने से) उत्पन्न होनेवाली (अनेक प्रकारकी) क्रिया उनसे रहित [एकम् अनाकुलं ज्वलत् ] एक ज्ञानक्रियामात्र, अनाकुल ( – सर्व आकुलतासे रहित) और देदीप्यमान होता हुआ, [अवतिष्ठते ] निश्चल रहता है।
भावार्थ : — आगामी गाथाओंमें ज्ञानको स्पष्टतया सर्व वस्तुओंसे भिन्न बतलाते हैं ।२३४।
श्लोकार्थ : — [अन्येभ्यः व्यतिरिक्तम् ] अन्य द्रव्योंसे भिन्न, [आत्म-नियतं ] अपनेमें ही नियत, [पृथक्-वस्तुताम्-बिभ्रत् ] पृथक् वस्तुत्वको धारण करता हुआ ( — वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषात्मक होनेसे स्वयं भी सामान्यविशेषात्मकताको धारण करता हुआ), [आदान-उज्झन-शून्यम् ] ग्रहणत्यागसे रहित, [एतत् अमलं ज्ञानं ] यह अमल ( – रागादिक मलसे रहित) ज्ञान [तथा-अवस्थितम् यथा ] इसप्रकार अवस्थित ( – निश्चल) अनुभवमें आता है कि जैसे [मध्य-आदि-अंत-विभाग-मुक्त-सहज-स्फार-प्रभा-भासुरःअस्य शुद्ध-ज्ञान-घनः महिमा ] आदि-मध्य-अन्तरूप विभागोंसे रहित ऐसी सहज फै ली हुई प्रभाके द्वारा देदीप्यमान ऐसी उसकी शुद्धज्ञानघनस्वरूप महिमा [नित्य-उदितः-तिष्ठति ] नित्य-उदित रहे ( — शुद्ध ज्ञानकी पुंजरूप महिमा सदा उदयमान रहे)।
भावार्थ : — ज्ञानका पूर्ण रूप सबको जानना है। वह जब प्रगट होता है तब सर्व विशेषणों से सहित प्रगट होता है; इसलिए उसकी महिमा को कोई बिगाड़ नहीं सकता, वह सदा उदित रहती है ।२३५।
श्लोकार्थ : — [संहृत-सर्व-शक्तेः पूर्णस्य आत्मनः ] जिसने सर्व शक्तियोंको समेट लिया है ( – अपनेमें लीन कर लिया है) ऐसे पूर्ण आत्माका [आत्मनि इह ] आत्मामें [यत् सन्धारणम् ] धारण करना [तत् उन्मोच्यम् अशेषतः उन्मुक्तम् ] वही छोड़ने योग्य सब कुछ छोड़ा है [तथा ] और [आदेयम् तत् अशेषतः आत्तम् ] ग्रहण करने योग्य सब ग्रहण किया है।
भावार्थ : — पूर्णज्ञानस्वरूप, सर्व शक्तियोंका समूहरूप जो आत्मा है उसे आत्मामें धारण कर रखना सो यही, जो कुछ त्यागने योग्य था उस सबको त्याग दिया और ग्रहण करने योग्य जो कुछ था उसे ग्रहण किया है। यही कृतकृत्यता है।२३६।
श्लोकार्थ : — [एवं ज्ञानम् परद्रव्यात् व्यतिरिक्तं अवस्थितम् ] इसप्रकार (पूर्वोक्त रीतिसे) ज्ञान परद्रव्य से पृथक् अवस्थित ( – निश्चल रहा हुआ) है; [तत् आहारकं कथम् स्यात् येन अस्य देहः शंक्यते ] वह (ज्ञान) आहारक (अर्थात् कर्म-नोकर्मरूप आहार करनेवाला) कैसे हो सकता है कि जिससे उसके देह की शंका की जा सके ? (ज्ञानके देह हो ही नहीं सकती, क्योंकि उसके कर्म-नोकर्मरूप आहार ही नहीं है।)।२३७।
(अनुष्टुभ्)
एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते ।
ततो देहमयं ज्ञातुर्न लिंगं मोक्षकारणम् ।।२३८।।
श्लोकार्थ : — [एवं शुद्धस्य ज्ञानस्य देहः एव न विद्यते ] इसप्रकार शुद्धज्ञानके देह ही नहीं है; [ततः ज्ञातुः देहमयं लिङ्गं मोक्षकारणम् न ] इसलिए ज्ञाताको देहमय चिह्न मोक्षका कारण नहीं है ।२३८।
(अनुष्टुभ्)
दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा तत्त्वमात्मनः ।
एक एव सदा सेव्यो मोक्षमार्गो मुमुक्षुणा ।।२३९।।
श्लोकार्थ : — [आत्मनः तत्त्वम् दर्शन-ज्ञान-चारित्र-त्रय-आत्मा ] आत्माका तत्त्व दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मक है (अर्थात् आत्माका यथार्थ रूप दर्शन, ज्ञान और चारित्रके त्रिकस्वरूप है); [मुमुक्षुणा मोक्षमार्गः एकः एव सदा सेव्यः ] इसलिये मोक्षके इच्छुक पुरुषको (यह दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप) मोक्षमार्ग एक ही सदा सेवन करने योग्य है ।२३९।
श्लोकार्थ : — [दृग्-ज्ञप्ति-वृत्ति-आत्मकः यः एषः एकः नियतः मोक्षपथः ] दर्शनज्ञान- चारित्रस्वरूप जो यह एक नियत मोक्षमार्ग है, [तत्र एव यः स्थितिम् एति ] उसीमें जो पुरुष स्थिति प्राप्त करता है अर्थात् स्थित रहता है, [तम् अनिशं ध्यायेत् ] उसीका निरन्तर ध्यान करता है, [तं चेतति ] उसीको चेतता है — उसीका अनुभव करता है, [च द्रव्यान्तराणि अस्पृशन् तस्मिन् एव निरन्तरं विहरति ] और अन्य द्रव्योंको स्पर्श न करता हुआ उसीमें निरन्तर विहार करता है [सः नित्य-उदयं समयस्य सारम् अचिरात् अवश्यं विन्दति ] वह पुरुष, जिसका उदय नित्य रहता है ऐसे समयके सारको (अर्थात् परमात्माके रूपको) अल्प कालमें ही अवश्य प्राप्त करता है अर्थात् उसका अनुभव करता है।
भावार्थ : — निश्चयमोक्षमार्गके सेवनसे अल्प कालमें ही मोक्षकी प्राप्ति होती है, यह नियम है ।२४०।
(शार्दूलविक्रीडित)
ये त्वेनं परिहृत्य संवृतिपथप्रस्थापितेनात्मना
लिंगे द्रव्यमये वहन्ति ममतां तत्त्वावबोधच्युताः ।
नित्योद्योतमखण्डमेकमतुलालोकं स्वभावप्रभा-
प्राग्भारं समयस्य सारममलं नाद्यापि पश्यन्ति ते ।।२४१।।
श्लोकार्थ : — [ये तु एनं परिहृत्य संवृति-पथ-प्रस्थापितेन आत्मना द्रव्यमये लिंङ्गे ममतां वहन्ति ] जो पुरुष इस पूर्वोक्त परमार्थस्वरूप मोक्षमार्गको छोड़कर व्यवहारमोक्षमार्गमें स्थापित अपने आत्माके द्वारा द्रव्यमय लिंगमें ममता करते हैं (अर्थात् यह मानते हैं कि यह द्रव्यलिंग ही हमें मोक्ष प्राप्त करा देगा), [ते तत्त्व-अवबोध-च्युताः अद्य अपि समयस्य सारम् न पश्यन्ति ] वे पुरुष तत्त्वके यथार्थ ज्ञानसे रहित होते हुए अभी तक समयके सारको (अर्थात् शुद्ध आत्माको) नहीं देखते — अनुभव नहीं करते। वह समयसार अर्थात् शुद्धात्मा कैसा है ? [नित्य-उद्योतम् ] नित्य प्रकाशमान है (अर्थात् कोई प्रतिपक्षी होकर उसके उदयका नाश नहीं कर सकता), [अखण्डम् ] अखण्ड है (अर्थात् जिसमें अन्य ज्ञेय आदिके निमित्त खण्ड नहीं होते), [एकम् ] एक है (अर्थात् पर्यायोंसे अनेक अवस्थारूप होने पर भी जो एकरूपत्वको नहीं छोड़ता), [अतुल-आलोकं ] अतुल ( – उपमारहित) प्रकाशवाला है,(क्योंकि ज्ञानप्रकाशको सूर्यादिके प्रकाशकी उपमा नहीं दी जा सकती), [स्वभाव-प्रभा-प्राग्भारं ] स्वभावप्रभाका पुंज है (अर्थात् चैतन्यप्रकाशका समूहरूप है), [अमलं ] अमल है (अर्थात् रागादि-विकाररूपी मलसे रहित है)। (इसप्रकार, जो द्रव्यलिंगमें ममत्व करते हैं उन्हे निश्चय-कारणसमयसारका अनुभव नहीं है; तब फिर उनको कार्यसमयसारकी प्राप्ति कहाँसे होगी ?)।२४१।
श्लोकार्थ : — [व्यवहार-विमूढ-दृष्टयः जनाः परमार्थ नो कलयन्ति ] जिनकी दृष्टि (बुद्धि) व्यवहारमें ही मोहित है ऐसे पुरुष परमार्थको नहीं जानते, [इह तुष-बोध-विमुग्ध-बुद्धयः तुषं कलयन्ति, न तण्डुलम् ] जैसे जगतमें जिनकी बुद्धि तुषके ज्ञानमें ही मोहित है ( – मोहको प्राप्त हुई है) ऐसे पुरुष तुषको ही जानते हैं, तंदुल ( – चावल) को नहीं जानते।
भावार्थ : — जो धानके छिलकों पर ही मोहित हो रहे हैं, उन्हीं को कूटते रहते हैं, उन्होंने चावलोंको जाना ही नहीं है; इसीप्रकार जो द्रव्यलिंग आदि व्यवहार में मुग्ध हो रहे हैं (अर्थात् जो शरीरादिकी क्रिया में ममत्व किया करते हैं), उन्होंने शुद्धात्मानुभवनरूप परमार्थको जाना नहीं है; अर्थात् ऐसे जीव शरीरादि परद्रव्यको ही आत्मा जानते हैं, वे परमार्थ आत्मा के स्वरूपको जानते ही नहीं ।२४२।
(स्वागता)
द्रव्यलिंगममकारमीलितै-
द्रर्श्यते समयसार एव न ।
द्रव्यलिंगमिह यत्किलान्यतो
ज्ञानमेकमिदमेव हि स्वतः ।।२४३।।
श्लोकार्थ : — [द्रव्यलिङ्ग-ममकार-मीलितैः समयसारः एव न दृश्यते ] जो द्रव्यलिंग में ममकारके द्वारा अंध — विवेक रहित हैं, वे समयसारको ही नहीं देखते; [यत् इह द्रव्यलिंगम् किल अन्यतः ] क्योंकि इस जगत में द्रव्यलिंग तो वास्तवमें अन्य द्रव्यसे होता है, [इदम् ज्ञानम् एव हि एकम् स्वतः ] मात्र यह ज्ञान ही निज से (आत्मद्रव्य से) होता है।
भावार्थ : — जो द्रव्यलिंगमें ममत्वके द्वारा अंध है उन्हें शुद्धात्मद्रव्यका अनुभव ही नहीं है, क्योंकि वे व्यवहारको ही परमार्थ मानते हैं, इसलिये परद्रव्यको ही आत्मद्रव्य मानते हैं ।२४३।
श्लोकार्थ : — [अतिजल्पैः अनल्पैः दुर्विकल्पैः अलम् अलम् ] बहुत कथन से और बहुत दुर्विकल्पोंसे बस होओ, बस होओ; [इह ] यहाँ मात्र इतना ही कहना है कि [अयम् परमार्थः एकः नित्यम् चेत्यताम् ] इस एकमात्र परमार्थका ही निरन्तर अनुभव करो; [स्वरस-विसर-पूर्ण-ज्ञान-विस्फूर्ति-मात्रात् समयसारात् उत्तरं खलु किञ्चित् न अस्ति ] क्योंकि निजरसके प्रसारसे पूर्ण जो ज्ञान उसके स्फुरायमान होने मात्र जो समयसार ( – परमात्मा) उससे उच्च वास्तव में दूसरा कुछ भी नहीं है ( – समयसारके अतिरिक्त दूसरा कुछ भी सारभूत नहीं है)।
भावार्थ : — पूर्णज्ञानस्वरूप आत्माका अनुभव करना चाहिए; इसके अतिरिक्त वास्तवमें दूसरा कुछ भी सारभूत नहीं है।२४४।
श्लोकार्थ : — [आनन्दमयम् विज्ञानघनम् अध्यक्षताम् नयत् ] आनन्दमय विज्ञानघनको ( – शुद्ध परमात्माको, समयसारको) प्रत्यक्ष करता हुआ, [इदम् एकम् अक्षयं जगत्-चक्षुः ] यह एक (अद्वितीय) अक्षय जगत-चक्षु ( – समयप्राभृत) [पूर्णताम् याति ] पूर्णताको प्राप्त होता है।
भावार्थ : — यह समयप्राभूत ग्रन्थ वचनरूपसे तथा ज्ञानरूपसे — दोनों प्रकारसे जगतको अक्षय (अर्थात् जिसका विनाश न हो ऐसे) अद्वितीय नेत्र समान हैं, क्योंकि जैसे नेत्र घटपटादि को प्रत्यक्ष दिखलाता है, उसीप्रकार समयप्राभृत आत्माके शुद्ध स्वरूप को प्रत्यक्ष अनुभवगोचर दिखलाता है ।२४५।
श्लोकार्थ : — [इति इदम् आत्मनः तत्त्वं ज्ञानमात्रम् अवस्थितम् ] इसप्रकार यह आत्माका तत्त्व (अर्थात् परमार्थभूतस्वरूप) ज्ञानमात्र निश्चित हुआ — [अखण्डम् ] कि जो (आत्माका) ज्ञानमात्रतत्त्व अखण्ड है (अर्थात् अनेक ज्ञेयाकारोंसे और प्रतिपक्षी कर्मोंसे यद्यपि खण्डखण्ड दिखाई देता है तथापि ज्ञानमात्रमें खण्ड नहीं है), [एकम् ] एक है (अर्थात् अखण्ड होनेसे
एकरूप है), [अचलं ] अचल है (अर्थात् ज्ञानरूपसे चलित नहीं होता — ज्ञेयरूप नहीं होता, [स्वसंवेद्यम् ] स्वसंवेद्य है (अर्थात् अपनेसे ही ज्ञात होने योग्य है), [अबाधितम् ] और अबाधित है (अर्थात् किसी मिथ्यायुक्तिसे बाधा नहीं पाता)।
भावार्थ : — यहाँ आत्माका निज स्वरूप ज्ञान ही कहा है इसका कारण यह हैः — आत्मा में अनन्त धर्म हैं; किन्तु उनमें कितने ही तो साधारण हैं, इसलिये वे अतिव्याप्तियुक्त हैं, उनसे आत्मा को पहिचाना नहीं जा सकता; और कुछ (धर्म) पर्यायाश्रित हैं — किसी अवस्थामें होते हैं और किसी अवस्था में नहीं होते, इसलिये वे अव्याप्तियुक्त हैं, उनसे भी आत्मा नहीं पहिचाना जा सकता। चेतनता यद्यपि आत्माका (अतिव्याप्ति और अव्याप्ति रहित) लक्षण है, तथापि वह शक्तिमात्र है, अदृष्ट है; उसकी व्यक्ति दर्शन और ज्ञान है। उस दर्शन और ज्ञानमें भी ज्ञान साकार है, प्रगट अनुभवगोचर है; इसलिये उसके द्वारा ही आत्मा पहिचाना जा सकता है। इसलिये यहाँ इस ज्ञानको ही प्रधान करके आत्माका तत्त्व कहा है।
यहाँ ऐसा नहीं समझना चाहिए कि ‘आत्मा को ज्ञानमात्र तत्त्ववाला कहा है, इसलिये इतना ही परमार्थ है और अन्य धर्म मिथ्या है, वे आत्मामें नहीं हैं, ऐसा सर्वथा एकान्त ग्रहण करनेसे तो मिथ्यादृष्टित्व आ जाता है, विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धोंका और वेदान्तियोंका मत आ जाता है; इसलिये ऐसा एकान्त बाधा सहित है। ऐसे एकान्त अभिप्रायसे कोई मुनिव्रत भी पाले और आत्माका — ज्ञानमात्रका — ध्यान भी करे, तो भी मिथ्यात्व नहीं कट सकता; मन्द कषायोंके कारण भले ही स्वर्ग प्राप्त हो जाये, किन्तु मोक्षका साधन तो नहीं होता। इसलिये स्याद्वाद से यथार्थ समझना चाहिए ।२४६।
श्लोकार्थ : — [अत्र ] यहाँ [स्याद्वाद-शुद्धि-अर्थं ] स्याद्वादकी शुद्धिके लिये [वस्तु-तत्त्व-व्यवस्थितिः ] वस्तुतत्त्वकी व्यवस्था [च ] और [उपाय-उपेय-भावः ] (एक ही ज्ञानमें उपाय – उपेयत्व कैसे घटित होता है यह बतलानेके लिये) उपाय-उपेयभावका [मनाक् भूयः अपि ] जरा फिर से भी [चिन्त्यते ] विचार करते हैं।
भावार्थ : — वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषात्मक अनेक-धर्मस्वरूप होनेसे वह स्याद्वादसे ही सिद्ध किया जा सकता है। इसप्रकार स्याद्वादकी शुद्धता ( – प्रमाणिकता, सत्यता, निर्दोषता, निर्मलता, अद्वितीयता) सिद्ध करनेके लिये इस परिशिष्टमें वस्तुस्वरूपका विचार किया जाता है। (इसमें यह भी बताया जायेगा कि इस शास्त्रमें आत्माको ज्ञानमात्र कहा है फिर भी स्याद्वादके साथ विरोध नहीं आता।) और दूसरे, एक ही ज्ञानमें साधकत्व तथा साध्यत्व कैसे बन सकता है यह समझाने के लिये ज्ञानके उपाय-उपेयभावका अर्थात् साधकसाध्यभाव का भी इस परिशिष्ट में विचार किया जायेगा ।२४७।
श्लोकार्थ : — [बाह्य-अर्थैः परिपीतम् ] बाह्य पदार्थोंके द्वारा सम्पूर्णतया पिया गया, [उज्झित-निज-प्रव्यक्ति-रिक्तीभवद् ] अपनी व्यक्ति (प्रगटता) को छोड़ देनेसे रिक्त ( – शून्य) हुआ, [परितः पररूपे एव विश्रान्तं ] सम्पूर्णतया पररूपमें ही विश्रांत (अर्थात् पररूपके ऊपर ही आधार रखता हुआ) ऐसे [पशोः ज्ञानं ] पशुका ज्ञान ( – पशुवत् एकान्तवादीका ज्ञान) [सीदति ] नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादिनः तत् पुनः ] और स्याद्वादीका ज्ञान तो, [‘यत् तत् तत् इह स्वरूपतः तत्’ इति ] ‘जो तत् है वह स्वरूप से तत् है (अर्थात् प्रत्येक तत्त्वको — वस्तुको स्वरूपसे तत्पना है)’ ऐसी मान्यताके कारण [दूरउन्मग्न-घन-स्वभाव-भरतः ] अत्यन्त प्रगट हुए ज्ञानघनरूप स्वभावके भारसे, [पूर्णं समुन्मज्जति ] सम्पूर्ण उदित (प्रगट) होता है।
भावार्थ : — कोई सर्वथा एकान्तवादी तो यह मानता है कि — घटज्ञान घटके आधारसे ही होता है, इसलिये ज्ञान सब प्रकारसे ज्ञेयों पर ही आधार रखता है। ऐसा माननेवाले एकान्तवादीके ज्ञानको तो ज्ञेय पी गये हैं, ज्ञान स्वयं कुछ नहीं रहा। स्याद्वादी तो ऐसा मानते हैं कि — ज्ञान अपने स्वरूपसे तत्स्वरूप (ज्ञानस्वरूप) ही है, ज्ञेयाकार होने पर भी ज्ञानत्वको नहीं छोड़ता। ऐसी यथार्थ अनेकान्त समझके कारण स्याद्वादीको ज्ञान (अर्थात् ज्ञानस्वरूप आत्मा) प्रगट प्रकाशित होता है।
श्लोकार्थ : — [पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकन्तवादी अज्ञानी, [‘विश्वं ज्ञानम्’ इति प्रतर्क्य ] ‘विश्व ज्ञान है (अर्थात् सर्व ज्ञेयपदार्थ आत्मा हैं)’ ऐसा विचार करके [सकलं स्वतत्त्व-आशया दृष्टवा ] सबको ( – समस्त विश्वको) निजतत्त्वकी आशासे देखकर [विश्वमयः भूत्वा ] विश्वमय ( – समस्त ज्ञेयपदार्थमय) होकर, [पशुः इव स्वच्छन्दम् आचेष्टते ] पशुकी भाँति स्वच्छंदतया चेष्टा करता है — प्रवृत्त होता है; [पुनः ] और [स्याद्वाददर्शी ] स्याद्वादका देखनेवाला तो यह मानता है कि — [‘यत् तत् तत् पररूपतः न तत्’ इति ] ‘जो तत् है वह पररूप से तत् नहीं है (अर्थात् प्रत्येक तत्त्वको स्वरूपसे तत्पना होने पर भी पररूपसे अतत्पना है),’ इसलिये [विश्वात् भिन्नम् अविश्वविश्वघटितं ] विश्व से भिन्न ऐसे तथा विश्वसे ( – विश्वके निमित्तसे) रचित होने पर भी विश्वरूप न होनेवाले ऐसे (अर्थात् समस्त ज्ञेय वस्तुओंके आकाररूप होने पर भी समस्त ज्ञेय वस्तुसे भिन्न ऐसे) [तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत् ] अपने स्वतत्त्वका स्पर्श — अनुभव करता है।
भावार्थ : — एकान्तवादी यह मानता है कि — विश्व (समस्त वस्तुऐं) ज्ञानरूप अर्थात् निजरूप है। इसप्रकार निजको और विश्वको अभिन्न मानकर, अपने को विश्वमय मानकर, एकान्तवादी, पशुकी भाँति हेय-उपादेयके विवेकके बिना सर्वत्र स्वच्छन्दतया प्रवृत्ति करता है।
स्याद्वादी तो यह मानता है कि — जो वस्तु अपने स्वरूप से तत्स्वरूप है, वही वस्तु परके स्वरूपसे अतत्स्वरूप है; इसलिये ज्ञान अपने स्वरूप से तत्स्वरूप है, परन्तु पर ज्ञेयोंके स्वरूपसे अतत्स्वरूप है अर्थात् पर ज्ञेयोंके आकार रूप होने पर भी उनसे भिन्न है।
श्लोकार्थ : — [पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [बाह्य-अर्थ-ग्रहण- स्वभाव-भरतः ] बाह्य पदार्थोंको ग्रहण करनेके (ज्ञानके) स्वभावकी अतिशयताके कारण, [विष्वग्-विचित्र-उल्लसत्-ज्ञेयाकार-विशीर्ण-शक्तिः ] चारों ओर (सर्वत्र) प्रगट होनेवाले अनेक प्रकारके ज्ञेयाकारोंसे जिसकी शक्ति विशीर्ण ( – छिन्न-भिन्न) हो गई ऐसा होकर (अर्थात् अनेक ज्ञेयोंके आकार ज्ञानमें ज्ञात होने पर ज्ञानकी शक्तिको छिन्न-भिन्न — खंड-खंडरूप — हो गई मानकर) [अभितः त्रुटयन् ] सम्पूर्णतया खण्ड-खण्डरूप होता हुआ (अर्थात् खंड-खंडरूप —अनेकरूप — होता हुआ) [नश्यति ] नष्ट हो जाता है; [अनेकान्तवित् ] और अनेकान्तका जानकार तो, [सदा अपि उदितया एक – द्रव्यतया ] सदैव उदित ( – प्रकाशमान) एक द्रव्यत्वके कारण [भेदभ्रमं ध्वंसयन् ] भेदके भ्रमको नष्ट करता हुआ (अर्थात् ज्ञेयोंके भेदसे ज्ञानमें सर्वथा भेद पड़ जाता है ऐसे भ्रमको नाश करता हुआ), [एकम् अबाधित-अनुभवनं ज्ञानम् ] जो एक है ( – सर्वथा अनेक नहीं है) और जिसका अनुभवन निर्बाध है ऐसे ज्ञानको [पश्यति ] देखता है — अनुभव करता है ।
भावार्थ : — ज्ञान है वह ज्ञेयोंके आकाररूप परिणमित होनेसे अनेक दिखाई देता है, इसलिये सर्वथा एकान्तवादी उस ज्ञानको सर्वथा अनेक — खण्ड-खण्डरूप — देखता हुआ ज्ञानमय ऐसे निजका नाश करता है; और स्याद्वादी तो ज्ञानको, ज्ञेयाकार होने पर भी, सदा उदयमान द्रव्यत्वके द्वारा एक देखता है।
श्लोकार्थ : — [पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [ज्ञेयाकार-कलङ्क-मेचक-चिति प्रक्षालनं कल्पयन् ] ज्ञेयाकाररूपी कलङ्कसे (अनेकाकाररूप) मलिन ऐसे चेतनमें प्रक्षालनकी कल्पना करता हुआ (अर्थात् चेतनकी अनेकाकाररूप मलिनताको धो डालनेकी कल्पना करता हुआ), [एकाकार-चिकीर्षया स्फु टम् अपि ज्ञानं न इच्छति ] एकाकार करनेकी इच्छासे ज्ञानको — यद्यपि वह ज्ञान अनेकाकाररूपसे प्रगट है तथापि — नहीं चाहता (अर्थात् ज्ञानको सर्वथा एकाकार मानकर ज्ञानका अभाव करता है); [अनेकान्तवित् ] और अनेकान्तका जाननेवाला तो, [पर्यायैः तद्-अनेकतां परिमृशन् ] पर्यायोंसे ज्ञानकी अनेकताको जानता (अनुभवता) हुआ, [वैचित्र्ये अपि अविचित्रताम् उपगतं ज्ञानम् ] विचित्र होने पर भी अविचित्रता को प्राप्त (अर्थात् अनेकरूप होने पर भी एकरूप) ऐसे ज्ञानके [स्वतः क्षालितं ] स्वतः क्षालित (स्वयमेव धोया हुआ शुद्ध) [पश्यति ] अनुभव करता है।
भावार्थ : — एकान्तवादी ज्ञेयाकाररूप (अनेकाकाररूप) ज्ञानको मलिन जानकर, उसे धोकर — उसमेंसे ज्ञेयाकारोंको दूर करके, ज्ञानको ज्ञेयाकारोंसे रहित एक-आकार रूप करनेको चाहता हुआ, ज्ञानका नाश करता है; और अनेकान्ती तो सत्यार्थ वस्तुस्वभावको जानता है, इसलिये ज्ञानका स्वरूपसे ही अनेकाकारपना मानता है।
श्लोकार्थ : — [पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी, [प्रत्यक्ष-आलिखित-स्फुट-स्थिर-परद्रव्य-अस्तिता-वञ्चितः] प्रत्यक्ष आलिखित ऐसे प्रगट (स्थूल) और स्थिर ( – निश्चल) परद्रव्योंके अस्तित्वसे ठगाया हुआ, [स्वद्रव्य अनवलोकनेन परितः शून्यः ] स्वद्रव्यको ( – स्वद्रव्यके अस्तित्वको) नहीं देखता होनेसे सम्पूर्णतया शून्य होता हुआ [नश्यति ] नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादी तु ] और स्याद्वादी तो, [स्वद्रव्य-अस्तितया निपुणं निरूप्य ] आत्माको स्वद्रव्यरूपसे अस्तिपनेसे निपुणतया देखता है, इसलिये [सद्यः समुन्मज्जता विशुद्ध-बोध-महसा पूर्णः भवन् ] तत्काल प्रगट विशुद्ध ज्ञानप्रकाशके द्वारा पूर्ण होता हुआ [जीवति ] जीता है — नाशको प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ : — एकान्ती बाह्य परद्रव्यको प्रत्यक्ष देखकर उसके अस्तित्वको मानता है, परन्तु अपने आत्मद्रव्य को इन्द्रियप्रत्यक्ष नहीं देखता, इसलिये उसे शून्य मानकर आत्माका नाश करता है। स्याद्वादी तो ज्ञानरूपी तेजसे अपने आत्माका स्वद्रव्यसे अस्तित्व अवलोकन करता है, इसलिये जीता है — अपना नाश नहीं करता। इसप्रकार स्वद्रव्य-अपेक्षासे अस्तित्वका (-सत्पनेका) भंग कहा है ।२५२।
श्लोकार्थ : — [पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी, [दुर्वासनावासितः ] दुर्वासनासे (-कुनय की वासना से) वासित होता हुआ, [पुरुषं सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य ] आत्माको सर्वद्रव्यमय मानकर, [स्वद्रव्य-भ्रमतः परद्रव्येषु किल विश्राम्यति ] (परद्रव्योंमें) स्वद्रव्य के भ्रम से परद्रव्योंमें विश्रान्त करता है; [स्याद्वादी तु ] और स्याद्वादी तो, [समस्तवस्तुषु परद्रव्यात्मना नास्तितां जानन् ] समस्त वस्तुओंमें परद्रव्यस्वरूपसे नास्तित्वको जानता हुआ, [निर्मल-शुद्ध-बोध-महिमा ] जिसकी शुद्धज्ञान महिमा निर्मल है ऐसा वर्तता हुआ, [स्वद्रव्यम् एव आश्रयेत् ] स्वद्रव्यका ही आश्रय करता है।
भावार्थ : — एकान्तवादी आत्माको सर्वद्रव्यमय मानकर, आत्मामें जो परद्रव्यकी अपेक्षासे नास्तित्व है उसका लोप करता है; और स्याद्वादी तो समस्त पदार्थोमें परद्रव्यकी अपेक्षासे नास्तित्व मानकर निज द्रव्यमें रमता है। इसप्रकार परद्रव्य की अपेक्षा से नास्तित्व का ( – असत्पनेका) भंग कहा है ।२५३।
श्लोकार्थ : — [पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी, [भिन्न-क्षेत्र-निषण्ण-बोध्य-नियत-व्यापार-निष्ठः ] भिन्न क्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेयपदार्थोंमें जो ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्धरूप निश्चित व्यापार है उसमें प्रवर्तता हुआ, [पुमांसम् अभितः बहिः पतन्तम् पश्यन् ] आत्माको सम्पूर्णतया बाहर (परक्षेत्रमें) पड़ता देखकर ( – स्वक्षेत्रसे आत्माका अस्तित्व न मानकर) [सदा सीदति एव ] सदा नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादवेदी पुनः ] और स्याद्वादके जाननेवाले तो [स्वक्षेत्र-अस्तितया निरुद्ध-रभसः ] स्वक्षेत्रसे अस्तित्वके कारण जिसका वेग रुका हुआ है ऐसा होता हुआ (अर्थात् स्वक्षेत्रमें वर्तता हुआ), [आत्म-निखात-बोध्य-नियत-व्यापार-शक्तिः भवन् ] आत्मामें ही आकाररूप हुए ज्ञेयोंमें निश्चित व्यापारकी शक्तिवाला होकर, [तिष्ठति ] टिकता है — जीता है (नाशको प्राप्त नहीं होता)।
भावार्थ : — एकान्तवादी भिन्न क्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थोंको जाननेके कार्यमें प्रवृत्त होने पर आत्माको बाहर पड़ता ही मानकर, (स्वक्षेत्रसे अस्तित्व न मानकर), अपनेको नष्ट करता है; और स्याद्वादी तो, ‘परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेयोंको जानता हुआ अपने क्षेत्रमें रहा हुआ आत्मा स्वक्षेत्र से अस्तित्व धारण करता है’ ऐसा मानता हुआ टिकता है — नाशको प्राप्त नहीं होता। इसप्रकार स्वक्षेत्रसे अस्तित्वका भंग कहा है ।२५४।
श्लोकार्थ : —[पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी, [स्वक्षेत्र – स्थितये पृथग्विध-परक्षेत्र-स्थित-अर्थ-उज्झनात् ] स्वक्षेत्रमें रहनेके लिये भिन्न-भिन्न परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थोंको छोड़नेसे, [अर्थैः सह चिद् आकारान् वमन् ] ज्ञेय पदार्थोंके साथ चैतन्यके आकारोंका भी वमन करता हुआ (अर्थात् ज्ञेय पदार्थोंके निमित्तसे चैतन्यमें जो आकार होता है उनको भी छोड़ता हुआ) [तुच्छीभूय ] तुच्छ होकर [प्रणश्यति ] नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादी तु ] और स्याद्वादी तो [स्वधामनि वसन् ] स्वक्षेत्रमें रहता हुआ, [परक्षेत्रे नास्तितां विदन् ] परक्षेत्रमें अपना नास्तित्व जानता हुआ [त्यक्त-अर्थः अपि ] (परक्षेत्रमें रहे हुए) ज्ञेय पदार्थोंको छोड़ता हुआ भी [परान् आकारकर्षी ] वह पर पदार्थोंमेंसे चैतन्यके आकारोंको खींचता है (अर्थात् ज्ञेयपदार्थोंके निमित्तसे होनेवाले चैतन्यके आकारोंको नहीं छोड़ता) [तुच्छताम् अनुभवति न ] इसलिये तुच्छताको प्राप्त नहीं होता ।
भावार्थ : — ‘परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थोंके आकाररूप चैतन्यके आकार होते हैं, उन्हें यदि मैं अपना बनाऊँगा तो स्वक्षेत्रमें ही रहनेके स्थान पर परक्षेत्रमें भी व्याप्त हो जाऊँगा’ ऐसा मानकर अज्ञानी एकान्तवादी परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थोंके साथ ही साथ चैतन्यके आकारोंको भी छोड़ देता है; इसप्रकार स्वयं चैतन्यके आकारोंसे रहित तुच्छ होता है, नाशको प्राप्त होता है। और स्याद्वादी तो स्वक्षेत्रमें रहता हुआ, परक्षेत्रमें अपने नास्तित्वको जानता हुआ, ज्ञेय पदार्थोंको छोड़कर भी चैतन्यके आकारोंको नहीं छोड़ता; इसलिये वह तुच्छ नहीं होता, नष्ट नहीं होता।
इसप्रकार परक्षेत्रकी अपेक्षासे नास्तित्वका भंग कहा है ।२५५।
श्लोकार्थ : — [पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी, [पूर्व-आलम्बित-बोध्य-नाश-समये ज्ञानस्य नाशं विदन् ] पूर्वालम्बित ज्ञेय पदार्थोंके नाशके समय ज्ञानका भी नाश जानता हुआ, [न किञ्चन अपि कलयन् ] और इसप्रकार ज्ञानको कुछ भी (वस्तु) न जानता हुआ (अर्थात् ज्ञानवस्तुका अस्तित्व ही नहीं मानता हुआ), [अत्यन्ततुच्छः ] अत्यन्त तुच्छ होता हुआ [सीदति एव ] नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादवेदी पुनः ] और स्याद्वादका ज्ञाता तो [अस्य निज-कालतः अस्तित्वं कलयन् ] आत्माका निज कालसे अस्तित्व जानता हुआ, [बाह्यवस्तुषु मुहुः भूत्वा विनश्यत्सु अपि ] बाह्य वस्तुएं बारम्बार होकर नाशको प्राप्त होती हैं, फिर भी [पूर्णः तिष्ठति ] स्वयं पूर्ण रहता है।
भावार्थ : — पहले जिन ज्ञेय पदार्थोंको जाने थे वे उत्तर कालमें नष्ट हो गये; उन्हें देखकर एकान्तवादी अपने ज्ञानका भी नाश मानकर अज्ञानी होता हुआ आत्माका नाश करता है। और स्याद्वादी तो, ज्ञेय पदार्थोके नष्ट होने पर भी, अपना अस्तित्व अपने काल से ही मानता हुआ नष्ट नहीं होता।
इसप्रकार स्वकालकी अपेक्षासे अस्तित्वका भंग कहा है ।२५६।
श्लोकार्थ : — [पशुः ] पशु अर्थात् अज्ञानी एकान्तवादी, [अर्थ-आलम्बन-काले एव ज्ञानस्य सत्त्वं कलयन् ] ज्ञेयपदार्थोंके आलम्बन कालमें ही ज्ञानका अस्तित्व जानता हुआ, [बहिः ज्ञेय-आलम्बन-लालसेन-मनसा भ्राम्यन् ] बाह्य ज्ञेयोंके आलम्बनकी लालसा वाले चित्त से (बाहर) भ्रमण करता हुआ [नश्यति ] नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादवेदी पुनः ] और स्याद्वाद का ज्ञाता तो [परकालतः अस्य नास्तित्वं कलयन् ] पर काल से आत्माका नास्तित्व जानता हुआ, [आत्म-निखात-नित्य-सहज-ज्ञान-एक-पुञ्जीभवन् ] आत्मामें दृढ़तया रहा हुआ नित्य सहज ज्ञान के पुंजरूप वर्तता हुआ [तिष्ठति ] टिकता है — नष्ट नहीं होता।
भावार्थ : — एकान्तवादी ज्ञेयोंके आलम्बनकालमें ही ज्ञानका सत्पना जानता है, इसलिये ज्ञेयोंके आलम्बनमें मनको लगाकर बाहर भ्रमण करता हुआ नष्ट हो जाता है। स्याद्वादी तो पर ज्ञेयों के कालसे अपने नास्तित्वको जानता है, अपने ही कालसे अपने अस्तित्वको जानता है; इसलिये ज्ञेयोंसे भिन्न ऐसा ज्ञानके पुंजरूप वर्तता हुआ नाशको प्राप्त नहीं होता। इसप्रकार परकालकी अपेक्षा से नास्तित्वका भंग कहा है ।२५७।
श्लोकार्थ : — [पशुः ] अर्थात् एकान्तवादी अज्ञानी, [परभाव-भाव-कलनात् ] परभावोंके भवनको ही जानता है (इसप्रकार परभावसे ही अपना अस्तित्व मानता है,) इसलिये [नित्यं बहिः-वस्तुषु विश्रान्तः ] सदा बाह्य वस्तुओंमें विश्राम करता हुआ, [स्वभाव-महिमनि एकान्त-निश्चेतनः ] (अपने) स्वभावकी महिमामें अत्यन्त निश्चेतन (जड़) वर्तता हुआ, [नश्यति एव ] नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादी तु ] और स्याद्वादी तो [नियत-स्वभाव-भवन-ज्ञानात् सर्वस्मात् विभक्तः भवन् ] (अपने) नियत स्वभावके भवनस्वरूप ज्ञानके कारण सब (परभावों) से भिन्न वर्तता हुआ, [सहज-स्पष्टीकृत-प्रत्ययः ] जिसने सहज स्वभावका प्रतीतिरूप ज्ञातृत्व स्पष्ट — प्रत्यक्ष — अनुभवरूप किया है ऐसा होता हुआ, [नाशम् एति न ] नाशको प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ : — एकान्तवादी परभावोंसे ही अपना सत्पना मानता है, इसलिये बाह्य वस्तुओंमें विश्राम करता हुआ, आत्माका नाश करता है; और स्याद्वादी तो, ज्ञानभाव ज्ञेयाकार होने पर भी ज्ञानभावका स्वभावसे अस्तित्व जानता हुआ, आत्माका नाश नहीं करता।
इसप्रकार स्व–भावकी (अपने भावकी) अपेक्षासे अस्तित्वका भंग कहा है ।२५८।
श्लोकार्थ : — [पशुः ] पशु अर्थात् अज्ञानी एकान्तवादी, [सर्व-भाव-भवनं आत्मनि अध्यास्य शद्ध-स्वभाव-च्युतः ] सर्व भावरूप भवनका आत्मामें अध्यास करके (अर्थात् आत्मा सर्व ज्ञेय पदार्थोंके भावरूप है, ऐसा मानकर) शुद्ध स्वभावसे च्युत होता हुआ, [अनिवारितः सर्वत्र अपि स्वैरं गतभयः क्रीडति ] किसी परभावको शेष रखे बिना सर्व परभावोंमें स्वच्छन्दतापूर्वक निर्भयता से (निःशंकतया) क्रीड़ा करता है; [स्याद्वादी तु ] और स्याद्वादी तो [स्वस्य स्वभावं भरात् आरूढः ] अपने स्वभावमें अत्यन्त आरूढ़ होता हुआ, [परभाव-भाव-विरह-व्यालोक-निष्कम्पितः ] परभावरूप भवनके अभावकी दृष्टिके कारण (अर्थात् आत्मा परद्रव्योंके भावरूपसे नहीं है — ऐसा जानता होनेसे) निष्कम्प वर्तता हुआ, [विशुद्धः एव लसति ] शुद्ध ही विराजित रहता है।
भावार्थ : — एकान्तवादी सर्व परभावोंको निजरूप जानकर अपने शुद्ध स्वभावसे च्युत होता हुआ सर्वत्र (सर्व परभावोंमें) स्वेच्छाचारितासे निःशंकतया प्रवृत्त होता है; और स्याद्वादी तो,परभावोंको जानता हुआ भी, अपने शुद्ध ज्ञानस्वभावको सर्व परभावोंसे भिन्न अनुभव करता हुआ, शोभित होता है।
इसप्रकार परभाव की अपेक्षा से नास्तित्व का भंग कहा है ।२५९।
श्लोकार्थ : — [पशुः ] पशु अर्थात् एकान्तवादी अज्ञानी, [प्रादुर्भाव-विराम-मुद्रित-वहत्-ज्ञान-अंश-नाना-आत्मना निर्ज्ञानात् ] उत्पाद-व्ययसे लक्षित ऐसे बहते ( – परिणमित होते) हुए ज्ञानके अंशरूप अनेकात्मकताके द्वारा ही (आत्माका) निर्णय अर्थात् ज्ञान करता हुआ, [क्षणभङ्ग-संग-पतितः ] क्षणभंगके संगमें पड़ा हुआ, [प्रायः नश्यति ] बहुलता से नाश को प्राप्त होता है, [स्याद्वादी तु ] और स्याद्वादी तो [चिद्-आत्मना चिद्-वस्तु नित्य-उदितं परिमृशन् ] चैतन्यात्मकताके द्वारा चैतन्यवस्तुको नित्य-उदित अनुभव करता हुआ, [टंकोत्कीर्ण-घन-स्वभाव-महिम ज्ञानं भवन् ] टंकोत्कीर्णघनस्वभाव (टंकोत्कीर्ण पिंडरूप स्वभाव) जिसकी महिमा है ऐसे ज्ञानरूप वर्तता हुआ, [जीवति ] जीता है।
भावार्थ : — एकान्तवादी ज्ञेयोंके आकारानुसार ज्ञानको उत्पन्न और नष्ट होता हुआ देखकर,अनित्य पर्यायोंके द्वारा आत्माको सर्वथा अनित्य मानता हुआ, अपनेको नष्ट करता है; और स्याद्वादी तो, यद्यपि ज्ञान ज्ञेयानुसार उत्पन्न-विनष्ट होता है फि र भी, चैतन्यभावका नित्य उदय अनुभव करता हुआ जीता है — नाशको प्राप्त नहीं होता।
श्लोकार्थः — [पशुः ] पशु अर्थात् एकान्तवादी अज्ञानी, [टंकोत्कीर्ण विशुद्धबोध-विसर-आकार-आत्म-तत्त्व-आशया ] टंकोत्कीर्ण विशुद्ध ज्ञानके विस्ताररूप एक-आकार (सर्वथा नित्य) आत्मतत्त्व की आशासे, [उच्छलत्-अच्छ-चित्परिणतेः भिन्नं किञ्चन वाञ्छति ] उछलती हुई निर्मल चैतन्यपरिणतिसे भिन्न कुछ (आत्मतत्त्वको) चाहता है (किन्तु ऐसा कोई आत्मतत्त्व है नहीं); [स्याद्वादी ] और स्याद्वादी तो, [चिद्-वस्तु-वृत्ति-क्रमात् तद्-अनित्यतां परिमृशन् ] चैतन्यवस्तुकी वृत्तिके ( – परिणतिके, पर्यायके) क्रम द्वारा उसकी अनित्यताका अनुभव करता हुआ, [नित्यम् ज्ञानं अनित्यता परिगमे अपि उज्ज्वलं आसादयति ] नित्य ऐसे ज्ञानको अनित्यतासे व्याप्त होने पर भी उज्ज्वल ( – निर्मल) मानता है — अनुभव करता है।
भावार्थ : — एकान्तवादी ज्ञानको सर्वथा एकाकार — नित्य प्राप्त करनेकी वाँछासे, उत्पन्न होनेवाली और नाश होनेवाली चैतन्यपरिणतिसे पृथक् कुछ ज्ञानको चाहता है; परन्तु परिणामके अतिरिक्त कोई पृथक् परिणामी तो नहीं होता। स्याद्वादी तो यह मानता है कि — यद्यपि द्रव्यापेक्षासे ज्ञान नित्य है तथापि क्रमशः उत्पन्न होनेवाली और नष्ट होनेवाली चैतन्यपरिणति के क्रमके कारण ज्ञान अनित्य भी है; ऐसा ही वस्तुस्वभाव है।
श्लोकार्थ : — [इति ] इसप्रकार [अनेकान्तः ] अनेकान्त अर्थात् स्याद्वाद [अज्ञान-विमूढानां ज्ञानमात्रं आत्मतत्त्वम् प्रसाधयन् ] अज्ञानमूढ़ प्राणियों को ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध करता हुआ, [स्वयमेव अनुभूयते ] स्वयमेव अनुभवमें आता है।
भावार्थ : — ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अनेकान्तमय है। परन्तु अनादि कालसे प्राणी अपने आप अथवा एकान्तवादका उपदेश सुनकर ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व सम्बन्धी अनेक प्रकारसे पक्षपात करके ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वका नाश करते हैं। उनको (अज्ञानी जीवोंको) स्याद्वाद ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वका अनेकान्तस्वरूपपना प्रगट करता है — समझाता है। यदि अपने आत्माकी ओर दृष्टिपात करके — अनुभव करके देखा जाये तो (स्याद्वादके उपदेशानुसार) ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अपने आप अनेक धर्मयुक्त प्रत्यक्ष अनुभवगोचर होती है। इसलिये हे प्रवीण पुरुषो ! तुम ज्ञानको तत्स्वरूप, अतत्स्वरूप, एकस्वरूप, अनेकस्वरूप, अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे सत्स्वरूप, परके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे असत्स्वरूप, नित्यस्वरूप, अनित्यस्वरूप इत्यादि अनेक धर्मस्वरूप प्रत्यक्ष अनुभवगोचर करके प्रतीतिमें लाओ। यही सम्यग्ज्ञान है। सर्वथा एकान्त मानना वह मिथ्याज्ञान है ।२६२।
श्लोकार्थ : — [एवं ] इसप्रकार [अनेकान्तः ] अनेकान्त — [जैनम् अलङ्घयं शासनम् ] कि जो जिनदेवका अलंघ्य (किसीसे तोड़ा न जाय ऐसा) शासन है वह — [तत्त्व-व्यवस्थित्या ]वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी व्यवस्थिति (व्यवस्था) द्वारा [स्वयम् स्वं व्यवस्थापयन् ] स्वयं अपने आपको स्थापित करता हुआ [व्यवस्थितः ] स्थित हुआ — निश्चित हुआ — सिद्ध हुआ।
भावार्थ : — अनेकान्त अर्थात् स्याद्वाद, वस्तुस्वरूपको यथावत् स्थापित करता हुआ, स्वतः सिद्ध हो गया। वह अनेकान्त ही निर्बाध जिनमत है और यथार्थ वस्तुस्थितिको कहनेवाला है। कहीं किसी ने असत् कल्पनासे वचनमात्र प्रलाप नहीं किया है। इसलिये हे निपुण पुरुषों ! भलीभांति विचार करके प्रत्यक्ष अनुमान-प्रमाण से अनुभव कर देखो ।२६३।
(वसन्ततिलका)
इत्याद्यनेकनिजशक्ति सुनिर्भरोऽपि
यो ज्ञानमात्रमयतां न जहाति भावः ।
एवं क्रमाक्रमविवर्तिविवर्तचित्रं
तद्द्रव्यपर्ययमयं चिदिहास्ति वस्तु ।।२६४।।
श्लोकार्थ : — [इत्यादि-अनेक-निज-शक्ति-सुनिर्भरः अपि ] इत्यादि ( – पूर्व कथित ४७ शक्तियाँ इत्यादि) अनेक निज शक्तियोंसे भलीभाँति परिपूर्ण होने पर भी [यः भावः ज्ञानमात्रमयतां न जहाति ] जो भाव ज्ञानमात्रमयताको नहीं छोड़ता, [तद् ] ऐसा वह, [एवं क्रम-अक्रम-विवर्ति-विवर्त-चित्रम् ] पूर्वोक्त प्रकार से क्रमरूप और अक्रमरूप से वर्तमान विवर्त्त से ( – रूपान्तरसे, परिणमनसे) अनेक प्रकारका, [द्रव्य-पर्ययमयं ] द्रव्यपर्यायमय [चिद् ] चैतन्य (अर्थात् ऐसा वह चैतन्य भाव – आत्मा) [इह ] इस लोकमें [वस्तु अस्ति ] वस्तु है।
भावार्थ : — कोई यह समझ सकता है कि आत्माको ज्ञानमात्र कहा है, इसलिये वह एकस्वरूप ही होगा। किन्तु ऐसा नहीं है। वस्तुका स्वरूप द्रव्यपर्यायमय है। चैतन्य भी वस्तु है, द्रव्यपर्यायमय है। वह चैतन्य अर्थात् आत्मा अनन्त शक्तियोंसे परिपूर्ण है और क्रमरूप तथा अक्रमरूप अनेक प्रकारके परिणामों के विकारोंके समूहरूप अनेकाकार होता है फिर भी ज्ञानको — जो कि असाधारणभाव है उसे — नहीं छोड़ता, उसकी समस्त अवस्थाएं — परिणाम — पर्याय ज्ञानमय ही हैं ।२६४।
श्लोकार्थ : — [इति वस्तु-तत्त्व-व्यवस्थितिम् नैकान्त-सङ्गत-दृशा स्वयमेव प्रविलोकयन्तः ] ऐसी (अनेकान्तात्मक) वस्तुतत्त्वकी व्यवस्थितिको अनेकान्त-संगत (अनेकान्तके साथ सुसंगत, अनेकान्तके साथ मेलवाली) दृष्टिके द्वारा स्वयमेव देखते हुए, [स्याद्वाद-शुद्धिम् अधिकाम् अधिगम्य ] स्याद्वादकी अत्यन्त शुद्धिको जानकर, [जिन-नीतिम् अलङ्घयन्तः ] जिननीतिका (जिनेश्वरदेवके मार्गका) उल्लंघन न करते हुए, [सन्तः ज्ञानीभवन्ति ] सत्पुरुष ज्ञानस्वरूप होते हैं।
भावार्थ : — जो सत्पुरुष अनेकान्तके साथ सुसंगत दृष्टिके द्वारा अनेकान्तमय वस्तुस्थितिको देखते हैं, वे इसप्रकार स्याद्वाद की शुद्धिको प्राप्त करके — जान करके जिनदेवके मार्गको – स्याद्वादन्यायको — उल्लंघन न करते हुए, ज्ञानस्वरूप होते हैं ।२६५।
(वसन्ततिलका)
ये ज्ञानमात्रनिजभावमयीमकम्पां
भूमिं श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहाः ।
ते साधकत्वमधिगम्य भवन्ति सिद्धा
मूढास्त्वमूमनुपलभ्य परिभ्रमन्ति ।।२६६।।
श्लोकार्थ : — [ये ] जो पुरुष, [कथम् अपि अपनीत-मोहाः ] किसी भी प्रकार से जिनका मोह दूर हो गया है ऐसा होता हुआ, [ज्ञानमात्र-निज-भावमयीम् अकम्पां भूमिं ] ज्ञानमात्र निज भावमय अकम्प भूमिकाका (अर्थात् ज्ञानमात्र जो अपना भाव उस-मय निश्चल भूमिकाका) [श्रयन्ति ] आश्रय लेते हैं [ते साधकत्वम् अधिगम्य सिद्धाः भवन्ति ] वे साधकत्वको प्राप्त करके सिद्ध हो जाते हैं; [तु ] परन्तु [मूढाः ] जो मूढ़ ( – मोही, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि) है वे [अमूम् अनुपलभ्य ] इस भूमिकाको प्राप्न न करके [परिभ्रमन्ति ] संसारमें परिभ्रमण करते हैं।
भावार्थ : — जो भव्य पुरुष, गुरु के उपदेश से अथवा स्वयमेव काललब्धिको प्राप्त करके मिथ्यात्वसे रहित होकर, ज्ञानमात्र अपने स्वरूपको प्राप्त करते हैं, उसका आश्रय लेते हैं; वे साधक होते हुए सिद्ध हो जाते हैं; परन्तु जो ज्ञानमात्र – निजको प्राप्त नहीं करते, वे संसारमें परिभ्रमण करते हैं ।२६६।
(वसन्ततिलका)
स्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां
यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्त : ।
ज्ञानक्रियानयपरस्परतीव्रमैत्री-
पात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एकः ।।२६७।।
श्लोकार्थ : — [यः ] जो पुरुष, [स्याद्वाद-कौशल-सुनिश्चल-संयमाभ्यां ] स्याद्वादमें प्रवीणता तथा (रागादिक अशुद्ध परिणति के त्यागरूप) सुनिश्चल संयम — इन दोनोंके द्वारा [इह उपयुक्तः ] अपनेमें उपयुक्त रहता हुआ (अर्थात् अपने ज्ञानस्वरूप आत्मामें उपयोगको लगाता हुआ) [अहः अहः स्वम् भावयति ] प्रतिदिन अपनेको भाता है ( – निरन्तर अपने आत्माकी भावना करता है), [सः एकः ] वही एक (पुरुष); [ज्ञान-क्रिया-नय-परस्पर-तीव्र-मैत्री-पात्रीकृतः ] ज्ञाननय और क्रियानयकी परस्पर तीव्र मैत्रीका पात्ररूप होता हुआ, [इमाम् भूमिम् श्रयति ] इस (ज्ञान मात्र निजभावमय) भूमिकाका आश्रय करता है।
भावार्थ : — जो ज्ञाननयको ही ग्रहण करके क्रियानयको छोड़ता है, उस प्रमादी और स्वच्छन्दी पुरुषको इस भूमिकाकी प्राप्ति नहीं हुई है। जो क्रियानयको ही ग्रहण करके ज्ञाननयको नहीं जानता, उस (व्रत – समिति – गुप्तिरूप) शुभ कर्मसे संतुष्ट पुरुषको भी इस निष्कर्म भूमिकाकी प्राप्ति नहीं हुई है। जो पुरुष अनेकान्तमय आत्माको जानता है ( – अनुभव करता है) तथा सुनिश्चल संयममें प्रवृत्त है ( – रागादिक अशुद्ध परिणतिका त्याग करता है), और इसप्रकार जिसने ज्ञाननय तथा क्रियानयकी परस्पर तीव्र मैत्री सिद्ध की है, वही पुरुष इस ज्ञानमात्र निजभावमय भूमिका का आश्रय करनेवाला है।
ज्ञाननय और क्रियानयके ग्रहण-त्यागका स्वरूप तथा फल ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ ग्रन्थके अन्तमें कहा है, वहाँ से जानना चाहिए ।२६७।
श्लोकार्थ : — [तस्य एव ] (पूर्वोक्त प्रकारसे जो पुरुष इस भूमिका का आश्रय लेता है) उसीके, [चित्-पिण्ड-चण्डिम-विलासि-विकास-हासः ] चैतन्यपिंडके निरर्गल विलसित विकासरूप जिसका खिलना है (अर्थात् चैतन्यपुंज का अत्यन्त विकास होना ही जिसका खिलना है), [शुद्ध-प्रकाश-भर-निर्भर-सुप्रभातः ] शुद्ध प्रकाश की अतिशयताके कारण जो सुप्रभात के समान है, [आनन्द-सुस्थित-सदा-अस्खलित-एक-रूपः ] आनन्दमें सुस्थित ऐसा जिसका सदा अस्खलित एक रूप है [च ] और [अचल-अर्चिः ] जिसकी ज्योति अचल है ऐसा [अयम् आत्मा उदयति ] यह आत्मा उदयको प्राप्त होता है ।
भावार्थ : — यहाँ ‘चित्पिंड’ इत्यादि विशेषणसे अनन्त दर्शनका प्रगट होना, ‘शुद्धप्रकाश’ इत्यादि विशेषणसे अनन्त ज्ञानका प्रगट होना, ‘आनन्दसुस्थित’ इत्यादि विशेषणसे अनन्त सुखका प्रगट होना और ‘अचलार्चि’ विशेषणसे अनन्त वीर्यका प्रगट होना बताया है। पूर्वोक्त भूमिका आश्रय लेनेसे ही ऐसे आत्माका उदय होता है ।२६८।
श्लोकार्थ : — [स्याद्वाद-दीपित-लसत्-महसि ] स्याद्वाद द्वारा प्रदीप्त किया गया जगमगाहट करता जिसका तेज है और [शुद्ध-स्वभाव-महिमनि ] जिसमें शुद्धस्वभावरूप महिमा है ऐसा [प्रकाशे उदिते मयि इति ] यह प्रकाश (ज्ञानप्रकाश) जहाँ मुझमें उदयको प्राप्त हुआ है, वहाँ [बन्ध-मोक्ष-पथ-पातिभिः अन्य-भावैः किं ] बंध-मोक्षके मार्गमें पड़नेवाले अन्य भावोंसे मुझे क्या प्रयोजन है ? [नित्य-उदयः परम् अयं स्वभावः स्फु रतु ] मुझे तो मेरा नित्य उदित रहनेवाला केवल यह (अनन्तचतुष्टयरूप) स्वभाव ही स्फुरायमान हो ।
भावार्थ : — स्याद्वादसे यथार्थ आत्मज्ञान होनेके बाद उसका फ ल पूर्ण आत्माका प्रगट होना है। इसलिये मोक्षका इच्छुक पुरुष यही प्रार्थना करता है कि — मेरा पूर्णस्वभाव आत्मा मुझे प्रगट हो; बन्धमोक्षमार्गमें पड़नेवाले अन्य भावों से मुझे क्या काम है ? ।२६९।
श्लोकार्थ : — [चित्र-आत्मशक्ति-समुदायमयः अयम् आत्मा ] अनेक प्रकार की निज शक्तियों का समुदायमय यह आत्मा [नय-ईक्षण-खण्डयमानः ] नयोंकी दृष्टिसे खण्ड-खण्डरूप किये जाने पर [सद्यः ] तत्काल [प्रणश्यति ] नाशको प्राप्त होता है; [तस्मात् ] इसलिये मैं ऐसा अनुभव करता हूँ कि — [अनिराकृत-खण्डम् अखण्डम् ] जिसमेंसे खण्डोंको निराकृत नहीं किया गया है तथापि जो अखण्ड है, [एकम् ] एक है, [एकान्त-शान्तम् ] एकान्त शांत है (अर्थात् जिसमें कर्मोदयका लेशमात्र भी नहीं है ऐसा अत्यन्त शांत भावमय है) और [अचलम् ] अचल है (अर्थात् कर्मोदयसे चलायमान च्युत नहीं होता) ऐसा [चिद् महः अहम् अस्मि ] चैतन्यमात्र तेज मैं हूँ।
भावार्थ : — आत्मामें अनेक शक्तियाँ हैं और एक एक शक्तिका ग्राहक एक एक नय है; इसलिये यदि नयोंकी एकान्त दृष्टिसे देखा जाये तो आत्माका खण्ड-खण्ड होकर उसका नाश हो जाये। ऐसा होनेसे स्याद्वादी, नयोंका विरोध दूर करके चैतन्यमात्र वस्तुको अनेकशक्तिसमूहरूप, सामान्यविशेषरूप, सर्वशक्तिमय एकज्ञानमात्र अनुभव करता है। ऐसा ही वस्तुका स्वरूप है, इसमें विरोध नहीं है ।२७०।
श्लोकार्थ : — [यः अयं ज्ञानमात्रः भावः अहम् अस्मि सः ज्ञेय-ज्ञानमात्रः एव न ज्ञेयः ] जो यह ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ वह ज्ञेयोंके ज्ञानमात्र ही नहीं जानना चाहिये; [ज्ञेय-ज्ञान-कल्लोल-वल्गन् ] (परन्तु) ज्ञेयोंके आकारसे होनेवाले ज्ञानकी कल्लोलोंके रूपमें परिणमित होता हुआ वह [ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातृमत्-वस्तुमात्रः ज्ञेयः ] ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातामय वस्तुमात्र जानना चाहिये। (अर्थात् स्वयं ही ज्ञान, स्वयं ही ज्ञेय और स्वयं ही ज्ञाता — इसप्रकार ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातारूप तीनों भावयुक्त वस्तुमात्र जानना चाहिये)।
भावार्थ : — ज्ञानमात्र भाव ज्ञातृक्रियारूप होनेसे ज्ञानस्वरूप है। और वह स्वयं ही निम्न प्रकारसे ज्ञेयरूप है। बाह्य ज्ञेय ज्ञानसे भिन्न है, वे ज्ञानमें प्रविष्ट नहीं होते; ज्ञेयोंके आकारकी झलक ज्ञानमें पड़ने पर ज्ञान ज्ञेयाकाररूप दिखाई देता है, परन्तु वे ज्ञानकी ही तरंगें हैं। वे ज्ञान तरंगें ही ज्ञानके द्वारा ज्ञात होती हैं। इसप्रकार स्वयं ही स्वतः जानने योग्य होनेसे ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञेयरूप है। और स्वयं ही अपना जाननेवाला होनेसे ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञाता है। इसप्रकार ज्ञानमात्र भाव ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता – इन तीनों भावोंसे युक्त सामान्यविशेषस्वरूप वस्तु है। ‘ऐसा ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ’-इसप्रकार अनुभव करनेवाला पुरुष अनुभव करता है ।२७१।
श्लोकार्थ : — (ज्ञानी कहता है : — ) [मम तत्त्वं सहजम् एव ] मेरे तत्त्वका ऐसा स्वभाव ही है कि [क्वचित् मेचकं लसति ] कभी तो वह (आत्मतत्त्व) मेचक (अनेकाकार, अशुद्ध) दिखाई देता है, [क्वचित् मेचक-अमेचकं ] कभी मेचक-अमेचक (दोनोंरूप) दिखाई देता है [पुनः क्वचित् अमेचकं ] और कभी अमेचक (-एकाकार शुद्ध) दिखाई देता है; [तथापि ] तथापि [परस्पर-सुसंहत-प्रगट-शक्ति-चक्रंस्फुरत् तत् ] परस्पर सुसंहत (-सुमिलित, सुग्रथित) प्रगट शक्तियोंके समूहरूपसे स्फुरायमान वह आत्मतत्त्व [अमलमेधसां मनः ] निर्मल बुद्धिवालोंके मनको [न विमोहयति ] विमोहित ( – भ्रमित) नहीं करता ।
भावार्थ : — आत्मतत्त्व अनेक शक्तियोंवाला होनेसे किसी अवस्थामें कर्मोदयके निमित्तसे अनेकाकार अनुभवमें आता है; किसी अवस्थामें शुद्ध एकाकार अनुभवमें आता है और किसी अवस्थामें शुद्धाशुद्ध अनुभवमें आता है; तथापि यथार्थ ज्ञानी स्याद्वाद के बल के कारण भ्रमित नहीं होता, जैसा है वैसा ही मानता है, ज्ञानमात्रसे च्युत नहीं होता ।२७२।
श्लोकार्थ : — [अहो आत्मनः तद् इदम् सहजम् अद्भुतं वैभवम् ] अहो ! आत्माका तो यह सहज अद्भुत वैभव है कि — [इतः अनेकतां गतम् ] एक ओरसे देखने पर वह अनेकताको प्राप्त है और [इतः सदा अपि एकताम् दधत् ] एक ओरसे देखने पर सदा एकताको धारण करता है, [इतः क्षणविभंगुरम् ] एक ओरसे देखने पर क्षणभंगुर है और [इतः सदा एव उदयात् ध्रुवम् ] एक ओरसे देखने पर सदा उसका उदय होनेसे ध्रुव है, [इतः परम-विस्तृतम् ] एक ओर से देखने पर परम विस्तृत है और [इतः निजैः प्रदेशैः धृतम् ] एक ओरसे देखने पर अपने प्रदेशोंसे ही धारण कर रखा हुआ है ।
भावार्थ : — पर्यायदृष्टिसे देखने पर आत्मा अनेकरूप दिखाई देता है और द्रव्य-दृष्टिसे देखने पर एकरूप; क्रमभावी पर्यायदृष्टि से देखने पर क्षणभंगुर दिखाई देता है और सहभावी गुणदृष्टि से देखने पर ध्रुव; ज्ञानकी अपेक्षावाली सर्वगत दृष्टिसे देखने पर परम विस्तारको प्राप्त दिखाई देता है और प्रदेशोंकी अपेक्षावाली दृष्टिसे देखने पर अपने प्रदेशोंमें ही व्याप्त दिखाई देता है। ऐसा द्रव्यपर्यायात्मक अनन्तधर्मवाला वस्तुका स्वभाव है। वह (स्वभाव) अज्ञानियोंके ज्ञानमें आश्चर्य उत्पन्न करता है कि यह तो असम्भवसी बात है ! यद्यपि ज्ञानियोंको वस्तुस्वभावमें आश्चर्य नहीं होता फिर भी उन्हें कभी नहीं हुआ ऐसा अभूतपूर्व-अद्भुत परमानन्द होता है, और इसलिए आश्चर्य भी होता है ।२७३।
श्लोकार्थ : — [एकतः कषाय-कलिः स्खलति ] एक ओरसे देखने पर कषायोंका क्लेश दिखाई देता है और [एकतः शान्तिः अस्ति ] एक ओरसे देखने पर शांति (कषायोंके अभावरूप शांतभाव) है; [एकतः भव-उपहतिः ] एक ओरसे देखने पर भवकी (-सांसारिक) पीड़ा दिखाई देती है और [एकतः मुक्तिः अपि स्पृशति ] एक ओरसे देखने पर (संसारके अभावरूप) मुक्ति भी स्पर्श करती है; [एकतः त्रितयम् जगत् स्फुरति ] एक ओरसे देखने पर तीनों लोक स्फुरायमान होते हैं ( –प्रकाशित होता है, दिखाई देता है) और [एकतः चित् चकास्ति ] एक ओरसे देखने पर केवल एक चैतन्य ही शोभित होता है। [आत्मनः अद्भुतात् अद्भुतः स्वभाव-महिमा विजयते ] (ऐसी) आत्माकी अद्भुतसे भी अद्भुत स्वभावमहिमा जयवन्त वर्तती है ( – अर्थात् किसीसे बाधित नहीं होती)।
भावार्थ : — यहाँ भी २७३वें श्लोकके भावार्थानुसार ही जानना चाहिये। आत्माका अनेकांतमय स्वभाव सुनकर अन्यवादियोंको भारी आश्चर्य होता है। उन्हें इस बातमें विरोध भासित होता है। वे ऐसे अनेकान्तमय स्वभाव की बातको अपने चित्तमें न तो समाविष्ट कर सकते हैं और न सहन ही कर सकते हैं। यदि कदाचित् उन्हें श्रद्धा हो तो प्रथम अवस्था में उन्हें भारी अद्भुतता मालूम होती है कि — ‘अहो ! यह जिनवचन महा उपकारी हैं, वस्तुके यथार्थ स्वरूपको बतानेवाले हैं; मैंने अनादिकाल ऐसे यथार्थ स्वरूपके ज्ञान बिना ही खो दिया (गँवा दिया) !’ — वे इसप्रकार आश्चर्यपूर्वक श्रद्धान करते हैं ।२७४।
श्लोकार्थ:-[सहज-तेजःपुञ्ज-मज्जत्-त्रिलोकी-स्खलत्-अखिल-विकल्पः अपि एकः एव स्वरूपः ] सहज (-अपने स्वभावरूप) तेजःपुञ्ज में त्रिलोक के पदार्थ मग्न हो जाते हैं, इसलिये जिसमें अनेक भेद होते हुए दिखाई देते हैं तथापि जिसका एक ही स्वरूप है (अर्थात् केवलज्ञान में सर्व पदार्थ झलकते हैं, इसलिये जो अनेक ज्ञेयाकाररूप दिखाई देता है तथापि जो चैतन्यरूप ज्ञानाकार की दृष्टि में एकस्वरूप ही है), [स्व-रस-विसर-पूर्ण-अच्छिन्न-तत्त्व-उपलम्भः] जिसमें निज रसके विस्तारसे पूर्ण अच्छिन्न तत्त्वोपलब्धि है (अर्थात् प्रतिपक्षी कर्मका अभाव हो जानेसे जिसमें स्वरूपानुभवनका अभाव नहीं होता) [प्रसभ-नियमित-अर्चिः ] और जिसकी ज्योति अत्यन्त नियमित है (अर्थात् जो अनन्तवीर्यसे निष्कम्प रहता है) [एषः चित्-चमत्कारः जयति ] ऐसा यह (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) चैतन्यचमत्कार जयवन्त वर्तता है । (–किसीसे बाधित नहीं किया जा सकता ऐसा सर्वोत्कृष्टरूपसे विद्यमान है)। (यहाँ ‘चैतन्यचमत्कार जयवन्त वर्तता है’ इस कथनमें जो चैतन्यचमत्कारका सर्वोत्कृष्टतया होना बताया है, वही मङ्गल है) ।२७५।
श्लोकार्थ : — [अविचलित-चिदात्मनि आत्मनि आत्मानम् आत्मना अनवरत-निमग्नं धारयत् ] जो अचल चेतनास्वरूप आत्मामें आत्माको अपने आप ही निरन्तर निमग्न रखती है (अर्थात् प्राप्त किये गये स्वभावको कभी नहीं छोड़ती), [ध्वस्त-मोहम् ] जिसने मोहका (अज्ञानांधकारका) नाश किया है, [निःसपत्नस्वभावम् ] जिसका स्वभाव निःसपत्न ( – प्रतिपक्षी कर्मोंसे रहित) है, [विमल-पूर्णं ] जो निर्मल है और पूर्ण है; ऐसी [एतत् उदितम् अमृतचन्द्र-ज्योतिः ] यह उदयको प्राप्त अमृतचन्द्रज्योति (-अमृतमय चन्द्रमाके समान ज्योति, ज्ञान, आत्मा) [समन्तात् ज्वलतु ] सर्वतः जाज्वल्यमान रहो।
भावार्थ : —जिसका न तो मरण होता है और न जिससे दूसरे का मरण होता है वह अमृत है; और जो अत्यन्त स्वादिष्ट (-मीठा) होता है उसे लोग रूढ़िसे अमृत कहते हैं। यहाँ ज्ञानको — आत्माको — अमृतचन्द्रज्योति ( — अमृतमय चन्द्रमाके समान ज्योति) कहा है, जो कि लुप्तोपमालंकार है; क्योंकि ‘अमृतचन्द्रवत् ज्योतिः’ का समास करने पर ‘वत्’ का लोप होकर ‘अमृतचन्द्रज्योतिः’ होता है।
(यदि ‘वत्’ न रखकर ‘अमृतचन्द्ररूप ज्योति’ अर्थ किया जाय तो भेदरूपक अलङ्कार होता है। और ‘अमृतचन्द्रज्योति’ ही आत्माका नाम कहा जाय तो अभेदरूपक अलङ्कार होता है।)
आत्माको अमृतमय चन्द्रमाके समान कहने पर भी, यहाँ कहे गये विशेषणोंके द्वारा आत्माका चन्द्रमाके साथ व्यतिरेक भी है; क्योंकि ‘ध्वस्तमोह’ विशेषण अज्ञानांधकारका दूर होना बतलाता है, ‘विमलपूर्ण’ विशेषण लांछनरहितता तथा पूर्णता बतलाता है, ‘निःसपत्नस्वभाव’ विशेषण राहुबिम्बसे तथा बादल आदि से आच्छादित न होना बतलाता है, और ‘समन्तात् ज्वलतु’ सर्व क्षेत्र और सर्व कालमें प्रकाश करना बतलाता है; चन्द्रमा ऐसा नहीं है।
इस श्लोकमें टीकाकार आचार्यदेवने अपना ‘अमृतचन्द्र’ नाम भी बताया है। समास बदलकर अर्थ करने से ‘अमृतचन्द्र’ के और ‘अमृतचन्द्रज्योति’के अनेक अर्थ होते हैं जो कि यथासंभव जानने चाहिये ।२७६।
श्लोकार्थ : — [यस्मात् ] जिससे (अर्थात् जिस परसंयोगरूप बन्धपर्यायजनित अज्ञानसे) [पूरा ] प्रथम [स्व-परयोः द्वैतम् अभूत् ] अपना और परका द्वैत हुआ (अर्थात् स्वपरके मिश्रितपनारूप भाव हुआ), [यतः अत्र अन्तरं भूतं ] द्वैतभाव होने से जिससे स्वरूपमें अन्तर पड़ गया (अर्थात् बन्धपर्याय ही निजरूप ज्ञात हुई), [यतः राग-द्वेष-परिग्रहे सति ] स्वरूपमें अन्तर पड़ने पर जिससे रागद्वेष का ग्रहण हुआ, [क्रिया-कारकैः जातं ] रागद्वेषका ग्रहण होने पर जिससे क्रिया के कारक उत्पन्न हुए (अर्थात् क्रिया और कर्त्ता-कर्मादि कारकोंका भेद पड़ गया), [यतः च अनुभूतिः क्रियायाः अखिलं फलं भुञ्जाना खिन्ना ] कारक उत्पन्न होने पर जिससे अनुभूति क्रियाके समस्त फलको भोगती हुई खिन्न हो गई, [तत् विज्ञान-घन-ओघ-मग्नम् ] वह अज्ञान अब विज्ञानघनके समूहमें मग्न हुआ (अर्थात् ज्ञानरूपमें परिणमित हुआ) [अधुना किल किञ्चित् न किञ्चित् ] इसलिए अब वह सब वास्तव में कुछ भी नहीं है।
भावार्थ : — परसंयोग से ज्ञान ही अज्ञानरूप परिणमित हुआ था, अज्ञान कहीं पृथक् वस्तु नहीं थी; इसलिए अब वह जहाँ ज्ञानरूप परिणमित हुआ कि वहाँ वह (अज्ञान) कुछ भी नहीं रहा। अज्ञान के निमित्तसे राग, द्वेष, क्रियाका कर्तृत्व, क्रियाके फलका ( – सुखदुःखका) भोक्तृत्व आदि भाव होते थे वे भी विलीन हो गये हैं; एकमात्र ज्ञान ही रह गया है। इसलिये अब आत्मास्व-पर के त्रिकालवर्ती भावों को ज्ञाताद्रष्टा होकर जानते-देखते ही रहो ।२७७।
श्लोकार्थ : — [स्व-शक्ति-संसूचित-वस्तु-तत्त्वैः शब्दैः ] जिनने अपनी शक्तिसे वस्तुके तत्त्व (-यथार्थ स्वरूप) को भलीभाँति कहा है ऐसे शब्दोंने [इयं समयस्य व्याख्या ] इस समयकी व्याख्या (आत्मवस्तुका व्याख्यान अथवा समयप्राभृतशास्त्रकी टीका) [कृता ] की है; [स्वरूप-गुप्तस्य अमृतचन्द्रसूरेः ] स्वरूपगुप्त ( – अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूपमें गुप्त) अमृतचन्द्रसूरिका (इसमें) [किञ्चित् एव कर्तव्यम् न अस्ति ] कुछ भी कर्तव्य नहीं है।
भावार्थ :- शब्द तो पुद्गल हैं। वे पुरुषके निमित्तसे वर्ण-पद-वाक्यरूपसे परिणमित होते हैं; इसलिये उनमें वस्तुस्वरूपको कहनेकी शक्ति स्वयमेव है, क्योंकि शब्दका और अर्थका वाच्यवाचक सम्बन्ध है। इसप्रकार द्रव्यश्रुतकी रचना शब्दोंने की है यही बात यथार्थ है। आत्मा तो अमूर्तिक है, ज्ञानस्वरूप है; इसलिये वह मूर्तिक पुद्गलकी रचना कैसे कर सकता है ? इसलिये आचार्यदेवने कहा है कि ‘इस समयप्राभृतकी टीका शब्दोंने की है, मैं तो स्वरूपमें लीन हूँ, उसमें ( – टीका करनेमें) मेरा कोई कर्तव्य (कार्य) नहीं है।’ यह कथन आचार्यदेवकी निरभिमानताको भी सूचित करता है। अब यदि निमित्त-नैमित्तिक व्यवहारसे ऐसा ही कहा जाता है कि अमुक पुरुष ने यह अमुक कार्य किया है। इस न्यायसे यह आत्मख्याति नामक टीका भी अमृतचन्द्राचार्यकृत है ही।
इसलिये इसके पढ़ने – सुननेवालोंको उनका उपकार मानना भी युक्त है; क्योंकि इसके पढ़ने – सुननेसे पारमार्थिक आत्माका स्वरूप ज्ञात होता है, उसका श्रद्धान तथा आचरण होता है, मिथ्या ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण दूर होता है और परम्परासे मोक्षकी प्राप्ति होती है। मुमुक्षुओंको इसका निरन्तर अभ्यास करना चाहिये ।२७८।