समयसार कलश l Samaysar Kalash (Sanskrit +Arth) with Audio

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(शार्दूलविक्रीडित)
टंकोत्कीर्णविशुद्धबोधविसराकारात्मतत्त्वाशया
वांछत्युच्छलदच्छचित्परिणतेर्भिन्नं पशुः किंचन ।
ज्ञानं नित्यमनित्यतापरिगमेऽप्यासादयत्युज्ज्वलं
स्याद्वादी तदनित्यतां परिमृशंश्चिद्वस्तुवृत्तिक्रमात् ।।२६१।।


श्लोकार्थः — [पशुः ] पशु अर्थात् एकान्तवादी अज्ञानी, [टंकोत्कीर्ण विशुद्धबोध-विसर-आकार-आत्म-तत्त्व-आशया ] टंकोत्कीर्ण विशुद्ध ज्ञानके विस्ताररूप एक-आकार (सर्वथा नित्य) आत्मतत्त्व की आशासे, [उच्छलत्-अच्छ-चित्परिणतेः भिन्नं किञ्चन वाञ्छति ] उछलती हुई निर्मल चैतन्यपरिणतिसे भिन्न कुछ (आत्मतत्त्वको) चाहता है (किन्तु ऐसा कोई आत्मतत्त्व है नहीं); [स्याद्वादी ] और स्याद्वादी तो, [चिद्-वस्तु-वृत्ति-क्रमात् तद्-अनित्यतां परिमृशन् ] चैतन्यवस्तुकी वृत्तिके ( – परिणतिके, पर्यायके) क्रम द्वारा उसकी अनित्यताका अनुभव करता हुआ, [नित्यम् ज्ञानं अनित्यता परिगमे अपि उज्ज्वलं आसादयति ] नित्य ऐसे ज्ञानको अनित्यतासे व्याप्त होने पर भी उज्ज्वल ( – निर्मल) मानता है — अनुभव करता है।

भावार्थ : — एकान्तवादी ज्ञानको सर्वथा एकाकार — नित्य प्राप्त करनेकी वाँछासे, उत्पन्न होनेवाली और नाश होनेवाली चैतन्यपरिणतिसे पृथक् कुछ ज्ञानको चाहता है; परन्तु परिणामके अतिरिक्त कोई पृथक् परिणामी तो नहीं होता। स्याद्वादी तो यह मानता है कि — यद्यपि द्रव्यापेक्षासे ज्ञान नित्य है तथापि क्रमशः उत्पन्न होनेवाली और नष्ट होनेवाली चैतन्यपरिणति के क्रमके कारण ज्ञान अनित्य भी है; ऐसा ही वस्तुस्वभाव है।

इसप्रकार अनित्यत्वका भंग कहा गया ।२६१।

(अनुष्टुभ्)
इत्यज्ञानविमूढानां ज्ञानमात्रं प्रसाधयन् ।
आत्मतत्त्वमनेकान्तः स्वयमेवानुभूयते ।।२६२।।

श्लोकार्थ : — [इति ] इसप्रकार [अनेकान्तः ] अनेकान्त अर्थात् स्याद्वाद [अज्ञान-विमूढानां ज्ञानमात्रं आत्मतत्त्वम् प्रसाधयन् ] अज्ञानमूढ़ प्राणियों को ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध करता हुआ, [स्वयमेव अनुभूयते ] स्वयमेव अनुभवमें आता है।

भावार्थ : — ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अनेकान्तमय है। परन्तु अनादि कालसे प्राणी अपने आप अथवा एकान्तवादका उपदेश सुनकर ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व सम्बन्धी अनेक प्रकारसे पक्षपात करके ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वका नाश करते हैं। उनको (अज्ञानी जीवोंको) स्याद्वाद ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वका अनेकान्तस्वरूपपना प्रगट करता है — समझाता है। यदि अपने आत्माकी ओर दृष्टिपात करके — अनुभव करके देखा जाये तो (स्याद्वादके उपदेशानुसार) ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अपने आप अनेक धर्मयुक्त प्रत्यक्ष अनुभवगोचर होती है। इसलिये हे प्रवीण पुरुषो ! तुम ज्ञानको तत्स्वरूप, अतत्स्वरूप, एकस्वरूप, अनेकस्वरूप, अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे सत्स्वरूप, परके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे असत्स्वरूप, नित्यस्वरूप, अनित्यस्वरूप इत्यादि अनेक धर्मस्वरूप प्रत्यक्ष अनुभवगोचर करके प्रतीतिमें लाओ। यही सम्यग्ज्ञान है। सर्वथा एकान्त मानना वह मिथ्याज्ञान है ।२६२।

(अनुष्टुभ्)
एवं तत्त्वव्यवस्थित्या स्वं व्यवस्थापयन् स्वयम् ।
अलंघ्यं शासनं जैनमनेकान्तो व्यवस्थितः ।।२६३।।

श्लोकार्थ : — [एवं ] इसप्रकार [अनेकान्तः ] अनेकान्त — [जैनम् अलङ्घयं शासनम् ] कि जो जिनदेवका अलंघ्य (किसीसे तोड़ा न जाय ऐसा) शासन है वह — [तत्त्व-व्यवस्थित्या ]वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी व्यवस्थिति (व्यवस्था) द्वारा [स्वयम् स्वं व्यवस्थापयन् ] स्वयं अपने आपको स्थापित करता हुआ [व्यवस्थितः ] स्थित हुआ — निश्चित हुआ — सिद्ध हुआ।

भावार्थ : — अनेकान्त अर्थात् स्याद्वाद, वस्तुस्वरूपको यथावत् स्थापित करता हुआ, स्वतः सिद्ध हो गया। वह अनेकान्त ही निर्बाध जिनमत है और यथार्थ वस्तुस्थितिको कहनेवाला है। कहीं किसी ने असत् कल्पनासे वचनमात्र प्रलाप नहीं किया है। इसलिये हे निपुण पुरुषों ! भलीभांति विचार करके प्रत्यक्ष अनुमान-प्रमाण से अनुभव कर देखो ।२६३।

(वसन्ततिलका)
इत्याद्यनेकनिजशक्ति सुनिर्भरोऽपि
यो ज्ञानमात्रमयतां न जहाति भावः ।
एवं क्रमाक्रमविवर्तिविवर्तचित्रं
तद्द्रव्यपर्ययमयं चिदिहास्ति वस्तु ।।२६४।।

श्लोकार्थ : — [इत्यादि-अनेक-निज-शक्ति-सुनिर्भरः अपि ] इत्यादि ( – पूर्व कथित ४७ शक्तियाँ इत्यादि) अनेक निज शक्तियोंसे भलीभाँति परिपूर्ण होने पर भी [यः भावः ज्ञानमात्रमयतां न जहाति ] जो भाव ज्ञानमात्रमयताको नहीं छोड़ता, [तद् ] ऐसा वह, [एवं क्रम-अक्रम-विवर्ति-विवर्त-चित्रम् ] पूर्वोक्त प्रकार से क्रमरूप और अक्रमरूप से वर्तमान विवर्त्त से ( – रूपान्तरसे, परिणमनसे) अनेक प्रकारका, [द्रव्य-पर्ययमयं ] द्रव्यपर्यायमय [चिद् ] चैतन्य (अर्थात् ऐसा वह चैतन्य भाव – आत्मा) [इह ] इस लोकमें [वस्तु अस्ति ] वस्तु है।

भावार्थ : — कोई यह समझ सकता है कि आत्माको ज्ञानमात्र कहा है, इसलिये वह एकस्वरूप ही होगा। किन्तु ऐसा नहीं है। वस्तुका स्वरूप द्रव्यपर्यायमय है। चैतन्य भी वस्तु है, द्रव्यपर्यायमय है। वह चैतन्य अर्थात् आत्मा अनन्त शक्तियोंसे परिपूर्ण है और क्रमरूप तथा अक्रमरूप अनेक प्रकारके परिणामों के विकारोंके समूहरूप अनेकाकार होता है फिर भी ज्ञानको — जो कि असाधारणभाव है उसे — नहीं छोड़ता, उसकी समस्त अवस्थाएं — परिणाम — पर्याय ज्ञानमय ही हैं ।२६४।

(वसन्ततिलका)
नैकान्तसंगतद्रशा स्वयमेव वस्तु-
तत्त्वव्यवस्थितिमिति प्रविलोकयन्तः ।
स्याद्वादशुद्धिमधिकामधिगम्य सन्तो
ज्ञानीभवन्ति जिननीतिमलंघयन्तः ।।२६५।।

श्लोकार्थ : — [इति वस्तु-तत्त्व-व्यवस्थितिम् नैकान्त-सङ्गत-दृशा स्वयमेव प्रविलोकयन्तः ] ऐसी (अनेकान्तात्मक) वस्तुतत्त्वकी व्यवस्थितिको अनेकान्त-संगत (अनेकान्तके साथ सुसंगत, अनेकान्तके साथ मेलवाली) दृष्टिके द्वारा स्वयमेव देखते हुए, [स्याद्वाद-शुद्धिम् अधिकाम् अधिगम्य ] स्याद्वादकी अत्यन्त शुद्धिको जानकर, [जिन-नीतिम् अलङ्घयन्तः ] जिननीतिका (जिनेश्वरदेवके मार्गका) उल्लंघन न करते हुए, [सन्तः ज्ञानीभवन्ति ] सत्पुरुष ज्ञानस्वरूप होते हैं।

भावार्थ : — जो सत्पुरुष अनेकान्तके साथ सुसंगत दृष्टिके द्वारा अनेकान्तमय वस्तुस्थितिको देखते हैं, वे इसप्रकार स्याद्वाद की शुद्धिको प्राप्त करके — जान करके जिनदेवके मार्गको – स्याद्वादन्यायको — उल्लंघन न करते हुए, ज्ञानस्वरूप होते हैं ।२६५।

(वसन्ततिलका)
ये ज्ञानमात्रनिजभावमयीमकम्पां
भूमिं श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहाः ।
ते साधकत्वमधिगम्य भवन्ति सिद्धा
मूढास्त्वमूमनुपलभ्य परिभ्रमन्ति ।।२६६।।

श्लोकार्थ : — [ये ] जो पुरुष, [कथम् अपि अपनीत-मोहाः ] किसी भी प्रकार से जिनका मोह दूर हो गया है ऐसा होता हुआ, [ज्ञानमात्र-निज-भावमयीम् अकम्पां भूमिं ] ज्ञानमात्र निज भावमय अकम्प भूमिकाका (अर्थात् ज्ञानमात्र जो अपना भाव उस-मय निश्चल भूमिकाका) [श्रयन्ति ] आश्रय लेते हैं [ते साधकत्वम् अधिगम्य सिद्धाः भवन्ति ] वे साधकत्वको प्राप्त करके सिद्ध हो जाते हैं; [तु ] परन्तु [मूढाः ] जो मूढ़ ( – मोही, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि) है वे [अमूम् अनुपलभ्य ] इस भूमिकाको प्राप्न न करके [परिभ्रमन्ति ] संसारमें परिभ्रमण करते हैं।

भावार्थ : — जो भव्य पुरुष, गुरु के उपदेश से अथवा स्वयमेव काललब्धिको प्राप्त करके मिथ्यात्वसे रहित होकर, ज्ञानमात्र अपने स्वरूपको प्राप्त करते हैं, उसका आश्रय लेते हैं; वे साधक होते हुए सिद्ध हो जाते हैं; परन्तु जो ज्ञानमात्र – निजको प्राप्त नहीं करते, वे संसारमें परिभ्रमण करते हैं ।२६६।

(वसन्ततिलका)
स्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां
यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्त : ।
ज्ञानक्रियानयपरस्परतीव्रमैत्री-
पात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एकः ।।२६७।।

श्लोकार्थ : — [यः ] जो पुरुष, [स्याद्वाद-कौशल-सुनिश्चल-संयमाभ्यां ] स्याद्वादमें प्रवीणता तथा (रागादिक अशुद्ध परिणति के त्यागरूप) सुनिश्चल संयम — इन दोनोंके द्वारा [इह उपयुक्तः ] अपनेमें उपयुक्त रहता हुआ (अर्थात् अपने ज्ञानस्वरूप आत्मामें उपयोगको लगाता हुआ) [अहः अहः स्वम् भावयति ] प्रतिदिन अपनेको भाता है ( – निरन्तर अपने आत्माकी भावना करता है), [सः एकः ] वही एक (पुरुष); [ज्ञान-क्रिया-नय-परस्पर-तीव्र-मैत्री-पात्रीकृतः ] ज्ञाननय और क्रियानयकी परस्पर तीव्र मैत्रीका पात्ररूप होता हुआ, [इमाम् भूमिम् श्रयति ] इस (ज्ञान मात्र निजभावमय) भूमिकाका आश्रय करता है।

भावार्थ : — जो ज्ञाननयको ही ग्रहण करके क्रियानयको छोड़ता है, उस प्रमादी और स्वच्छन्दी पुरुषको इस भूमिकाकी प्राप्ति नहीं हुई है। जो क्रियानयको ही ग्रहण करके ज्ञाननयको नहीं जानता, उस (व्रत – समिति – गुप्तिरूप) शुभ कर्मसे संतुष्ट पुरुषको भी इस निष्कर्म भूमिकाकी प्राप्ति नहीं हुई है। जो पुरुष अनेकान्तमय आत्माको जानता है ( – अनुभव करता है) तथा सुनिश्चल संयममें प्रवृत्त है ( – रागादिक अशुद्ध परिणतिका त्याग करता है), और इसप्रकार जिसने ज्ञाननय तथा क्रियानयकी परस्पर तीव्र मैत्री सिद्ध की है, वही पुरुष इस ज्ञानमात्र निजभावमय भूमिका का आश्रय करनेवाला है।

ज्ञाननय और क्रियानयके ग्रहण-त्यागका स्वरूप तथा फल ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ ग्रन्थके अन्तमें कहा है, वहाँ से जानना चाहिए ।२६७।

(वसन्ततिलका)
चित्पिण्डचण्डिमविलासिविकासहासः
शुद्धप्रकाशभरनिर्भरसुप्रभातः ।
आनन्दसुस्थितसदास्खलितैकरूप-
स्तस्यैव चायमुदयत्यचलार्चिरात्मा ।।२६८।।

श्लोकार्थ : — [तस्य एव ] (पूर्वोक्त प्रकारसे जो पुरुष इस भूमिका का आश्रय लेता है) उसीके, [चित्-पिण्ड-चण्डिम-विलासि-विकास-हासः ] चैतन्यपिंडके निरर्गल विलसित विकासरूप जिसका खिलना है (अर्थात् चैतन्यपुंज का अत्यन्त विकास होना ही जिसका खिलना है), [शुद्ध-प्रकाश-भर-निर्भर-सुप्रभातः ] शुद्ध प्रकाश की अतिशयताके कारण जो सुप्रभात के समान है, [आनन्द-सुस्थित-सदा-अस्खलित-एक-रूपः ] आनन्दमें सुस्थित ऐसा जिसका सदा अस्खलित एक रूप है [च ] और [अचल-अर्चिः ] जिसकी ज्योति अचल है ऐसा [अयम् आत्मा उदयति ] यह आत्मा उदयको प्राप्त होता है ।

भावार्थ : — यहाँ ‘चित्पिंड’ इत्यादि विशेषणसे अनन्त दर्शनका प्रगट होना, ‘शुद्धप्रकाश’ इत्यादि विशेषणसे अनन्त ज्ञानका प्रगट होना, ‘आनन्दसुस्थित’ इत्यादि विशेषणसे अनन्त सुखका प्रगट होना और ‘अचलार्चि’ विशेषणसे अनन्त वीर्यका प्रगट होना बताया है। पूर्वोक्त भूमिका आश्रय लेनेसे ही ऐसे आत्माका उदय होता है ।२६८।

(वसन्ततिलका)
स्याद्वाददीपितलसन्महसि प्रकाशे
शुद्धस्वभावमहिमन्युदिते मयीति ।
किं बन्धमोक्षपथपातिभिरन्यभावै-
र्नित्योदयः परमयं स्फुरतु स्वभावः ।।२६९।।

श्लोकार्थ : — [स्याद्वाद-दीपित-लसत्-महसि ] स्याद्वाद द्वारा प्रदीप्त किया गया जगमगाहट करता जिसका तेज है और [शुद्ध-स्वभाव-महिमनि ] जिसमें शुद्धस्वभावरूप महिमा है ऐसा [प्रकाशे उदिते मयि इति ] यह प्रकाश (ज्ञानप्रकाश) जहाँ मुझमें उदयको प्राप्त हुआ है, वहाँ [बन्ध-मोक्ष-पथ-पातिभिः अन्य-भावैः किं ] बंध-मोक्षके मार्गमें पड़नेवाले अन्य भावोंसे मुझे क्या प्रयोजन है ? [नित्य-उदयः परम् अयं स्वभावः स्फु रतु ] मुझे तो मेरा नित्य उदित रहनेवाला केवल यह (अनन्तचतुष्टयरूप) स्वभाव ही स्फुरायमान हो ।

भावार्थ : — स्याद्वादसे यथार्थ आत्मज्ञान होनेके बाद उसका फ ल पूर्ण आत्माका प्रगट होना है। इसलिये मोक्षका इच्छुक पुरुष यही प्रार्थना करता है कि — मेरा पूर्णस्वभाव आत्मा मुझे प्रगट हो; बन्धमोक्षमार्गमें पड़नेवाले अन्य भावों से मुझे क्या काम है ? ।२६९।

(वसन्ततिलका)
चित्रात्मशक्ति समुदायमयोऽयमात्मा
सद्यः प्रणश्यति नयेक्षणखण्डयमानः ।
तस्मादखण्डमनिराकृतखण्डमेक-
मेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोऽस्मि ।।२७०।।

श्लोकार्थ : — [चित्र-आत्मशक्ति-समुदायमयः अयम् आत्मा ] अनेक प्रकार की निज शक्तियों का समुदायमय यह आत्मा [नय-ईक्षण-खण्डयमानः ] नयोंकी दृष्टिसे खण्ड-खण्डरूप किये जाने पर [सद्यः ] तत्काल [प्रणश्यति ] नाशको प्राप्त होता है; [तस्मात् ] इसलिये मैं ऐसा अनुभव करता हूँ कि — [अनिराकृत-खण्डम् अखण्डम् ] जिसमेंसे खण्डोंको निराकृत नहीं किया गया है तथापि जो अखण्ड है, [एकम् ] एक है, [एकान्त-शान्तम् ] एकान्त शांत है (अर्थात् जिसमें कर्मोदयका लेशमात्र भी नहीं है ऐसा अत्यन्त शांत भावमय है) और [अचलम् ] अचल है (अर्थात् कर्मोदयसे चलायमान च्युत नहीं होता) ऐसा [चिद् महः अहम् अस्मि ] चैतन्यमात्र तेज मैं हूँ।

भावार्थ : — आत्मामें अनेक शक्तियाँ हैं और एक एक शक्तिका ग्राहक एक एक नय है; इसलिये यदि नयोंकी एकान्त दृष्टिसे देखा जाये तो आत्माका खण्ड-खण्ड होकर उसका नाश हो जाये। ऐसा होनेसे स्याद्वादी, नयोंका विरोध दूर करके चैतन्यमात्र वस्तुको अनेकशक्तिसमूहरूप, सामान्यविशेषरूप, सर्वशक्तिमय एकज्ञानमात्र अनुभव करता है। ऐसा ही वस्तुका स्वरूप है, इसमें विरोध नहीं है ।२७०।

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