समयसार कलश l Samaysar Kalash (Sanskrit +Arth) with Audio

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(अनुष्टुभ्)
अत्र स्याद्वादशुद्धयर्थं वस्तुतत्त्वव्यवस्थितिः ।
उपायोपेयभावश्च मनाग्भूयोऽपि चिन्त्यते ।।२४७।।

श्लोकार्थ : — [अत्र ] यहाँ [स्याद्वाद-शुद्धि-अर्थं ] स्याद्वादकी शुद्धिके लिये [वस्तु-तत्त्व-व्यवस्थितिः ] वस्तुतत्त्वकी व्यवस्था [च ] और [उपाय-उपेय-भावः ] (एक ही ज्ञानमें उपाय – उपेयत्व कैसे घटित होता है यह बतलानेके लिये) उपाय-उपेयभावका [मनाक् भूयः अपि ] जरा फिर से भी [चिन्त्यते ] विचार करते हैं।

भावार्थ : — वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषात्मक अनेक-धर्मस्वरूप होनेसे वह स्याद्वादसे ही सिद्ध किया जा सकता है। इसप्रकार स्याद्वादकी शुद्धता ( – प्रमाणिकता, सत्यता, निर्दोषता, निर्मलता, अद्वितीयता) सिद्ध करनेके लिये इस परिशिष्टमें वस्तुस्वरूपका विचार किया जाता है। (इसमें यह भी बताया जायेगा कि इस शास्त्रमें आत्माको ज्ञानमात्र कहा है फिर भी स्याद्वादके साथ विरोध नहीं आता।) और दूसरे, एक ही ज्ञानमें साधकत्व तथा साध्यत्व कैसे बन सकता है यह समझाने के लिये ज्ञानके उपाय-उपेयभावका अर्थात् साधकसाध्यभाव का भी इस परिशिष्ट में विचार किया जायेगा ।२४७।

(शार्दूलविक्रीडित)
बाह्यार्थैः परिपीतमुज्झितनिजप्रव्यक्ति रिक्त ीभवद्
विश्रान्तं पररूप एव परितो ज्ञानं पशोः सीदति ।
यत्तत्तत्तदिह स्वरूपत इति स्याद्वादिनस्तत्पुन-
र्दूरोन्मग्नघनस्वभावभरतः पूर्णं समुन्मज्जति ।।२४८।।

श्लोकार्थ : — [बाह्य-अर्थैः परिपीतम् ] बाह्य पदार्थोंके द्वारा सम्पूर्णतया पिया गया, [उज्झित-निज-प्रव्यक्ति-रिक्तीभवद् ] अपनी व्यक्ति (प्रगटता) को छोड़ देनेसे रिक्त ( – शून्य) हुआ, [परितः पररूपे एव विश्रान्तं ] सम्पूर्णतया पररूपमें ही विश्रांत (अर्थात् पररूपके ऊपर ही आधार रखता हुआ) ऐसे [पशोः ज्ञानं ] पशुका ज्ञान ( – पशुवत् एकान्तवादीका ज्ञान) [सीदति ] नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादिनः तत् पुनः ] और स्याद्वादीका ज्ञान तो, [‘यत् तत् तत् इह स्वरूपतः तत्’ इति ] ‘जो तत् है वह स्वरूप से तत् है (अर्थात् प्रत्येक तत्त्वको — वस्तुको स्वरूपसे तत्पना है)’ ऐसी मान्यताके कारण [दूरउन्मग्न-घन-स्वभाव-भरतः ] अत्यन्त प्रगट हुए ज्ञानघनरूप स्वभावके भारसे, [पूर्णं समुन्मज्जति ] सम्पूर्ण उदित (प्रगट) होता है।

भावार्थ : — कोई सर्वथा एकान्तवादी तो यह मानता है कि — घटज्ञान घटके आधारसे ही होता है, इसलिये ज्ञान सब प्रकारसे ज्ञेयों पर ही आधार रखता है। ऐसा माननेवाले एकान्तवादीके ज्ञानको तो ज्ञेय पी गये हैं, ज्ञान स्वयं कुछ नहीं रहा। स्याद्वादी तो ऐसा मानते हैं कि — ज्ञान अपने स्वरूपसे तत्स्वरूप (ज्ञानस्वरूप) ही है, ज्ञेयाकार होने पर भी ज्ञानत्वको नहीं छोड़ता। ऐसी यथार्थ अनेकान्त समझके कारण स्याद्वादीको ज्ञान (अर्थात् ज्ञानस्वरूप आत्मा) प्रगट प्रकाशित होता है।

इसप्रकार स्वरूप से तत्पने का भंग कहा है।२४८।

(शार्दूलविक्रीडित)
विश्वं ज्ञानमिति प्रतर्क्य सकलं द्रष्ट्वा स्वतत्त्वाशया
भूत्वा विश्वमयः पशुः पशुरिव स्वच्छन्दमाचेष्टते ।
यत्तत्तत्पररूपतो न तदिति स्याद्वाददर्शी पुन-
र्विश्वाद्भिन्नमविश्वविश्वघटितं तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत् ।।२४९।।

श्लोकार्थ : — [पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकन्तवादी अज्ञानी, [‘विश्वं ज्ञानम्’ इति प्रतर्क्य ] ‘विश्व ज्ञान है (अर्थात् सर्व ज्ञेयपदार्थ आत्मा हैं)’ ऐसा विचार करके [सकलं स्वतत्त्व-आशया दृष्टवा ] सबको ( – समस्त विश्वको) निजतत्त्वकी आशासे देखकर [विश्वमयः भूत्वा ] विश्वमय ( – समस्त ज्ञेयपदार्थमय) होकर, [पशुः इव स्वच्छन्दम् आचेष्टते ] पशुकी भाँति स्वच्छंदतया चेष्टा करता है — प्रवृत्त होता है; [पुनः ] और [स्याद्वाददर्शी ] स्याद्वादका देखनेवाला तो यह मानता है कि — [‘यत् तत् तत् पररूपतः न तत्’ इति ] ‘जो तत् है वह पररूप से तत् नहीं है (अर्थात् प्रत्येक तत्त्वको स्वरूपसे तत्पना होने पर भी पररूपसे अतत्पना है),’ इसलिये [विश्वात् भिन्नम् अविश्वविश्वघटितं ] विश्व से भिन्न ऐसे तथा विश्वसे ( – विश्वके निमित्तसे) रचित होने पर भी विश्वरूप न होनेवाले ऐसे (अर्थात् समस्त ज्ञेय वस्तुओंके आकाररूप होने पर भी समस्त ज्ञेय वस्तुसे भिन्न ऐसे) [तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत् ] अपने स्वतत्त्वका स्पर्श — अनुभव करता है।

भावार्थ : — एकान्तवादी यह मानता है कि — विश्व (समस्त वस्तुऐं) ज्ञानरूप अर्थात् निजरूप है। इसप्रकार निजको और विश्वको अभिन्न मानकर, अपने को विश्वमय मानकर, एकान्तवादी, पशुकी भाँति हेय-उपादेयके विवेकके बिना सर्वत्र स्वच्छन्दतया प्रवृत्ति करता है।

स्याद्वादी तो यह मानता है कि — जो वस्तु अपने स्वरूप से तत्स्वरूप है, वही वस्तु परके स्वरूपसे अतत्स्वरूप है; इसलिये ज्ञान अपने स्वरूप से तत्स्वरूप है, परन्तु पर ज्ञेयोंके स्वरूपसे अतत्स्वरूप है अर्थात् पर ज्ञेयोंके आकार रूप होने पर भी उनसे भिन्न है।

इसप्रकार पररूप से अतत्पने का भंग कहा है।२४९।

(शार्दूलविक्रीडित)
बाह्यार्थग्रहणस्वभावभरतो विष्वग्विचित्रोल्लस-
ज्ज्ञेयाकारविशीर्णशक्ति रभितस्त्रुटयन्पशुर्नश्यति ।
एकद्रव्यतया सदाप्युदितया भेदभ्रमं ध्वंसय-
न्नेकं ज्ञानमबाधितानुभवनं पश्यत्यनेकान्तवित् ।।२५०।।

श्लोकार्थ : — [पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [बाह्य-अर्थ-ग्रहण- स्वभाव-भरतः ] बाह्य पदार्थोंको ग्रहण करनेके (ज्ञानके) स्वभावकी अतिशयताके कारण, [विष्वग्-विचित्र-उल्लसत्-ज्ञेयाकार-विशीर्ण-शक्तिः ] चारों ओर (सर्वत्र) प्रगट होनेवाले अनेक प्रकारके ज्ञेयाकारोंसे जिसकी शक्ति विशीर्ण ( – छिन्न-भिन्न) हो गई ऐसा होकर (अर्थात् अनेक ज्ञेयोंके आकार ज्ञानमें ज्ञात होने पर ज्ञानकी शक्तिको छिन्न-भिन्न — खंड-खंडरूप — हो गई मानकर) [अभितः त्रुटयन् ] सम्पूर्णतया खण्ड-खण्डरूप होता हुआ (अर्थात् खंड-खंडरूप —अनेकरूप — होता हुआ) [नश्यति ] नष्ट हो जाता है; [अनेकान्तवित् ] और अनेकान्तका जानकार तो, [सदा अपि उदितया एक – द्रव्यतया ] सदैव उदित ( – प्रकाशमान) एक द्रव्यत्वके कारण [भेदभ्रमं ध्वंसयन् ] भेदके भ्रमको नष्ट करता हुआ (अर्थात् ज्ञेयोंके भेदसे ज्ञानमें सर्वथा भेद पड़ जाता है ऐसे भ्रमको नाश करता हुआ), [एकम् अबाधित-अनुभवनं ज्ञानम् ] जो एक है ( – सर्वथा अनेक नहीं है) और जिसका अनुभवन निर्बाध है ऐसे ज्ञानको [पश्यति ] देखता है — अनुभव करता है ।

भावार्थ : — ज्ञान है वह ज्ञेयोंके आकाररूप परिणमित होनेसे अनेक दिखाई देता है, इसलिये सर्वथा एकान्तवादी उस ज्ञानको सर्वथा अनेक — खण्ड-खण्डरूप — देखता हुआ ज्ञानमय ऐसे निजका नाश करता है; और स्याद्वादी तो ज्ञानको, ज्ञेयाकार होने पर भी, सदा उदयमान द्रव्यत्वके द्वारा एक देखता है।

इसप्रकार एकत्वका भंग कहा है ।२५०।

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