समयसार कलश l Samaysar Kalash (Sanskrit +Arth) with Audio

:arrow_up:
:arrow_up_small:

(शालिनी)
योऽयं भावो ज्ञानमात्रोऽहमस्मि
ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानमात्रः स नैव ।
ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानकल्लोलवल्गन्
ज्ञानज्ञेयज्ञातृमद्वस्तुमात्रः ।।२७१।।

श्लोकार्थ : — [यः अयं ज्ञानमात्रः भावः अहम् अस्मि सः ज्ञेय-ज्ञानमात्रः एव न ज्ञेयः ] जो यह ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ वह ज्ञेयोंके ज्ञानमात्र ही नहीं जानना चाहिये; [ज्ञेय-ज्ञान-कल्लोल-वल्गन् ] (परन्तु) ज्ञेयोंके आकारसे होनेवाले ज्ञानकी कल्लोलोंके रूपमें परिणमित होता हुआ वह [ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातृमत्-वस्तुमात्रः ज्ञेयः ] ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातामय वस्तुमात्र जानना चाहिये। (अर्थात् स्वयं ही ज्ञान, स्वयं ही ज्ञेय और स्वयं ही ज्ञाता — इसप्रकार ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातारूप तीनों भावयुक्त वस्तुमात्र जानना चाहिये)।

भावार्थ : — ज्ञानमात्र भाव ज्ञातृक्रियारूप होनेसे ज्ञानस्वरूप है। और वह स्वयं ही निम्न प्रकारसे ज्ञेयरूप है। बाह्य ज्ञेय ज्ञानसे भिन्न है, वे ज्ञानमें प्रविष्ट नहीं होते; ज्ञेयोंके आकारकी झलक ज्ञानमें पड़ने पर ज्ञान ज्ञेयाकाररूप दिखाई देता है, परन्तु वे ज्ञानकी ही तरंगें हैं। वे ज्ञान तरंगें ही ज्ञानके द्वारा ज्ञात होती हैं। इसप्रकार स्वयं ही स्वतः जानने योग्य होनेसे ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञेयरूप है। और स्वयं ही अपना जाननेवाला होनेसे ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञाता है। इसप्रकार ज्ञानमात्र भाव ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता – इन तीनों भावोंसे युक्त सामान्यविशेषस्वरूप वस्तु है। ‘ऐसा ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ’-इसप्रकार अनुभव करनेवाला पुरुष अनुभव करता है ।२७१।

(पृथ्वी)
क्वचिल्लसति मेचकं क्वचिन्मेचकामेचकं
क्वचित्पुनरमेचकं सहजमेव तत्त्वं मम ।
तथापि न विमोहयत्यमलमेधसां तन्मनः
परस्परसुसंहतप्रकटशक्ति चक्रंस्फुरत् ।।२७२।।


श्लोकार्थ : — (ज्ञानी कहता है : — ) [मम तत्त्वं सहजम् एव ] मेरे तत्त्वका ऐसा स्वभाव ही है कि [क्वचित् मेचकं लसति ] कभी तो वह (आत्मतत्त्व) मेचक (अनेकाकार, अशुद्ध) दिखाई देता है, [क्वचित् मेचक-अमेचकं ] कभी मेचक-अमेचक (दोनोंरूप) दिखाई देता है [पुनः क्वचित् अमेचकं ] और कभी अमेचक (-एकाकार शुद्ध) दिखाई देता है; [तथापि ] तथापि [परस्पर-सुसंहत-प्रगट-शक्ति-चक्रंस्फुरत् तत् ] परस्पर सुसंहत (-सुमिलित, सुग्रथित) प्रगट शक्तियोंके समूहरूपसे स्फुरायमान वह आत्मतत्त्व [अमलमेधसां मनः ] निर्मल बुद्धिवालोंके मनको [न विमोहयति ] विमोहित ( – भ्रमित) नहीं करता ।

भावार्थ : — आत्मतत्त्व अनेक शक्तियोंवाला होनेसे किसी अवस्थामें कर्मोदयके निमित्तसे अनेकाकार अनुभवमें आता है; किसी अवस्थामें शुद्ध एकाकार अनुभवमें आता है और किसी अवस्थामें शुद्धाशुद्ध अनुभवमें आता है; तथापि यथार्थ ज्ञानी स्याद्वाद के बल के कारण भ्रमित नहीं होता, जैसा है वैसा ही मानता है, ज्ञानमात्रसे च्युत नहीं होता ।२७२।

(पृथ्वी)
इतो गतमनेकतां दधदितः सदाप्येकता-
मितः क्षणविभंगुरं ध्रुवमितः सदैवोदयात् ।
इतः परमविस्तृतं धृतमितः प्रदेशैर्निजै-
रहो सहजमात्मनस्तदिदमद्भुतं वैभवम् ।।२७३।।

श्लोकार्थ : — [अहो आत्मनः तद् इदम् सहजम् अद्भुतं वैभवम् ] अहो ! आत्माका तो यह सहज अद्भुत वैभव है कि — [इतः अनेकतां गतम् ] एक ओरसे देखने पर वह अनेकताको प्राप्त है और [इतः सदा अपि एकताम् दधत् ] एक ओरसे देखने पर सदा एकताको धारण करता है, [इतः क्षणविभंगुरम् ] एक ओरसे देखने पर क्षणभंगुर है और [इतः सदा एव उदयात् ध्रुवम् ] एक ओरसे देखने पर सदा उसका उदय होनेसे ध्रुव है, [इतः परम-विस्तृतम् ] एक ओर से देखने पर परम विस्तृत है और [इतः निजैः प्रदेशैः धृतम् ] एक ओरसे देखने पर अपने प्रदेशोंसे ही धारण कर रखा हुआ है ।

भावार्थ : — पर्यायदृष्टिसे देखने पर आत्मा अनेकरूप दिखाई देता है और द्रव्य-दृष्टिसे देखने पर एकरूप; क्रमभावी पर्यायदृष्टि से देखने पर क्षणभंगुर दिखाई देता है और सहभावी गुणदृष्टि से देखने पर ध्रुव; ज्ञानकी अपेक्षावाली सर्वगत दृष्टिसे देखने पर परम विस्तारको प्राप्त दिखाई देता है और प्रदेशोंकी अपेक्षावाली दृष्टिसे देखने पर अपने प्रदेशोंमें ही व्याप्त दिखाई देता है। ऐसा द्रव्यपर्यायात्मक अनन्तधर्मवाला वस्तुका स्वभाव है। वह (स्वभाव) अज्ञानियोंके ज्ञानमें आश्चर्य उत्पन्न करता है कि यह तो असम्भवसी बात है ! यद्यपि ज्ञानियोंको वस्तुस्वभावमें आश्चर्य नहीं होता फिर भी उन्हें कभी नहीं हुआ ऐसा अभूतपूर्व-अद्भुत परमानन्द होता है, और इसलिए आश्चर्य भी होता है ।२७३।

(पृथ्वी)
कषायकलिरेकतः स्खलति शान्तिरस्त्येकतो
भवोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्ति रप्येकतः ।
जगत्त्रितयमेकतः स्फु रति चिच्चकास्त्येकतः
स्वभावमहिमात्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः ।।२७४।।

श्लोकार्थ : — [एकतः कषाय-कलिः स्खलति ] एक ओरसे देखने पर कषायोंका क्लेश दिखाई देता है और [एकतः शान्तिः अस्ति ] एक ओरसे देखने पर शांति (कषायोंके अभावरूप शांतभाव) है; [एकतः भव-उपहतिः ] एक ओरसे देखने पर भवकी (-सांसारिक) पीड़ा दिखाई देती है और [एकतः मुक्तिः अपि स्पृशति ] एक ओरसे देखने पर (संसारके अभावरूप) मुक्ति भी स्पर्श करती है; [एकतः त्रितयम् जगत् स्फुरति ] एक ओरसे देखने पर तीनों लोक स्फुरायमान होते हैं ( –प्रकाशित होता है, दिखाई देता है) और [एकतः चित् चकास्ति ] एक ओरसे देखने पर केवल एक चैतन्य ही शोभित होता है। [आत्मनः अद्भुतात् अद्भुतः स्वभाव-महिमा विजयते ] (ऐसी) आत्माकी अद्भुतसे भी अद्भुत स्वभावमहिमा जयवन्त वर्तती है ( – अर्थात् किसीसे बाधित नहीं होती)।

भावार्थ : — यहाँ भी २७३वें श्लोकके भावार्थानुसार ही जानना चाहिये। आत्माका अनेकांतमय स्वभाव सुनकर अन्यवादियोंको भारी आश्चर्य होता है। उन्हें इस बातमें विरोध भासित होता है। वे ऐसे अनेकान्तमय स्वभाव की बातको अपने चित्तमें न तो समाविष्ट कर सकते हैं और न सहन ही कर सकते हैं। यदि कदाचित् उन्हें श्रद्धा हो तो प्रथम अवस्था में उन्हें भारी अद्भुतता मालूम होती है कि — ‘अहो ! यह जिनवचन महा उपकारी हैं, वस्तुके यथार्थ स्वरूपको बतानेवाले हैं; मैंने अनादिकाल ऐसे यथार्थ स्वरूपके ज्ञान बिना ही खो दिया (गँवा दिया) !’ — वे इसप्रकार आश्चर्यपूर्वक श्रद्धान करते हैं ।२७४।

(मालिनी)
जयति सहजतेजःपुंजमज्जत्त्रिलोकी-
स्खलदखिलविकल्पोऽप्येक एव स्वरूपः ।
स्वरसविसरपूर्णाच्छिन्नतत्त्वोपलम्भः
प्रसभनियमितार्चिश्चिच्चमत्कार एषः ।।२७५।।

श्लोकार्थ:-[सहज-तेजःपुञ्ज-मज्जत्-त्रिलोकी-स्खलत्-अखिल-विकल्पः अपि एकः एव स्वरूपः ] सहज (-अपने स्वभावरूप) तेजःपुञ्ज में त्रिलोक के पदार्थ मग्न हो जाते हैं, इसलिये जिसमें अनेक भेद होते हुए दिखाई देते हैं तथापि जिसका एक ही स्वरूप है (अर्थात् केवलज्ञान में सर्व पदार्थ झलकते हैं, इसलिये जो अनेक ज्ञेयाकाररूप दिखाई देता है तथापि जो चैतन्यरूप ज्ञानाकार की दृष्टि में एकस्वरूप ही है), [स्व-रस-विसर-पूर्ण-अच्छिन्न-तत्त्व-उपलम्भः] जिसमें निज रसके विस्तारसे पूर्ण अच्छिन्न तत्त्वोपलब्धि है (अर्थात् प्रतिपक्षी कर्मका अभाव हो जानेसे जिसमें स्वरूपानुभवनका अभाव नहीं होता) [प्रसभ-नियमित-अर्चिः ] और जिसकी ज्योति अत्यन्त नियमित है (अर्थात् जो अनन्तवीर्यसे निष्कम्प रहता है) [एषः चित्-चमत्कारः जयति ] ऐसा यह (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) चैतन्यचमत्कार जयवन्त वर्तता है । (–किसीसे बाधित नहीं किया जा सकता ऐसा सर्वोत्कृष्टरूपसे विद्यमान है)। (यहाँ ‘चैतन्यचमत्कार जयवन्त वर्तता है’ इस कथनमें जो चैतन्यचमत्कारका सर्वोत्कृष्टतया होना बताया है, वही मङ्गल है) ।२७५।

(मालिनी)
अविचलितचिदात्मन्यात्मनात्मानमात्म-
न्यनवरतनिमग्नं धारयद् ध्वस्तमोहम् ।
उदितममृतचन्द्रज्योतिरेतत्समन्ता-
ज्ज्वलतु विमलपूर्णं निःसपत्नस्वभावम् ।।२७६।।

श्लोकार्थ : — [अविचलित-चिदात्मनि आत्मनि आत्मानम् आत्मना अनवरत-निमग्नं धारयत् ] जो अचल चेतनास्वरूप आत्मामें आत्माको अपने आप ही निरन्तर निमग्न रखती है (अर्थात् प्राप्त किये गये स्वभावको कभी नहीं छोड़ती), [ध्वस्त-मोहम् ] जिसने मोहका (अज्ञानांधकारका) नाश किया है, [निःसपत्नस्वभावम् ] जिसका स्वभाव निःसपत्न ( – प्रतिपक्षी कर्मोंसे रहित) है, [विमल-पूर्णं ] जो निर्मल है और पूर्ण है; ऐसी [एतत् उदितम् अमृतचन्द्र-ज्योतिः ] यह उदयको प्राप्त अमृतचन्द्रज्योति (-अमृतमय चन्द्रमाके समान ज्योति, ज्ञान, आत्मा) [समन्तात् ज्वलतु ] सर्वतः जाज्वल्यमान रहो।

भावार्थ : —जिसका न तो मरण होता है और न जिससे दूसरे का मरण होता है वह अमृत है; और जो अत्यन्त स्वादिष्ट (-मीठा) होता है उसे लोग रूढ़िसे अमृत कहते हैं। यहाँ ज्ञानको — आत्माको — अमृतचन्द्रज्योति ( — अमृतमय चन्द्रमाके समान ज्योति) कहा है, जो कि लुप्तोपमालंकार है; क्योंकि ‘अमृतचन्द्रवत् ज्योतिः’ का समास करने पर ‘वत्’ का लोप होकर ‘अमृतचन्द्रज्योतिः’ होता है।

(यदि ‘वत्’ न रखकर ‘अमृतचन्द्ररूप ज्योति’ अर्थ किया जाय तो भेदरूपक अलङ्कार होता है। और ‘अमृतचन्द्रज्योति’ ही आत्माका नाम कहा जाय तो अभेदरूपक अलङ्कार होता है।)

आत्माको अमृतमय चन्द्रमाके समान कहने पर भी, यहाँ कहे गये विशेषणोंके द्वारा आत्माका चन्द्रमाके साथ व्यतिरेक भी है; क्योंकि ‘ध्वस्तमोह’ विशेषण अज्ञानांधकारका दूर होना बतलाता है, ‘विमलपूर्ण’ विशेषण लांछनरहितता तथा पूर्णता बतलाता है, ‘निःसपत्नस्वभाव’ विशेषण राहुबिम्बसे तथा बादल आदि से आच्छादित न होना बतलाता है, और ‘समन्तात् ज्वलतु’ सर्व क्षेत्र और सर्व कालमें प्रकाश करना बतलाता है; चन्द्रमा ऐसा नहीं है।

इस श्लोकमें टीकाकार आचार्यदेवने अपना ‘अमृतचन्द्र’ नाम भी बताया है। समास बदलकर अर्थ करने से ‘अमृतचन्द्र’ के और ‘अमृतचन्द्रज्योति’के अनेक अर्थ होते हैं जो कि यथासंभव जानने चाहिये ।२७६।

(शार्दूलविक्रीडित)
यस्माद् द्वैतमभूत्पुरा स्वपरयोर्भूतं यतोऽत्रान्तरं
रागद्वेषपरिग्रहे सति यतो जातं क्रियाकारकैः ।
भुंजाना च यतोऽनुभूतिरखिलं खिन्ना क्रियायाः फलं
तद्विज्ञानघनौघमग्नमधुना किंचिन्न किंचित्किल ।।२७७।।


श्लोकार्थ : — [यस्मात् ] जिससे (अर्थात् जिस परसंयोगरूप बन्धपर्यायजनित अज्ञानसे) [पूरा ] प्रथम [स्व-परयोः द्वैतम् अभूत् ] अपना और परका द्वैत हुआ (अर्थात् स्वपरके मिश्रितपनारूप भाव हुआ), [यतः अत्र अन्तरं भूतं ] द्वैतभाव होने से जिससे स्वरूपमें अन्तर पड़ गया (अर्थात् बन्धपर्याय ही निजरूप ज्ञात हुई), [यतः राग-द्वेष-परिग्रहे सति ] स्वरूपमें अन्तर पड़ने पर जिससे रागद्वेष का ग्रहण हुआ, [क्रिया-कारकैः जातं ] रागद्वेषका ग्रहण होने पर जिससे क्रिया के कारक उत्पन्न हुए (अर्थात् क्रिया और कर्त्ता-कर्मादि कारकोंका भेद पड़ गया), [यतः च अनुभूतिः क्रियायाः अखिलं फलं भुञ्जाना खिन्ना ] कारक उत्पन्न होने पर जिससे अनुभूति क्रियाके समस्त फलको भोगती हुई खिन्न हो गई, [तत् विज्ञान-घन-ओघ-मग्नम् ] वह अज्ञान अब विज्ञानघनके समूहमें मग्न हुआ (अर्थात् ज्ञानरूपमें परिणमित हुआ) [अधुना किल किञ्चित् न किञ्चित् ] इसलिए अब वह सब वास्तव में कुछ भी नहीं है।

भावार्थ : — परसंयोग से ज्ञान ही अज्ञानरूप परिणमित हुआ था, अज्ञान कहीं पृथक् वस्तु नहीं थी; इसलिए अब वह जहाँ ज्ञानरूप परिणमित हुआ कि वहाँ वह (अज्ञान) कुछ भी नहीं रहा। अज्ञान के निमित्तसे राग, द्वेष, क्रियाका कर्तृत्व, क्रियाके फलका ( – सुखदुःखका) भोक्तृत्व आदि भाव होते थे वे भी विलीन हो गये हैं; एकमात्र ज्ञान ही रह गया है। इसलिये अब आत्मास्व-पर के त्रिकालवर्ती भावों को ज्ञाताद्रष्टा होकर जानते-देखते ही रहो ।२७७।

(उपजाति)
स्वशक्ति संसूचितवस्तुतत्त्वै-
र्व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः ।
स्वरूपगुप्तस्य न किंचिदस्ति
कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः ।।२७८।।

श्लोकार्थ : — [स्व-शक्ति-संसूचित-वस्तु-तत्त्वैः शब्दैः ] जिनने अपनी शक्तिसे वस्तुके तत्त्व (-यथार्थ स्वरूप) को भलीभाँति कहा है ऐसे शब्दोंने [इयं समयस्य व्याख्या ] इस समयकी व्याख्या (आत्मवस्तुका व्याख्यान अथवा समयप्राभृतशास्त्रकी टीका) [कृता ] की है; [स्वरूप-गुप्तस्य अमृतचन्द्रसूरेः ] स्वरूपगुप्त ( – अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूपमें गुप्त) अमृतचन्द्रसूरिका (इसमें) [किञ्चित् एव कर्तव्यम् न अस्ति ] कुछ भी कर्तव्य नहीं है।

भावार्थ :- शब्द तो पुद्गल हैं। वे पुरुषके निमित्तसे वर्ण-पद-वाक्यरूपसे परिणमित होते हैं; इसलिये उनमें वस्तुस्वरूपको कहनेकी शक्ति स्वयमेव है, क्योंकि शब्दका और अर्थका वाच्यवाचक सम्बन्ध है। इसप्रकार द्रव्यश्रुतकी रचना शब्दोंने की है यही बात यथार्थ है। आत्मा तो अमूर्तिक है, ज्ञानस्वरूप है; इसलिये वह मूर्तिक पुद्गलकी रचना कैसे कर सकता है ? इसलिये आचार्यदेवने कहा है कि ‘इस समयप्राभृतकी टीका शब्दोंने की है, मैं तो स्वरूपमें लीन हूँ, उसमें ( – टीका करनेमें) मेरा कोई कर्तव्य (कार्य) नहीं है।’ यह कथन आचार्यदेवकी निरभिमानताको भी सूचित करता है। अब यदि निमित्त-नैमित्तिक व्यवहारसे ऐसा ही कहा जाता है कि अमुक पुरुष ने यह अमुक कार्य किया है। इस न्यायसे यह आत्मख्याति नामक टीका भी अमृतचन्द्राचार्यकृत है ही।

इसलिये इसके पढ़ने – सुननेवालोंको उनका उपकार मानना भी युक्त है; क्योंकि इसके पढ़ने – सुननेसे पारमार्थिक आत्माका स्वरूप ज्ञात होता है, उसका श्रद्धान तथा आचरण होता है, मिथ्या ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण दूर होता है और परम्परासे मोक्षकी प्राप्ति होती है। मुमुक्षुओंको इसका निरन्तर अभ्यास करना चाहिये ।२७८।

:arrow_up:
:arrow_up_small:

5 Likes