श्लोकार्थ : — [कर्तृत्वं अस्य चितः स्वभावः न ] क र्तृत्व इस चित्स्वरूप आत्माका स्वभाव नहीं है, [वेदयितृत्ववत् ] जैसे भोक्तृत्व स्वभाव नहीं है। [अज्ञानात् एव अयं कर्ता ] वह अज्ञानसे ही क र्ता है, [तद्-अभावात् अकारकः ] अज्ञानका अभाव होने पर अकर्ता है ।१९४।
श्लोकार्थ : — [स्वरसतः विशुद्धः ] जो निजरससे विशुद्ध है, और [स्फु रत्-चित्- ज्योतिर्भिः छुरित-भुवन-आभोग-भवनः ] जिसक ी स्फु रायमान होती हुई चैतन्यज्योतियोंके द्वारा लोक का समस्त विस्तार व्याप्त हो जाता है ऐसा जिसका स्वभाव है, [अयं जीवः ] ऐसा यह जीव [इति ] पूर्वोक्त प्रकारसे (परद्रव्यका तथा परभावोंका) [अकर्ता स्थितः ] अकर्ता सिद्ध हुआ, [तथापि ] तथापि [अस्य ] उसे [इह ] इस जगतमें [प्रकृतिभिः ] कर्मप्रकृ तियोंके साथ [यद् असौ बन्धः किल स्यात् ] जो यह (प्रगट) बन्ध होता है, [सः खलु अज्ञानस्य कः अपि गहनः महिमा स्फु रति ] सो वह वास्तवमें अज्ञानकी कोई गहन महिमा स्फु रायमान है।
भावार्थ : — जिसका ज्ञान सर्व ज्ञेयोंमें व्याप्त होनेवाला है ऐसा यह जीव शुद्धनयसे परद्रव्यका कर्ता नहीं है, तथापि उसे कर्मका बन्ध होता है यह अज्ञानकी कोई गहन महिमा है — जिसका पार नहीं पाया जाता ।१९५।
श्लोकार्थ : — [कर्तृत्ववत् ] कर्तृत्वकी भाँति [भोक्तृत्वं अस्य चितः स्वभावः स्मृतः न ] भोक्तृत्व भी इस चैतन्यका (चित्स्वरूप आत्माका) स्वभाव नहीं कहा है । [अज्ञानात् एव अयं भोक्ता ] वह अज्ञानसे ही भोक्त ा है, [तद्-अभावात् अवेदकः ] अज्ञानका अभाव होने पर वह अभोक्त है ।१९६।
श्लोकार्थ : — [अज्ञानी प्रकृति-स्वभाव-निरतः नित्यं वेदकः भवेत् ] अज्ञानी प्रकृति- स्वभावमें लीन – रक्त होनेसे ( – उसीको अपना स्वभाव जानता है इसलिये – ) सदा वेदक है, [तु ] और [ज्ञानी प्रकृति-स्वभाव-विरतः जातुचित् वेदकः नो ] ज्ञानी तो प्रकृ तिस्वभावसे विरक्त होनेसे ( – उसे परका स्वभाव जानता है इसलिए – ) क दापि वेदक नहीं है । [इति एवं नियमं निरूप्य ] इसप्रकार के नियमको भलीभाँति विचार करके — निश्चय करके [निपुणैः अज्ञानिता त्यज्यताम्] निपुण पुरुषो अज्ञानीपनको छोड़ दो और [शुद्ध-एक-आत्ममये महसि ] शुद्ध-एक -आत्मामय तेजमें [अचलितैः ] निश्चल होकर [ज्ञानिता आसेव्यताम् ] ज्ञानीपनेका सेवन करो ।१९७।
(वसन्ततिलका)
ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म
जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावम् ।
जानन्परं करणवेदनयोरभावा-
च्छुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव ।।१९८।।
श्लोकार्थ : — [ज्ञानी कर्म न करोति च न वेदयते ] ज्ञानी कर्मको न तो करता है और न वेदता (भोगता) है, [तत्स्वभावम् अयं किल केवलम् जानाति ] वह कर्मके स्वभावको मात्र जानता ही है । [परं जानन् ] इसप्रकार मात्र जानता हुआ [करण-वेदनयोः अभावात् ] क रने और वेदनेके (भोगनेके) अभावके कारण [शुद्ध-स्वभाव-नियतः सः हि मुक्त : एव ] शुद्ध स्वभावमें निश्चल ऐसा वह वास्तवमें मुक्त ही है ।
भावार्थ : — ज्ञानी कर्मका स्वाधीनतया कर्ता-भोक्ता नहीं है, मात्र ज्ञाता ही है; इसलिये वह मात्र शुद्धस्वभावरूप होता हुआ मुक्त ही है । कर्म उदयमें आता भी है, फिर भी वह ज्ञानीका क्या कर सकता है ? जब तक निर्बलता रहती है तबतक कर्म जोर चला ले; ज्ञानी क्रमशः शक्ति बढ़ाकर अन्तमें कर्मका समूल नाश करेगा ही ।१९८।
(अनुष्टुभ्)
ये तु कर्तारमात्मानं पश्यन्ति तमसा तताः ।
सामान्यजनवत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षताम् ।।१९९।।
श्लोकार्थ : — [ये तु तमसा तताः आत्मानं कर्तारम् पश्यन्ति ] जो अज्ञान-अंधक ारसे आच्छादित होते हुए आत्माको कर्ता मानते हैं, [मुमुक्षताम् अपि ] वे भले ही मोक्षके इच्छुक हों तथापि [सामान्यजनवत्] सामान्य (लौकि क ) जनोंकी भाँति [तेषां मोक्षः न ] उनकी भी मुक्ति नहीं होती । १९९ ।
श्लोकार्थ : — [परद्रव्य-आत्मतत्त्वयोः सर्वः अपि सम्बन्धः नास्ति ] परद्रव्य और आत्म- तत्त्वका सम्पूर्ण ही (कोई भी) सम्बन्ध नहीं है; [कर्तृ-कर्मत्व-सम्बन्ध-अभावे ] इसप्रकार क र्तृ- क र्मत्वके सम्बन्धका अभाव होनेसे, [तत्कर्तृता कुतः ] आत्माके परद्रव्यका क र्तृत्व क हाँसे हो सकता है ?
भावार्थ : — परद्रव्य और आत्माका कोई भी सम्बन्ध नहीं है, तब फिर उनमें कर्ताकर्मसम्बन्ध कैसे हो सकता है ? इसप्रकार जहाँ कर्ताकर्मसम्बन्ध नहीं है, वहाँ आत्माके परद्रव्यका कर्तृत्व कैसे हो सकता है ? २००।