समयसार कलश l Samaysar Kalash (Sanskrit +Arth) with Audio

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(मन्दाक्रान्ता)
टंकोत्कीर्णस्वरसनिचितज्ञानसर्वस्वभाजः ०
सम्यग्दृष्टेर्यदिह सकलं घन्न्ति लक्ष्माणि कर्म ।
तत्तस्यास्मिन्पुनरपि मनाक्कर्मणो नास्ति बन्धः
पूर्वोपात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्ज̄रैव ।।१६१।।


श्लोकार्थ : — [टंक ोत्कीर्ण-स्वरस-निचित-ज्ञान-सर्वस्व-भाजः सम्यग्दृष्टेः ] टंक ोत्क ीर्ण निजरससे परिपूर्ण ज्ञानके सर्वस्वको भोगनेवाले सम्यग्दृष्टिके [यद् इह लक्ष्माणि ] जो निःशंकित आदि चिह्न हैं वे [सकलं कर्म ] समस्त क र्मोंको [घन्न्ति ] नष्ट करते हैं; [तत् ] इसलिये, [अस्मिन् ] क र्मका उदय वर्तता होने पर भी, [तस्य ] सम्यग्दृष्टिको [पुनः ] पुनः [कर्मणः बन्धः ] कर्मका बन्ध [मनाक् अपि ] किञ्चित्मात्र भी [नास्ति ] नहीं होता, [पूर्वोपात्तं ] परंतु जो कर्म पहले बन्धा था [तद्-अनुभवतः ] उसके उदयको भोगने पर उसको [निश्चितं ] नियमसे [निर्जरा एव ] उस क र्मकी निर्जरा ही होती है।

भावार्थ : — सम्यग्दृष्टि पहले बन्धी हुई भय आदि प्रकृतियोंके उदयको भोगता है तथापि १निःशंकित आदि गुणोंके विद्यमान होनेसे+२शंकादिकृत (शंकादिके निमित्तसे होनेवाला) बन्ध नहीं होता, किन्तु पूर्वकर्मकी निर्जरा ही होती है ।१६१।

(मन्दाक्रान्ता)
रुन्धन् बन्धं नवमिति निजैः संगतोऽष्टाभिरंगैः
प्राग्बद्धं तु क्षयमुपनयन् निर्जरोज्जृम्भणेन ।
सम्यग्द्रष्टिः स्वयमतिरसादादिमध्यान्तमुक्तं
ज्ञानं भूत्वा नटति गगनाभोगरंगंं विगाह्य ।।१६२।।


श्लोकार्थ : — [इति नवम् बन्धं रुन्धन् ] इसप्रकार नवीन बन्धको रोकता हुआ और [निजैः अष्टाभिः अगैः संगतः निर्जरा-उज्जृम्भणेन प्राग्बद्धं तु क्षयम् उपनयम् ] (स्वयं) अपने आठ अंगोंसे युक्त होनेके क ारण निर्जरा प्रगट होनेसे पूर्वबद्ध कर्मोंका नाश करता हुआ [सम्यग्दृष्टिः] सम्यग्दृष्टि जीव [स्वयम् ] स्वयं [अतिरसात् ] अति रससे (निजरसमें मस्त हुआ) [आदि-मध्य- अन्तमुक्तं ज्ञानं भूत्वा ] आदि-मध्य-अंत रहित (सर्वव्यापक , एकप्रवाहरूप धारावाही) ज्ञानरूप होकर [गगन-आभोग-रंगं विगाह्य ] आक ाशके विस्ताररूप रंगभूमिमें अवगाहन करके (ज्ञानके द्वारा समस्त गगनमंडलमें व्याप्त होकर) [नटति ] नृत्य करता है।

भावार्थ : — सम्यग्दृष्टिको शंकादिकृत नवीन बन्ध तो नहीं होता और स्वयं अष्टांगयुक्त होनेसे निर्जराका उदय होनेके कारण उसके पूर्वके बन्धका नाश होता है । इसलिये वह धारावाही ज्ञानरूप रसका पान करके, निर्मल आकाशरूप रंगभूमिमें ऐसे नृत्य करता है जैसे कोई पुरुष मद्य पीकर मग्न हुआ नृत्यभूमिमें नाचता है ।

प्रश्न : — आप यह कह चुके हैं कि सम्यग्दृष्टिके निर्जरा होती है, बन्ध नहीं होता । किन्तु सिद्धान्तमें गुणस्थानोंकी परिपाटीमें अविरत सम्यग्दृष्टि इत्यादिके बन्ध कहा गया है । और घातिकर्मोंका कार्य आत्माके गुणोंका घात करना है, इसलिये दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य — इन गुणोंका घात भी विद्यमान है । चारित्रमोहका उदय नवीन बन्ध भी करता है । यदि मोहके उदयमें भी बन्ध न माना जाये तो यह भी क्यों न मान लिया जाये कि मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धीका उदय होने पर भी बन्ध नहीं होता ?

उत्तर : — बन्धके होनेंमें मुख्य कारण मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धीका उदय ही है; और सम्यग्दृष्टिके तो उनके उदयका अभाव है । चारित्रमोहके उदयसे यद्यपि सुखगुणका घात होता है तथा मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धीके अतिरिक्त और उनके साथ रहनेवाली अन्य प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष घातिकर्मोंकी प्रकृतियोंका अल्प स्थिति-अनुभागवाला बन्ध तथा शेष अघातिकर्मोंकी प्रकृतियोंका बन्ध होता है, तथापि जैसा मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धी सहित होता है वैसा नहीं होता । अनन्त संसारका कारण तो मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धी ही है; उनका अभाव हो जाने पर फिर उनका बन्ध नहीं होता; और जहाँ आत्मा ज्ञानी हुआ वहाँ अन्य बन्धकी गणना कौन करता है ? वृक्षकी जड़ कट जाने पर फि र हरे पत्ते रहनेकी अवधि कितनी होती है ? इसलिये इस अध्यात्मशास्त्रमें सामान्यतया ज्ञानी-अज्ञानी होनेके सम्बन्धमें ही प्रधान कथन है । ज्ञानी होनेके बाद जो कुछ कर्म रहे हों वे सहज ही मिटते जायेंगे । निम्नलिखित दृष्टान्तके अनुसार ज्ञानीके सम्बन्धमें समझ लेना चाहिए । कोई पुरुष दरिद्रताके कारण एक झोपड़ेमें रहता था । भाग्योदयसे उसे धन-धान्यसे परिपूर्ण बड़े महलकी प्राप्ति हो गई, इसलिये वह उसमें रहनेको गया । यद्यपि उस महलमें बहुत दिनोंका कूड़ा-कचरा भरा हुआ था तथापि जिस दिन उसने आकर महलमें प्रवेश किया उस दिनसे ही वह उस महलका स्वामी हो गया, सम्पत्तिवान हो गया । अब वह कूड़ा-कचरा साफ करना है सो वह क्रमशः अपनी शक्तिके अनुसार साफ करता है । जब सारा कचरा साफ हो जायेगा और महल उज्ज्वल हो जायेगा तब वह परमानन्दको भोगेगा । इसीप्रकार ज्ञानीके सम्बन्धमें समझना चाहिए।१६२।

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