समयसार कलश l Samaysar Kalash (Sanskrit +Arth) with Audio

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(शार्दूलविक्रीडित)
अच्छाच्छाः स्वयमुच्छलन्ति यदिमाः संवेदनव्यक्त यो
निष्पीताखिलभावमण्डलरसप्राग्भारमत्ता इव ।
यस्माभिन्नरसः स एष भगवानेकोऽप्यनेकीभवन्
वल्गत्युत्कलिकाभिरद्भुतनिधिश्चैतन्यरत्नाकरः ।।१४१।।

श्लोकार्थ : — [निष्पीत-अखिल-भाव-मण्डल-रस-प्राग्भार-मत्ताः इव ] समस्तपदार्थों के समूहरूप रस को पी लेने की अतिशयतासे मानों मत्त हो गई हो ऐसी [यस्य इमाः अच्छ- अच्छाः संवेदनव्यक्तयः ] जिसकी यह निर्मलसे भी निर्मल संवेदनव्यक्ति( – ज्ञानपर्याय, अनुभवमें आनेवाले ज्ञानके भेद) [यद् स्वयम् उच्छलन्ति ] अपने आप उछलतीहैं, [सः एषः भगवान् अद्भुतनिधिः चैतन्यरत्नाकरः ] वह यह भगवान अद्भुत निधिवाला चैतन्यरत्नाकर, [अभिन्नरसः ] ज्ञानपर्यायरूप तरंगों के साथ जिसका रस अभिन्न है ऐसा, [एकः अपि अनेकीभवन् ] एक होने पर भी अनेक होता हुआ, [उत्कलिकाभिः ] ज्ञानपर्यायरूप तरंगों के द्वारा [वल्गति ] दोलायमान होता है — उछलता है ।

भावार्थ : — जैसे अनेक रत्नोंवाला समुद्र एक जल से ही भरा हुआ है और उसमें छोटी बड़ी अनेक तरंगें उठती रहती हैं जो कि एक जलरूप ही हैं, इसी प्रकार अनेक गुणों का भण्डार यह ज्ञानसमुद्र आत्मा एक ज्ञानजलसे ही भरा हुआ है और कर्म के निमित्त से ज्ञान के अनेक भेद (व्यक्तियें) अपने आप प्रगट होते हैं उन्हें एक ज्ञान रूप ही जानना चाहिये, खण्डखण्डरूप से अनुभव नहीं करना चाहिये ।१४१।

(शार्दूलविक्रीडित)
क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः
क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपोभारेण भगनश्चिरम् ।
साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं
ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि ।।१४२।।

श्लोकार्थ :- [दुष्करतरैः ] कोई जीव तो अति दुष्कर और [मोक्ष-उन्मुखैः ] मोक्ष से पराङ्मुख [कर्मभिः ] कर्मों के द्वारा [स्वयमेव ] स्वयमेव (जिनाज्ञाके बिना) [क्लिश्यन्तां ] क्लेश पाते हैं तो पाओ [च ] और [परे ] अन्य कोई जीव [महाव्रत-तपः-भारेण ] (मोक्ष के सन्मुख अर्थात् कथंचित् जिनाज्ञा में कथित) महाव्रत और तप के भार से [चिरम् ] बहुत समय तक [भग्नाः ] भग्न होते हुए [क्लिश्यन्तां ] क्लेश प्राप्त करें तो करोे; (किन्तु) [साक्षात् मोक्षः ] जो साक्षात् मोक्षस्वरूप है, [निरामयपदं ] निरामय (रोगादि समस्त क्लेशों से रहित) पद है और [स्वयं संवेद्यमानं ] स्वयं संवेद्यमान है ऐसे [इदं ज्ञानं ] इस ज्ञान को [ज्ञानगुणं विना ] ज्ञानगुण के बिना [कथम् अपि ] किसी भी प्रकार से [प्राप्तुं न हि क्षमन्ते ] वे प्राप्त नहीं कर सकते।

भावार्थ : — ज्ञान है वह साक्षात् मोक्ष है; वह ज्ञान से ही प्राप्त होता है, अन्य किसी क्रियाकांड से उसकी प्राप्ति नहीं होती ।१४२।

(द्रुतविलम्बित)
पदमिदं ननु कर्मदुरासदं
सहजबोधकलासुलभं किल ।
तत इदं निजबोधकलाबलात्
कलयितुं यततां सततं जगत् ।।१४३।।

श्लोकार्थ : — [इदं पदम् ] यह (ज्ञानस्वरूप) पद [ननु कर्मदुरासदं ] कर्म से वास्तव में दुरासद है और [सहज-बोध-कला-सुलभं किल ] सहज ज्ञान की कला के द्वारा वास्तव में सुलभ है; [ततः ] इसलिये [निज-बोध-कला-बलात् ] निजज्ञान की कला के बल से [इदं कलयितुं ] इस पदका अभ्यास करने के लिये [जगत् सततं यततां ] जगत सतत प्रयत्न करो ।

भावार्थ : — समस्त कर्म को छुड़ाकर ज्ञानकला के बल द्वारा ही ज्ञान का अभ्यास करने का आचार्यदेव ने उपदेश दिया है । ज्ञान की ‘कला’ कहने से यह सूचित होता है कि — जब तक पूर्णकला (केवलज्ञान) प्रगट न हो तब तक ज्ञान हीनकलास्वरूप — मतिज्ञानादिरूप है; ज्ञान की उसकलाके आलम्बनसे ज्ञान का अभ्यास करने से केवलज्ञान अर्थात् पूर्ण कला प्रगट होती है ।१४३।

(उपजाति)
अचिन्त्यशक्ति : स्वयमेव देव-
श्चिन्मात्रचिन्तामणिरेष यस्मात् ।
सर्वार्थसिद्धात्मतया विधत्ते
ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण ।।१४४।।

श्लोकार्थ : — [यस्मात् ] क्योंकि [एषः ] यह (ज्ञानी) [स्वयम् एव ] स्वयं ही [अचिन्त्यशक्तिः देवः ] अचिंत्य शक्तिवाला देव है और [चिन्मात्र-चिन्तामणिः ] चिन्मात्र चिंतामणि है, इसलिये [सर्व-अर्थ-सिद्ध-आत्मतया ] जिसके सर्व अर्थ (प्रयोजन) सिद्ध हैं ऐसे स्वरूप होने से [ज्ञानी ] ज्ञानी [अन्यस्य परिग्रहेण ] दूसरे के परिग्रह से [किम् विधत्ते] क्या करेगा ? (कुछ भी करने का नहीं है ।)

भावार्थ : — यह ज्ञानमूर्ति आत्मा स्वयं ही अनन्त शक्तिका धारक देव है और स्वयंही चैतन्यरूप चिंतामणि होनेसे वांछित कार्य की सिद्धि करनेवाला है; इसलिये ज्ञानीके सर्व प्रयोजन सिद्ध होने से उसे अन्य परिग्रहका सेवन करने से क्या साध्य है ? अर्थात् कुछ भी साध्य नहीं है । ऐसा निश्चयनयका उपदेश है ।१४४।

(वसन्ततिलका)
इत्थं परिग्रहमपास्य समस्तमेव
सामान्यतः स्वपरयोरविवेकहेतुम् ।
अज्ञानमुज्झितुमना अधुना विशेषाद्
भूयस्तमेव परिहर्तुमयं प्रवृत्तः ।।१४५।।

श्लोकार्थ : — [इत्थं ] इसप्रकार [समस्तम् एव परिग्रहम् ] समस्त परिग्रह को [सामान्यतः ] सामान्यतः [अपास्य ] छोड़कर [अधुना ] अब [स्वपरयोः अविवेकहेतुम् अज्ञानम् उज्झितुमनाः अयं ] स्व-पर के अविवेक के कारणरूप अज्ञान को छोड़ने का जिसका मन है ऐसा यह [भूयः ] पुनः [तम् एव ] उसीको ( – परिग्रहको – ) [विशेषात् ] विशेषतः [परिहर्तुम् ] छोड़ने कोे [प्रवृत्तः ] प्रवृत्त हुआ है ।

भावार्थ : — स्व-पर को एकरूप जानने का कारण अज्ञान है । उस अज्ञान को सम्पूर्णतया छोड़ने के इच्छुक जीव ने पहले तो परिग्रह का सामान्यतः त्याग किया और अब (आगामी गाथाओं में) उस परिग्रह को विशेषतः (भिन्न-भिन्न नाम लेकर) छोड़ता है ।१४५।

(स्वागता)
पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकाद्
ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः ।
तद्भवत्वथ च रागवियोगा-
न्नूनमेति न परिग्रहभावम् ।।१४६।।

श्लोकार्थ : — [पूर्वबद्ध-निज-कर्म-विपाकाद् ] पूर्वबद्ध अपने कर्म के विपाक के कारण [ज्ञानिनः यदि उपभोगः भवति तत् भवतु ] ज्ञानी के यदि उपभोग हो तो हो, [अथ च ] परंतु [रागवियोगात् ] रागके वियोग ( – अभाव)के कारण [नूनम् ] वास्तव में [परिग्रहभावम् न एति ]वह उपभोग परिग्रहभाव को प्राप्त नहीं होता ।

भावार्थ : — पूर्वबद्ध कर्म का उदय आने पर जो उपभोग सामग्री प्राप्त होती है उसे यदिअज्ञानमय रागभाव से भोगा जाये तो वह उपभोग परिग्रहत्व को प्राप्त हो । परन्तु ज्ञानीके अज्ञानमय रागभाव नहीं होता । वह जानता है कि जो पहले बाँधा था वह उदय में आ गया और छूट गया;अब मैं उसे भविष्य में नहीं चाहता । इसप्रकार ज्ञानी के रागरूप इच्छा नहीं है, इसलिये उसका उपभोग परिग्रहत्वको प्राप्त नहीं होता ।१४६।

(स्वागता)
वेद्यवेदकविभावचलत्वाद्
वेद्यते न खलु कांक्षितमेव ।
तेन कांक्षति न किंचन विद्वान्
सर्वतोऽप्यतिविरक्ति मुपैति ।।१४७।।

श्लोकार्थ : — [वेद्य-वेदक-विभाव-चलत्वात् ] वेद्य-वेदक रूप विभावभावोंकी चलता(अस्थिरता) होनेसे [खलु ] वास्तवमें [कांक्षितम् एव वेद्यते न ] वाँछितका वेदन नहीं होता;[तेन ]इसलिये [विद्वान् किञ्चन कांक्षति न ] ज्ञानी कुछ भी वाँछा नहीं करता; [सर्वतः अपि अतिविरक्तिम् उपैति ] सबके प्रति अत्यन्त विरक्तता को (वैराग्यभाव को) प्राप्त होता है ।

भावार्थ : — अनुभवगोचर वेद्य-वेदक विभावों में काल भेद है, उनका मिलाप नहीं होता,(क्योंकि वे कर्मके निमित्तसे होते हैं, इसलिये अस्थिर हैं); इसलिये ज्ञानी आगामी काल सम्बन्धी वाँछा क्यों करे ? ।१४७।

(स्वागता)
ज्ञानिनो न हि परिग्रहभावं
कर्म रागरसरिक्त तयैति ।
रंगयुक्ति रकषायितवस्त्रे-
ऽस्वीकृतैव हि बहिर्लुठतीह ।।१४८।।

श्लोकार्थ : — [इह अकषायितवस्त्रे ] जैसे लोध और फि टकरी इत्यादि से जोे कसायला नहीं किया गया हो ऐसे वस्त्र में [रंगयुक्तिः ] रंग का संयोग, [अस्वीकृता ] वस्त्र के द्वारा अंगीकार न किया जाने से, [बहिः एव हि लुठति ] ऊपर ही लौटता है (रह जाता है) — वस्त्रके भीतर प्रवेश नहीं करता, [ज्ञानिनः रागरसरिक्ततया कर्म परिग्रहभावं न हि एति ] इसीप्रकार ज्ञानी रागरूप रस से रहित है, इसलिये कर्मोदयका भोग उसे परिग्रहत्वको प्राप्त नहीं होता ।

भावार्थ : —जैसे लोध और फिटकरी इत्यादि के लगाये बिना वस्त्र में रंग नहीं चढ़ता उसीप्रकार रागभाव के बिना ज्ञानी के कर्मोदय का भोग परिग्रहत्व को प्राप्त नहीं होता ।१४८।

(स्वागता)
ज्ञानवान् स्वरसतोऽपि यतः स्यात्
सर्वरागरसवर्जनशीलः ।
लिप्यते सकलकर्मभिरेषः
कर्ममध्यपतितोऽपि ततो न ।।१४९।।

श्लोकार्थ: — [यतः ] क्योंकि [ज्ञानवान् ] ज्ञानी [स्वरसतः अपि ] निज रस से ही [सर्वरागरसवर्जनशीलः ] सर्व रागरस के त्यागरूप स्वभाववाला [स्यात् ] है, [ततः ] इसलिये [एषः ] वह [कर्ममध्यपतितः अपि ] कर्म के बीच पड़ा हुआ भी [सकलकर्मभिः ] सर्व कर्मों से [न लिप्यते ] लिप्त नहीं होता ।१४९।

(शार्दूलविक्रीडित)
याद्रक् ताद्रगिहास्ति तस्य वशतो यस्य स्वभावो हि यः
कर्तुं नैष कथंचनापि हि परैरन्याद्रशः शक्यते ।
अज्ञानं न कदाचनापि हि भवेज्ज्ञानं भवत्सन्ततं
ज्ञानिन् भुंक्ष्व परापराधजनितो नास्तीह बन्धस्तव ।।१५०।।

अब इस अर्थका और आगामी कथनका सूचक कलशरूप काव्य कहते हैं : —

श्लोकार्थ : — [इह ] इस लोक में [यस्य याद्रक् यः हि स्वभावः ताद्रक् तस्य वशतःअस्ति ] जिस वस्तु का जैसा स्वभाव होता है उसका वैसा स्वभाव उस वस्तु के अपने वश से ही (अपने आधीन ही) होता है । [एषः ] ऐसा वस्तु का जो स्वभाव वह, [परैः ] परवस्तुओंके द्वारा [कथंचनअपि हि ] किसी भी प्रकारसे [अन्याद्रशः ] अन्य जैसा [कर्तुं न शक्यते ] नहीं किया जा सकता ।[हि ] इसलिये [सन्ततं ज्ञानं भवत् ] जो निरन्तर ज्ञानरूप परिणमित होता है वह [कदाचन अपि अज्ञानं न भवेत् ] कभी भी अज्ञान नहीं होता; [ज्ञानिन् ] इसलिये हे ज्ञानी ! [भुंक्ष्व ] तू (कर्मोदयजनित) उपभोग को भोग, [इह ] इस जगत में [पर-अपराध-जनितः बन्धः तव नास्ति ] पर के अपराध से उत्पन्न होनेवाला बन्ध तुझे नहीं है (अर्थात् परके अपराध से तुझे बन्ध नहीं होता) ।

भावार्थ : — वस्तुका स्वभाव वस्तुके अपने आधीन ही है । इसलिये जो आत्मा स्वयं ज्ञानरूप परिणमित होता है उसे परद्रव्य अज्ञानरूप कभी भी परिणमित नहीं करा सकता । ऐसा होने से यहाँ ज्ञानीसे कहा है कि — तुझे पर के अपराध से बन्ध नहीं होता, इसलिये तू उपभोग को भोग । तू ऐसी शंका मत कर कि उपभोग के भोगने से मुझे बन्ध होगा । यदि ऐसी शंका करेगा तो ‘परद्रव्य से आत्मा का बुरा होता है’ ऐसी मान्यता का प्रसंग आ जायेगा । इसप्रकार यहाँ परद्रव्य से अपना बुरा होना मानने की जीव की शंका मिटाई है; यह नहीं समझना चाहिये कि भोग भोगनेकी प्रेरणा करके स्वच्छंद कर दिया है । स्वेच्छाचारी होना तो अज्ञानभाव है यह आगे कहेंगे ।१५०।

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