समयसार कलश l Samaysar Kalash (Sanskrit +Arth) with Audio

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(शार्दूलविक्रीडित)
ये त्वेनं परिहृत्य संवृतिपथप्रस्थापितेनात्मना
लिंगे द्रव्यमये वहन्ति ममतां तत्त्वावबोधच्युताः ।
नित्योद्योतमखण्डमेकमतुलालोकं स्वभावप्रभा-
प्राग्भारं समयस्य सारममलं नाद्यापि पश्यन्ति ते ।।२४१।।

श्लोकार्थ : — [ये तु एनं परिहृत्य संवृति-पथ-प्रस्थापितेन आत्मना द्रव्यमये लिंङ्गे ममतां वहन्ति ] जो पुरुष इस पूर्वोक्त परमार्थस्वरूप मोक्षमार्गको छोड़कर व्यवहारमोक्षमार्गमें स्थापित अपने आत्माके द्वारा द्रव्यमय लिंगमें ममता करते हैं (अर्थात् यह मानते हैं कि यह द्रव्यलिंग ही हमें मोक्ष प्राप्त करा देगा), [ते तत्त्व-अवबोध-च्युताः अद्य अपि समयस्य सारम् न पश्यन्ति ] वे पुरुष तत्त्वके यथार्थ ज्ञानसे रहित होते हुए अभी तक समयके सारको (अर्थात् शुद्ध आत्माको) नहीं देखते — अनुभव नहीं करते। वह समयसार अर्थात् शुद्धात्मा कैसा है ? [नित्य-उद्योतम् ] नित्य प्रकाशमान है (अर्थात् कोई प्रतिपक्षी होकर उसके उदयका नाश नहीं कर सकता), [अखण्डम् ] अखण्ड है (अर्थात् जिसमें अन्य ज्ञेय आदिके निमित्त खण्ड नहीं होते), [एकम् ] एक है (अर्थात् पर्यायोंसे अनेक अवस्थारूप होने पर भी जो एकरूपत्वको नहीं छोड़ता), [अतुल-आलोकं ] अतुल ( – उपमारहित) प्रकाशवाला है,(क्योंकि ज्ञानप्रकाशको सूर्यादिके प्रकाशकी उपमा नहीं दी जा सकती), [स्वभाव-प्रभा-प्राग्भारं ] स्वभावप्रभाका पुंज है (अर्थात् चैतन्यप्रकाशका समूहरूप है), [अमलं ] अमल है (अर्थात् रागादि-विकाररूपी मलसे रहित है)। (इसप्रकार, जो द्रव्यलिंगमें ममत्व करते हैं उन्हे निश्चय-कारणसमयसारका अनुभव नहीं है; तब फिर उनको कार्यसमयसारकी प्राप्ति कहाँसे होगी ?)।२४१।

(वियोगिनी)
व्यवहारविमूढद्रष्टयः परमार्थं कलयन्ति नो जनाः ।
तुषबोधविमुग्धबुद्धयः कलयन्तीह तुषं न तण्डुलम् ।।२४२।।

श्लोकार्थ : — [व्यवहार-विमूढ-दृष्टयः जनाः परमार्थ नो कलयन्ति ] जिनकी दृष्टि (बुद्धि) व्यवहारमें ही मोहित है ऐसे पुरुष परमार्थको नहीं जानते, [इह तुष-बोध-विमुग्ध-बुद्धयः तुषं कलयन्ति, न तण्डुलम् ] जैसे जगतमें जिनकी बुद्धि तुषके ज्ञानमें ही मोहित है ( – मोहको प्राप्त हुई है) ऐसे पुरुष तुषको ही जानते हैं, तंदुल ( – चावल) को नहीं जानते।

भावार्थ : — जो धानके छिलकों पर ही मोहित हो रहे हैं, उन्हीं को कूटते रहते हैं, उन्होंने चावलोंको जाना ही नहीं है; इसीप्रकार जो द्रव्यलिंग आदि व्यवहार में मुग्ध हो रहे हैं (अर्थात् जो शरीरादिकी क्रिया में ममत्व किया करते हैं), उन्होंने शुद्धात्मानुभवनरूप परमार्थको जाना नहीं है; अर्थात् ऐसे जीव शरीरादि परद्रव्यको ही आत्मा जानते हैं, वे परमार्थ आत्मा के स्वरूपको जानते ही नहीं ।२४२।

(स्वागता)
द्रव्यलिंगममकारमीलितै-
द्रर्श्यते समयसार एव न ।
द्रव्यलिंगमिह यत्किलान्यतो
ज्ञानमेकमिदमेव हि स्वतः ।।२४३।।

श्लोकार्थ : — [द्रव्यलिङ्ग-ममकार-मीलितैः समयसारः एव न दृश्यते ] जो द्रव्यलिंग में ममकारके द्वारा अंध — विवेक रहित हैं, वे समयसारको ही नहीं देखते; [यत् इह द्रव्यलिंगम् किल अन्यतः ] क्योंकि इस जगत में द्रव्यलिंग तो वास्तवमें अन्य द्रव्यसे होता है, [इदम् ज्ञानम् एव हि एकम् स्वतः ] मात्र यह ज्ञान ही निज से (आत्मद्रव्य से) होता है।

भावार्थ : — जो द्रव्यलिंगमें ममत्वके द्वारा अंध है उन्हें शुद्धात्मद्रव्यका अनुभव ही नहीं है, क्योंकि वे व्यवहारको ही परमार्थ मानते हैं, इसलिये परद्रव्यको ही आत्मद्रव्य मानते हैं ।२४३।

(मालिनी)
अलमलमतिजल्पैर्दुर्विकल्पैरनल्पै-
रयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेकः ।
स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फू र्तिमात्रा-
न्न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति ।।२४४।।

श्लोकार्थ : — [अतिजल्पैः अनल्पैः दुर्विकल्पैः अलम् अलम् ] बहुत कथन से और बहुत दुर्विकल्पोंसे बस होओ, बस होओ; [इह ] यहाँ मात्र इतना ही कहना है कि [अयम् परमार्थः एकः नित्यम् चेत्यताम् ] इस एकमात्र परमार्थका ही निरन्तर अनुभव करो; [स्वरस-विसर-पूर्ण-ज्ञान-विस्फूर्ति-मात्रात् समयसारात् उत्तरं खलु किञ्चित् न अस्ति ] क्योंकि निजरसके प्रसारसे पूर्ण जो ज्ञान उसके स्फुरायमान होने मात्र जो समयसार ( – परमात्मा) उससे उच्च वास्तव में दूसरा कुछ भी नहीं है ( – समयसारके अतिरिक्त दूसरा कुछ भी सारभूत नहीं है)।

भावार्थ : — पूर्णज्ञानस्वरूप आत्माका अनुभव करना चाहिए; इसके अतिरिक्त वास्तवमें दूसरा कुछ भी सारभूत नहीं है।२४४।

(अनुष्टुभ्)
इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयं याति पूर्णताम् ।
विज्ञानघनमानन्दमयमध्यक्षतां नयत् ।।२४५।।

श्लोकार्थ : — [आनन्दमयम् विज्ञानघनम् अध्यक्षताम् नयत् ] आनन्दमय विज्ञानघनको ( – शुद्ध परमात्माको, समयसारको) प्रत्यक्ष करता हुआ, [इदम् एकम् अक्षयं जगत्-चक्षुः ] यह एक (अद्वितीय) अक्षय जगत-चक्षु ( – समयप्राभृत) [पूर्णताम् याति ] पूर्णताको प्राप्त होता है।

भावार्थ : — यह समयप्राभूत ग्रन्थ वचनरूपसे तथा ज्ञानरूपसे — दोनों प्रकारसे जगतको अक्षय (अर्थात् जिसका विनाश न हो ऐसे) अद्वितीय नेत्र समान हैं, क्योंकि जैसे नेत्र घटपटादि को प्रत्यक्ष दिखलाता है, उसीप्रकार समयप्राभृत आत्माके शुद्ध स्वरूप को प्रत्यक्ष अनुभवगोचर दिखलाता है ।२४५।

(अनुष्टुभ्)
इतीदमात्मनस्तत्त्वं ज्ञानमात्रमवस्थितम् ।
अखण्डमेकमचलं स्वसंवेद्यमबाधितम् ।।२४६।।

श्लोकार्थ : — [इति इदम् आत्मनः तत्त्वं ज्ञानमात्रम् अवस्थितम् ] इसप्रकार यह आत्माका तत्त्व (अर्थात् परमार्थभूतस्वरूप) ज्ञानमात्र निश्चित हुआ — [अखण्डम् ] कि जो (आत्माका) ज्ञानमात्रतत्त्व अखण्ड है (अर्थात् अनेक ज्ञेयाकारोंसे और प्रतिपक्षी कर्मोंसे यद्यपि खण्डखण्ड दिखाई देता है तथापि ज्ञानमात्रमें खण्ड नहीं है), [एकम् ] एक है (अर्थात् अखण्ड होनेसे

एकरूप है), [अचलं ] अचल है (अर्थात् ज्ञानरूपसे चलित नहीं होता — ज्ञेयरूप नहीं होता, [स्वसंवेद्यम् ] स्वसंवेद्य है (अर्थात् अपनेसे ही ज्ञात होने योग्य है), [अबाधितम् ] और अबाधित है (अर्थात् किसी मिथ्यायुक्तिसे बाधा नहीं पाता)।

भावार्थ : — यहाँ आत्माका निज स्वरूप ज्ञान ही कहा है इसका कारण यह हैः — आत्मा में अनन्त धर्म हैं; किन्तु उनमें कितने ही तो साधारण हैं, इसलिये वे अतिव्याप्तियुक्त हैं, उनसे आत्मा को पहिचाना नहीं जा सकता; और कुछ (धर्म) पर्यायाश्रित हैं — किसी अवस्थामें होते हैं और किसी अवस्था में नहीं होते, इसलिये वे अव्याप्तियुक्त हैं, उनसे भी आत्मा नहीं पहिचाना जा सकता। चेतनता यद्यपि आत्माका (अतिव्याप्ति और अव्याप्ति रहित) लक्षण है, तथापि वह शक्तिमात्र है, अदृष्ट है; उसकी व्यक्ति दर्शन और ज्ञान है। उस दर्शन और ज्ञानमें भी ज्ञान साकार है, प्रगट अनुभवगोचर है; इसलिये उसके द्वारा ही आत्मा पहिचाना जा सकता है। इसलिये यहाँ इस ज्ञानको ही प्रधान करके आत्माका तत्त्व कहा है।

यहाँ ऐसा नहीं समझना चाहिए कि ‘आत्मा को ज्ञानमात्र तत्त्ववाला कहा है, इसलिये इतना ही परमार्थ है और अन्य धर्म मिथ्या है, वे आत्मामें नहीं हैं, ऐसा सर्वथा एकान्त ग्रहण करनेसे तो मिथ्यादृष्टित्व आ जाता है, विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धोंका और वेदान्तियोंका मत आ जाता है; इसलिये ऐसा एकान्त बाधा सहित है। ऐसे एकान्त अभिप्रायसे कोई मुनिव्रत भी पाले और आत्माका — ज्ञानमात्रका — ध्यान भी करे, तो भी मिथ्यात्व नहीं कट सकता; मन्द कषायोंके कारण भले ही स्वर्ग प्राप्त हो जाये, किन्तु मोक्षका साधन तो नहीं होता। इसलिये स्याद्वाद से यथार्थ समझना चाहिए ।२४६।

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