समयसार कलश l Samaysar Kalash (Sanskrit +Arth) with Audio

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(शार्दूलविक्रीडित)
ज्ञानिन् कर्म न जातु कर्तुमुचितं किंचित्तथाप्युच्यते
भुंक्षे हन्त न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः ।
बन्धः स्यादुपभोगतो यदि न तत्किं कामचारोऽस्ति ते
ज्ञानं सन्वस बन्धमेष्यपरथा स्वस्यापराधाद् ध्रुवम् ।।१५१।।

श्लोकार्थ : — [ज्ञानिन् ] हे ज्ञानी, [जातु किचिंत् कर्म कर्तुम् उचितं न ] तुझेे क भी कोई भी कर्म क रना उचित नहीं है [तथापि ] तथापि [यदि उच्यते ] यदि तू यह कहे कि ‘‘[परं मे जातु न, भुंक्षे ] परद्रव्य मेरा क भी भी नहीं है और मैं उसे भोगता हूँं’’, [भोः दुर्भुक्तः एव असि ] तो तुझसे क हा जाता है कि हे भाई, तू खराब प्रकारसे भोगनेवाला है; [हन्त ] जो तेरा नहीं है उसे तू भोगता है यह महा खेदकी बात है ! [यदि उपभोगतः बन्धः न स्यात् ] यदि तू क हे कि ‘सिद्धान्तमें यह कहा है कि परद्रव्यके उपभोगसे बन्ध नहीं होता, इसलिये भोगता हूँ ’, [तत् किं ते कामचारः अस्ति ] तो क्या तुझे भोगनेकी इच्छा है ? [ज्ञानं सन् वस ] तू ज्ञानरूप होकर ( – शुद्ध स्वरूपमें) निवास क र, [अपरथा ] अन्यथा (अर्थात् यदि भोगनेकी इच्छा क रेगा — अज्ञानरूप परिणमित होगा तो) [ध्रुवम् स्वस्य अपराधात् बन्धम् एषि ] तू निश्चयतः अपने अपराध से बन्धको प्राप्त होगा ।
भावार्थ : — ज्ञानीको कर्म तो करना ही उचित नहीं है । यदि परद्रव्य जानकर भी उसे भोगे तो यह योग्य नहीं है । परद्रव्यके भोक्ताको तो जगतमें चोर कहा जाता है, अन्यायी कहा जाता है । और जो उपभोगसे बन्ध नहीं कहा सो तो, ज्ञानी इच्छाके बिना ही परकी जबरदस्तीसे उदयमें आये हुएको भोगता है वहाँ उसे बन्ध नहीं कहा । यदि वह स्वयं इच्छासे भोगे तब तो स्वयं अपराधी हुआ और तब उसे बन्ध क्यों न हो ? ।१५१।

(शार्दूलविक्रीडित)
कर्तारं स्वफ लेन यत्किल बलात्कर्मैव नो योजयेत्
कुर्वाणः फ ललिप्सुरेव हि फ लं प्राप्नोति यत्कर्मणः ।
ज्ञानं संस्तदपास्तरागरचनो नो बध्यते कर्मणा
कुर्वाणोऽपि हि कर्म तत्फ लपरित्यागैकशीलो मुनिः ।।१५२।।

श्लोकार्थ : — [यत् किल कर्म एव कर्तारं स्वफ लेन बलात् नो योजयेत् ] कर्म ही उसके कर्ताको अपने फ लके साथ बलात् नहीं जोड़ता (कि तू मेरे फलको भोग), [फ ललिप्सुः एव हि कुर्वाणः कर्मणः यत् फ लं प्राप्नोति ] ❃ फलकी इच्छावाला ही कर्मको क रता हुआ कर्मके फलको पाता है; [ज्ञानं सन् ] इसलिए ज्ञानरूप रहता हुआ और [तद्-अपास्त-रागरचनः ] जिसने कर्मके प्रति रागकी रचना दूर क ी है ऐसा [मुनिः ] मुनि, [तत्-फल-परित्याग-एक-शीलः ] कर्मफ लके परित्यागरूप ही एक स्वभाववाला होनेसे, [कर्म कुर्वाणः अपि हि ] क र्म क रता हुआ भी [कर्मणा नो बध्यते ] क र्मसे नहीं बन्धता ।
भावार्थ : — कर्म तो कर्ताको बलात् अपने फ लके साथ नहीं जोड़ता, किन्तु जो कर्मको करता हुआ उसके फ लकी इच्छा करता है वही उसका फल पाता है । इसलिये जो ज्ञानरूप वर्तता है और बिना ही रागके कर्म करता है वह मुनि कर्मसे नहीं बँधता, क्योंकि उसे कर्मफ लकी इच्छा नहीं है ।१५२।

(शार्दूलविक्रीडित)
त्यक्तं येन फ लं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं
किंत्वस्यापि कुतोऽपि किंचिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् ।
तस्मिन्नापतिते त्वकम्पपरमज्ञानस्वभावे स्थितो
ज्ञानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः ।।१५३।।

श्लोकार्थ : — [येन फ लं त्यक्तं सः कर्म कुरुते इति वयं न प्रतीमः ] जिसने कर्मका फल छोड़ दिया है वह क र्म क रता है ऐसी प्रतीति तो हम नहीं क र सक ते । [किन्तु ] किन्तु वहाँ इतना विशेष है कि — [अस्य अपि कुतः अपि किंचित् अपि तत् कर्म अवशेन आपतेत् ] उसे (ज्ञानीको) भी किसी क ारणसे कोई ऐसा क र्म अवशतासेे ( – उसके वश बिना) आ पड़ता है । [तस्मिन् आपतिते तु ] उसके आ पड़ने पर भी, [अकम्प-परम-ज्ञानस्वभावे स्थितः ज्ञानी ] जो अकं प परमज्ञानस्वभावमें स्थित है ऐसा ज्ञानी [कर्म ] क र्म [किं कुरुते अथ किं न कुरुते ] करता है या नहीं [इति कः जानाति ] यह कौन जानता है ?
भावार्थ : — ज्ञानीके परवशतासे कर्म आ पड़ता है तो भी वह ज्ञानसे चलायमान नहीं होता । इसलिये ज्ञानसे अचलायमान वह ज्ञानी कर्म करता है या नहीं यह कौन जानता है ? ज्ञानीकी बात ज्ञानी ही जानता है । ज्ञानीके परिणामोंको जाननेकी सामर्थ्य अज्ञानीकी नहीं है ।
अविरत सम्यग्दृष्टिसे लेकर ऊ परके सभी ज्ञानी ही समझना चाहिए । उनमेंसे, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत सम्यग्दृष्टि और आहारविहार करनेवाले मुनियोंके बाह्यक्रियाकर्म होते हैं, तथापि ज्ञानस्वभावसे अचलित होनेके कारण निश्चयसे वे, बाह्यक्रियाकर्मके कर्ता नहीं हैं, ज्ञानके ही कर्ता हैं । अन्तरङ्ग मिथ्यात्वके अभावसे तथा यथासम्भव कषायके अभावसे उनके परिणाम उज्ज्वल हैं । उस उज्ज्वलताको ज्ञानी ही जानते हैं, मिथ्यादृष्टि उस उज्ज्वलताको नहीं जानते । मिथ्यादृष्टि तो बहिरात्मा हैं, वे बाहरसे ही भला-बुरा मानते हैं; अन्तरात्माकी गतिक ो बहिरात्मा क्या जाने ? ।१५३।

(शार्दूलविक्रीडित)
सम्यग्द्रष्टय एव साहसमिदं कर्तुं क्षमन्ते परं
यद्वज्रेऽपि पतत्यमी भयचलत्त्रैलोक्यमुक्त ाध्वनि ।
सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शंक ां विहाय स्वयं
जानन्तः स्वमवध्यबोधवपुषं बोधाच्च्यवन्ते न हि ।।१५४।।

श्लोकार्थ : — [यत् भय-चलत्-त्रैलोक्य-मुक्त-अध्वनि वज्रे पतति अपि] जिसके भयसे चलायमान होते हुवे — खलबलाते हुवे — तीनों लोक अपनेे मार्गको छोड़ देते हैं ऐसा वज्रपात होने पर भी, [अमी ] ये सम्यग्दृष्टि जीव, [निसर्ग-निर्भयतया ] स्वभावतः निर्भय होनेसेे, [सर्वाम् एव शंक ां विहाय ] समस्त शंक ाको छोड़कर, [स्वयं स्वम् अवध्य-बोध-वपुषं जानन्तः ] स्वयं अपनेको (आत्माक ो) जिसका ज्ञानरूप शरीर अवध्य है ऐसा जानते हुए, [बोधात् च्यवन्ते न हि ] ज्ञानसे च्युत नहीं होते । [इदं परं साहसम् सम्यग्दृष्टयः एव क र्तुं क्षमन्ते ] ऐसा परम साहस क रनेके लिये मात्र सम्यग्दृष्टि ही समर्थ हैं ।
भावार्थ : — सम्यग्दृष्टि जीव निःशंकितगुणयुक्त होते हैं, इसलिये चाहे जैसे शुभाशुभ कर्मोदयके समय भी वे ज्ञानरूप ही परिणमित होते हैं । जिसके भयसे तीनों लोकके जीव काँप उठते हैं — चलायमान हो उठते हैं और अपना मार्ग छोड़ देते हैं ऐसा वज्रपात होने पर भी सम्यग्दृष्टि जीव अपने स्वरूपको ज्ञानशरीरी मानता हुआ ज्ञानसे चलायमान नहीं होता। उसे ऐसी शंका नहीं होती कि इस वज्रपातसे मेरा नाश हो जायेगा; यदि पर्यायका विनाश हो तो ठीक ही है, क्योंकि उसका तो विनश्वर स्वभाव ही है ।१५४।

(शार्दूलविक्रीडित)
लोकः शाश्वत एक एष सकलव्यक्त ो विविक्त ात्मन-
श्चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येककः ।
लोकोऽयं न तवापरस्तदपरस्तस्यास्ति तद्भीः कुतो
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१५५।।

श्लोकार्थ : — [एषः ] यह चित्स्वरूप लोक ही [विविक्त ात्मनः ] भिन्न आत्माका (परसे भिन्नरूप परिणमित होनेवाले आत्माका) [शाश्वतः एक : सक ल-व्यक्त : लोक : ] शाश्वत, एक और सक लव्यक्त ( – सर्व क ालमें प्रगट) लोक है; [यत् ] क्योंकि [के वलम् चित्-लोकं ] मात्र चित्स्वरूप लोक को [अयं स्वयमेव एक क : लोक यति] यह ज्ञानी आत्मा स्वयमेव एकाकी देखता है — अनुभव करता है । यह चित्स्वरूप लोक ही तेरा है, [तद्-अपरः ] उससे भिन्न दूसरा कोई लोक — [अयं लोक : अपरः ] यह लोक या परलोक — [तव न ] तेरा नहीं है ऐसा ज्ञानी विचार करता है, जानता है, [तस्य तद्-भीः कु तः अस्ति ] इसलिये ज्ञानीको इस लोकका तथा परलोक क ा भय क हाँसे हो? [सः स्वयं सततं निश्शंक : सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशङ्क वर्तता हुआ सहज ज्ञानका (अपने ज्ञानस्वभावका) सदा अनुभव करता है ।
भावार्थ : — ‘इस भवमें जीवन पर्यन्त अनुकूल सामग्री रहेगी या नहीं ?’ ऐसी चिन्ता रहना इहलोकका भय है । ‘परभवमें मेरा क्या होगा ?’ ऐसी चिन्ताका रहना परलोकक ा भय है । ज्ञानी जानता है कि — यह चैतन्य ही मेरा एक, नित्य लोक है जो कि सदाकाल प्रगट है । इसके अतिरिक्त दूसरा कोई लोक मेरा नहीं है । यह मेरा चैतन्यस्वरूप लोक किसीके बिगाड़े नहीं बिगड़ता । ऐसा जाननेवाले ज्ञानीके इस लोकका अथवा परलोकका भय कहाँसे हो ? कभी नहीं हो सकता । वह तो अपनेको स्वाभाविक ज्ञानरूप ही अनुभव करता है ।१५५।

(शार्दूलविक्रीडित)
एषैकैव हि वेदना यदचलं ज्ञानं स्वयं वेद्यते
निर्भेदोदितवेद्यवेदकबलादेकं सदानाकुलैः ।
नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१५६।।

श्लोकार्थ : — [निर्भेद-उदित-वेद्य-वेदक -बलात् ] अभेदस्वरूप वर्तनेवाले वेद्य -वेदक के बलसे (वेद्य और वेदक अभेद ही होते हैं ऐसी वस्तुस्थितिके बलसे) [यद् एकं अचलं ज्ञानं स्वयं अनाकु लैः सदा वेद्यते] एक अचल ज्ञान ही स्वयं निराकु ल पुरुषोंके द्वारा ( – ज्ञानयोंके द्वारा) सदा वेदनमें आता है, [एषा एक ा एव हि वेदना ] यह एक ही वेदना (ज्ञानवेदन) ज्ञानीयोंके है । (आत्मा वेदक है और ज्ञान वेद्य है ।) [ज्ञानिनः अन्या आगत-वेदना एव हि न एव भवेत् ] ज्ञानीके दूसरी कोई आगत ( – पुद्गलसे उत्पन्न) वेदना होती ही नहीं, [तद्-भीः कु तः ] इसलिए उसे वेदनाका भय क हाँसे हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंक : सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशङ्क वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है ।
भावार्थ : — सुख-दुःखको भोगना वेदना है । ज्ञानीके अपने एक ज्ञानमात्र स्वरूपका ही उपभोग है । वह पुद्गलसे होनेवाली वेदनाको वेदना ही नहीं समझता । इसलिए ज्ञानीके वेदनाभय नहीं है । वह तो सदा निर्भय वर्तता हुआ ज्ञानका अनुभव करता है ।१५६।

(शार्दूलविक्रीडित)
यत्सन्नाशमुपैति तन्न नियतं व्यक्ते ति वस्तुस्थिति-
र्ज्ञानं सत्स्वयमेव तत्किल ततस्त्रातं किमस्यापरैः ।
अस्यात्राणमतो न किंचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१५७।।

श्लोकार्थ : — [यत् सत् तत् नाशं न उपैति इति वस्तुस्थितिः नियतं व्यक्त ा ] जो सत् है वह नष्ट नहीं होता ऐसी वस्तुस्थिति नियमरूपसे प्रगट है । [तत् ज्ञानं किल स्वयमेव सत् ] यह ज्ञान भी स्वयमेव सत् (सत्स्वरूप वस्तु) है (इसलिये नाशको प्राप्त नहीं होता), [ततः अपरैः अस्य त्रातं किं ] इसलिये परके द्वारा उसका रक्षण कैसा ? [अतः अस्य किंचन अत्राणं न भवेत् ] इसप्रकार (ज्ञान निजसे ही रक्षित है, इसलिये) उसका किञ्चित्मात्र भी अरक्षण नहीं हो सकता [ज्ञानिनः तद्-भी कुतः ] इसलिये (ऐसा जाननेवाले) ज्ञानीको अरक्षाका भय क हाँसे हो सकता ? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है।
भावार्थ : — सत्तास्वरूप वस्तुका कभी नाश नहीं होता । ज्ञान भी स्वयं सत्तास्वरूप वस्तु है; इसलिए वह ऐसा नहीं है कि जिसकी दूसरोंके द्वारा रक्षा की जाये तो रहे, अन्यथा नष्ट हो जाये । ज्ञानी ऐसा जानता है, इसलिये उसे अरक्षाका भय नहीं होता; वह तो निःशंक वर्तता हुआ स्वयं अपने स्वाभाविक ज्ञानका सदा अनुभव करता है ।१५७।

(शार्दूलविक्रीडित)
स्वं रूपं किल वस्तुनोऽस्ति परमा गुप्तिः स्वरूपे न य-
च्छक्त : कोऽपि परः प्रवेष्टुमकृतं ज्ञानं स्वरूपं च नुः ।
अस्यागुप्तिरतो न काचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१५८।।

श्लोकार्थ : — [किल स्वं रूपं वस्तुनः परमा गुप्तिः अस्ति ] वास्तवमें वस्तुका स्व-रूप ही (निज रूप ही) वस्तुकी परम ‘गुप्ति’ है, [यत् स्वरूपे कः अपि परः प्रवेष्टुम् न शक्त : ] क्योंकि स्वरूपमें कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता; [च ] और [अकृतं ज्ञानं नुः स्वरूपं ] अकृत ज्ञान( – जो किसीके द्वारा नहीं किया गया है ऐसा स्वाभाविक ज्ञान – ) पुरुषका अर्थात् आत्माका स्वरूप है; (इसलिये ज्ञान आत्माकी परम गुप्ति है ।) [अतः अस्य न काचन अगुप्तिः भवेत् ] इसलिये आत्माकी किंचित्मात्र भी अगुप्तता न होनेसे [ज्ञानिनः तद्-भीः कुतः ] ज्ञानीको अगुप्तिका भय क हाँसे हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है ।
भावार्थ : — ‘गुप्ति’ अर्थात् जिसमें कोई चोर इत्यादि प्रवेश न कर सके ऐसा किला, भोंयरा (तलघर) इत्यादि; उसमें प्राणी निर्भयतासे निवास कर सकता है । ऐसा गुप्त प्रदेश न हो और खुला स्थान हो तो उसमें रहनेवाले प्राणीको अगुप्तताके कारण भय रहता है । ज्ञानी जानता है कि — वस्तुके निज स्वरूपमें कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता, इसलिये वस्तुका स्वरूप ही वस्तुकी परम गुप्ति अर्थात् अभेद्य किला है । पुरुषका अर्थात् आत्माका स्वरूप ज्ञान है; उस ज्ञानस्वरूपमें रहा हुआ आत्मा गुप्त है, क्योंकि ज्ञानस्वरूपमें दूसरा कोई प्रवेश नहीं कर सकता । ऐसा जाननेवाले ज्ञानीको अगुप्तताका भय कहाँसे हो सकता है ? वह तो निःशंक वर्तता हुआ अपने स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपका निरन्तर अनुभव करता है ।१५८।

(शार्दूलविक्रीडित)
प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो
ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिद्यते जातुचित् ।
तस्यातो मरणं न किंचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंक सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१५९।।


श्लोकार्थ : — [प्राणोच्छेदम् मरणं उदाहरन्ति ] प्राणोंके नाशको (लोग) मरण क हते हैं । [अस्य आत्मनः प्राणाः किल ज्ञानं ] निश्चयसे आत्माके प्राण तो ज्ञान है । [तत् स्वयमेव शाश्वततया जातुचित् न उच्छिद्यते ] वह (ज्ञान) स्वयमेव शाश्वत होनेसे उसका क दापि नाश नहीं होता; [अतः तस्य मरणं किंचन न भवेत् ] इसलिये आत्माका मरण किञ्चित्मात्र भी नहीं होता । [ज्ञानिनः तद्- भीः कुतः ] अतः (ऐसा जाननेवाले) ज्ञानीको मरणका भय क हाँसे हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंक : सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है ।
भावार्थ : — इन्द्रियादि प्राणोंके नाश होनेको लोग मरण कहते हैं । किन्तु परमार्थतः आत्माके इन्द्रियादिक प्राण नहीं हैं, उसके तो ज्ञान प्राण हैं । ज्ञान अविनाशी है — उसका नाश नहीं होता; अतः आत्माको मरण नहीं है । ज्ञानी ऐसा जानता है, इसलिये उसे मरणका भय नहीं है; वह तो निःशंक वर्तता हुआ अपने ज्ञानस्वरूपका निरन्तर अनुभव करता है ।१५९।

(शार्दूलविक्रीडित)
एकं ज्ञानमनाद्यनन्तमचलं सिद्धं किलैतत्स्वतो
यावत्तावदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः ।
तन्नाकस्मिकमत्र किंचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१६०।।

श्लोकार्थ : — [एतत् स्वतः सिद्धं ज्ञानम् किल एकं ] यह स्वतःसिद्ध ज्ञान एक है, [अनादि ] अनादि है, [अनन्तम् ] अनन्त है, [अचलं ] अचल है । [इदं यावत् तावत् सदा एव हि भवेत् ] वह जब तक है तब तक सदा ही वही है, [अत्र द्वितीयोदयः न ] उसमें दूसरेका उदय नहीं है । [तत् ] इसलिये [अत्र आकस्मिकम् किंचन न भवेत् ] इस ज्ञानमें आकस्मिक कुछ भी नहीं होता । [ज्ञानिनः तद्-भीः कुतः ] ऐसा जाननेवाले ज्ञानीको अक स्मात्का भय कहाँसे हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है ।
भावार्थ : — ‘यदि कुछ अनिर्धारित अनिष्ट एकाएक उत्पन्न होगा तो ?’ ऐसा भय रहना आकस्मिकभय है । ज्ञानी जानता है कि — आत्माका ज्ञान स्वतःसिद्ध, अनादि, अनंत, अचल, एक है । उसमें दूसरा कुछ उत्पन्न नहीं हो सकता; इसलिये उसमें कुछ भी अनिर्धारित कहाँसे होगा अर्थात् अकस्मात् कहाँसे होगा ? ऐसा जाननेवाले ज्ञानीको आकस्मिक भय नहीं होता, वह तो निःशंक वर्तता हुआ अपने ज्ञानभावका निरन्तर अनुभव करता है ।

इसप्रकार ज्ञानी को सात भय नहीं होते ।
प्रश्न : — अविरतसम्यग्दृष्टि आदिको भी ज्ञानी कहा है और उनके भयप्रकृतिका उदय होता है तथा उसके निमित्तसे उनके भय होता हुआ भी देखा जाता है; तब फिर ज्ञानी निर्भय कैसे है ?

समाधान : — भयप्रकृतिके उदयके निमित्तसे ज्ञानीको भय उत्पन्न होता है । और अन्तरायके प्रबल उदयसे निर्बल होनेके कारण उस भयकी वेदनाको सहन न कर सकनेसे ज्ञानी उस भयका इलाज भी करता है । परन्तु उसे ऐसा भय नहीं होता कि जिससे जीव स्वरूपके ज्ञानश्रद्धानसे च्युत हो जाये । और जो भय उत्पन्न होता है वह मोहकर्मकी भय नामक प्रकृतिका दोष है; ज्ञानी स्वयं उसका स्वामी होकर कर्ता नहीं होता, ज्ञाता ही रहता है । इसलिये ज्ञानीके भय नहीं है ।१६०।
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