डॉ. वीरसागर जी के लेख

13. जैन दर्शन की विशेषता :arrow_up:

विश्व के सभी धर्म-दर्शनों में जैन दर्शन का विशेष स्थान है | जैन दर्शन की प्रकृति को समझने-समझाने के लिए यहाँ हम उसकी कतिपय प्रमुख विशेषताओं को अति संक्षेप में लिखने का प्रयास करते हैं, ताकि उन्हें एक दृष्टि में आसानी से समझा जा सके | यद्यपि एक-एक विशेषता को स्पष्ट करने के लिए एक-एक विस्तृत निबन्ध की आवश्यकता है, किन्तु अभी संक्षेप में ही कुछ कहने का उद्यम करते हैं | यथा –

  1. प्राचीनता– अनेकानेक प्रमाणों से यह भलीभांति सिद्ध होता है कि जैन दर्शन विश्व का सबसे प्राचीन दर्शन है | इसे प्राचीन काल में श्रमण, निगंठ, निर्ग्रन्थ, आर्हत, दिगम्बर आदि अनेक नामों से भी जाना जाता था | संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद माना जाता है, किन्तु उसमें भी ऋषभदेवादि जैन तीर्थंकरों का अनेक बार उल्लेख मिलता है – इससे सिद्ध होता है कि जैन दर्शन वेदों से भी पूर्व विद्यमान था | इसके अतिरिक्त इतिहास, पुरातत्त्व आदि के साक्ष्यों से भी जैन धर्म की अत्यधिक प्राचीनता सिद्ध होती है | रामधारीसिंह ‘दिनकर’ ने भी अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में पृष्ठ 147 पर स्पष्ट लिखा है कि ‘‘वेदोल्लिखित होने पर भी ऋषभदेव वेदपूर्व परम्परा के प्रतिनिधि हैं |’’
  2. व्यापकता– अनेक शोधार्थियों ने सिद्ध किया है कि जैन दर्शन केवल भारतवर्ष में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कोने-कोने में व्याप्त रहा है | यह बात अलग है कि आज वह किन्हीं प्राकृतिक/राजनीतिक/सामाजिक आदि अनेक कारणों से बहुत सीमित रह गया है; किन्तु आज भी हमें जर्मनी, जापान, यूनान, इंडोनेशिया, कम्बोडिया, श्रीलंका, तिब्बत आदि सैंकड़ों देशों में जैन धर्म के अस्तित्व के प्रमाण उपलब्ध होते हैं | इस विषय में जिनेश्वर दास जैन की पुस्तक ‘भारत के बाहर जैन पुरातत्त्व’ (jainism abroad) पठनीय है |
  3. उदारता– जैन दर्शन भाषा, जाति, लिंग, क्षेत्र, वेश, पूजापद्धति आदि के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की कोई कट्टरता या संकीर्णता की बात नहीं करता | वह अत्यंत उदार है – ‘‘सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधि: |यत्र सम्यक्त्वहानिर्न न चापि व्रतदूषणम् ||’’ (यशस्तिलकचम्पू) यही कारण है कि जैन धर्म का पालन कोई भी मनुष्य कर सकता है, यहाँ तक कि कोई पशु-पक्षी भी | उदार होने के कारण जैन धर्म का पालन अत्यंत सरल भी है | इस विषय में मेरा एक अन्य लेख पठनीय है – ‘अत्यंत सरल है जैन धर्म’ | जैनाचार्यों की भाषिक उदारता को समझने के लिए भी मैंने एक स्वतंत्र निबन्ध लिखा है -‘जैनाचार्यों का भाषादर्शन’ |
  4. व्यावहारिकता – जैन दर्शन एक अत्यंत व्यावहारिक दर्शन है | वह केवल सिद्धांत मात्र नहीं है, उसे जीवन में सहजतापूर्वक उतारा भी जा सकता है | इसी प्रकार उससे केवल मोक्ष की ही प्राप्ति नहीं होती, अपितु व्यक्ति का लौकिक जीवन भी मंगलमय होता है | वह उभय लोक सुखकारी है | व्यक्ति का ही नहीं, समाज और राष्ट्र का भी परम हित होता है, उसकी हर समस्या का समाधान भी प्राप्त होता है | यही कारण है कि जैन दर्शन हर क्षेत्र और हर काल में प्रासंगिक सिद्ध होता है | इस विषय में मेरा एक स्वतंत्र निबन्ध पठनीय है – ‘जैन दर्शन की व्यावहारिकता’ |
  5. समृद्धता – साहित्य, कला आदि अनेक दृष्टियों से जैन संस्कृति जितनी समृद्ध है, उतनी शायद अन्य कोई नहीं है | जैन साहित्य के विषय में ही देखा जाए तो ज्ञात होता है कि ज्ञान-विज्ञान के लगभग सभी विषयों पर जैन आचार्यों के ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं | इसी प्रकार साहित्य की लगभग हर विधा में ही अनगिनत जैन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं | इस विषय पर भी मेरा एक स्वतंत्र निबन्ध पठनीय है– ‘जैन विद्या की व्यापकता’ | साहित्य की भांति कला की दृष्टि से भी जैन संस्कृति अत्यंत समृद्ध है | कला में भी विविधता और गुणवत्ता– दोनों ही दृष्टियों से जैन संस्कृति अद्भुत है, किन्तु यह विषय मूर्तिकला, चित्रकला, संगीतकला आदि सभी पर पृथक्-पृथक् विचार करने पर ही ठीक से समझ में आ सकता है |
  6. वैज्ञानिकता– जैन दर्शन कोई अन्ध श्रद्धा या प्राचीन अतार्किक आस्थाओं पर टिका हुआ नहीं है, अपितु आधुनिक विज्ञान से बहुत अधिक मेल खाता है | यद्यपि उसकी सभी बातें सर्वथा ही आधुनिक विज्ञान से मेल नहीं खाती हैं, परन्तु काफी हद तक उसके आचार एवं विचार – दोनों ही पक्ष आधुनिक विज्ञान द्वारा निरंतर पुष्ट या समर्थित किये जा रहे हैं | इस विषय पर आज अनेक विद्वानों के ग्रन्थ/शोधग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं, जिनमें से अग्रलिखित विशेष उल्लेखनीय हैं – जैनदर्शन और आधुनिक विज्ञान (मुनि नगराज), कॉस्मोलोजी ओल्ड एंड न्यू (प्रो.जी.आर.जैन), विश्व-प्रहेलिका (मुनि महेंद्रकुमार), जैनधर्म में विज्ञान (नारायणलाल कछारा), इत्यादि |
  7. व्यक्तिवादी नहीं, वस्तुवादी – जैन दर्शन के वैज्ञानिक होने का सबसे बड़ा कारण यह है कि वह किसी व्यक्ति या ग्रन्थ विशेष पर आधारित नहीं है, अपितु नितांत वस्तुवादी है | उसकी स्पष्ट घोषणा है– “वत्थु सहावो धम्मो” | यही कारण है कि जैन धर्म के णमोकार आदि महामंत्रों में भी किसी व्यक्ति विशेष को नमस्कार नहीं किया गया है, अपितु गुणों को ही नमस्कार किया गया है | जैन दर्शन के अनुसार जो भी व्यक्ति राग-द्वेषादि विकारी भावों से रहित हो जाता है, वही प्रणम्य है |
  8. परीक्षाप्रधानी - जैन दर्शन के वैज्ञानिक होने का एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि वह किसी अंधश्रद्धा पर आधारित नहीं है, अपितु बड़ा ही परीक्षाप्रधानी है | वह हर बात को स्वयं युक्ति से परीक्षा करके मानने की स्पष्ट सलाह देता है, चाहे वह कोई भी कहता हो | यहाँ तक कि भगवान को भी परीक्षा करके ही मानने की बात कहता है | इस विषय में आचार्य समन्तभद्र कृत ‘आप्तमीमांसा’, आचार्य विद्यानंद कृत ‘आप्तपरीक्षा’ आदि ग्रन्थ विशेष रूप से पठनीय हैं |
  9. अकर्तावादी – दुनिया के प्राय: सभी धर्म-दर्शन अपने भगवान या ईश्वर को सृष्टि का कर्ता-धर्ता-हर्ता मानते हैं, किन्तु जैन दर्शन बड़ा ही अकर्तावादी दर्शन है | वह भगवान को सृष्टि का कर्ता-धर्ता-हर्ता नहीं मानता, अपितु मात्र ज्ञाता-द्रष्टा एवं पूर्ण वीतराग मानता है | जैन दर्शन के अनुसार यह सृष्टि अपने व्यवस्थित वैज्ञानिक नियमों से स्वतः संचालित है, इसका कोई भी ईश्वरादि कर्ता-धर्ता-हर्ता नहीं है | जैन दर्शन के अनुसार तो ईश्वर ही क्या, कोई भी एक पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ का कर्ता-धर्ता-हर्ता नहीं है | सभी पदार्थ स्वतंत्र सम्प्रभुतासम्पन्न हैं |
  10. स्वतन्त्रतावादी – कहा जा चुका है कि जैन दर्शन के अनुसार जगत के सभी पदार्थ स्वतंत्र सम्प्रभुतासम्पन्न हैं; कोई भी एक पदार्थ किसी भी दूसरे पदार्थ का कर्ता-धर्ता-हर्ता नहीं है | इससे ज्ञात होता है कि जैन दर्शन स्वतन्त्रता के सर्वोच्च प्रतिमानों पर स्थित है |लोग जनतंत्र या गणतन्त्र की बात करते हैं,पर जैन दर्शन कणतन्त्र की बात करता है, जगत के कण-कण को स्वतन्त्र या स्वाधीन मानता है | मानवाधिकार ही नहीं, उससे आगे बढ़कर जीवाधिकार की बात करता है | जीवाधिकार भी क्या, पदार्थाधिकार की बात करता है, प्रत्येक पदार्थ को स्वतंत्र/स्वाधीन बताकर उसमें दखलंदाजी को अनुचित मानता है |
  11. पूर्ण वीतरागतावादी - जैन दर्शन द्वेष भाव को तो त्याज्य मानता ही है, जोर देकर राग भाव को भी त्याज्य ही कहता है | वह किंचित् भी राग भाव को हितकर नहीं बताता, अपितु बारम्बार जोर देकर कहता है कि द्वेष की भांति राग भी दुःखरूप एवं हेय है |यहाँ तक कि राग ही द्वेष का मूल कारण बनता है, अत: सम्पूर्ण रागादि को छोडकर पूर्ण वीतराग बनना चाहिए | जो पूर्ण वीतराग है, वही शुद्धात्मा है, सिद्धात्मा है, परमात्मा है | जिसमें किंचित् भी राग-द्वेष है, वह शुद्धात्मा,परमात्मा या भगवान नहीं हो सकता |
  12. अहिंसावादी– अहिंसा यद्यपि सभी धर्म-दर्शनों में पाई जाती है, किन्तु एक तो अन्य धर्म येन केन प्रकारेण जाने-अनजाने में हिंसा का समर्थन कर बैठते हैं, जबकि जैन धर्म कथमपि हिंसा का समर्थन नहीं करता, दूसरे- जैन दर्शन अहिंसा की जैसी सूक्ष्म व्याख्या करता है, वैसी अन्य कोई नहीं करता | लोक में कोई मानता है कि जीवों को मारना-सताना हिंसा है, कोई उससे आगे बढ़कर कहता है कि जीवों को मारने-सताने का मन में भाव करना भी हिंसा है और कोई उससे आगे बढकर कहता है कि किसी से किंचित् भी घृणा, ईर्ष्या, वैर आदि का भाव रखना भी हिंसा है, किन्तु जैन दर्शन और भी आगे बढ़कर कहता है कि किसी से किंचित् राग भाव रखना भी हिंसा है | राग ही हिंसा का मूल है |
  13. अनेकांतवादी – अनेकान्तवाद या स्याद्वाद जैन दर्शन की सबसे बड़ी - प्राणभूत विशेषता है | इसके अनुसार प्रत्येक विषय/पदार्थ अनेक विरोधी धर्मों का समुदाय होता है | अत: यदि हमें उसका पूरा ज्ञान करना हो तो हमेशा बात के अपर पक्ष का भी ध्यान रखना चाहिए, अन्यथा पूर्ण ज्ञान नहीं होगा, अज्ञान रह जाएगा और वह कलह का कारण बनेगा | जैसे – एक बार एक ग्राम में पहली बार एक हाथी आया | सर्वत्र कौतुहल मच गया | सब लोग उसे देखने गये | छह जन्मान्ध मित्र भी गये | उन्होंने उसे अपने हाथों से छूकर देखा | किन्तु देखने के बाद वे झगड़ने लगे | एक बोला– हाथी खम्भे जैसा होता है, दूसरा बोला– हाथी दीवार जैसा होता है, तीसरा बोला– हाथी रस्सी जैसा होता है,चौथा बोला– हाथी सूप जैसा होता है,पांचवां बोला – हाथी भाले जैसा होता है, छठा बोला – हाथी कदलीस्तम्भ जैसा होता है | तब उन्हें किसी चक्षुष्मान व्यक्ति ने ठीक से पूरी बात समझाई और तब उनका विवाद समाप्त हुआ | जैन दर्शन का अनेकान्तवाद भी इसीप्रकार सर्व विवादों का समाधान करता है | यदि व्यक्ति अनेकान्तवादी न बने तो आतंकवादी बन जाएगा |
  14. अपरिग्रहवादी – जैन दर्शन पूर्ण सुखी एवं मुक्त होने के लिए जिसप्रकार समस्त रागात्मक भावों का भी त्याग आवश्यक मानता है, उसीप्रकार समस्त परिग्रह का भी त्याग आवश्यक मानता है | परिग्रह ही अशांति का मूल कारण है | यही कारण है कि जैन साधु पूर्णत: नग्न दिगम्बर रहते हैं | तथा जैन दर्शन का एक प्राचीन मूल नाम ‘दिगम्बर’ भी प्रचलित रहा है | यथा – ‘श्रमणा: दिगम्बरा:’ इत्यादि |
  15. पुरुषार्थवादी - जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का विकास और विनाश उसके स्वयं के ही हाथ में है, अत: वह सुखी होने के लिए किसी अन्य के या भाग्य आदि के भरोसे बैठने को मना करता है और स्वयं को ही पुरुषार्थ करने की विशेष प्रेरणा देता है |
  16. राष्ट्रवादी – जैन दर्शन एक राष्ट्रवादी दर्शन है | वह अपने राष्ट्र एवं उसके सभी नीति-नियमों, ध्वज, प्रतीकों आदि का पूर्ण सम्मान करता है | उनके विरुद्ध कभी कुछ नहीं करता-कहता | राष्ट्रिय संविधान के प्रति गहरी आस्था रखता है, राजकीय नियमों का पालन करता है और सदा ही, पूजा-पाठ आदि में भी पूरे राष्ट्र के सर्वविध हित की कामना करता है | कहता है – ‘‘सम्पूजकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्रसामान्यतपोधनानां, देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञ: करोतु शान्तिं भगवान् जिनेन्द्र ||’’ अथवा ‘‘अयं मे भारतं राष्ट्रं, यत्र” आदि |
  17. निवृत्तिप्रधान – विद्वानों ने भारतीय दर्शनों को प्रवृत्ति और निवृत्ति – इन दो धाराओं में विभक्त कर जैन दर्शन को एक निवृत्तिप्रधान दर्शन कहा है, क्योंकि उसका मुख्य लक्ष्य पूर्ण निवृत्ति ही है | यदि क्वचित् कदाचित् वह किसी प्रवृत्ति का उपदेश देता है तो वह भी वस्तुतः निवृत्ति के लिए ही होता है | जैन दर्शन को शुभ और अशुभ सभी प्रवृत्तियों से निवृत्त होना ही अभीष्ट है |
  18. आध्यात्मिकता - जैन दर्शन एक उच्च कोटि का आध्यात्मिक दर्शन है | विद्वानों का मानना है कि भारतवर्ष में जितना भी अध्यात्म है वह जैन आचार्यों की ही देन है, जैसा कि डॉ. मंगलदेव शास्त्री ने भी लिखा है | यथा - ‘‘हमारे देश के अध्यात्मशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र का मुख्य आधार ये ही द्वितीय पक्ष (निवृत्ति/मुनि पक्ष ) की धारणाएँ हैं | ये धारणाएँ अवैदिक हैं – यह सुनकर हमारे अनेक भाई चौंक उठेंगे, किन्तु हमारे मत में वस्तुस्थिति यही दीखती है|…भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिकता, त्याग और अपरिग्रह की भावना, पारलौकिक भावना, अहिंसावाद जैसी प्रवृत्तियों की जड़ जिनके वास्तविक और संयतरूप का हमें गर्व हो सकता है, हमको वैदिक संस्कृति की तह से नीचे तक जाती हुई मिलेगी |’’ –भारतीय संस्कृति का विकास,पृष्ठ 16-20
  19. आदेश नहीं, उपदेश– जैन दर्शन की एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि वह कोई आदेश (फतवा) नहीं देता, अपितु मात्र उपदेश ही देता है | कोई मानो या न मानो, वह कोई जबरदस्ती नहीं करता | उपदेश भी क्या, वह तो निर्देश ही देना पसंद करता है | योग्य शिष्य को निर्देश ही पर्याप्त है | आदेशों से धर्म नहीं होता | आदेश से देनेवाले को भी अन्तराय आदि कर्मों का बंध होता है | निर्देश या उपदेश की शैली कुछ इस प्रकार की होती है – “बंधे विषय-कषाय से, छूटे ज्ञान-विराग | इनमें जो अच्छा लगे, ताहि मारग लाग ||”
  20. नयव्यवस्था – जैन दर्शन की एक महती विशेषता इसकी नयव्यवस्था है जो संसार के अन्य किसी धर्म-दर्शन में नहीं पाई जाती | अपनी इस नयव्यवस्था के द्वारा जैन दर्शन प्रत्येक विषय को और उसमें उपस्थित विवाद को बड़ी ही कुशलता से सुलझा देता है | यह विषय बड़ा ही गूढ़-गम्भीर है, जिसे स्पष्ट करने का यहाँ अवकाश नहीं है | नय के निश्चय-व्यवहार या द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक आदि अनेक भेद हैं |
  21. पर्यावरणवादी (eco-friendly) – जैन दर्शन पर्यावरणवादी भी है | दुनिया के अनेक सम्प्रदायों में ऐसी-ऐसी अनेक क्रियाएँ की जाती हैं जिनसे पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुंचता है, किन्तु जैन दर्शन ऐसी सर्व क्रियाओं से दूर रहता है | उसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति की भी किंचित् भी विराधना न करने का बारम्बार उपदेश दिया गया है |

सन्दर्भ–

  1. जैन धर्म की प्राचीनता – संजय जैन, विश्व जैन संगठन, श्रुत संवर्धन संस्थान, मेरठ
  2. जैन धर्म – पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, श्रुत संवर्धन संस्थान, मेरठ
  3. प्रागैतिहासिक-प्राग्वैदिक जैन धर्म और उसके सिद्धांत – पं. नाथूलाल शास्त्री, जैन युवक संघ, इंदौर
  4. विश्व धर्म की रूपरेखा – आचार्य विद्यानंद, वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति, इंदौर
  5. सर्वोदयी जैनधर्म और उसकी मौलिकता पर लोकमत–ज्ञानचंद खिंदुका, दि.जैन महासमिति, जयपुर
  6. भारतीयसंस्कृति के विकासमें जैनों का योगदान–डॉ.प्रेमचन्द रांवका, राज. जैनसाहित्यपरिषद, जयपुर
  7. भारतीयसंस्कृति के विकासमें जैनधर्म का योगदान–डॉ.हीरालाल जैन, म.प्र.साहित्यपरिषद, भोपाल
  8. संस्कृतकाव्य के विकास में जैनकवियों का योगदान–डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, नईदिल्ली
  9. श्रमण संस्कृति और वैदिक व्रात्य –प्रो. फूलचन्द्र जैन प्रेमी, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
  10. हिमालय में भारतीय संस्कृति –विश्वम्भरसहाय प्रेमी,मेरठ
  11. संस्कृति के चार अध्याय – रामधारीसिंह दिनकर, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
  12. भारत और मानव संस्कृति –विश्वम्भरनाथ पांडे, प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय,भारत
  13. जैन धर्म में विज्ञान –नारायण लाल कछारा, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
  14. जैनधर्म परिचय – वृषभप्रसाद जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
  15. भारतीय दर्शन –वाचस्पति गैरोला,
  16. भारतीय संस्कृति का विकास – डॉ.मंगलदेव शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
  17. ब्राह्मण तथा श्रमण संस्कृतियों का दार्शनिक विवेचन – डॉ. जगदीशदत्त दीक्षित
  18. जैन धर्म का इतिहास (तीन भाग) – कैलाशचन्द्र जैन जयपुर, डी के प्रिंटवर्ल्ड, बालीनगर, नईदिल्ली
  19. भारत के बाहर जैन पुरातत्त्व – डॉ.जिनेश्वर दास जैन, श्री भा. दि. जैन महासभा, नई दिल्ली
  20. जैन धर्म की विश्वव्यापकता – डॉ. एन. सुरेश कुमार, मैसूर विश्वविद्यालय (अनेकांत, सितम्बर 2016)
  21. जैन संस्कृति के विस्मृत केंद्र : अंडमान-निकोबार द्वीप –प्रो. राजाराम जैन (जैनबोधक,अक्टूबर 2016)
  22. जैनधर्म : प्राचीन स्वतंत्र धर्म–पं. महावीर प्रसाद शास्त्री (श्रीमहावीरजी सहस्राब्दी समारोह स्मारिका)
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