डॉ. वीरसागर जी के लेख

3. जैन दर्शन की उदारता :arrow_up:

जैन दर्शन अपने स्वभाव से ही उदार है, ऊपर से जैनाचार्यों ने भी इसे जन-जन तक पहुंचाने के लिए विशेष उदारता का परिचय दिया है | इसप्रकार जैन दर्शन एक अत्यंत ही उदार दर्शन बन गया है, अतः उसे समझने-समझाने के लिए हमें भी अत्यंत उदार बनना आवश्यक है, संकीर्ण रहकर उसे कथमपि नहीं समझा- समझाया जा सकता |

खेद है कि आजकल इसे समझाने वाले अनेक विद्वान् तक भी अत्यंत संकीर्ण दिखाई देते हैं | यही कारण है कि लोग जैन धर्म-दर्शन को ठीक से समझ नहीं पा रहे हैं और उसके अनुयायियों की संख्या भी दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है | आवश्यकता है एक सच्चे उदार प्रवक्ता की, जो उदारतापूर्वक जैन दर्शन को समझ सके और फिर उसे जन-जन तक भी कुशलतापूर्वक पहुंचा सके | समन्तभद्र, हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने ठीक ही लिखा है कि यदि कोई योग्य वक्ता मिल जाए तो आज भी सारे विश्व में जैन दर्शन का साम्राज्य हो सकता है- ‘त्वच्छासनस्य साम्राज्यमेकच्छत्रं कलावपि’ |
जैन दर्शन की उदारता को समझने के लिए कतिपय निम्नलिखित विषय गम्भीरतापूर्वक विचारणीय हैं-

  1. जैन दर्शन किसी व्यक्ति-विशेष पर आधारित नहीं है- शैव, वैष्णव, बौद्ध, ईसाई आदि की भांति; अपितु ‘जिन’ पर आधारित है और ‘जिन’ किसी व्यक्ति-विशेष का नाम नहीं है, अपितु जो भी व्यक्ति अपने कर्मशत्रुओं को जीते वही जिन है| ‘जयति कर्मारातीन् स जिनः’ |

  2. जैन दर्शन के अन्य सब नाम भी इसी प्रकार के हैं- जिन, जैन, श्रमण, निर्ग्रन्थ, दिगम्बर, आर्हत् आदि |

  3. जैन दर्शन अत्यंत स्पष्ट रूप से बारम्बार कहता है कि व्यक्ति कोई भी हो, उसका ऊपरी नाम-ग्राम आदि कुछ भी हो, परन्तु यदि वह वीतरागी सर्वज्ञ और सर्वसत्त्वहितोपदेशी है, तो वही पूज्य है । यथा- मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् … / भवबीजांकुरजनना: रागाद्या / पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु … / जिसने राग-द्वेष - कामादिक जीते सब जग जन लिया…बुद्ध वीर जिन हरि हर ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो।

  4. जैनाचार्यों ने वीतराग, सर्वज्ञ और सर्वसत्त्वहितोपदेशी जीव को ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश, बुद्ध आदि सिद्ध करके उन नामों से भी पूजा है ।| यथा- ‘बुद्धस्त्वमेव त्वं शंकरोsसि… धाताsसि… पुरुषोत्तमोsसि’।

  5. जैनाचार्यों ने वेद, पुराण आदि शब्दों का भी समीचीन अर्थ करके उनकी प्रशंसा की है | यथा- ‘यो गीयते वेद पुराण शास्त्र यः स देव देवो हृदये ममास्ताम्’।

  6. जैनाचार्यों ने अपने दर्शन को किसी एक जाति, सम्प्रदाय आदि के लिए न बताकर उसे ‘सर्वोदय’ तीर्थ कहा है | यथा- ‘सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव’ (युक्त्यनुशासन) जातिलिंगविकल्पेन येषां च समयाग्रहः’।

  7. जैन दर्शन दशलक्षण आदि को महापर्व मानता है जो सार्वजनिक, सार्वकालिक और सार्वभौमिक हैं | उनकी सीमा किसी एक देश, जाति, लिंग, वर्ण, सम्प्रदाय आदि तक सीमित नहीं है ।

  8. जैन दर्शन का णमोकार महामंत्र भी ऐसा ही अत्यंत उदार है, जिसमें न कोई व्यक्तिवाद है, न ही किसी प्रकार की कोई याचना-कामना है - 'णमो अरिहंताणं … णमो लोए सव्व साहूणं।

  9. जैन दर्शन में धर्म की परिभाषा भी अत्यंत उदार समझाई गई है- ‘वत्थुसहावो धम्मो’ (कार्तिकेयानुप्रेक्षा) अथवा ‘धम्मो मंगलमुद्दिट्टं अहिंसा संजमो तवो’| तात्पर्य यही है कि जैन दर्शन व्यक्तिवादी नहीं, गुणवादी है, वस्तुवादी है।

  10. जैन दर्शन परीक्षा-प्रधानी है, विज्ञान के समान है वहां सही बात सही है, चाहे हमारा दुश्मन ही कहे और गलत बात गलत है, चाहे हमारा पिता ही कहे।

  11. जैन दर्शन में अन्य धर्मों, देवों, जातियों, सभाओं आदि की निन्दा करने का स्पष्ट शब्दों में निषेध किया है ‘धम्म सभा…’ -सुदृष्टितरंगिणी, यहाँ तक कि अन्य धर्म आदि और उसके अनुयायियों के प्रति भी मधुर सम्बन्ध रखने का उपदेश दिया है- ‘यथा स्वं दनामानाद्यै…’ -यशस्तिलक।

  12. जैन दर्शन में किसी एक भाषा विशेष का ही आग्रह नहीं है कि यह एक अमुक भाषा ही दैवी, पवित्र या ईश्वरीय भाषा है और इसके अतिरिक्त अन्य सर्व भाषाएँ भ्रष्ट, अपवित्र एवं हेय हैं; अपितु वह तो जोर देकर कहता है कि ‘सर्व भाषा सरस्वती’ (कातन्त्र)] इस सम्बन्ध में मेरा अन्य निबन्ध ‘जैनाचार्यों का भाषा- दर्शन’ पठनीय है।

  13. जैन दर्शन में किसी प्रकार की ड्रेस कोड, छापा-तिलक, चोटी, दाड़ी, पगड़ी, जनेऊ, कटार, कड़ा, टाई, कुर्ता, धोती, खडाऊं आदि की कट्टरता भी नहीं है (सलवार-कुर्ता पहनकर भी आर्यिका हो सकती है |)

  14. जैन दर्शन में धार्मिक क्रियाओं में भी कोई सांचे जैसा कट्टर आग्रह नहीं है कि यही करना अनिवार्य है अथवा इसे ऐसे ही करना अनिवार्य है अपितु भिन्न-भिन्न साधक अपनी-अपनी शक्ति और परिस्थिति के अनुसार उनका पालन कर सकते हैं | जैन दर्शन प्रत्येक देश-काल के अनुकूल सिद्ध होता है।

  15. जैन दर्शन में सभी आत्माओं को समान, स्वतंत्र माना गया है, यहाँ तक कि प्रत्येक आत्मा को परमात्मा बनने का अधिकार बताया गया है - ‘अप्पा सो परमप्पा’।

  16. जैन दर्शन में चोर, भील, चांडाल क्या, सर्प, सिंह, गज आदि को भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का अधिकार बताया गया है- ‘सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहजम्’ जैन धर्म दलितोद्धारक/पतितोद्धारक है। पंडित आशाधरजी का एक और महत्वपूर्ण श्लोक है- ‘जिनधर्मं जगद्बंधुमनुबद्धुमपत्यवत्’ – जिनधर्म जगतबन्धु है, पुत्रवत उसकी रक्षा करता है (सत्त्वेषु मैत्री…)।

  17. जैन दर्शन में कहा गया है कि निर्गुण अर्थात् नामधारी जैन भी स्नेहपूर्वक अपनाने योग्य है, उसकी भी कभी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए। यथा- ‘सगुण: निर्गुण वापि जैन: पात्रायते तराम् नावज्ञा क्रियते यस्मात्तन्मूला धर्मवर्तना |’ ( - सागार धर्मामृत )। अनेक विद्वानों ने भी इसकी व्याख्या इसप्रकार की है मत ठुकराओ, गले लगाओ, धर्म सिखाओ। हमेशा सुई-धागे का काम करो, कैंची का नहीं। परिष्कार करो, बहिष्कार नहीं। प्रभावना प्रकाश के समान है, उसमें हर टिमटिमाते का योगदान होता है।

  18. इसीप्रकार का एक और भी बहुत महत्त्वपूर्ण कथन जैनाचार्यों ने यह किया है कि -
    “उच्चावचजनप्राय: समयोऽयं जिनेशिनाम्
    नैकस्मिन् पुरुषे तिष्ठेदेकस्तम्भइवालय: ||" (- यशस्तिलक चम्पू ) अर्थात् जिनशासन एक ऐसे विशाल महल के समान है, जो किसी एक ही स्तम्भ पर नहीं टिका हुआ है अपितु छोटे-बड़े असंख्य स्तम्भ लगे हैं |

  19. जैन दर्शन में यह भी कहा गया है कि जिससे आपके सम्यक्त्व और व्रत दूषित न हो, वह समस्त लोकाचार उपादेय है | यथा- 'सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधि: | यत्र सम्यक्त्वहानिर्न न चापि व्रतदूषणम्॥ (-यशस्तिलकचम्पू )

  20. जैन दर्शन में यह भी बार-बार कहा गया है कि आप अपनी शक्ति-अनुसार ही सब कुछ करो, जबरदस्ती से कुछ भी मत करो, चाहे अणु-समान ही करो (‘अणुव्रत’) | यथा- जं सक्कदि तं…।

  21. जैन दर्शन, केवल श्रमण बनकर ही धर्म साधना होगी -ऐसा नहीं कहता, अपितु उसमें श्रावक धर्म का भी विधान किया गया है |

  22. जैन दर्शन केवल निश्चय नय को ही नहीं मानता , व्यवहार नय को भी मानता है दोनों नयों से ही कार्य सिद्धि मानता है स्पष्ट कहता है कि- ‘जइ जिणमयं पवज्जह तो मा ववहारणिच्छह मुयह…।’

  23. जैन दर्शन उभय लोक सुखकारी है उसमें धर्म, अर्थ , काम, मोक्ष - सभी का उपदेश है । यथा- 'कामदं मोक्षदं देवं/ 'धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण/ ‘भुक्ति-मुक्ति दातार’।

  24. जैन ग्रन्थों में केवल धर्म, दर्शन, अध्यात्म ही नहीं है, अपितु न्याय, व्याकरण, पुराण, इतिहास, गणित, ज्योतिष, भूगोल, खगोल, अर्थ, समाज, राजनीति आदि विविध विषय वर्णित हैं ।

  25. जैन दर्शन में स्याद्वाद जैसा अद्भुत सिद्धांत है, जो सर्व विरोधों को समाप्त करता है | इसी के कारण जैन दर्शन कभी किसी कथन का खंडन नहीं करता, मात्र उस कथन की समीचीन अपेक्षा समझाता है।

उदारता का गलत अर्थ ग्रहण न करें |
"हमें विचारों में उदार और चरित्र में कट्टर होना चाहिए, परन्तु खेद है कि आज हम चरित्र में उदार और विचार में कट्टर हो गये हैं |"

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