डॉ. वीरसागर जी के लेख

14. जैन धर्म की प्राचीनता :arrow_up:

‘‘तापसा भुंजते चापि श्रमणाश्चैव भुंजते |’’ –वाल्मीकि रामायण,बालकाण्ड, सर्ग 14, श्लोक 22

‘‘नाहं रामो न मे वांछा भावेषु च न मे मन: | शान्तमास्थातुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा ||’’ - योगवाशिष्ठ,15

“सन्तुष्टा करुणा मैत्रा शान्ता दांतास्तितिक्षव: | आत्मारामा समदृश: प्रायश: श्रमणा जना: || -भागवत 12/3/19

‘‘भारतीय विचारधारा हमें अनादि काल से ही दो रूपों में विभक्त मिलती है | पहली विचारधारा परम्परामूलक ब्राह्मण या ब्रह्मवादी रही है जिसका विकास वैदिक साहित्य के बृहद रूप में प्रकट हुआ है | दूसरी विचारधारा पुरुषार्थमूलक प्रगतिशील, श्रामण्य या श्रमणप्रधान रही है | दोनों विचारधाराएं एक-दूसरे की प्रपूरक रही हैं और विरोधी भी | … श्रमण विचारधारा के जनक थे जैन |’’ –वाचस्पति गैरोला, भारतीय दर्शन, पृष्ठ 86

‘‘श्रमण संस्कृति का प्रवर्तक जैन धर्म प्रागैतिहासिक धर्म है |…मोहनजोदड़ो से उपलब्ध ध्यानस्थ योगियों की मूर्तियों की प्राप्ति से जैन धर्म की प्राचीनता निर्विवाद सिद्ध होती है |वैदिक युग में व्रात्यों और श्रमण ज्ञानियों की परम्परा का प्रतिनिधित्व भी जैन धर्म ने ही किया |धर्म, दर्शन, संस्कृति और कला की दृष्टि से भारतीय इतिहास में जैन धर्म का विशेष योग रहा है |’’ –वाचस्पति गैरोला, भारतीय दर्शन, पृष्ठ 93

यूनानी इतिहास से पता चलता है कि ईसा से कम से कम चार सौ वर्ष पूर्व ये दिगम्बर भारतीय तत्त्व वेत्ता पश्चिमी एशिया पहुँच चुके थे |…ईसा की जन्म की शताब्दी तक इन दिगम्बर भारतीय दार्शनिकों की एक बहुत बड़ी संख्या इथियोपिया (अफ्रीका)के वनों में रहती थी |’’ - विश्वम्भरनाथ पांडे, भारत और मानव संस्कृति, पृष्ठ 128

‘‘वस्तुतः जैन धर्म संसार का मूल अध्यात्म धर्म है |इस देश में वैदिक धर्म के आने से बहुत पहले से यही जैन धर्म प्रचलित था |’’ - नीलकंठ दास, ‘उड़ीसा में जैन धर्म’ की भूमिका

‘‘हमारे देश के अध्यात्मशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र का मुख्य आधार ये ही द्वितीय पक्ष (निवृत्ति/मुनि पक्ष ) की धारणाएँ हैं | ये धारणाएँ अवैदिक हैं – यह सुनकर हमारे अनेक भाई चौंक उठेंगे, हमारे मत में वस्तुस्थिति यही दीखती है |… भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिकता, त्याग और अपरिग्रह की भावना, पारलौकिक भावना, अहिंसावाद जैसी प्रवृत्तियों की जड़ जिनके वास्तविक और संयत रूप का हमें गर्व हो सकता है, हमको वैदिक संस्कृति की तह से नीचे तक जाती हुई मिलेगी |’’ –डॉ. मंगलदेव शास्त्री, भारतीय संस्कृति का विकास,पृष्ठ 16-20

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