वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवलीभणिदं ।। १ ।।
आत्म्ख्याति- आचार्य अमृतचंद्र देव
चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ।। १ ।।
भाषा वचनिका -
पण्डित जयचंदजी छाबड़ा
समयसार शासन करूं देशवचनमय, भाय ।। १ ।।
मंगलरूप प्रसिद्ध ह्वै, नमों धर्मधनभोग ।। २ ।।
लय लय गहइ पार भवधार, जय जय समयसार अविकार ।। ३ ।।
मत, सिद्धान्त रु काल – भेदत्रय नाम बताये;
इनहिं आदि शुभ अर्थसमयवचके सुनिये बहु,
अर्थसमयमें जीव नाम है सार, सुनहु सहु;
तातैं जु सार बिनकर्ममल शुद्ध जीव शुद्ध नय कहै,
इस ग्रन्थ माँहि कथनी सबै समयसार बुधजन गहै ।। ४ ।।
विघनहरन नास्तिकहरन, शिष्टाचार उचार ।। ५ ।।
मुद्रा जिन निरग्रन्थता, नमूं करै सब चैन ।। ६ ।।
डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत ज्ञायकभावप्रबोधिनी हिन्दी टीका
अनंत चतुष्टय के धनी, श्री अरिहंत महान ।।१।।
गुण में नित विचरण करें, नमन करूँ मैं नित्य |॥२॥
परमतत्त्व प्रतिपादिनी, जिनवाणी जयवंत ।।३।।
मुक्तिमार्ग का एकमात्र आराध्य जो।।
उसमें ही मन रमे निरन्तर रात-दिन ।
परम सत्य शिव सुन्दर ज्ञायक भाव जो ।।४।।
जो प्रमत्त-अप्रमत्त न शुद्धाशुद्ध नहीं है।।
नय-प्रमाण के जिसमें भेद-प्रभेद नहीं हैं।
जिसमें दर्शन-ज्ञान-चरित के भेद नहीं है ।।५।।
सम्यक्चारित्र जिसका निश्चल ध्यान कहा है।।
वह एकत्व-विभक्त शुद्ध आतम परमातम।
अज अनादि मध्यान्त रहित ज्ञायक शुद्धातम।।६।।
पर्यायों से पार सार है समयसार का ।।
मुक्तिवधू का प्यार सार है समयसार का।
एकमात्र आधार सार है समयसार का ॥७॥
जीवन का सर्वस्व समर्पण समयसार पर ।।
समयसार की विषयवस्तु में नित्य रमे मन ।
समयसार के ज्ञान-ध्यान में बीते जीवन ।।८।।
शुद्धभाव से करूँ विवेचन समयसार का।
समयसार की टीका ज्ञायक भाव प्रबोधिनी ।
भक्ति भाव से लिखने का संकल्प किया है॥९॥
वैसी ही यह टीका होगी गद्य-पद्य में ।।
समयसार और आत्मख्याति को सभी जनों तक।
पहुँचाने के लिए लिख रहा जनभाषा में ।।१०।।
श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत
प्रवचनसार
एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं ।
पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ।। १ ।।
सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्धे विसुद्धसब्भावे ।
समणे य णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे ।। २ ।।
ते ते सव्वे समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं ।
वंदामि य वट्टंते अरहंते माणुसे खेत्ते ।। ३ ।।
किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं ।
अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्वेसिं ।। ४ ।।
तेसिं विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं समासेज्ज ।
उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती ।। ५ ।।
श्रीमदमृतचन्द्रसूरिकृततत्त्वप्रदीपिकावृत्तिसमुपेतः।
स्वोपलब्धिप्रसिद्धाय ज्ञानानन्दात्मने नमः ।। १ ।।
अर्थ : — सर्वव्यापी (अर्थात् सबका ज्ञाता -द्रष्टा) एक चैतन्यरूप (मात्र चैतन्य ही) जिसका स्वरूप है और जो स्वानुभवप्रसिद्ध है (अर्थात् शुद्ध आत्मानुभवसे प्रकृष्टतया सिद्ध है ) उस ज्ञानानन्दात्मक (ज्ञान और आनन्दस्वरूप) उत्कृष्ट आत्माको नमस्कार हो ।
प्रकाशयज्जगत्तत्त्वमनेकान्तमयं महः ।। २ ।।
अर्थ : — जो महामोहरूपी अंधकारसमूहको लीलामात्रमें नष्ट करता है और जगतके स्वरूपको प्रकाशित करता है ऐसा अनेकांतमय तेज सदा जयवंत है ।
क्रियते प्रकटिततत्त्वा प्रवचनसारस्य वृत्तिरियम् ।। ३ ।।
अर्थ : — परमानन्दरूपी सुधारसके पिपासु भव्य जीवोंके हितार्थ, तत्त्वको (वस्तुस्वरूपको) प्रगट करनेवाली प्रवचनसारकी यह टीका रची जा रही है ।
श्रीजयसेनाचार्यकृततात्पर्यवृत्तिः।
परमागमसाराय सिद्धाय परमेष्ठिने ।।
श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत
पंचास्तिकायसंग्रह
ईदसदवंदियाणं तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणं।
अंतातीदगुणाणं णमो जिणाणं जिदभवाणं।। १।।
शत–इन्द्रवंदित, त्रिजगहित–निर्मल–मधुर वदनारने,
निःसीम गुण धरनारने, जितभव नमुं जिनराजने। १
अन्वयार्थः– [इन्द्रशतवन्दितेभ्यः] जो सो इन्द्रोंसे वन्दित हैं, [त्रिभुवनहितमधुरविशदवाक्येभ्यः] तीन लोकको हितकर, मधुर एवं विशद [निर्मल, स्पष्ट] जिनकी वाणी है, [अन्तातीतगुणेभ्यः] [चैतन्यके अनन्त विलासस्वरूप] अनन्त गुण जिनको वर्तता है और [जितभवेभ्यः] जिन्होंने भव पर विजय प्राप्त की है, [जिनेभ्यः] उन जिनोंको [नमः] नमस्कार हो।
श्रीमद्मृतचन्द्राचार्यदेवविरचिता समयव्याख्या
सहजानन्द चैतन्यप्रकाशाय महीयसे।
नमोऽनेकान्तविश्रान्तमहिम्ने परमात्मने।। १।।
दुर्निवारनयानीकविरोधध्वंसनौषधिः।
स्यात्कारजीविता जीयाज्जैनी सिद्धान्तपद्धतिः।। २।।
[श्लोकार्थः––] सहज आनन्द एवं सहज चैतन्यप्रकाशमय होनेसे जो अति महान है तथा अनेकान्तमें स्थित जिसकी महिमा है, उस परमात्माको नमस्कार हो।1।
स्यात्कार जिसका जीवन है ऐसी जैनी [जिनभगवानकी] सिद्धांतपद्धति – जो कि दुर्निवार नयसमूह के विरोध का नाश करनेवाली औषधि है वह– जयवंत हो।2।