विभिन्न ग्रंथों के मंगलाचारण

आचार्य कुन्दकुन्ददेव :arrow_up:
समयसार

वंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गदिं पत्ते
वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवलीभणिदं ।। ।।
गाथार्थ : [ध्रुवाम् ] ध्रुव, [अचलाम् ] अचल और [अनौपम्यां ] अनुपम — इन तीन विशेषणोंसे युक्त [गतिं ] गतिको [प्राप्तान् ] प्राप्त हुए [सर्वसिद्धान् ] सर्व सिद्धोंको [वन्दित्वा ] नमस्कार करके [अहो ] अहो ! [श्रुतकेवलिभणितम् ] श्रुतकेवलियोंके द्वारा कथित [इदं ] यह [समयप्राभृतम् ] समयसार नामक प्राभृत [वक्ष्यामि ] कहूँगा ।

आत्म्ख्याति- आचार्य अमृतचंद्र देव

(अनुष्टुभ्)
नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते
चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ।। ।।
श्लोकार्थ :[नमः समयसाराय ] ‘समय’ अर्थात् जीव नामक पदार्थ, उसमें सार — जो द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म रहित शुद्ध आत्मा, उसे मेरा नमस्कार हो । वह कैसा है ? [भावाय ] शुद्ध सत्तास्वरूप वस्तु है । इस विशेषणपदसे सर्वथा अभाववादी नास्तिकोंका मत खण्डित हो गया । और वह कैसा है ? [चित्स्वभावाय ] जिसका स्वभाव चेतनागुणरूप है । इस विशेषणसे गुण-गुणीका सर्वथा भेद माननेवाले नैयायिकोंका निषेध हो गया । और वह कैसा है ? [स्वानुभूत्या चकासते ] अपनी ही अनुभवनरूप क्रियासे प्रकाशमान है, अर्थात् अपनेको अपनेसे ही जानता है — प्रगट करता है । इस विशेषणसे, आत्माको तथा ज्ञानको सर्वथा परोक्ष ही माननेवाले जैमिनीय – भट्ट – प्रभाकरके भेदवाले मीमांसकोंके मतका खण्डन हो गया; तथा ज्ञान अन्य ज्ञानसे जाना जा सकता है, स्वयं अपनेको नहीं जानता — ऐसा माननेवाले नैयायिकोंका भी प्रतिषेध हो गया । और वह कैसा है ? [सर्वभावान्तरच्छिदे ] अपनेसे अन्य सर्व जीवाजीव, चराचर पदार्थोंको सर्व क्षेत्रकालसम्बन्धी, सर्व विशेषणोंके साथ, एक ही समयमें जाननेवाला है । इस विशेषणसे, सर्वज्ञका अभाव माननेवाले मीमांसक आदिका निराकरण हो गया । इस प्रकारके विशेषणों (गुणों) से शुद्ध आत्माको ही इष्टदेव सिद्ध करके (उसे) नमस्कार किया है ।

भाषा वचनिका -
पण्डित जयचंदजी छाबड़ा

श्री परमातमको प्रणमि, शारद सुगुरु मनाय
समयसार शासन करूं देशवचनमय, भाय ।। ।।
शब्दब्रह्मपरब्रह्मके वाचकवाच्यनियोग
मंगलरूप प्रसिद्ध ह्वै, नमों धर्मधनभोग ।। ।।
नय नय लहइ सार शुभवार, पय पय दहइ मार दुखकार
लय लय गहइ पार भवधार, जय जय समयसार अविकार ।। ।।
शब्द, अर्थ अरु ज्ञान समयत्रय आगम गाये,
मत, सिद्धान्त रु काल भेदत्रय नाम बताये;
इनहिं आदि शुभ अर्थसमयवचके सुनिये बहु,
अर्थसमयमें जीव नाम है सार, सुनहु सहु;
तातैं जु सार बिनकर्ममल शुद्ध जीव शुद्ध नय कहै,
इस ग्रन्थ माँहि कथनी सबै समयसार बुधजन गहै
।। ।।
नामादिक छह ग्रन्थमुख, तामें मंगल सार
विघनहरन नास्तिकहरन, शिष्टाचार उचार ।। ।।
समयसार जिनराज है, स्याद्वाद जिनवैन
मुद्रा जिन निरग्रन्थता, नमूं करै सब चैन ।। ।।

डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत ज्ञायकभावप्रबोधिनी हिन्दी टीका

मंगलाचरण

समयसार को साधकर, बने सिद्ध भगवान ।
अनंत चतुष्टय के धनी, श्री अरिहंत महान ।।१।।

आचारज पाठक मुनी, प्रमत्त और अप्रमत्त।
गुण में नित विचरण करें, नमन करूँ मैं नित्य |॥२॥

ज्ञायकभाव प्रकाशिनी, भाषी श्री भगवंत।
परमतत्त्व प्रतिपादिनी, जिनवाणी जयवंत ।।३।।

(अडिल्ल छन्द)

साधक गण का एकमात्र है साध्य जो।
मुक्तिमार्ग का एकमात्र आराध्य जो।।
उसमें ही मन रमे निरन्तर रात-दिन ।
परम सत्य शिव सुन्दर ज्ञायक भाव जो ।।४।।

(रोला छंद)

केवल ज्ञायकभाव जो बद्धाबद्ध नहीं है।
जो प्रमत्त-अप्रमत्त न शुद्धाशुद्ध नहीं है।।
नय-प्रमाण के जिसमें भेद-प्रभेद नहीं हैं।
जिसमें दर्शन-ज्ञान-चरित के भेद नहीं है ।।५।।

जिसमें अपनापन ही दर्शन-ज्ञान कहा है।
सम्यक्चारित्र जिसका निश्चल ध्यान कहा है।।
वह एकत्व-विभक्त शुद्ध आतम परमातम।
अज अनादि मध्यान्त रहित ज्ञायक शुद्धातम।।६।।

गुण भेदों से भिन्न सार है समयसार का।
पर्यायों से पार सार है समयसार का ।।
मुक्तिवधू का प्यार सार है समयसार का।
एकमात्र आधार सार है समयसार का ॥७॥

शुद्धभाव से बलि-बलि जाऊं समयसार पर।
जीवन का सर्वस्व समर्पण समयसार पर ।।
समयसार की विषयवस्तु में नित्य रमे मन ।
समयसार के ज्ञान-ध्यान में बीते जीवन ।।८।।

शुद्धभाव से करूँ विरेचन पुण्य-पाप का।
शुद्धभाव से करूँ विवेचन समयसार का।
समयसार की टीका ज्ञायक भाव प्रबोधिनी ।
भक्ति भाव से लिखने का संकल्प किया है॥९॥

आत्मख्याति टीका है जैसी गद्य-पद्य में।
वैसी ही यह टीका होगी गद्य-पद्य में ।।
समयसार और आत्मख्याति को सभी जनों तक।
पहुँचाने के लिए लिख रहा जनभाषा में ।।१०।।

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