विभिन्न ग्रंथों के मंगलाचारण

श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत :arrow_up:
प्रवचनसार

एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं
पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ।। ।।

सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्धे विसुद्धसब्भावे
समणे य णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे ।। ।।

ते ते सव्वे समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं
वंदामि य वट्टंते अरहंते माणुसे खेत्ते ।। ।।

किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं
अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्वेसिं ।। ।।

तेसिं विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं समासेज्ज
उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती ।। ।।


श्रीमदमृतचन्द्रसूरिकृततत्त्वप्रदीपिकावृत्तिसमुपेतः।

अनुष्टुभ्
सर्वव्याप्येकचिद्रूपस्वरूपाय परात्मने
स्वोपलब्धिप्रसिद्धाय ज्ञानानन्दात्मने नमः ।। ।।

अर्थ : — सर्वव्यापी (अर्थात् सबका ज्ञाता -द्रष्टा) एक चैतन्यरूप (मात्र चैतन्य ही) जिसका स्वरूप है और जो स्वानुभवप्रसिद्ध है (अर्थात् शुद्ध आत्मानुभवसे प्रकृष्टतया सिद्ध है ) उस ज्ञानानन्दात्मक (ज्ञान और आनन्दस्वरूप) उत्कृष्ट आत्माको नमस्कार हो ।

अनुष्टुभ्
हेलोल्लुप्तमहामोहतमस्तोमं जयत्यदः
प्रकाशयज्जगत्तत्त्वमनेकान्तमयं महः ।। ।।

अर्थ : — जो महामोहरूपी अंधकारसमूहको लीलामात्रमें नष्ट करता है और जगतके स्वरूपको प्रकाशित करता है ऐसा अनेकांतमय तेज सदा जयवंत है ।

आर्या
परमानन्दसुधारसपिपासितानां हिताय भव्यानाम्
क्रियते प्रकटिततत्त्वा प्रवचनसारस्य वृत्तिरियम् ।। ।।

अर्थ : — परमानन्दरूपी सुधारसके पिपासु भव्य जीवोंके हितार्थ, तत्त्वको (वस्तुस्वरूपको) प्रगट करनेवाली प्रवचनसारकी यह टीका रची जा रही है ।


श्रीजयसेनाचार्यकृततात्पर्यवृत्तिः।

नमः परमचैतन्यस्वात्मोत्थसुखसम्पदे ।
परमागमसाराय सिद्धाय परमेष्ठिने ।।
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