निश्चय सम्यकदर्शन किस गुणस्थान से?

आगे, निर्जरा का संबंध शुद्धोपयोग से नहीं हैं बल्कि शुद्ध परिणति से हैं, इसलिए चौथे, पांचवे, छटवे और आगे वाले जीव किसी भी अवस्था में रहे निर्जरा हो सकती हैं क्योकि शुद्ध परिणति कायम हैं।

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उस शुद्धोपयोग में सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र का उत्पत्ति होती हैं, पश्चात शुद्धोपयोग छूट जाता हैं और सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र रहता है। उस सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र को एक नाम से हम शुद्ध परिणति भी कह सकते है। यहाँ शुद्धोपयोग छूट जाता हैं पर शुद्ध परिणति कायम रहती हैं। शुद्धोपयोग तो गुणस्थान में आगे बढ़ने के लिए होता हैं। जो भी जीव गुणस्थानो में ऊपर बढ़ेगा वह शुद्धोपयोग पूर्वक ही बढ़ेगा। और जैसे - जैसे ऊपर बढ़ेगा, शुद्धोपयोग का समय और मग्नता भी बढ़ेगी, यही चौथे, पांचवे, छटवे और आगे गुणस्थान वाले जीवो के शुद्धोपयोग में अंतर हैं।

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I was looking for an answer to this.


On a side note, in this video, I could not understand why अणुव्रत and महाव्रत are alleged to be the causes of संवर and निर्जरा -

अणुव्रत और महाव्रत आस्रव बन्ध के कारण है, यह कथन प्रसिद्ध है । तत्त्वार्थ सूत्र में अणुव्रतों और महाव्रतों की चर्चा आस्रव अधिकार में आई है, न कि संवर / निर्जरा तत्त्व के प्रतिपादन में ।

देखें -


- सर्वार्थसिद्धि, अध्याय 7, सूत्र 1, p. 264


I thought we all agreed upon the fact that शुभोपयोग cannot be the cause of निर्जरा when @AnumeyJain had posted this -

Let us freeze this point first. I had already shared a reference for this earlier -

Sharing another one -

उवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स संचयं जादि।
असुहो वा तध पावं तेसिमभावे ण चयमत्थि ॥

उपयोग यदि शुभ हो तो जीव के पुण्य का संचय होता है और यदि अशुभ हो तो पाप का संचय होता है ।

- आचार्य कुन्दकुन्द, प्रवचनसार, गाथा १५६


अंत में फिर से एक प्रश्न -

एक ही कारण (शुभोपयोग) से आस्रव भी हो और संवर-निर्जरा भी हो यह कैसे संभव है ?


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शुद्ध परिणति में आत्मा का उपयोग कुछ तो होगा ? क्योंकि आत्मा तीन उपयोग में से किसी
एक में तो रहती ही है ।

जीव उपयोग वाला होता है।

शुद्ध परिणति के समय जीव का क्या - क्या उपयोग हो सकता है जिसमें निर्जरा होती है ?

लेकिन चैप्टर 9 तत्वार्थ सूत्र - संवर निर्जरा में यह भी तो दिया है -

Shuddha parinati ke sath teno upyog ho sakte Hain. Grahstha ke teen upyog aur muniraj ke do upyog hote Hain.
Nirjara ke samay koi bhi upyog ho sakta Hain, par nirjara ka Karan suddha parinati Hain.

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“शुद्ध परिणति” - इस संबंध में पंच परमागम के किस शास्त्र में लिखा है ? उपयोग और परिणति में क्या अंतर ?

शुभ परिणति और शुद्ध परिणति में क्या भेद होता है ?

आगम में शुध्द परिणति को ज्ञान धारा शब्द से कहा है , ज्ञान धारा का विशेष जानने के लिए आप समयसार 110 कलश का स्वाध्याय कर सकते हैं।
-जैसे ज्ञान में दो भेद होते हैं,उपयोग और लब्धि वैसे ही चारित्र गुण के परिणमन में परिणति व उपयोग दो भेद होते हैंं,उपयोग व लब्धि अंतर समझने के लिए हम एक सम्यग्द्रष्टि को लें ,उसके शुध्दोपयोग अल्प समय के लिए होता है,और कषायों के अभाव रूप शुध्दपरिणति जब तक सम्यक्त्व रहता है,तब तक सदा बनी रहती है ,तो निष्कर्ष के रूप में कहें तो कह सकते हैं कि शुध्दोपयोग अल्प समय के लिए होता है शुध्द परिणति शुध्दोपयोग नहीं रहने पर भी बनी रहती है।
-कारण व कार्य की अपेक्षा अन्तर कर सकते हैं।शुध्दोपयोग कारण है,शुध्दपरिणति कार्य है यद्यपि होते युगपत हैं फिर भी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान जैसा कारण कार्य समझना

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I’ve been told that gatha number 245 and 260 of shri pravachansaar ji might be helping in this topic. Can someone please go through them and produce them in original form here so that it can help the readers of this topic.

Here go through gatha 245 pravachan by various maharaj ji and -

I will be posting more links soon.

Gatha 260 -

निश्चय-व्यवहार सम्यग्दृष्टि

  1. सरल स्वभावी अजैन - व्यवहार सम्यग्दृष्टि
    जैनों में पैदा हुआ जैन - निश्चय सम्यग्दृष्टि
  2. कुल परम्परा जैन - व्यवहार सम्यग्दृष्टि
    मात्र जैनों के देव-गुरु-धर्म मानने वाला सामान्य जैन - निश्चय सम्यग्दृष्टि
  3. सामान्य जैन - व्यवहार सम्यग्दृष्टि
    धार्मिक क्रियाओं में सक्रिय जैन - निश्चय सम्यग्दृष्टि
  4. क्रियाओं में सक्रिय जैन - व्यवहार सम्यग्दृष्टि
    परिणामों से विशुद्ध जैन - निश्चय सम्यग्दृष्टि
  5. विशुद्ध जैन - व्यवहार सम्यग्दृष्टि
    तत्त्व श्रद्धानी जैन - निश्चय सम्यग्दृष्टि
  6. सविकल्प तत्त्व-श्रद्धान-वाला जैन - व्यवहार सम्यग्दृष्टि
    निर्विकल्प तत्त्व-श्रद्धान-वाला आत्मानुभवी जैन - निश्चय सम्यग्दृष्टि
  7. आत्मानुभवी जैन - व्यवहार सम्यग्दृष्टि
    चारित्रवान आत्मानुभवी जैन - निश्चय सम्यग्दृष्टि
  8. क्रियात्मक चारित्रवान आत्मानुभवी जैन - व्यवहार सम्यग्दृष्टि
    निर्विकल्प चारित्र तत्त्व-श्रद्धानी आत्मानुभवी जैन - निश्चय सम्यग्दृष्टि
  9. आत्म-परोक्ष अनुभवी जैन - व्यवहार सम्यग्दृष्टि
    आत्म-प्रत्यक्ष अनुभवी जैन - निश्चय सम्यग्दृष्टि
    (कर्मों की बात नहीं की है; क्योंकि उनका प्रत्यक्ष निर्णय हमारे हाथ में नहीं है और परोक्ष निर्णय ऊपर हो ही चुका है।)

अब, किसी के अनुसार कोई सम्यग्दृष्टि है, तो किसी के अनुसार कोई अन्य।

और प्रशम-संवेग-अनुकम्पा-आस्तिक्य के आधार से तो सभी सम्यग्दृष्टि हैं।
और प्रथमानुयोग-चरणानुयोग के आधार पर भी सभी सम्यग्दृष्टि हैं ही।

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यहाँ पर हम समयसार बंध अधिकार की गाथा २७३ को प्रस्तुत करते है।

यहाँ पर तो उन्होंने एकदम स्पष्ट लिखा है कि जिनवर प्ररूपित व्रत, समिति, गुप्ती, शील (अर्थात् २८ मूल गुण) का पालन अभव्य जीव भी करते है लेकिन फिर भी वे मिथ्यादृष्टि है। अर्थात् समयगदृष्टि नहीं है (चाहे निश्चय हो या व्यवहार)।

अर्थात् ऐसा मानना ही ग़लत है की ४थे में व्यवहार समयगदर्शन, ६ठे में व्यवहार मुनि-दशा आदि है और ७वे और ऊपर निश्चय। क्यूँकि उपरोक्त समयसार की मूल गाथा में ही लिख दिया है कि २८ मूल गुण बिना समयक्तव के मिथ्या ही है। व्यवहार समयगदर्शन या व्यवहार मुनिदशा नहीं।

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कृपया उपयोग और लब्धि का विस्तार कीजिए।
परिणति और उपयोग का भी विस्तार कीजिए।

ज्ञान उपयोग और चारित्र उपयोग में क्या अंतर है?

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सामान्यतयः देखें,
ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमको लब्धि कहते हैं और उसके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले परिणामको उपयोग कहते हैं।
उपयोग, लब्धि का विस्तार आपको गोम्मटसार कर्मकांड तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रन्थों में मिल ही जायेगा।
यथा- जीवके एक समयमें एक ही ज्ञानका उपयोग होता है। किंतु लब्धिरूपसे एक समय अनेक ज्ञान कहे हैं। (कार्तिकेयनुप्रेक्षा)

उपयोग तो एक बहुआयामी शब्द है, तथापि इसकी सारभूत परिभाषा कुछ इस तरह है/-
जीवका जो भाव वस्तुके ग्रहण करनेके लिए प्रवृत्त होता है, उसे उपयोग कहते हैं।
तथा परिणति, जब उपयोग को चारित्र मुखेन हम देखतें हैं/कहतें हैं, वहाँ वरतती शुद्धिविशेष को कहा।

द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 6/18/9 ज्ञानदर्शनोपयोगविवक्षायामुपयोगशब्देन विवक्षितार्थपरिच्छित्तिलक्षणोऽर्थग्रहणव्यापारो गृह्यते। शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयविवक्षायां पुनरुपयोगशब्देन शुभाशुभशुद्धभावनैकरूपमनुष्ठानं ज्ञातव्यमिति।

= ज्ञानदर्शन रूप उपयोगकी विवक्षामें उपयोग शब्दसे विवक्षित पदार्थ के जाननेरूप वस्तुके ग्रहण रूप व्यापारका ग्रहण किया जाता है। और शुभ, अशुभ तथा शुद्ध इन तीनों उपयोगोंकी विवक्षामें उपयोग शब्दसे शुभ, अशुभ तथा शुद्ध भावना रूप अनुष्ठान जानना चाहिए।

तो ऐसा है कि केवल ज्ञानी के ज्ञान की लब्धि अनंत है लेकिन उपयोग केवल ज्ञायक पर है। इसी तरह एक सातवें गुणस्थान वाले मुनिराज का ज्ञान-उपयोग भी ज्ञायक ही है लेकिन ज्ञान की लब्धि ज्ञानावरण कर्म के निमित्त अनुसार है? ऐसा लेना है?

और वैसे ही छठवें गुणस्थान वाले मुनिराज के लब्धि में ज्ञायक है लेकिन उपयोग में उनके महाव्रत के परिणाम है, ऐसा लेना है?

भाईसाहब, लब्धि-उपयोग रूप ज्ञान की व्यवस्था छद्मस्थ जीवों के लिए है, केवल ज्ञानी तीनलोक-तीन काल की अनन्तानन्त पर्याएँ एक साथ जानतें हैं।

इसका सीधा उत्तर आप मोक्षमार्ग प्रकाशक के दूसरे-तीसरे अधिकार में पाएंगे जहां पंडित जी साहब ने मतिज्ञान की व्याख्या उसकी पराधीनता के पक्ष से की है, वहां एक बहुत सुंदर उदाहरण है, गाँव जाने वाले व्यक्ति का , उससे आप उत्तम समाधान पा सकेंगे।

और रही बात मुनिराज की, तो मुनिराज का उपयोग आत्मस्थ है और लब्धि ज्ञानावरण कर्म के निमित्तानुसार बनी हुई है।

सीधा सीधा तथ्य समझें कि उपयोग अर्थात वर्तमान में प्रयुक्त ज्ञान की अवस्था तथा लब्धि, ज्ञान के जानने की सामर्थ्य।

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धन्यवाद। दूसरे अध्याय में इसका स्वरूप बहुत अच्छे से समझा रखा है (क्षयोपशम रूप का स्वरूप section में)

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यदि हमेशश