निश्चय सम्यकदर्शन किस गुणस्थान से?

कृपया इन प्रश्नों पर विचार करके प्रत्येक के सन्दर्भ में अलग अलग स्पष्टीकरण प्रस्तुत करें -

1.

बहुपद की-बहुलता की प्रधानता होने के कारण, आम्रवन-नीमवन आदि के समान¹, दोनों रूप प्रवृत्ति होने पर भी, अधिकता की अपेक्षा अन्तर है ।

- प्रवचनसार, गाथा 287 की तात्पर्यवृत्ति टीका

¹ आम के बगीचे में एक-दो नीम के वृक्ष होने पर भी, आम के वृक्षों की बहुलता के कारण, आम का ही बगीचा कहलाता है ।

आचार्य जयसेन के इस कथन का क्या अर्थ करेंगे ?


2.

यदि आचार्य जयसेन के प्रवचनसार गाथा 9 की टीका में आए हुए कथन का शब्दशः अर्थ निकाले तो फिर उस विभाजन के अनुसार क्या चतुर्थ गुणस्थान वाले जीव को कभी अशुभोपयोग होगा ही नहीं? जबकि आर्त ध्यान तो उसे भी होता है । क्या उस आर्त ध्यान के परिणाम को भी शुभोपयोग कह सकते है ?


3.

चतुर्थ गुणस्थान से निर्जरा आरम्भ होती है । (तत्त्वार्थ सूत्र, 9/45) यदि चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धोपयोग का सर्वथा अभाव है, तो वह निर्जरा किस कारण से ?

शुभोपयोग तो शुभ आस्रव का कारण है - यह कथन प्रसिद्ध है । जो आस्रव का कारण है वह निर्जरा का कारण नहीं हो सकता, दोनों परस्पर विरोधी होने से ।


4.

निश्चय और व्यवहार - ये वस्तु के भेद है या उस वस्तु को जाननेवाले ज्ञान के भेद है ?

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यहाँ जयसेनाचार्य का तात्पर्य है की जो मुनि अधिकतर शुभोपयोग रूप आचरण करते है, किन्तु कभी ध्यान की एकग्रता बन जाये और कुछ क्षण के लिए शुद्धोपयोग हो जाये, तो भी उन्हें शुभोप्योगी ही कहेंगे। इसी प्रकार जो मुनि अधिकतर अपने आत्मा में डूबे रहते है, कुछ समय के लिए शुभोपयोग रूप करते है, उनको शुद्धोपयोगी कहेंगे।
बाकी प्रशनो पर विचार करके बताऊंगा।

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This is such a valid point.

यदि आप कहोंगे चतुर्थ गुणस्थान में मात्र शुभोपयोग हैं - तो निर्जरा का कारण क्या?

यदि आप कहोंगे शुभोपयोग से निर्जरा हैं - तो बंध (शुभ) का कारण क्या?

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@jinesh 4th Gunasthan mai nirjara charitra angikaar karne ki wajah se nahi hai. Kyunki uss gunasthan mai charitra hai hii nahi.

Yampaal chandaal ki kahani toh aap sabne suni hogi. Kya unke koi charitra tha? Nahi
4th Gunasthan kaafi saari dev-deviyo aur naarki jeevo ke bhi hota hai. Unke toh niyam se koi charitra nahi hai.

चतुर्थ गुणस्थान से निर्जरा आरम्भ होती है । (तत्त्वार्थ सूत्र, 9/45) यदि चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धोपयोग का सर्वथा अभाव है, तो वह निर्जरा किस कारण से ?

Aapke sawaal ka uttar - https://youtu.be/qAnRnj8Wrzs

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@jinesh @Sulabh @Kishan_Shah Aapse nivedan hai ki ek baari yeh video dekh lijiye jisme 4th Gunasthan ke baare mai Pandit Ratanlal Benada Ji ne khoob acche se samjhaya hai -

16:40 se lekar 25:00 tak dekh le kyunki usme specific discussion hai iss thread ke questions ko leke.

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यहाँ तो स्पष्ट रूप से लिखा है कि शुद्धोपयोग के अभाव में मोह का नाश नहीं होता । यदि कोई कहें कि यहाँ तो सम्पूर्ण मोह के अभाव की बात होगी, सो ऐसा भी नहीं है, क्योंकि आचार्य जयसेन स्वयं मोह का अर्थ दर्शन मोह करते है:

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Watching this might be helpful in solving the query @jinesh -

The last 15 minutes of the first video might be useful here.

The full second video is also important in respect of additional information.

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I checked this video. Really liked the way Pt. Benada Ji explains the concepts :ok_hand:

Anyway, regarding the topic - उन्होंने चतुर्थ गुणस्थान में निर्जरा का कारण विशुद्धता को कहा। Does he mean शुद्धोपयोग or शुभोपयोग? And then please provide an answer for the following logic:


क्षायिक सम्यक्दृष्टि को प्रति समय निर्जरा नहीं होती” - is it correct?

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Anyway, regarding the topic - उन्होंने चतुर्थ गुणस्थान में निर्जरा का कारण विशुद्धता को कहा। Does he mean शुद्धोपयोग or शुभोपयोग?

He means Shubhupyog. He has already said that there is no Shuddhupyog in 4th Gunasthan.

क्षायिक सम्यक्दृष्टि को प्रति समय निर्जरा नहीं होती” - is it correct?

Kshayik Samyakdrishti ko 4th Gunasthan mai prati samay nirjara nahi hoti. 5th Gunasthan mai hoti hai. 4th Gunasthan mai kisi bhi jeev ka prati samay nirjara ka vidhaan nahi hai.

यदि आप कहोंगे चतुर्थ गुणस्थान में मात्र शुभोपयोग हैं - तो निर्जरा का कारण क्या?

यदि आप कहोंगे शुभोपयोग से निर्जरा हैं - तो बंध (शुभ) का कारण क्या?

Shayad aapne woh tattvarthasutra waala video miss kar diya hoga galti se. I have reattached the link below of Tattvarthasutra adhyay 9 sutra 45 where he explains how & why nirjara happens in 4th Gunasthan -

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Then शुभोपयोग निर्जरा का कारण ठहरा - which is contradictory. शुभ बंध का कारण क्या?

As far I know, क्षायिक सम्यक्दृष्टि को प्रति समय निर्जरा नहीं होती - I’ll check again and revert.

*edited.

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Then शुभोपयोग निर्जरा का कारण ठहरा - which is contradictory. शुभ बंध का कारण क्या

I might have typed it wrong because I did not read your query clearly. He is not saying that shubhupyog is the reason of nirjara. He is saying ki vishuddhta that happens even before samyakdarshan and the rising vishuddhta when the soul is supposed to move from 4th to 5th Gunasthan is the cause of nirjara. Please watch the video I linked in my last comment. It is of Tattvarthasutra and explains why nirjara happens in the 4th Gunasthan.

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शुभोपयोग भी पाप रुपी संवर, निर्जरा का कारन है, और पुण्य रुपी आस्रव बांध का कारन है।

बिलकुल सही है। 4th गुणस्थान में प्रति समय निर्जरा नहीं होती। 5th गुणस्थान में जब 2 या अधिक प्रतिमा धारण कर लेते है, तो प्रति समय निर्जन होनी शुरू हो जाती है।

Check this video:

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That विशुद्धता would be part of which उपयोग?

  1. अशुभोपयोग ? → (to which none of us would agree)
  2. शुभोपयोग ? → (but it is alleged to be the cause of आस्रव and not of निर्जरा - and we both agree upon this)
  3. शुद्धोपयोग ? → (the existence of which is not acceptable below the 7th गुणस्थान to you)

If we say that it does not come under any of the उपयोग, the question still remains that what leads to the origination of such विशुद्धता ? And the three points above must be repeated for this question as well. The implication is that such विशुद्धता is not possible without शुद्धोपयोग - a category which is beyond शुभोपयोग and अशुभोपयोग


Thanks for the video pravachans. I went through them. Sorry to say but I could not find an answer to my question. Can you pl summarize and write it here?

I was looking for an answer to this:


आपने शुभोपयोगी और शुद्धोपयोगी दोनों के उदाहरण मुनिराजों पर ही घटाकर बताये । जबकि आचार्य जयसेन ने श्रावकों की भी बात की है । एक बार पुनः यदि पढ़ना हो तो यहाँ देखें ।


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हां सही बात है, श्रावक शब्द का उपयोग तो हुआ है ,गाथा में। मै पंडित बैनाड़ा जी से पुनः पूछ कर बताऊंगा।

Please check this video again, you will find the answer of this question of yours.

Your statements are contradicting with each other.

According to you, the reason for निर्जरा is शुद्धोपयोग। And you also say that निर्जरा प्रति समय होती है , तो क्या शुद्धोपयोग भी प्रति समय मानोगे?

आप ये मानोगे या नहीं की 5th गुणस्थान में प्रति समय निर्जरा होती है? अगर हाँ तो क्या शुद्दोप्योग भी प्रति समय होता है?
If your answers are yes and no respectively, it proves that शुभोपयोग is also a reason for निर्जरा.

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यहाँ प्रकरण में हम सम्यग्दर्शन की बात कर रहे हैं, और उसे निश्चय और व्यवहार में विभाजित कर रहे हैं । प्रथमतया, जहाँ निश्चय होता हैं वहाँ व्यवहार भी होता ही है, जिसे सहचर व्यवहार भी कहते हैं। पूर्वचर व्यवहार को उपचार से व्यवहार (सम्यग्दर्शन) कह देते हैं। अब यहाँ प्रश्न हैं की निश्चय सम्यग्दर्शन क्या हैं और कोनसे गुणस्थान में होता हैं। निश्चय सम्यग्दर्शन आत्मा के श्रद्धा गुण की शुद्ध पर्याय है और वह शुद्ध पर्याय दर्शनमोह के अभाव पूर्वक प्रकट होती है। इसी निश्चय सम्यग्दर्शन के ही कर्म सापेक्ष तीन भेद होते है, औपशमिक, क्षायिक, और क्षायोपशमिक। वहाँ तीनो सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थान में हो सकते हैं। जब क्षायिक सम्यग्दर्शन किसी जीव को होता हैं, तब दर्शनमोह कर्म का क्षय हो जाता है। जो की चौथे गुणस्थान में संभव हैं। अब, आगे वही क्षायिक सम्यग्दर्शन मुनिराज को भी संभव हैं। तब मुनिराज के क्षायिक सम्यग्दर्शन में और चौथे गुणस्थान वाले जीव के क्षायिक सम्यग्दर्शन में क्या अंतर है, अर्थात कुछ भी अंतर नहीं हैं, क्योंकि दर्शनमोह का क्षय तो दोनों ही कर चुके है। और दर्शनमोह के क्षय से जो विशुद्धता हुई है, वो दोनों के समान हैं, तब फिर एक (मुनिराज) के सम्यग्दर्शन को निश्चय सम्यग्दर्शन और दूसरे के सम्यग्दर्शन (चौथे गुणस्थान वाले जीव) को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहना कैसे उचित हैं। यहाँ कहने का तात्पर्य हैं की दर्शनमोह के अभाव से जो आत्मा के श्रद्धा गुण की शुद्ध परिणति हुई है, वो दोनों के समान है। इसलिए निश्चय सम्यग्दर्शन जब मुनिराज को है, तो फिर चौथे गुणस्थान वाले जीव को भी है।

अब यह प्रश्न हो सकता हैं निश्चय सम्यग्दर्शन का शुद्धोपयोग से क्या संबंध है? या यूँ कहे कि शुद्धोपयोग का मोक्षमार्ग में क्या स्थान हैं? या यूँ कहे कि सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र के लिए शुद्धोपयोग की क्या आवश्यकता है? तो उसका उत्तर यह हैं की शुद्धोपयोग अर्थात उपयोग कि शुद्धता अर्थात उपयोग में (बुद्धि पूर्वक) राग द्वेष के विकल्प नहीं होना। और उस शुद्धोपयोग का विषय (मुख्यता से) एक आत्मा होता हैं।।ऐसी निर्विकल्पता (शुद्धोपयोग) मुनिराजो को हर अन्तर्मुहूर्त में होती हैं और पांचवे गुणस्थान में पंद्रह दिन में संभव हैं और चौथे गुणस्थान में छह महीने में हो सकती है। उस शुद्धोपयोग में सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र का उत्पत्ति होती हैं, पश्चात शुद्धोपयोग छूट जाता हैं और सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र रहता है। उस सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र को एक नाम से हम शुद्ध परिणति भी कह सकते है। यहाँ शुद्धोपयोग छूट जाता हैं पर शुद्ध परिणति कायम रहती हैं। शुद्धोपयोग तो गुणस्थान में आगे बढ़ने के लिए होता हैं। जो भी जीव गुणस्थानो में ऊपर बढ़ेगा वह शुद्धोपयोग पूर्वक ही बढ़ेगा। और जैसे - जैसे ऊपर बढ़ेगा, शुद्धोपयोग का समय और मग्नता भी बढ़ेगी, यही चौथे, पांचवे, छटवे और आगे गुणस्थान वाले जीवो के शुद्धोपयोग में अंतर हैं।

आगे, निर्जरा का संबंध शुद्धोपयोग से नहीं हैं बल्कि शुद्ध परिणति से हैं, इसलिए चौथे, पांचवे, छटवे और आगे वाले जीव किसी भी अवस्था में रहे निर्जरा हो सकती हैं क्योकि शुद्ध परिणति कायम हैं।

फिर आगे, शुद्ध परिणति को मोक्ष के सन्दर्भ में देखना चाहिए अर्थात शुद्ध परिणति से बंध नहीं होता हैं यह महत्वपूर्ण है क्योकि बंध के अभाव का नाम मोक्ष हैं। पूर्व कर्म की निर्जरा तो किसी न किसी रूप (सविपाक या अविपाक रूप में , और संक्रमण या उत्कर्षण या अपकर्षण रूप में या अन्य रूप में ) में होनी ही हैं। निर्जरा को अनेक प्रकार से समझाया जाता हैं, जैसे की सविपाक निर्जरा, अविपाक निर्जरा, सकाम निर्जरा, अकाम निर्जरा, पाप कर्म की निर्जरा (शुभ भाव से), संक्रमण रूप से निर्जरा या उत्कर्षण रूप से निर्जरा या अपकर्षण रूप से निर्जरा आदि। इसलिए कहाँ कोनसी निर्जरा होती हैं और कोनसी निर्जरा नहीं होती हैं, उसकी अपेक्षा को समझना आवश्यक हैं।

अंत में, कर्मो की दस अवस्थाओं से निर्जरा को समझना चाहिए, तभी निर्जरा का स्वरुप ज्ञात हो सकता हैं। निर्जरा कहने मात्र से वो कर्म जीव की सत्ता से चले गए ऐसा सर्वथा नहीं हैं। वो कर्म दूसरे रूप में बदल गए और जीव की सत्ता में पड़े रहे, उसको भी किसी अपेक्षा से निर्जरा कहा जाता हैं।

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यहाँ क्षय के अर्थ को समझना होगा, क्योकि क्षय (अर्थात निर्जरा) के विभिन्न अर्थ होते हैं, यहाँ संक्रमण,उत्कर्षण, अपकर्षण, उदीरणा, विसंयोजना आदि को भी क्षय (अर्थात निर्जरा) कह सकते हैं। शुभ भाव से क्षय कहने का अलग अर्थ हैं और शुद्ध भाव से क्षय कहने का अलग अर्थ हैं। कर्म के क्षय होने की विधि को समझना चाहिए।

Let us assume that Shuddhopyog starts from 4th Gunstaan. (Though I don’t agree that it starts from 4th Gunstaan).

Now let us take the example of a Samyakdrishti Grahst who is having 2 pratimas. His Gunstaan is 5th. I think you would agree that Shuddopyog cannot be there for 24 hrs. But the Nirjara is there 24 hrs in 5th Gunstaan. Then what is the reason for Nirjara? It would be Shubhopyog only.

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