यहाँ प्रकरण में हम सम्यग्दर्शन की बात कर रहे हैं, और उसे निश्चय और व्यवहार में विभाजित कर रहे हैं । प्रथमतया, जहाँ निश्चय होता हैं वहाँ व्यवहार भी होता ही है, जिसे सहचर व्यवहार भी कहते हैं। पूर्वचर व्यवहार को उपचार से व्यवहार (सम्यग्दर्शन) कह देते हैं। अब यहाँ प्रश्न हैं की निश्चय सम्यग्दर्शन क्या हैं और कोनसे गुणस्थान में होता हैं। निश्चय सम्यग्दर्शन आत्मा के श्रद्धा गुण की शुद्ध पर्याय है और वह शुद्ध पर्याय दर्शनमोह के अभाव पूर्वक प्रकट होती है। इसी निश्चय सम्यग्दर्शन के ही कर्म सापेक्ष तीन भेद होते है, औपशमिक, क्षायिक, और क्षायोपशमिक। वहाँ तीनो सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थान में हो सकते हैं। जब क्षायिक सम्यग्दर्शन किसी जीव को होता हैं, तब दर्शनमोह कर्म का क्षय हो जाता है। जो की चौथे गुणस्थान में संभव हैं। अब, आगे वही क्षायिक सम्यग्दर्शन मुनिराज को भी संभव हैं। तब मुनिराज के क्षायिक सम्यग्दर्शन में और चौथे गुणस्थान वाले जीव के क्षायिक सम्यग्दर्शन में क्या अंतर है, अर्थात कुछ भी अंतर नहीं हैं, क्योंकि दर्शनमोह का क्षय तो दोनों ही कर चुके है। और दर्शनमोह के क्षय से जो विशुद्धता हुई है, वो दोनों के समान हैं, तब फिर एक (मुनिराज) के सम्यग्दर्शन को निश्चय सम्यग्दर्शन और दूसरे के सम्यग्दर्शन (चौथे गुणस्थान वाले जीव) को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहना कैसे उचित हैं। यहाँ कहने का तात्पर्य हैं की दर्शनमोह के अभाव से जो आत्मा के श्रद्धा गुण की शुद्ध परिणति हुई है, वो दोनों के समान है। इसलिए निश्चय सम्यग्दर्शन जब मुनिराज को है, तो फिर चौथे गुणस्थान वाले जीव को भी है।
अब यह प्रश्न हो सकता हैं निश्चय सम्यग्दर्शन का शुद्धोपयोग से क्या संबंध है? या यूँ कहे कि शुद्धोपयोग का मोक्षमार्ग में क्या स्थान हैं? या यूँ कहे कि सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र के लिए शुद्धोपयोग की क्या आवश्यकता है? तो उसका उत्तर यह हैं की शुद्धोपयोग अर्थात उपयोग कि शुद्धता अर्थात उपयोग में (बुद्धि पूर्वक) राग द्वेष के विकल्प नहीं होना। और उस शुद्धोपयोग का विषय (मुख्यता से) एक आत्मा होता हैं।।ऐसी निर्विकल्पता (शुद्धोपयोग) मुनिराजो को हर अन्तर्मुहूर्त में होती हैं और पांचवे गुणस्थान में पंद्रह दिन में संभव हैं और चौथे गुणस्थान में छह महीने में हो सकती है। उस शुद्धोपयोग में सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र का उत्पत्ति होती हैं, पश्चात शुद्धोपयोग छूट जाता हैं और सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र रहता है। उस सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र को एक नाम से हम शुद्ध परिणति भी कह सकते है। यहाँ शुद्धोपयोग छूट जाता हैं पर शुद्ध परिणति कायम रहती हैं। शुद्धोपयोग तो गुणस्थान में आगे बढ़ने के लिए होता हैं। जो भी जीव गुणस्थानो में ऊपर बढ़ेगा वह शुद्धोपयोग पूर्वक ही बढ़ेगा। और जैसे - जैसे ऊपर बढ़ेगा, शुद्धोपयोग का समय और मग्नता भी बढ़ेगी, यही चौथे, पांचवे, छटवे और आगे गुणस्थान वाले जीवो के शुद्धोपयोग में अंतर हैं।
आगे, निर्जरा का संबंध शुद्धोपयोग से नहीं हैं बल्कि शुद्ध परिणति से हैं, इसलिए चौथे, पांचवे, छटवे और आगे वाले जीव किसी भी अवस्था में रहे निर्जरा हो सकती हैं क्योकि शुद्ध परिणति कायम हैं।
फिर आगे, शुद्ध परिणति को मोक्ष के सन्दर्भ में देखना चाहिए अर्थात शुद्ध परिणति से बंध नहीं होता हैं यह महत्वपूर्ण है क्योकि बंध के अभाव का नाम मोक्ष हैं। पूर्व कर्म की निर्जरा तो किसी न किसी रूप (सविपाक या अविपाक रूप में , और संक्रमण या उत्कर्षण या अपकर्षण रूप में या अन्य रूप में ) में होनी ही हैं। निर्जरा को अनेक प्रकार से समझाया जाता हैं, जैसे की सविपाक निर्जरा, अविपाक निर्जरा, सकाम निर्जरा, अकाम निर्जरा, पाप कर्म की निर्जरा (शुभ भाव से), संक्रमण रूप से निर्जरा या उत्कर्षण रूप से निर्जरा या अपकर्षण रूप से निर्जरा आदि। इसलिए कहाँ कोनसी निर्जरा होती हैं और कोनसी निर्जरा नहीं होती हैं, उसकी अपेक्षा को समझना आवश्यक हैं।
अंत में, कर्मो की दस अवस्थाओं से निर्जरा को समझना चाहिए, तभी निर्जरा का स्वरुप ज्ञात हो सकता हैं। निर्जरा कहने मात्र से वो कर्म जीव की सत्ता से चले गए ऐसा सर्वथा नहीं हैं। वो कर्म दूसरे रूप में बदल गए और जीव की सत्ता में पड़े रहे, उसको भी किसी अपेक्षा से निर्जरा कहा जाता हैं।