मोक्षमार्ग प्रकाशक | Mokshmarg Prakashak

रचियता - पंडित प्रवर टोडरमल जी

Contents:

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पहला अधिकार (पीठबंध प्ररूपणा)

अथ, मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्र लिखा जाता है।

[मंगलाचरण]

(दोहा)
मंगलमय मंगलकरण, वीतराग-विज्ञान।
नमौं ताहि जातैं भये, अरहंतादि महान ।।१।।
करि मंगल करिहौं महा, ग्रंथकरनको काज।
जातैं मिलै समाज सब, पावै निजपद राज।।२।।

अथ, मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्र का उदय होता है। वहाँ मंगल करते हैं :-

णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।

यह प्राकृतभाषामय नमस्कार मंत्र है सो महामंगलस्वरूप है। तथा इसका संस्कृत ऐसा होता है :-नमोऽर्हद्भ्यः। नमः सिद्धेभ्यः, नमः आचार्येभ्यः, नमः उपाध्यायेभ्यः, नमो लोके सर्वसाधुभ्यः। तथा इसका अर्थ ऐसा है :- नमस्कार अरहंतोंको, नमस्कार सिद्धों को, नमस्कार आचार्योंको, नमस्कार उपाध्यायोंको, नमस्कार लोकमें समस्त साधुओंको। — इसप्रकार इसमें नमस्कार किया, इसलिये इसका नाम नमस्कारमंत्र है।

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अब यहाँ जिनको नमस्कार किया उनके स्वरूप का चिन्तवन करते हैं :-

अरहंतों का स्वरूप

वहाँ प्रथम अरहंतोंके स्वरूपका विचार करते हैंः — जो गृहस्थपना त्यागकर, मुनिधर्म अंगीकार करके, निजस्वभावसाधन द्वारा चार घातिकर्मोंका क्षय करके — अनंतचतुष्टयरूप विराजमान हुए; वहाँ अनंतज्ञान द्वारा तो अपने अनंतगुण-पर्याय सहित समस्त जीवादि द्रव्योंको युगपत् विशेषपनेसे प्रत्यक्ष जानते हैं, अनंतदर्शन द्वारा उनका सामान्य अवलोकन करते हैं, अनंतवीर्य द्वारा ऐसी सामर्थ्यको धारण करते हैं, अनंतसुख द्वारा निराकुल परमानन्दका अनुभव करते हैं। पुनश्च, जो सर्वथा सर्व राग-द्वेषादि विकारभावोंसे रहित होकर शांतरसरूप परिणमित हुए हैं; तथा क्षुधा-तृषादि समस्त दोषोंसे मुक्त होकर देवाधिदेवपनेको प्राप्त हुए हैं; तथा आयुध-अंबरादिक व अंगविकारादिक जो काम-क्रोधादि निंद्यभावोंके चिह्न उनसे रहित जिनका परम औदारिक शरीर हुआ है; तथा जिनके वचनोंसे लोकमें धर्मतीर्थ प्रवर्तता है, जिसके द्वारा जीवोंका कल्याण होता है; तथा जिनके लौकिक जीवोंको प्रभुत्व माननेके कारणरूप अनेक अतिशय और नानाप्रकारके वैभवका संयुक्तपना पाया जाता है; तथा जिनका अपने हितके अर्थ गणधर – इन्द्रादिक उत्तम जीव सेवन करते हैं।

— ऐसे सर्वप्रकारसे पूजने योग्य श्री अरहंतदेव हैं, उन्हें हमारा नमस्कार हो।

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सिद्धोंका स्वरूप

अब, सिद्धोंका स्वरूप ध्याते हैंः — जो गृहस्थ-अवस्थाको त्यागकर, मुनिधर्मसाधन द्वाराचार घातिकर्मोंका नाश होने पर अनंतचतुष्टय स्वभाव प्रगट करके, कुछ काल पीछे चार अघातिकर्मोंके भी भस्म होने पर परम औदारिक शरीरको भी छोड़कर ऊर्ध्वगमन स्वभावसे लोकके अग्रभागमें जाकर विराजमान हुए; वहाँ जिनको समस्त परद्रव्योंका सम्बन्ध छूटनेसे मुक्त अवस्थाकी सिद्धि हुई, तथा जिनके चरम शरीरसे किंचित् न्यून पुरुषाकारवत् आत्मप्रदेशोंका आकार अवस्थित हुआ, तथा जिनके प्रतिपक्षी कर्मोंका नाश हुआ, इसलिये समस्त सम्यक्त्व- ज्ञान-दर्शनादिक आत्मिक गुण सम्पूर्णतया अपने स्वभावको प्राप्त हुए हैं, तथा जिनके नोकर्मका सम्बन्ध दूर हुआ, इसलिये समस्त अमूर्त्तत्वादिक आत्मिक धर्म प्रगट हुए हैं, तथा जिनके भावकर्मका अभाव हुआ, इसलिये निराकुल आनन्दमय शुद्धस्वभावरूप परिणमन हो रहा है; तथा जिनके ध्यान द्वारा भव्य जीवोंको स्वद्रव्य – परद्रव्यका और औपाधिकभाव ****– स्वभावभावोंकाविज्ञान होता है, जिसके द्वारा उन सिद्धोंके समान स्वयं होनेका साधन होता है। इसलिये साधने योग्य जो अपना शुद्धस्वरूप उसे दर्शानेको प्रतिबिम्ब समान हैं तथा जो कृतकृत्य हुए हैं, इसलिये ऐसे ही अनंतकाल पर्यंत रहते हैं। — ऐसे निष्पन्न हुए सिद्धभगवानको हमारा नमस्कार हो।

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आचार्यउपाध्यायसाधुका सामान्य स्वरूप

अब, आचार्य – उपाध्याय – साधुके स्वरूपका अवलोकन करते हैंः —

जो विरागी होकर, समस्त परिग्रहका त्याग करके, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकारकरके — अंतरंगमें तो उस शुद्धोपयोग द्वारा अपनेको आपरूप अनुभव करते हैं, परद्रव्यमेंअहंबुद्धि धारण नहीं करते, तथा अपने ज्ञानादिक स्वभावको ही अपना मानते हैं, परभावोंमें ममत्व नहीं करते, तथा जो परद्रव्य व उनके स्वभाव ज्ञानमें प्रतिभाषित होते हैं उन्हें जानते तो हैं, परन्तु इष्ट-अनिष्ट मानकर उनमें राग-द्वेष नहीं करते; शरीरकी अनेक अवस्थाएँ होती हैं, बाह्य नाना निमित्त बनते हैं, परन्तु वहाँ कुछ भी सुख-दुःख नहीं मानते; तथा अपने योग्य बाह्य क्रिया जैसे बनती हैं वैसे बनती हैं, खींचकर उनको नहीं करते; तथा अपने उपयोगको बहुत नहीं भ्रमाते हैं, उदासीन होकर निश्चलवृत्तिको धारण करते हैं; तथा कदाचित् मंदरागके उदयसे शुभोपयोग भी होता है — उससे जो शुद्धोपयोगके बाह्य साधन हैं उनमें अनुराग करते हैं, परन्तु उस रागभावको हेय जानकर दूर करना चाहते हैं; तथा तीव्र कषायके उदयका अभाव होनेसे हिंसादिरूप अशुभोपयोग परिणतिका तो अस्तित्व ही नहीं रहा है; तथा ऐसी अन्तरंग (अवस्था) होने पर बाह्य दिगम्बर सौम्यमुद्राधारी हुए हैं, शरीरका सँवारना आदि विक्रियाओंसे रहित हुए हैं, वनखण्डादिमें वास करते हैं, अट्ठाईस मूलगुणोंका अखण्डित पालन करते हैं; बाईस परीषहोंको सहन करते हैं, बारह प्रकारके तपोंको आदरते हैं, कदाचित् ध्यानमुद्रा धारण करके प्रतिमावत् निश्चल होते हैं, कदाचित् अध्ययनादिक बाह्य धर्मक्रियाओंमें प्रवर्तते हैं, कदाचित् मुनिधर्मके सहकारी शरीरकी स्थितिके हेतु योग्य आहार-विहारादि क्रियाओंमें सावधान होते हैं।

ऐसे जैन मुनि हैं उन सबकी ऐसी ही अवस्था होती है।

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आचार्यका स्वरूप

उनमें जो सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्रकी अधिकतासे प्रधान पद प्राप्त करके संघमेंनायक हुए हैं; तथा जो मुख्यरूपसे तो निर्विकल्प स्वरूपाचरणमें ही मग्न है और जो कदाचित् धर्मके लोभी अन्य जीव-याचक उनको देखकर राग अंशके उदयसे करुणाबुद्धि हो तो उनको धर्मोपदेश देते हैं, जो दीक्षाग्राहक हैं उनको दीक्षा देते हैं, जो अपने दोषोंको प्रगट करते हैं, उनको प्रायश्चित्त विधिसे शुद्ध करते हैं।

ऐसे आचरण अचरानेवाले आचार्य उनको हमारा नमस्कार हो।

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उपाध्यायका स्वरूप

तथा जो बहुत जैन-शास्त्रोंके ज्ञाता होकर संघमें पठन-पाठनके अधिकारी हुए हैं; तथाजो समस्त शास्त्रोंका प्रयोजनभूत अर्थ जान एकाग्र हो अपने स्वरूपको ध्याते हैं, और यदि ****कदाचित् कषाय अंशके उदयसे वहाँ उपयोग स्थिर न रहे तो उन शास्त्रोंको स्वयं पढ़ते हैं तथा अन्य धर्मबुद्धियोंको पढ़ाते हैं।

ऐसे समीपवर्ती भव्योंको अध्ययन करानेवाले उपाध्याय, उनको हमारा नमस्कार हो।

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साधुका स्वरूप

पुनश्च, इन दो पदवी धारकोंके बिना अन्य समस्त जो मुनिपदके धारक हैं तथा जोआत्मस्वभावको साधते हैं; जैसे अपना उपयोग परद्रव्यमें इष्ट-अनिष्टपना मानकर फ ँसे नहीं व भागे नहीं वैसे उपयोगको सधाते हैं और बाह्यमें उनके साधनभूत तपश्चरणादि क्रियाओंमें प्रवर्तते हैं तथा कदाचित् भक्ति – वंदनादि कार्योंमें प्रवर्तते हैं।

ऐसे आत्मस्वभावके साधक साधु हैं, उनको हमारा नमस्कार हो।

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पूज्यत्वका कारण

इस प्रकार इन अरहंतादिका स्वरूप है सो वीतराग-विज्ञानमय है। उसहीके द्वाराअरहंतादिक स्तुतियोग्य महान हुए हैं। क्योंकि जीवतत्त्वकी अपेक्षा तो सर्व ही जीव समान हैं, परन्तु रागादि विकारोंसे व ज्ञानकी हीनतासे तो जीव निन्दायोग्य होते हैं और रागादिककी हीनतासे व ज्ञानकी विशेषतासे स्तुतियोग्य होते हैं; सो अरहंत-सिद्धोंके तो सम्पूर्ण रागादिकी हीनता और ज्ञानकी विशेषता होनेसे सम्पूर्ण वीतराग-विज्ञानभाव संभव है और आचार्य, उपाध्याय तथा साधुओंको एकदेश रागादिककी हीनता और ज्ञानकी विशेषता होनेसे एकदेश वीतराग-विज्ञान संभव है। — इसलिये उन अरहंतादिकको स्तुतियोग्य महान जानना।

पुनश्च, ये जो अरहंतादिक पद हैं उनमें ऐसा जानना कि — मुख्यरूपसे तो तीर्थंकरकाऔर गौणरूपसे सर्वकेवलीका प्राकृत भाषामें अरहंत तथा संस्कृतमें अर्हत् ऐसा नाम जानना। तथा चौदहवें गुणस्थानके अनंतर समयसे लेकर सिद्ध नाम जानना। पुनश्च, जिनको आचार्यपद हुआ हो वे संघमें रहें अथवा एकाकी आत्मध्यान करें अथवा एकाविहारी हों अथवा आचार्योंमें भी प्रधानताको प्राप्त करके गणधरपदवीके धारक हों — उन सबका नाम आचार्य कहते हैं।

पुनश्च, पठन-पाठन तो अन्य मुनि भी करते हैं, परन्तु जिनको आचार्यों द्वारा दिया गया उपाध्यायपद प्राप्त हुआ हो वे आत्मध्यानादि कार्य करते हुए भी उपाध्याय ही नाम पाते हैं। तथा जो पदवीधारक नहीं हैं वे सर्व मुनि साधुसंज्ञाके धारक जानना।

यहाँ ऐसा नियम नहीं है कि — पंचाचारोंसे आचार्यपद होता है, पठन-पाठनसेउपाध्यायपद होता है, मूलगुणोंके साधनसे साधुपद होता है; क्योंकि ये क्रियाएँ तो सर्व मुनियोंके साधारण हैं, परन्तु शब्दनयसे उनका अक्षरार्थ वैसे किया जाता है। समभिरूढ़नयसे पदवीकी अपेक्षा ही आचार्यादिक नाम जानना। जिसप्रकार शब्दनयसे जो गमन करे उसे गाय कहते हैं, सो गमन तो मनुष्यादिक भी करते हैं; परन्तु समभिरूढ़नयसे पर्याय-अपेक्षा नाम है। उसही प्रकार यहाँ समझना।

यहाँ सिद्धोंसे पहले अरहंतोंको नमस्कार किया सो क्या कारण ? ऐसा संदेह उत्पन्नहोता है। उसका समाधान यह हैः — नमस्कार करते हैं सो अपना प्रयोजन सधनेकी अपेक्षासेकरते हैं; सो अरहंतोंसे उपदेशादिकका प्रयोजन विशेष सिद्ध होता है, इसलिये पहले नमस्कार किया है।

इसप्रकार अरहंतादिकका स्वरूप चिंतवन किया, क्योंकि स्वरूप चिंतवन करनेसे विशेषकार्यसिद्धि होती है। पुनश्च, इन अरहंतादिकको पंचपरमेष्टी कहते हैं; क्योंकि जो सर्वोत्कृष्ट इष्ट हो उसका नाम परमेष्ट है। पंच जो परमेष्ट उनका समाहार-समुदाय उसका नाम पंचपरमेष्टी जानना।

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पुनश्च — ऋषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ,पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुन्थु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व, वर्द्धमान नामके धारक चौबीस तीर्थंकर इस भरतक्षेत्रमें वर्तमान धर्मतीर्थके नायक हुए हैं; गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण कल्याणकोंमें इन्द्रादिकों द्वारा विशेष पूज्य होकर अब सिद्धालयमें विराजमान हैं; उन्हें हमारा नमस्कार हो।पुनश्च — सीमंधर, युगमंधर, बाहु, सुबाहु, संजातक, स्वयंप्रभ, वृषभानन, अनंतवीर्य,सूरप्रभ, विशालकीर्ति, वज्रधर, चन्द्रानन, चन्द्रबाहु, भुजंगम, ईश्वर, नेमिप्रभ, वीरसेन, महाभद्र, देवयश, अजितवीर्य नामके धारक बीस तीर्थंकर पंचमेरु सम्बन्धी विदेह क्षेत्रोंमें वर्तमानमें केवलज्ञान सहित विराजमान हैं; उन्हें हमारा नमस्कार हो।

यद्यपि परमेष्टीपदमें इनका गर्भितपना है तथापि विद्यमानकालमें इनकी विशेषता जानकरअलग नमस्कार किया है।

पुनश्च, त्रिलोकमें जो अकृत्रिम जिनबिम्ब विराजमान हैं, मध्यलोकमें विधिपूर्वक कृत्रिम जिनबिम्ब विराजमान हैं; जिनके दर्शनादिकसे एक धर्मोपदेशके बिना अन्य अपने हितकी सिद्धि जैसे तीर्थंकर – केवलीके दर्शनादिकसे होती है वैसे ही होती है; उन जिनबिम्बोंको हमारा नमस्कारहो।

पुनश्च, केवलीकी दिव्यध्वनि द्वारा दिये गये उपदेशके अनुसार गणधर द्वारा रचे गयेअंग-प्रकीर्णक, उनके अनुसार अन्य आचार्यादिकों द्वारा रचे गये ग्रंथादिक — ऐसे ये सबजिनवचन हैं; स्याद्वाद चिह्न द्वारा पहिचानने योग्य हैं, न्यायमार्गसे अविरुद्ध हैं इसलिये प्रामाणिक हैं; जीवको तत्त्वज्ञानका कारण हैं, इसलिये उपकारी हैं; उन्हें हमारा नमस्कार हो।

पुनश्च — चैत्यालय, आर्यिका, उत्कृष्ट श्रावक आदि द्रव्य; तीर्थक्षेत्रादि क्षेत्र; कल्याणकालआदि काल तथा रत्नत्रय आदि भाव; जो मेरे नमस्कार करने योग्य हैं, उन्हें नमस्कार करता हूँ, तथा जो किंचित् विनय करने योग्य हैं, उनकी यथायोग्य विनय करता हूँ।

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इस प्रकार अपने इष्टोंका सन्मान करके मंगल किया है। अब, वे अरहंतादिक इष्ट कैसे हैं सो विचार करते हैंः —

जिसके द्वारा सुख उत्पन्नहो तथा दुःखका विनाश हो उस कार्यका नाम प्रयोजन है; और जिसके द्वारा उस प्रयोजनकी सिद्धि हो वही अपना इष्ट है। सो हमारे इस अवसरमें वीतराग-विशेषज्ञानका होना वही प्रयोजन है, क्योंकि उसके द्वारा निराकुल सच्चे सुखकी प्राप्ति होती है और सर्व आकुलतारूप दुःखका नाश होता है।

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