मोक्षमार्ग प्रकाशक | Mokshmarg Prakashak

आचार्यउपाध्यायसाधुका सामान्य स्वरूप

अब, आचार्य – उपाध्याय – साधुके स्वरूपका अवलोकन करते हैंः —

जो विरागी होकर, समस्त परिग्रहका त्याग करके, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकारकरके — अंतरंगमें तो उस शुद्धोपयोग द्वारा अपनेको आपरूप अनुभव करते हैं, परद्रव्यमेंअहंबुद्धि धारण नहीं करते, तथा अपने ज्ञानादिक स्वभावको ही अपना मानते हैं, परभावोंमें ममत्व नहीं करते, तथा जो परद्रव्य व उनके स्वभाव ज्ञानमें प्रतिभाषित होते हैं उन्हें जानते तो हैं, परन्तु इष्ट-अनिष्ट मानकर उनमें राग-द्वेष नहीं करते; शरीरकी अनेक अवस्थाएँ होती हैं, बाह्य नाना निमित्त बनते हैं, परन्तु वहाँ कुछ भी सुख-दुःख नहीं मानते; तथा अपने योग्य बाह्य क्रिया जैसे बनती हैं वैसे बनती हैं, खींचकर उनको नहीं करते; तथा अपने उपयोगको बहुत नहीं भ्रमाते हैं, उदासीन होकर निश्चलवृत्तिको धारण करते हैं; तथा कदाचित् मंदरागके उदयसे शुभोपयोग भी होता है — उससे जो शुद्धोपयोगके बाह्य साधन हैं उनमें अनुराग करते हैं, परन्तु उस रागभावको हेय जानकर दूर करना चाहते हैं; तथा तीव्र कषायके उदयका अभाव होनेसे हिंसादिरूप अशुभोपयोग परिणतिका तो अस्तित्व ही नहीं रहा है; तथा ऐसी अन्तरंग (अवस्था) होने पर बाह्य दिगम्बर सौम्यमुद्राधारी हुए हैं, शरीरका सँवारना आदि विक्रियाओंसे रहित हुए हैं, वनखण्डादिमें वास करते हैं, अट्ठाईस मूलगुणोंका अखण्डित पालन करते हैं; बाईस परीषहोंको सहन करते हैं, बारह प्रकारके तपोंको आदरते हैं, कदाचित् ध्यानमुद्रा धारण करके प्रतिमावत् निश्चल होते हैं, कदाचित् अध्ययनादिक बाह्य धर्मक्रियाओंमें प्रवर्तते हैं, कदाचित् मुनिधर्मके सहकारी शरीरकी स्थितिके हेतु योग्य आहार-विहारादि क्रियाओंमें सावधान होते हैं।

ऐसे जैन मुनि हैं उन सबकी ऐसी ही अवस्था होती है।

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