आत्मिक सुख जो भोगता है उसकी कल्पना नहीं अनुभव ही किया जा सकता है स्वयं वह सुख भोगकर

चखा नहीं है स्वाद अभी तक
इसीलिए है चाह नहीं
एक कणिका भी गर चख ले
तेरे सुख का पार नहीं

करूँ लक्ष्य फिर उसी एक का ।
जिसमें आनंद भरा अपार ॥
और त्याग दूँ अन्य सभी कुछ ।
मानुस जनम करुँ साकार ॥

रचायता :- तन्मय जैन

जिसने ध्याया वीतराग को ।
राग उसी का रीत गया ॥
हुआ सार्थक जन्म उसी का ।
कर्म शत्रु जो जीत गया ॥