मैं भी शीघ्र देह को त्यागूँ
वैदेही भगवान बनूँ
जन्म मरण संकट सब तजकर
मुक्ति रमणी शीघ्र वरूँ
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जिसने न जाना स्वयं को
बस देह में रमता रहा।
सुख खोजता उस देह में
संसार में भ्रमता रहा ।।
किंचित ना पाई सौख्य कणिका
दु:ख पाता ही रहा ।
उस दु:ख को भी सुख समझ
बस स्वयं को ठगता रहा।।
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तुम ज्ञानी ध्यानी आत्मा
तीन लोक के नाथ ॥
वीतरागता आपकी
सकल जगत विख्याता ॥
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हम सभी मरना नहीं चाहते, हँसते खेलते परिवार को छोड़कर जाना नहीं चाहते, फिर भी हमारी मृत्यु क्यों होती है❓ आखिर जन्म-मरण कैसे समाप्त हो सकता है❓
क्षणभंगुरता देख जगत की ।
अब ना जगत सुहाता है ॥
जो इस जग से भऐ पार ।
मन उनकी महीमा गाता है ॥
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