प्रवचनसार गाथा १०१ पर गुरुदेवश्री के प्रवचन में आता है कि तत्त्वार्थ सूत्र में “उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य” युक्तं सत कहा है। “उत्पाद-व्यय-ध्रुव” युक्तं सत नहीं।
आगे कहते है कि ध्रौव्य अर्थात ध्रुव का भावपना — स्थायी भाव। और ध्रौव्य पर्याय का अंश है, ध्रुव का नहीं।
प्रश्न: प्रमाण द्रव्य तो ध्रुव + पर्याय होता है — यहाँ पर “उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य” लिया है जिसको पर्याय के ही तीन अंश लिए है (देखिए उपरोक्त में दूसरी पंक्ति). तो फिर ३ पर्याय के अंश से प्रमाण का द्रव्य कैसे सिद्ध हो गया?
ये तीन पर्याय के ही भेद है, आगे फिर उसपर ज़ोर दिया है:
आगे वे और स्पष्ट करते है कि यह निश्चयनय का द्रव्य (ध्रुव) नहीं है। यहाँ तो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य तीन होकर पर्याय है इसलिए यहाँ प्रमाण का विषय सिद्ध करना है। तो प्रश्न है कि पर्याय के तीन अंश से प्रमाण का द्रव्य कैसे सिद्ध हुआ? क्योंकि उसमें ध्रुव का “भाव” (ध्रौव्य) आ गया इसलिए?
ध्रौव्य पर्याय का अंश है,वह पर्याय किसकी ?उत्तर - ध्रुव की
जैसे ज्ञान में मति -श्रुत का व्यय और केवलज्ञान का उत्पाद हुआ परंतु जो ज्ञान गुणदोनो अवस्था मे बना रहा वह कोई भी अवस्था मे बना रहा उसे पर्याय में स्थायी भाव कहेंगे।
प्रमाण = ध्रुव + पर्याय
पर्याय के तीन अंश = उत्पाद ,व्यय, ध्रौव्य इसमे ध्रौव्य में ध्रुव को गर्भित कर लिया।अर्थात ध्रुवपने को किसी अपेक्षा से ध्रुव कह दिया।
जी हाँ बिल्कुल सही समजा
विशेष- सिद्धांतप्रवेशिका के आधार से
ध्रौव्य - प्रत्यभि ज्ञान के कारणभूत द्रव्य की अवस्था की नित्यता को ध्रौव्य कहते है।
यहां पर
द्रव्य की अवस्था = ध्रुव
नित्यता को ध्रौव्य = पर्याय की अपेक्षा
अर्थात यह वही है जो निगोद में,जो सिद्ध में वही मुजमे है इसका कभी नाश नही हो सकता में तो अनादि अनंत हु।
द्रव्य के धर्म को वह धर्म द्रव्य से यूक्त है यह बताने के लिए पना शब्द प्रयोग करते है जैसे ज्ञान युक्तको ज्ञानपना
अविनाभाव संबंध
नहीं
यहाँ गुरुदेव श्री जैसे ज्ञान में मतिज्ञान,श्रुतज्ञान,केवलज्ञान आदि पर्याय रूप अवस्था उसको हमे लक्ष्य नही करके आत्मा में ज्ञान गुण जो त्रिकाली(ध्रुव) रूप से पाया जाता है वही में हूँ उसका लक्ष्य करना है।
यहाँ पर पर्याय की नित्यता नहीं दर्शाई जा रही है। पर्याय में जो ध्रुव सम्बन्धी नित्यता है, उसे दर्शाना है, जो ध्रौव्य है। मेरी यह समझ है। जैसे निगोद में ज्ञान भी ज्ञान की पर्याय, केवलज्ञान भी ज्ञान की पर्याय है – लेकिन पर्याय में “ज्ञान सामान्य” सहित जो अभेद रूप से सारे गुण सामान्य रूप से विद्यमान है, वह ध्रौव्य है।
सिद्धांतप्रवेशिका में अवस्था की नित्यता लिखा है। अवस्था में रहने वाले गुण नहीं लिखा। या तो आप यह सिद्ध कर रहे है कि अवस्था शब्द गुण का पर्यायवाची है। वैसे अवस्था गुण की ही होती है। किंतु यहाँ उत्पाद व्यय ध्रौव्य व्यक्त परिणाम की बात चल रही अव्यक्त गुण की नहीं।
अवस्था में निरन्तर अवस्थित रहना ही ध्रौव्य है और परिणमित होना उत्पाद-व्यय।
जैसे - एक ही समय में ज्ञान में मति का व्यय, श्रुत का उत्पाद और ज्ञानत्व कायम। यहाँ ज्ञानत्व न तो द्रव्य है, न गुण अपितु पर्याय का धर्म है।
मिथ्यादर्शन में मिथ्यापना तो हेय है किन्तु दर्शन-पना उपादेय है। - समयसार गाथा 90
ध्रुव ओर ध्रोव्य की सम्पुर्ण चर्चा का सार निम्न है 1 ध्रोव्य पर्याय मे रहने वाला ध्रुव का नित्य अंश है जिसको प्रत्यभिज्ञान का विषय भी कह सकते है
2 उत्पाद व्यय ओर ध्रोव्य तीनो मिलकर ही पर्याय है
3 ध्रोव्य यधपि ध्रुव का ही नित्य रहने वाला बदलता हुआ भाव है निर्मल ओर मलिन हो सकता है
4 ध्रुवका एक जैसा टंकोत्कीर्ण रहकर भी वैसा का वैसा परिणमना वह निर्मल ध्रोव्य है
5 ध्रव का पर्याय स्वभाव ओर वैभाविकी शक्ति कि व्यक्ति रूप पराश्रय से परीणमने वाला भाव मलिन ध्रोव्य है