अंग दान करना जिनागम की दृष्टि से उचित है या नहीं? कृपया विस्तार से चर्चा करें। संभव हो तो सप्रमाण प्रस्तुत करें।
अंगदान
5 वर्ष पहले की घटना/-
भगवान महावीर जयंती पर मंगलवार को जैन समाज कई आयोजन करेगा। समाजजन अंगदान-नेत्रदान का संकल्प लेंगे, वहीं रक्तदान शिविर भी लगेगा। सुदामा नगर स्थित आदिनाथ दिगंबर जैन मंदिर में वीरप्रभु का जन्मकल्याणक मनाया जाएगा। इसमें सुबह अभिषेक, शांतिधारा के बाद शोभायात्रा निकाली जाएगी। इसमें महिलाएं कलश लेकर चलेंगी।
सवाल यह उठता है कि जैनधर्म में इसकी अनुमति है या नही?
सर्वत्र दान-दया का प्रचार करने वाला जैनधर्म अंगों के दान की अनुमति स्पष्ट रूप से नही ही देता। क्योंकि/-
• अंगदान अर्थात हिंसक कार्य (अपने शरीर के जीव किसी दूसरे शरीर के जीव से जब जुड़ेंगे तो हिंसा होगी।)
• किसी व्यक्ति की प्रवृति-कार्य कुछ नही मालूम (सुना ही होगा कि यदि कसाई को हाथ अंगदान में दिए जाएं तो उनसे वह पूजा नही करेगा!)
• आगम में भगवान शांतिनाथ की पूर्व पर्याय, राजा मेघरथ के अंगदान के प्रकरण से सभी वाकिफ़ हैं, किंतु वहाँ किसी अन्य जीव को बचाना उद्देश्य था, अंगदान को बढ़ाना नही।
साथ ही/-
पृष्ठ- 173 (रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पंचम सम्यक दर्शन अधिकार)
स्पष्ट प्रमाण ना होने से जबरदस्ती अपनी बात सिद्ध करने जैसा यह बिंदु हो सकता है परंतु यदि इसमें दिए गया कारणों का विचार करेंगे, तो बात स्पष्ट होगी।
- खोटा पदार्थ का दान, कुदान
- महाहिंसा का कारण
- अनेक जीवों की उत्पत्ति का कारण
• व्यवहार के नाम पर ये कहना कि यदि जैनधर्म के लोग कहें कि रक्त दान- अंग दान ये उचित नही तो उन्हें जनता क्रूर समझेगी, बात जमती तो है परंतु इसके आधार पर हिंसक कार्य में पाप नही है, ऐसा सन्देश विश्वभर में फैलाने का पाप जैनी ना ही करें तो बेहतर है।
आपकी बात से पूर्णतः सहमत हूँ, लेकिन क्या अंगदान के प्रकरण को जिनमंदिर के निर्माण जैसे कार्य के आलोक में देखा जाना चाहिए?
• जिनमंदिर बनाने में हिंसा है, किंतु स्पष्ट है (सावद्यलेशो बहुपुण्यराशो), वहीं अंगदान कोई पवित्र कार्य नही है, पुण्य का कार्य नही है।
• द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव, इन बातों के विचार पूर्वक सम्यक दान ही दान है, मंदिर में दान देना आगम-अनुकूल है, लेकिन अंगदान के सम्बंध में आगम मौन है (यदि इसके विपरीत बात है तो प्रेषित करें, हर्ष होगा)।
पुनः यदि द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से विचार करेंगें तो शायद उत्तर आपके पक्ष में होगा।
भाई! प्रकरण मंदिर का नहीं हिंसा अहिंसा से सम्बंधित है। एतदर्थ विषयानुकूल है।
जिनागम अनेकों विषयों के संदर्भ में मौन है ऐसे में विवेक से निर्णय ही उचित है। एक धारा से तो अंगदान और रक्त दान को नकारा नहीं जा सकता।
एकेंद्रिय की अपेक्षा भी पंचेंद्रिय के प्राणों की रक्षा को शीर्ष पर रखा गया है। (छलं न घे…)
यह उत्तर सामान्य विवेक से दिया जा रहा है। केवल अपने विचार के exchange के रूप में।
यदि हम रक्त देने या अंग देने की क्रिया को दान शब्द से न जोड़े तो निर्णय अधिक आसान हो जाएगा। रक्त देना या अंग देना किसी प्रकार का दान है ऐसी मानना तो शायद गलत ही होगी। चाहे वह साधर्मी के लिए ही क्यो न हो। और फिर रक्त देने के निर्णय में सामने वाला अपना है या अनजान यह कोई फैक्टर नही। क्योंकि वह भी मनुष्य ही है। अधिकतर संजोग में बात उस मनुष्य के जीवन मरण की होती है। उस मनुष्य की समाज मे कितनी आवश्यकता है उसकी नही।
धार्मिक समझ पूर्वक सांसारिक प्रसंग के निर्णय आवश्यकता और अनिवार्यता के आधार से लेने पड़ते है।
यह कार्य हिंसायुक्त है इसमें कोई विवाद नही है। हिंसा का कार्य हो तो पाप बंध होता है। किंतु अभिप्राय हिंसा का नही।
इसलिए यदि कभी अनिवार्य कारण वश उस कार्य को करना पड़ता है तब उसमें दान बुद्धि न करते हुए हेय बुद्धि से “अरे! संसार में रहते हुए कितने ऐसे हिंसादि कार्य में मुजे जुड़ना पड़ रहा है। अब यह संसार भव भ्रमण का नाश करना है।” ऐसी संसार विरक्ति रहती है। इस कार्य को किसी अपेक्षा से justify करके उस कार्य में धार्मिक स्वीकृति प्राप्त करने की आवश्यकता नही लगती।
ऐसे सांसारिक प्रसंग और हिंसादि कार्य के लिए जिनागम में अनुमति ढूंढना उचित नही। और सामाजिक स्तर पर ऐसा प्रचार करना कि “जिनागम अनुमति नही देता” वह अपने धर्म के अख्याति का कारण बनने से इस कार्य के हिंसादि स्वरूप को संभलकर प्रगट करना उचित है।