दूध भक्ष्य या अभक्ष्य

:pray:t2: वर्तमान उपलब्ध आगम में अपना विवेक लगाकर के जैन-धर्म-दर्शन के अहिंसा सिद्धांत का तथा दया का पालन करने का निर्देश है। …

Statistical view से देखे तो वर्तमान में 130+ करोड़ की मानव आबादी के भारत देश में 20-25 करोड़ की संख्या में भी दूध देनेवाली गाय + भैंसे नहीं है। … Out of 130+ करोड़ जनसंख्या पशुजन्य दूध, दही, घी आदि का उपयोग करनेवाले भारतीय 80-100 करोड़ पकड़े तो भी Demand is way Too higher than supply units … तो फिर इतने बड़े प्रमाण में दूध प्राप्त कैसे होता है!? … दही, मक्खन, बटर, घी, छाछ, मावा, खोवा, पनीर, मिठाईयाँ, चॉकलेट बहुत बड़ी लिस्ट है दुग्धजन्य पदार्थों की इतना सारा दूध आता कहाँ से और कैसे है??? … उपलब्ध Supply Units के साथ अनैतिकता के बिना इतनी demand पूर्ण जो पाना संभव ही नहीं है यह समझना मुश्किल नहीं है। … गाय, भैंस इन जीवों पर बंधनात्मक जीवन के साथ-साथ अतिभार रोपण का जैन धर्म विपरीत कर्म हो रहा है इसमें बिल्कुल भी शंका नहीं।

दूध के निमित्त गाय, भैंस आदि पशु जीवों के साथ हो रही हिंसा, अन्याय, अत्याचार, अनीति स्पष्ट सामने है। … दया जैन धर्म का मूल है। अहिंसा परम धर्म है। … और अधिक आगम निर्देशों की आवश्यकता ही नहीं है।

गाय, भैंस का खुद होकर दूध झराना और उनके स्तनों को स्पर्श करके दूध निकालना यह अत्यंत भिन्न विषय है। अगर गाय, भैंस खुद होकर दूध झरावे (सूर्योदय के 48 मिनट बाद, सुर्यास्त के 48 मिनट पहले आदि जैनाचार नुसार) तो उसके उपयोग का सोच सकते है, इस प्रसंग में भी शरीर और रसना इन्द्रिय पुष्टि नहीं करनी सो दूध त्याग यही भाव-प्रयास श्रेष्ठ होगा। …

चावल का दूध, नारियल का दूध, बादाम का दूध, आक्रोड, सोया आदि का दूध घर पर बना सकते है जो जैन धर्म-दर्शन के पदार्थों के काल मर्यादा आदि नुसार अधिक शुद्ध, भक्ष्य पदार्थों में आता है। … :pray:t2:

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मुझे एक बात समझ मे नहीं आ रही है कि फालतू में एक ही बात क्यों बार बार कर रहे हैं सब?

सबने स्वीकार कर तो लिया है कि हिंसक तौर तरीकों से दूध नहीं निकालना चाहिए।

अब दूध अभक्ष्य है इसका तो कोई तर्क दे नहीं रहा, फालतू के प्रवचन दिए जा रहे हैं। अगर आगमानुकूल तर्क है तो रखो, नहीं है तो बेकार की चर्चा न करो।

और जिसे दूध नहीं पीना है बिल्कुल मत पियो और हो सके तो खाना खाना और पानी पीना भी छोड़ दो, क्योंकि खाने से भी तो रसना इन्द्रिय पुष्ट हो रही होगी। इसलिए भूखे ही रहो। और ये तर्क मत देना कि वो आवश्यक है इसलिए खाते हैं।

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प्रवचनकर्ता अगर इस तरह की बातें कहेंगें तो बाकी लोगो पर क्या प्रभाव पड़ेगा!?
यहि तर्क दिया जाता है जब किसी को जमीकंद त्याग के लिए कहा जाता है।
बडी विडंबना है कि जो लोग समर्थन कर रहे है वो ये नही बोल रहे कि सिर्फ अभक्ष्य लिखा नही है आगम में कही इसलिए हम सेवन कर रहे है और सदियों से जो होता आ रहा है उसे सही मान रहे है आज के परिपेक्ष में नहीं देख रहे। सब अपने घरों में रहते है, दूध वाला आता है और हम उस दूध का सेवन कर लेते है। ये कोई क्यों नहीं कहता कि जहाँ से मेरे लिए दूध आया में वहाँ देख कर आया हूं। गाय या भैंस पूरी तरह आजाद है , बछड़ा माँ के पास है। नर बछड़ा भी जिंदा है। उसे किसी गोशाला में दान के नाम पर बूचड़खाने नही भेजा गया। उस माँ को क्रत्रिम रूप से गर्भ धारण नहीं करवाया।
जिस संज्ञी पञ्चिन्द्रीय पशु को सम्यक दर्शन धारण कर सकने योग्य बताया क्या वह उस तरह की पीड़ा का अनुभव नहीं करता होगा जो एक स्त्री करती है?

किसी की वस्तु बिना पूछे उठा लेना तो चोरी है। एक पञ्चिन्द्रीय पशु हमारी वजह से मरे वो उसके लिए हम आगम में देखना चाहते है कि इसे अभक्ष्य नहीं कहा।

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प्रत्यक्ष आगम में स्पष्ट रूप में अभक्ष्य नही कहा गया है।

परन्तु हमारे सामने जो घटित होता दिख रहा है अगर उस हिसाब से हम निर्णय लेवें तो अधिक सही है।

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भारत सरकार की योजना चलती है ताकि क्रत्रिम गर्भधारण हो और अत्यधिक दुग्ध उत्पादन हो। इस बजट में 70% तक बढ़ाने का प्रस्ताव भी था।

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अगर अभी भी लोगों को समझ मे नहीं आया हो तो सरकारी कागज पर इस बात को लिखवा कर के ले लेवें कि हिंसक रीति से प्राप्त हुए दूध का विरोध सभी एक स्वर में कर रहे हैं, और ऐसे कार्य की निंदा करते हैं, पीने योग्य उचित नहीं मानते।

लेकिन साथ मे एक कागज पर इस बात को भी सामने वाले लिख कर दे देवें कि आगम के आधार से दूध अभक्ष्य है, सभी तीर्थंकर अपराधी और अभक्ष्य भक्षी हैं, मुनिराजों को जीव दया का कोई ख्याल कभी आया ही नहीं। हम लोग ही ऐसे हैं जो जीव दया के बारे में सोचते हैं, बाकि सब महापुरुष तो रसना इन्द्रिय के महा लोलुपी थे।

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Hmm ye to mene bhi suna tha

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:pray:t2: Very sad … May people get wisdom n kindness to say NO to animal products … :pray:t2:

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:pray:t2: जय जिनेंद्र!

पशु दूध भक्ष्य या अभक्ष्य इस विषय में मुझ अल्पज्ञ का चिंतन:

*** जैन धर्म-दर्शन में स्त्री:

=> जैन धर्म-दर्शन नुसार तिर्यंच, मनुष्य, देव और अचेतन के भेद से चार प्रकार की स्त्रियाँ होती हैं। काष्ठ, पाषाण और लेप की ये तीन प्रकार की अचेतन स्त्रियाँ होती हैं।

=> संसारी गृहस्थ ने स्व-दार (मात्र अपनी धर्म-पत्नी में) संतोष रख अन्यत्र ब्रम्हचर्य का पालन करना चाहिये तथा ब्रम्हचर्य व्रत के पालक अणुव्रती या महाव्रतीयों को तो समस्त प्रकार के स्त्रीयों के संसर्ग से दूर रहने का उपदेश जैन धर्म-दर्शन में है।

=> इससे यह कहना गलत नहीं होगा के तिर्यंच गाय, भैंस आदि स्त्रियाँ संसारी गृहस्थ के लिये पर-स्त्री के समान है सो पुरुष ने तिर्यंच-स्त्रीयाँ गाय, भैंस आदि के स्तनों को (स्त्री-अंगों को) स्पर्श करना, निचोड़ना यह उन तिर्यंच स्त्रियों के साथ व्यभिचार, जबरदस्ती (Physical Abuse) करना ही है।

=> कुछ मनुष्य गाय को माँ कहते-मानते है पर! … मनुष्य-पुरुष अपनी जन्म देनेवाली मनुष्य-माँ की किसी स्वास्थ समस्या आदि के कारण सेवा-सुश्रुषा आदि करनी पड़े तो भी उसके स्तनों को स्पर्श करना, निचोड़ना आदि व्यभिचारी हरकते अपनी जन्म देनेवाली मनुष्य-माँ के साथ नहीं करते। …

=> तिर्यंच-स्त्री गाय को माँ कहकर (उसका दूध प्राप्त करने के लिये आदि) उसके स्तनों आदि शरीर को स्पर्श करने का दुःसाहस / पाप सज्जन मनुष्य पुरुष कर ही नहीं सकते। … किसी मनुष्य-स्त्री ने भी किसी तिर्यंच-स्त्री के स्तनों या शरीर को स्पर्श करना यह भी व्यभिचार ही है, Physical Abuse ही है।

=> गाय, भैंस आदि मूक जीव (स्त्रियाँ) बोल नहीं सकते और स्पर्श मत करो यह कह नहीं सकते इसका मतलब यह नहीं के वे उनके स्तनों आदि को स्पर्श करने की मनुष्य (स्त्री या पुरुष ) को अनुमति देती है और उनको वह स्पर्श अच्छा लगता है।

=> तिर्यंच स्त्रियों से दूध प्राप्त करते समय बहुत सी गायों आदि के पैर बांधने पड़ते है क्योंकि वे पैर मारती है … गाय आदि का इसप्रकार से पैर मारना यह उनका उनके स्तनों, शरीर आदि को स्पर्श करनेवाले के प्रति विरोध दर्शाना होता है, … मुझे स्पर्श मत करो, मेरा दूध मत निकालो यह कहना होता है। विवेकी समझदार व्यक्ति को यह समझना कठिन नहीं।

*** स्त्री-अंग स्तन आदि तथा पर-स्त्री शरीर को स्पर्श करके अर्थात व्यभिचार, जबरदस्ती, Physical Abuse करके प्राप्त किया गया गाय, भैंस आदि स्त्रियों का दूध भक्ष्य नहीं हो सकता, अभक्ष्य ही है। … इसप्रकार प्राप्त दूध सेवन या उपयोग करना यह मात्र उस तिर्यंच स्त्री के शाप (नकारात्मक ऊर्जा) लेना ही है, पाप-बंध ही है।

:pray:t2::pray:t2::pray:t2:
(2020 May 01 Fri.)

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आपने भली बात कही :pray:, मैंने भी पद्मपुराण में ऐसा पढ़ा है कि सीता जी जंगली भैसो का दूध निकलती थी और लक्ष्मण जी मिटटी के बर्तन बनाते थे… पश्चात दूध कि खीर बनाकर आप वन में मुनि के आहार कि प्रतीक्षा करते | शायद स्त्रियां ही दूध निकालती होंगी… पर यह अपनी अपनी सोच है ऐसा कोई नियम तो शायद नहीं, पर ऐसे सोचना प्रशंसनीय है | ऐसे तो बारात में पुरुष को घोड़ी पर बैठना भी शोभा नहीं देगा, राजा तो घोड़े या हाथी कि सवारी करते थे :sweat_smile:

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:pray:t2: जय जिनेंद्र!

सिर्फ मनुष्य-पुरुषों ने ही नहीं बल्कि मनुष्य-स्त्रियों ने भी तिर्यंच-स्त्री/पुरुष को स्पर्श करना उचित नहीं लगता क्योंकि मनुष्य समझ नहीं सकते की पशु को उनका स्पर्श करना अच्छा लगता है या स्वीकृत है या नहीं क्योंकि पशु बोल नहीं सकते। (Animals can’t say if they are comfortable with human touch or not n touching anyone without their will or permission isn’t good manners)

*** हमारे यहाँ एक stray कुत्ति है (I call her रानी), 2+ सालों से वह हमारे गली में, हमारे घर के आसपास ही रहती है क्योंकि हमारे घर के आसपास रहाना वह सुरक्षित समझती है, I can understand her trust on me that I wont harm her. … इन 2+ सालों में she has produced puppies 3 times (her recent puppy set is of 1+ month) … My experience is Rani do NOT like anyone touching her, if I try to pamper her she immediately goes anyway … रानी के इसबार के बच्चे भी human touch से comfortable नहीं लगते अबतक वे डरकर भाग जा रहे है उन्हें प्रेम से स्पर्श करने का प्रयास करो तो … But! इसके पहले के बच्चे खुद होकर पास आते थे उन्हें pampering अच्छा लगता था … So basically Animals may not like human touch … गाय, भैंस तिर्यंच-स्त्रीयों के स्तन आदि को स्त्री-अंगों को स्पर्श करना यह तो मनुष्य स्त्रियों ने भी ना करना ही विवेकपूर्ण लगता है। … (न जाने पूर्व भव में उस तिर्यंच के साथ हमारा क्या relationship रहा हो और अगर पूर्व में वह रिश्ते में पत्नी या पति, MIL, FIL आदि होगी तो हो सकता है उन्हें स्तन आदि को अपन स्पर्श करें तब उन्हें पूर्व संस्कार कारण भोग अनुभूति आदि हो …)

उपलब्ध आगम में हर एक नियम, निषेध स्पष्ट वाक्य रूप में मिलेगा ही यह नियम नहीं … पर अपना विवेक लगाकर, दया तथा अहिंसा का पालन करना, पशुओं की विराधना, असादना नहीं करना आदि मार्गदर्शन तो उपलब्ध आगम में भी स्पष्ट स्पष्ट है ही।

:pray:t2::pray:t2::pray:t2:

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ही? हमारे सारे ऊपर दिए गए तर्क झूठे हैं।

इसप्रकार? क्या किसी और प्रकार से लिया जाए तो भक्ष्य है या तीर्थंकर से गलती हो गयी है?

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आप पुष्ट क्या करना चाहती हैं?

जय जिनेंद्र!

गाय, भैंस आदि खुद होकर अपना दूध झरावे (जैसे चाँदनपुर के महावीर स्वामी का किस्सा है) तो कोई पेट भरने की अत्यंत आवश्यकता हो और अन्य कुछ भी सेवन करने योग्य उपलब्ध नहीं हो तब वह पशु ने स्वयं झराया दूध उपयोग करने की सोच सकता है।

स्त्री पशुओं का अपनेआप दूध झरना इसकाल में भी संभव है यह हमारा अनुभव है। … मनुष्यों की तरह पशु जीवों का शरीर भी कोई तत्व अधिक बन जावे तो वह अनावश्यक तत्व बाहर निकाल देता है। गाय, भैंस के अगर अधिक मात्रा में दूध बनता है तो उनके शरीर से वह झर जाता है।

तीर्थंकर भगवान जी ने जो दूध (खीर) सेवन किये वह पशु-दूध ही थे यह उल्लेख हमने तो अबतक नहीं पढ़ा सो हो सकता है वह दूध चावल, फल, नारियल, बादाम, आक्रोड़ आदि से बनाया गया हो! … सिर्फ चावल की खीर (बिना दूध की खीर) को भी खीर ही कहते है।

तीर्थंकर नेमिनाथ स्वामी के समय में कृष्ण हुये थे, कृष्ण के समय तक की गायों को रस्सी से बांधा हुआ किसी पुरातन चित्र आदि में नहीं दिखता। … गौ जैसा शांत जीव उसे रस्सी बाँधने की आवश्यकता बहुतांश (except some exception) नहीं होती। … गौ को वात्सल्य मिलता है तो दिनभर बाहर घूमकर, चरकर संध्या में वह अपनेआप वात्सल्य देने वालों के छत के नीचे आ जाती है।

बिना रस्सी, बंधन आदि के चलने-फिरने की स्वंत्रता से युक्त जीवन यह हर एक पशु का अधिकार है।

तिर्यंच पशु स्वतंत्र जीव है और निःसर्गत पशु, पक्षी स्वावलंबी होते है, पालने के नाम पर पशु, पक्षी को रस्सी से बाँधकर रखना, पिंजरे में रखना यह मात्र मनुष्य का स्वार्थ, लालच, लोभ और रसना-इन्द्रिय के चोचले है।

अहिंसा, दया के सिद्धांत से बढ़कर तर्क नहीं, किसी जीव की (पशु, पक्षी जैसे मूक जीव की ) स्वतंत्रता छीननेवाले विचार कुतर्क भी हो सकते है।

पालनी ही है तो पालने के लिये बीमार, बूढ़ी, लंगड़ी, अंधी ऐसी दूध देने में असमर्थ गायों, भैसों को क्यों नहीं पालने लाते??? … जो लोग गाय, भैंसे Pet है ऐसे दावे करते है उनमें से बहुतांश मात्र अच्छी, दूध दे सके ऐसी ही गायों, भैसों को पालते है!!! … So selfish!

:pray:t2::pray:t2::pray:t2:

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जय जिनेंद्र!

जैन धर्म-दर्शन नुसार अब्रम्ह (Intercouse) में भयंकर जीव हिंसा होती है (करोडों जीवों की हिंसा) … यह अब्रम्ह पशु-जीवों का हो या मनुष्यों का अहिंसात्मक नहीं होता।

मनुष्य-स्त्रियों की तरह पशु-स्त्रियों गाय, भैंस आदि में भी अब्रम्ह से गर्भधारणा होती है और बच्चे के जन्म के बाद अर्थात प्रसूति के बाद पशु-स्त्री माँ के दूध निकलना प्रारंभ होता है। So basically अब्रम्ह दूध का कारण है।

अब्रम्ह पाप, हिंसा के निमित्त निर्मित पशु दूध का सेवन, समर्थन यह पशु अब्रम्ह तथा हिंसा का समर्थन, अनुमोदन लगता है।

ब्रम्हचर्य का पालन करनेवालों ने अब्रम्ह के निमित्त के बिना निर्माण नहीं हो सकने वाले पशु दूध आदि के सेवन का भाव करना भी उनके ब्रम्हचर्य में दोष नहीं??? …
… (अब्रम्ह ना हो तो गया, भैंस के दूध भी ना हो!)

गाय, भैंस आदि पशु जीवों पर सच्चा-उपकार, सच्ची-दया, उनकी सच्ची-सेवा उन्हें अणुव्रती बनाना, वे ब्रम्हचर्य जीवन व्यतीत कर सके ऐसे संस्कार, उपदेश, अनुकूलता उन्हें देना यह लगती है। … गाय, भैंस आदि तिर्यंच-पशु सम्यग्दृष्टि, ब्रम्हचर्य पालक, अणुव्रती हो सकते है यह उल्लेख आगम में है। … So why not to think n try of their Real-Happiness?.. अपने पेट, जिव्हा के पूर्ण करने के स्वार्थ को छोड़कर गाय, भैंस आदि पशुओं को उनके सच्चे आत्म-कल्याण में ब्रम्हचर्य, अणुव्रत इनमें लगाने के भाव-प्रयास करना यह सही मायने में मनुष्यों की उनपर दया, प्रेम, वात्सल्य, उपकार करना लगता है।

सखोल चिंतन करे तो लगता है के पशु दूध यह पशु अब्रम्ह अर्थात हिंसा पाप का समर्थन, अनुमोदन करना है। अब्रम्ह मूल निमित्त है जिसका वह दूध भक्ष्य नहीं लगता! … दूसरों के खासकर पशुओं के अब्रम्ह का अनुमोदन, समर्थन नहीं करे कम से कम इतना ब्रमचर्य तो मनुष्यों ने पालना चाहिये ऐसा लगता है।

:pray:t2::pray:t2::pray:t2:
(2020 May 05 Tue.)

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Just wondering, इन परिणामो का फल क्या होगा? स्पर्श नहीं करना चाहते (ब्रमचर्य में विशेष सावधानी), बिना पूछे दूध भी नहीं लेना चाहते (अचौर्य में विशेष सावधानी), यदि स्वयं झरता हो तो ही लेंगे, शायद ऐसे ही परिणामो का फल कामधेनु गाय होता हो । कृष्ण मुरारी के पास 1000 कामधेनु गाय थी, नारायण किसी पर प्रसन्न होते तो उसे एक गाय भेट कर देते | परशुराम को भी योग्य शिस्य जानकर मुनि ने कामधेनु गाय भेट की थी (मुनि को विशेष पुण्य से कामधेनु गाय प्राप्त हुई थी पर मुनि को उससे क्या प्रयोजन ? इसलिए मुनि ने परशुराम को दे दी)। दूध कोई अभक्ष्य नहीं, जैसा ऊपर सभी ने स्पस्ट किया, परन्तु जीवो के भाति-भाति के परिणाम है, विशेष परिणाम का विशेष फल है।

पर पंडित जी की बात - "छोटे छोटे पापो में विशेष सावधानी रखे और मिथ्यात्व जैसे बड़े पाप करता रहे तो वह उचित नहीं "। इसलिए यदि यह परिणाम सम्यक्त्व सहित हो जावे तो उसका फल मुक्ति के साथ-साथ, भुक्ति रूप कामधेनु गाय की प्राप्ति भी होगा, जिससे कि बिना स्पर्श किये ही दूध, घी, दही आदि पंचामृत स्वादिस्ट भोज अपने आप ही मिल जायेगा । …just assumptions

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गाय प्राकृतिक रूप से ही एक अत्यंत ही सीधा साधा पशु है , जैसे कि सभी जीवों में स्वयं अस्तित्व की रक्षा हेतु कोई न कोई खूबी अवश्य ही होती है , पर गाय आत्मनिर्भर प्राणी नहीं है क्योंकि वो जंगलों में तो सुरक्षित कदापि नहीं है बल्कि शहरों में भी स्वयं भोजन की व्यवस्था में मानव पर आश्रित ही है
समूहों में होने के बाद भी यदि किसी जंगली पशु, अथवा कुत्ते के द्वारा भी हमला हो जाये तो इनका समूह तितर बितर हो जाता है।
अब यदि प्रेम की बात की जाए तो गाय, कुत्ता, बिल्ली हालांकि तीनो ही मनुष्य का साथ पसंद करते हैं पर गाय उनमें एक संवेदनशील प्राणी है जबकि बिल्ली व कुत्ता स्वभाव से ही चंचल हैं तो उनको बांधकर रखना उनको असहज़ ही लगता है जबकि गाय को बाँधे या न बांधे वह अपने स्थान से तब ही उठती है जब उसे भूख लगती है, पेट भरने के उपरांत वह कहीं भी बैठ जाती है चाहे बीच चौराहा हो। हर व्यक्ति देख सकता है इनको व्यस्त मार्गों में बैठे हुए, आवारा समझ इनको प्रशासन द्वारा ले जाने पर भी इनके रहने का घर अथवा गौशाला अलावा कोई उपयुक्त स्थान नहीं नज़र आता।
इसलिए इनको घर से बेघर करना गलत ही है।
कहते हुए दुख होता है कि आज का मनुष्य इस भोले जीव का सरंक्षक मनुष्य इतना लालची हो गया है कि इसको सिर्फ मशीन की तरह प्रयोग करता है जहाँ कायदे से
हमारे पूर्वजों के अनुसार गाय के 2 थन उसके बच्चे के लिए और दो थन मनुष्य के लिए होने चाहिए पर आज दो थन से भी उसके बच्चे को वंचित रखा जाता है।
कायदे से गोपालक को उसके मेल बछड़े को भी पालना आवश्यक होता है जबकि मनुष्य उसके अनुपयोगी होने के कारण उसे मरने के लिए छोड़ देता है या कटने के लिए बेच देता है।
कायदा से जब गाय परिवार का हिस्सा मानी जाती है तो सरंक्षक उसे पर्याप्त चारा उपलब्ध करवाता है और बदले में जो चारे द्वारा अतिरिक्त दूध को काम में लेने का हकदार भी है । पर आज लालची लोग उसका पूरा की पूरा दूध निकाल लेतें हैं व बछड़े कुपोषित ही रह जाते है।
गाय को परिवार का अंग समझने वाले लोगों को उसके अनुपयोगी होने (दूध न देने ) पर भी उसके अनुकूल सरक्षंण करना गौपालन का मुख्य अंग है जिसके लिए गोशालाओं की भी व्यवस्था चलाई जाती है। जिसमें मानव को यथाशक्ति दान करने के साथ2 वहां की व्यवस्थाओं का भी ध्यान रखना चाहिए कि कहीं कोई आड़ लेकर अनुचित कार्य न हो रहा हो।
ज्यादातर घोर अनुचित कार्य डेयरी उधोगों में होते हैं सो वहाँ के दूध व उससे बने उत्पाद हिंसक ही है, उन पर पैसे खर्चना उनके क्रूर उधोग को बढ़ावा देना ही है, अहिँसा का पालन करने वाले मनुष्यों को डेयरी उत्पाद नहीं उपयोग लेने चाहिए बल्कि गोशालाओं के द्वारा या सक्षम होने पर गाय पालने का बीड़ा उठाना चाहिए। गौशाला के दूध से प्राप्त धन व दान का उपयोग उनके ही वंश के सदस्य जो बूढ़े , बीमार व लाचार है उनके उपचार हेतु काम आता है। आचार्य श्री विद्यासागर जी के मार्गदर्शन में कई जगह खोली जा रही है।

आज के समय में लालच के कारण ये सारी अव्यवस्था पैदा हो रही हैं जिसके कारण दयालु लोग वीगन जीवनशैली अपना रहे हैं जो बहुत ही सराहनीय है , ऐसे लोग जानवरों के किसी भी उत्पाद का प्रयोग नहीं करते हैं । वीगन लोगों व अहिंसक लोगों की डिमांड पर ही क्रूरता रहित उत्पाद आजकल बाज़ारों में उपलब्ध होने लगे हैं । जिसके लिए वह तारीफ़ के काबिल हैं। पर
कुछ वीगन लोग गोशालाओं से अहिंसक रीति से प्राप्त दूध को भी मांसाहार की संज्ञा देने लगे हैं जो कि मूलतः गलत ही है, यदि दूध का पूणतः निषेद कर दिया जाए तो गाय अनुपयोगी हो जाएगी , या यूं कहा जाए कि मानव की सामाजिक व्यवस्था से बाहर होने पर मांसाहारी लोगों के पाले में चली जायेगी। आज जो लोगों में गाय के प्रति थोड़ा भी प्रेम है वह भी आदान प्रदान के अभाव में खत्म हो जाएगा।मोटे रूप में अधिकांश मनुष्य जब कुछ लेगा नहीं तो कुछ देगा क्यों? जिससे जो गोशालाओं की व्यवस्था भी चरमराने लगेगी ही ओर गाय जो साल में एक ही बच्चे को जन्म देता है वो भी कुछ दशकों में लुप्तप्राय हो जाएंगी।
शुद्ध रीति ( बिना इंजेक्शन)से निकला दूध मनुष्यों के लिए पोष्टिक आहार है जो कि गौपालन से ही उपलब्ध है पर वीगन शैली द्वारा बताया दूध हर किसी वर्ग के लिए पाना संभव नहीं है। इसलिए पूर्ण रूप से गाय के दूध का निषेद खुद गाय के लिए घातक है , जिस प्रकार मनुष्य भी अपने अस्तित्व को बचाने हेतु अपने जीवन को पुरुषार्थ करके खपाता है उसी प्रकार यदि मनुष्यों के समागम में गाय का किसी प्रकार से आदान प्रादन उनके अस्तित्व लिए आवश्यक कर्म ही है।
सोचो क्या हो जब एक बाप अपने बेटे को पालन करे और बदले में अपनी आजीविका की उम्मीद करे और दूसरे ग्रह के अंजान प्राणी उस उम्मीद को ही हिंसा कहे और तो ओर उनके पालन में भी दोष ढूंढे और फिर लोग अपनी संतान से ही विमुख हो जाये। (यह अव्यवस्था ही कहलाएगी)
बिना सही सरक्षण के तो घर से निकली औलाद भी गलत राह पर निकल जाती है , उसी प्रकार गाय को बेघर करने पर वह काटी ही जाएंगी।
जरूरत है तो गोशालाओं की यदि वीगन लोग इस प्रकार के शुद्ध रीति के दूध का समर्थन कर गोशालाओ को संचालित करें तो सही मायनों में दया होगी।
अति भी क्रूरता की ओर ले जाती है।
चाहे वो दया की सोच से उत्पन्न हुई हो। हो सकता है मेरे इस जवाब से हर कोई संतुष्ट न हो पर मेरा तो यही कहना है कि बेशक़ आप जीवों पर दया करो पर स्वयं पर दया करना न भूलना क्योंकि समस्त जीव अपने करनी का फल भांति भांति योनियों में भोगते हैं , बिना किये कर्मों की सज़ा किसी को मिल ही नहीं सकती। आपकी दया खुद को भूल कर स्वयं के प्रति निर्दयीपना है।
आपका अस्तित्व इस मनुष्य जन्म तक नहीं है।

जय जिनेन्द्र

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ंजानवरों के दुध की बात करते करते हम सिर्फ गाय पर अट्क जाते हैं जब कि हमें याद रखना होगा कि जैन सिर्फ गाय का हि नहिं बल्कि भैंस और बकरी का भी दुध लेते हैं

उपर शायद कई बार बताया जा चुका है कि किसि भी मा को दुध उस्के खुद के बच्चा होने पर आता है तो उस पर ह्क जताना वो भी उन्के द्वारा जिनकी खुद की मा ने उनको खुद का दुध पिलाना बंद कर दिया चाहे अगले बच्चे पर उसे दुध क्यो न आया हो, नितांत अन्याय की बात है
जैन धर्म मे दान से ज्यादा महत्व त्याग का है यदि हम 100 गायों का दुध पीये और 10 को गौशाला मे रखे तो ये तो वैसे हि गलत है …जिस का दुध पीया है क्या उस्का जीवन भर ध्यान रखा है? जैसे पशु का नहिं रखा वैसे हि खुद के मा बाप का नहिन रखा न …

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आगम मे महापुरुषों के एक से अधिक पत्नियां थी ऐसा वर्नन आया है आप की राय उस बारे मे क्या है

जी, जैसा वर्णन है वह सत्य है। यही राय है।

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