न राग न द्वेष, धरा दिगम्बर वेष, न किंचित् ममता शेष
तुम्हीं तो मेरे जिनवर हो।।टेक।।
तुम दर्शन-ज्ञान स्वरूपी, सुख वीर्य से भरपूर ।
तुम गुण अनंत के धारी, पर गंध से बहु दूर।।
तेरी वाणी, लागे प्यारी, नहिं मन में कोई क्लेश।।१।।
सुर किन्नर भी गुण गाते, योगी भी ध्यान लगाते।
तेरी महिमा इतनी प्यारी, गणधर भी पार न पाते।।
तुम मंगल तुम उत्तम, तुम जग में शरणा एक।।२।।
तुम छत्र चंवर से शोभित, सिंहासन दुन्दभि मोहित।
भामंडल भी लगे प्यारा, और वृक्ष शोक हरतारा।।
होवे वृष्टि पुष्पों की, और खिरे दिव्य ध्वनि शेष।।३।।