Karma & Krambaddhparyay

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I read about a new theory today - “Determinism” which looks similar to this.

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@Abhay Check this:

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  1. यदि मरीचि के जीव ने तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं किया था तो आदिनाथ भगवान को कैसे पता चला कि तीर्थंकर बनेंगें? यह तो क्रमबद्धता ही हुई। और यदि यह बोला जाता है कि पुण्य बांध लिया था तो पुण्य का फल तो कामदेव चक्रवर्ती किसी भी रूप में मिल सकता था।

  2. यदि क्रमबद्धता नहीं हैं तो केवलज्ञान में भविष्य भी जानने में आया वो कैसे सिद्ध होगा क्योंकि कर्मवर्ती पर्याय तो हमारे करने पर dependent हो गयी और जब तक हम कुछ करेंगे नही तो आगे का दिखेगा कैसे??

  3. पर्याय पुद्गल होती है , यदि जीव को कर्ता माना जाय तो दो द्रव्यों में एक दुसरे के कर्ता होने का दोष नही आयगा क्या?

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:ok_hand:t2::writing_hand:कारणशुद्ध पर्याय और क्रमबद्धपर्याय में संभावित अंतर:writing_hand::ok_hand:t2:
क्रमशः-क्रमांक -3
नंबर 20 -कारणशुद्धपर्याय द्रव्य या गुणों का वर्तमान स्वरूप है ।अर्थात हम जब जब द्रव्य को ध्रुव को
देखने या अनुभवने जाएंगे तो वह वर्तमान में जैसे होगा वैसे ही अनुभव में आयगा।
वह *वर्तमान *भूत और भविष्य तीनों काल एक रूप ही है।
फिर भी उत्पाद वाली वर्तमान पर्याय त्रिकाली के वर्तमान कारणशुद्धपर्याय का आश्रय लेकर के निर्मल परिणमित होता है इसलिए यह कारणशुद्ध पर्याय द्रव्य का वर्तमान है और क्रमबद्ध पर्याय वर्तमान अपने कालक्रम में आने वाला उत्पाद रूप वर्तमान परिणमन है।

नंबर 21 -कारणशुद्धपर्याय के जानने से पर में से कार्य पने की खोज की वृत्ति मिट जाती है ।
क्योंकि हमारी शुद्धता का कारण कारणशुद्धपर्याय के रूप में हमारे अंदर ही है।

तथा क्रमबद्ध पर्याय हमें पर्याय को पलटने बदलने सुधारने की वृत्ति को मिटा कर ज्ञाता धारा प्रगट हो यह मार्ग प्रसस्त करती है।

नंबर 22 -कारणशुद्धपर्याय पारणामिक भाव रूप है।
क्योंकि समस्त द्रव्य और गुण त्रिकाल पारिणामिक रूप में ही अवस्थित है ।
और उस त्रिकाल का यह वर्तमान है तो यह वर्तमान भी पारिणामिक भाव रूप ही रहा ना ।
जबकि क्रमबद्ध पर्याय उदय उपशम क्षयोपशम या क्षायक भाव रूप ही होती हैं।जीव की अपेक्षा से जबकिअन्य द्रव्यों की क्रमबद्ध पर्याय में उदय उपशम क्षयोपशम या क्षायक ऐसे भेद नहीं होते हैं।

नंबर 23- कारणशुद्धपर्याय पर चार अभाव में से मात्र अत्यंताभाव ही लागू होता है क्योंकि दो द्रव्यों के बीच में अत्यंताभाव ही लागू होता है कारणशुद्धपर्याय द्रव्य होने से अर्थात पूर्णवस्तु होने से अन्य द्रव्य सेपृथक ही रहता है ।

जबकि क्रमबद्ध पर्याय अपने पूर्व और उत्तर की पर्योयों का वर्तमान पर्याय में अभाव होने से उनमें प्रागभाव लागू होता है।
नोट - अभी तक पिछले 2 एपिसोड में हमने जो कुछ भेजा है वह पूज्य गुरुदेव श्री की ही देन है ।
उनका ही चिंतन था उनका ही अनुभव था जो उन्होंने आगम का और आध्यात्म का मंथन करके इस कारणशुद्धपर्याय को नियमसार के आधार से और क्रमबद्ध पर्याय को समयसार आदि ग्रंथों के आधार से निकालकर हम सबको परोसा ।
यह अंतर बताने का हेतु इतना मात्र है कि कोई कारण शुद्धपर्याय को ही क्रमबद्ध पर्याय ना मान ले ।एवं कुछ लोग कारणशुद्धपर्याय को चर्चा का विषय ही नहीं बनाना चाहते क्यों क्योंकि उन्हें लगता है यह नहीं समझे तो भी हमारी मुक्ति हो सकती है ।
यह सत्य है परंतु जब तक हमें अपने कार्य का कारण पर को मानेंगे तब तक कभी हमें मोक्षमार्ग की शुरुआत नहीं होगी ।
इसलिए कारणशुद्धपर्याय हमें अपने कार्य शुद्ध पर्याय का कारणपना हमारे अंदर ही है यह बता कर स्वसन्मुख होने का परम पुरुषार्थ जगाने वाला उत्कृष्ट तत्व है ।
यदि इन अंतरों में से किसी को कुछ आगम विपरीत लगे या समझ में नहीं आए तो हमसे फोन करके पूछ सकते हैं ।
जय जिनेंद्र ।
रमेश मंगल सोनगढ़ मोबाइल नंबर 9106168984

56 minutes video where 6-7 present famous Jain munis criticise Krambaddh paryay. I don’t know when time will come when fundamental differences in Jainism will be solved.

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द्रव्य और पर्याय का स्वरूप
चर्चा क्रमांक ०५

अब पर्याय के क्रमवर्तीपने की सविस्तार चर्चा करते है। पर्याय के क्रमवर्तीपने का यह सिद्धांत विश्व व्यवस्था का मूल है। “पर्याय नाना-नाना रूप होती है। जो परिणति पहले समय में थी , वह दूसरे समय में नही होती। समय-समय में उत्पाद-व्यय रूप होता है। इसलिए पर्याय क्रमवर्ती कही जाती है।” - श्री परमात्मप्रकाश जी , दोहा ५७ का भावार्थ। इसी के आधार पर यहाँ क्रमवर्ती-पर्याय को देखते है – द्रव्य में हर समय नयी-नयी पर्याय प्रगटती है। यह कैसे प्रगटती है ? एक क्रम के साथ प्रगटती है। तथा इनका स्वभाव यह है कि यह कभी भी अपने क्रम के खिलाफ हो कर नही चलती। आगम में उदाहरण देते है कि बालपने के पश्चात् निश्चयतः युवावस्था आनी है तथा इसके पश्चात् वृद्धावस्था। ऐसा कभी सम्भव नही कि जीव बाल्यकाल के पश्चात् पहले वृद्ध हो फिर युवा हो। ऐसा क्यों नही हो सकता ? क्योंकि पर्याय का क्रमवर्तीपना ही कुछ ऐसा है। तीनों कालों की द्रव्य की कुल अनन्त पर्याये होती हैं , अनादि काल से वह अबतक तथा अब से लेकर वह अनन्तकाल तक एक series का ही अनुसरण कर रही हैं। वह सदा अपने इस क्रम में बद्ध है , इसलिए ही इसे क्रमबद्धपर्याय कहा जाता है। अथवा अपने क्रम को नियमित बनाकर आ रही है , इसलिए यह क्रमनियमित पर्याय - इस नाम से भी जानी जाती है। इन्हें समझने के लिए एक सामान्य-सा उदाहरण मोती की माला का है। जैसे माला में दाने एक-एक कर क्रमवार आते है , ऐसे ही पर्याय भी एक-एक कर क्रमवार आती है। ऐसा संभव नही कि पहले दाने के बाद तीसरा दाना माला में आए। इसी भांति ऐसा भी संभव नही कि पहली पर्याय के बाद दूसरी पर्याय न आकर कोई तीसरी-चौथी पर्याय आ जाए। यह पर्याये क्रमवार उत्पन्न होती हैं , तथा व्यतिरेक के साथ उत्पन्न होती है - यह इनका अपना लक्षण है। कोई कितना भी जोर क्यों न लगा ले , लेकिन द्रव्य में जिस समय उसकी योग्यतानुसार जैसी पर्याय प्रगटनी है , वैसी ही प्रगटेगी। यह ही एक-एक पर्याय की स्वतंत्रता का शंखनाद है। चाहे कोई नरेंद्र-सुरेंद्र-फणीन्द्र ही क्यों न हो ? लेकिन कोई भी एक समय की पर्याय तक का फेर करवाने में समर्थ नही। अर्थात् यदि किसी जीव में अभी सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य रूप सामर्थ्य उसकी पर्याय में नही प्रगटी है , तो वह जीव कितना ही धर्मानुसार आचरण करे , साक्षात् दिव्यध्वनि का भी श्रवण करे। किंतु वह सम्यक्त्व नही पा सकता। लेकिन यदि किसी जीव की योग्यता ऐसी हो गयी है , तो देखो ! जो शिवभूति मुनिराज एक वाक्य तक याद न रख पाते थे वह मात्र दाल-छिलका अलग होता देख सारा अध्यात्म जान गए। और उसी भव से मोक्ष भी गए। कोई अमुक कार्य होना है तो उसके लिए कारण तो सहज ही उपलब्ध होंगे , उनके लिए साधन जुटाना तो अपना मिथ्यात्व है। आगम में कहतें है न पाँच समवाय को एक करवाना नही पड़ता , वह सहज ही मिलकर एक होते है। इसलिए व्यर्थ का कर्तापन का बोझ ढोना तो बंध का ही कारण है। इसलिए निजात्मा का जो परम अकर्तापन का भाव है , वह ही उत्तम है। यहाँ प्रश्न - अमुक कार्य होने के लिए निमित्त भी तो चाहिए ? समाधान - भाई ! निमित्त उपलब्ध हो या न हो उससे कोई फेर नही पड़ता। उपादान शक्ति तो द्रव्य की ही है। जैसा कि पीछे यह जानकर आ ही रहे है कि यदि द्रव्य में किसी कार्य मे ऐसी उपादान शक्ति नही है कि कोई कोई कार्य उसमें हो तो , निमित्त ऐसे में क्या करे ? उदाहरण के लिए समवसरण में बहुत से जीव दिव्यध्वनि का श्रवण करते है। किंतु उनमें सम्यक्त्व तो कुछ ही पाते है। लेकिन सब क्यों नही पाते ? सब इसलिए नही पाते क्योंकि वहाँ त्रिकाली उपादान से तो सबमें ऐसी सामर्थ्य है कि वह सम्यक्त्व ग्रहण कर ले किन्तु क्षणिक उपादान से ऐसी तत्समय की योग्यता कुछ को ही प्रकट हुई है कि वह समकित को ग्रहण कर सके। जिन्होंने सम्यक्त्व ग्रहण किया , उनके लिए तो दिव्यध्वनि पर ऐसा आरोप आता है कि उसके कारण ही जीव ने सम्यक्त्व ग्रहण किया। किंतु हम यह नही भूल सकते कि यह उपादान शक्ति तो उस जीव की थी , जो उसने समकित पाया। यदि निमित्त के बल से ही कार्य होता हो, तब तो सब ही जीव समकित पा लेते। अब कोई कहता है कि फिर दिव्यध्वनि का आदर क्यों करे जब सम्यक्त्व तो अपने ही बल से हुआ ? यहाँ उत्तर – देखो , भव्य जीव को दिव्यध्वनि का आदर आए बिना नही रहता। क्योंकि वह अवश्य ही यह जानता है कि सम्यक्त्व अपने ही बल से होना है तो भी लोकव्यवहार में निमित्त को स्थान देना पड़ता है। वरना तो जीव कृतघ्न कहलाया जाता है। तथा निमित्त पर कार्य के होने में कारण होने का आरोप तो आता ही है। तो भी शक्ति तो उपादान की ही है - बस इतना श्रद्धान होना चाहिए। पर्याय के क्रमवर्तीपन का ही विशेष कथन आगे होगा।

क्रमबद्धपर्याय के 2 रूप हैं - एक कर्म-सापेक्ष, एक ज्ञान सापेक्ष।

जो कर्म सापेक्ष है वह तो नियत परिणमनशील है।
जो ज्ञान सापेक्ष है वह नियत ध्रुव है।

कर्म सापेक्ष क्रमबद्धपर्याय को जानने वाले - अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञानी
ज्ञान सापेक्ष क्रमबद्धपर्याय को जानने वाले - मात्र केवलज्ञानी

हमसब भी क्रमबद्धपर्याय को जान सकते हैं किन्तु मात्र अनुमान से।

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आगम से भी जान सकते हैं?

कैसे और किस आगम से

All agam se, sabhi anuyogo se.

मेरा यह प्रश्न है कि क्या परोक्ष प्रमाण के भेद आगम से जान सकते हैं क्या?

आगम का स्वरूप
किसी सर्वज्ञ के द्वारा प्रत्यक्ष जाने गए विषय को अनुमान से (परोक्ष से) स्वीकार कर श्रद्धा में स्थापित करके सरलतम आधुनिक भाषा में परम-श्रद्धावन्त जीवों के वचनों को आगम कहते हैं।

बिल्कुल जान सकते हैं।

उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार वह भी अनुमान ही है।

इसलिए प्रत्येक आगमिक प्रस्तुतिकरण से क्रमबद्धपर्याय प्रसिद्ध ही है।

भाई! शब्दों एवं वाक्यों से नहीं अपितु सिद्धान्तों के स्थितिकरण से ही आगम की प्रामाणिकता है और सर्वज्ञता को सिद्ध करने वाले इस प्रमाण से अरहन्त की प्रामाणिकता ही सिद्ध नहीं की जा सकेगी

[इस विषय की प्रारम्भिक चर्चा पर भी दृष्टिपात करें]

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मेरा एक ही प्रश्न हैं की कोई जीव भव्य हैं या अभव्य हैं यह केवली ने कैसे जाना हैं? कर्म के आधार पर भी जीव भव्य हैं या अभव्य हैं, यह नहीं पता चलता क्योंकि भव्यत्व पारिणामिक भाव हैं। इसलिए केवली भविष्य को जानते ही हैं, क्योंकि उन्होंने जीवो के भव्य और अभव्य बताये हैं।
और फिर कर्म के आधार पर तो केवल जीव का भविष्य जाना जा सकता हैं। क्या वे अजीव द्रव्यों का भविष्य नहीं जानते हैं। यदि जानते हैं तो कितना और कब तक का इसका नियम कैसे बताओगे?

As what we had already stated that we only know of his divine ability to know limitless through a certain disposition and not through certainty; why, my dear!, do you want to be so certain about it.

If he knows limitless as limitless, we only have a limit to reach to his certainty.

मात्र आगम से!
अभव्य-भव्य ये दो ही भेद होते होंगे सर्वज्ञ के ज्ञान में, बाकी के तो हमने/अवधि/मनःपर्यय ज्ञानियों ने अपनी-अपनी अपेक्षा उनके विभाजन समझने की दृष्टि से किये होंगे।

निश्चितता ही केवलज्ञान की दिव्यता है। अनिश्चितता ही श्रद्धा का परिमाण।

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There is a difference. While explaining the reasons below, I’ll try to differentiate between ‘laukik’ event and ‘saidhantik’ event so bear with me.

Fixed match: 2 players decide that the bowler will bowl full tosses to the batsman, drop catches etc. so the batsman can make 250. The two players are not playing to their potential.
Non fixed match: Player 1 scores 250 in a non-fixed way. Both players play according to their potential and the event happens.

Kevali Bhagwan has not attained Keval Gyan because other Kevalis saw their Siddh Pana resulting in zero (or reduced) Purusharth from the Kevali. It was a known fact that Kevali Bhagwan will attain Siddhatva and that it happened entirely due to their own effort and no one else’s.

‘Knowing’ doesn’t imply ‘doing’. They are two independent things…

Take another example. You take a ball, tie it to the string, and attach to the ceiling in a vacuum. You give it a tilt. The ball will continuously swing back and forth as a pendulum until eternity. You ‘know’ this fact. But does your ‘knowing’ this fact mean that the ball has stopped doing its work? It still has the energy, momentum etc. And the work is actually happening according to its own energy and momentum. Your ‘knowing’ doesn’t mean that the ball will not do any work.

(note that one can argue here that the ball swinging back and forth until eternity is not fixed since an external force can be applied, it can be taken out of vacuum etc. But I mentioned it as an example only to explain the concept. The example itself shouldn’t be taken as a ‘Pramaan’ or justification to the original KBP concept).

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Let’s take an even simpler example. You drop a ball from a height. You know it will fall down. It falls down. Which one of these is true?

  1. Because you knew ball would fall down, the ball fell automatically without Earth’s gravitational pull.

  2. Your knowledge about the event resulted in Earth applying the gravitational pull resulting in ball falling downwards.

  3. Earth applied the gravitational pull independently of your knowledge about this event, adhering to and using its own potential resulting in the ball falling down.

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अब क्रमबद्ध पर्याय के विषय में श्वेतांबर साधु अपनी अलग ही थ्योरी का प्रचार प्रसार कर रहे हैं -

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this is really good, thank you for sharing with us