जिसमें मेरा अपनापन है....(डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल) | Jismein Mera Apnapan Hai

जिसमें मेरा अपनापन है…
(डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल )

( वीर )
सामान्य आत्मा तो अनन्त पर मैं तो स्वयं अकेला हूँ।
मैं हूँ अपने में स्वयं पूर्ण अन-आतम से अलबेला हूँ।।
मैं तो केवल वह आतम हूँ जिसमें मेरा अपनापन हो।
जिसमें मेरा अपनापन हो जिसमें ही मेरा सब कुछ हो।। १।।

यद्यपि अनन्तगुणधारी मैं पर-आतम का गुण एक नहीं।
यद्यपि मैं अन्य आतमा सा पर अन्य आतमा कभी नहीं।।
यद्यपि असंख्य प्रदेशी हूँ पर का प्रदेश प्रवेश नहीं।
परिणमनशील पर द्रव्यों सा पर परणति का अवशेष नहीं।। २।।

सबके समान ही गुण पर्यय सबके समान प्रदेशमयी।
सबके समान ही सबकुछ है सबके समान चैतन्यमयी।।
यद्यपि सब कुछ सबके समान पर पर से भिन्न निराला हूँ।
सब रमें निरन्तर अपने में अपने में रमनेवाला हूँ ।। ३ ।।

अपने में अपनापन होना अपने में ही जमना-रमना।
अपने में स्वयं समा जाना अपने में तन्मय हो जाना।।
है धर्म यही बस इसको ही तो धर्मधुरंधर* धर्म कहें।
इसको कहते हैं रत्नत्रय इसमें निज को अर्पण कर दें । ४।।

इसमें निज को अर्पण कर दें इसको निज का सर्वस्व गिनें।
इसको जीवन में अपना लें जीवन को बस इसमय कर दें।।
यह जीवन सच्चा जीवन है निज को इसमें अर्पण कर दें।
अब अधिक कहें क्या हे भगवन्! समभावों से अर्पण कर दें।। ५।।

शुद्धोपयोग शुधपरिणति को निश्चय रत्नत्रय कहते हैं।
अर सहचारी शुभभावों को व्यवहार रतनत्रय कहते हैं।।
तदनुकूल जड़ तन परिणति व्यवहार धर्म कहलाती है।
पर परमारथ से देखें तो वह धर्म नहीं हो सकती है ।। ६ ।।

अपने-अपने भावानुसार ज्ञानी के यह सब होता है।
अपने-अपने भावानुसार यह यथायोग्य फल देता है।।
पर मैं तो अपने शुद्धभाव का एकमात्र अधिनायक हूँ।
मैं ही मेरा कर्ता-धर्ता अर मैं ही मेरा ज्ञायक हूँ।। ७ ।।

रे में ही मेरा ज्ञायक हूँ अर मैं ही मेरा ध्यायक हूँ।
मैं ही मेरा हूँ ज्ञेय-ध्येय मैं ही मेरा आराधक हूँ।।
मैं ही मेरा आराधक हूँ अर मैं मेरा आराध्य अरे।
मैं तो बस केवल मैं ही हूँ और साधना-साध्य अरे।।८।।

मैं पर परमेष्ठी हूँ ही नहीं निज की परमेष्ठी पर्यायें।
भी मुझसे अन्य रूप ही हैं; क्योंकि मैं तो पर्याय नहीं।।
मैं द्रव्यरूप हूँ मूलवस्तु मेरा अपनापन मुझमें है।
मैं तो बस केवल मैं ही हूँ मैं हूँ मैं हूँ बस मैं ही हूँ।।९।।

मैं परमशुद्ध निश्चय नय का, मैं परम भावग्राही नय का।
ही विषय अनोखा अद्भुत हूँ, अर मेरे इस जीवन भर का।।
निष्कर्ष मात्र बस इतना है बस मैं ही हूँ बस मैं ही हूँ।
बस मैं ही हूँ बस मैं ही हूँ बस मैं ही हूँ बस मैं ही हूँ।।१०।।

( दोहा )
मैं तो केवल एक ही स्वयं आत्माराम।
अपने में ही नित रमूं राम आत्माराम।।११।।

*धर्म की धुरा को धारण करने वाले तीर्थंकर देव

Singer- @Asmita_Jain

सहजता (डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल )

क्रमनियमितपर्याय (डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल)

यही है ध्यान… यही है योग…(डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल )

जिसमें मेरा अपनापन है…(डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल )

ना बदलकर भी बदलना…(डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल )

कोई किसी का क्यों करें…?(डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल )

[समाधि का सार…समाधि, मरण नहीं; जीवन है(डॉ.हुकमचंद भारिल्ल)] समाधि का सार | Samadhi Ka Saar

PDFs

Shraman shatak

Tattva chintan

Kram niyamit

Aakhir hum kya kare

6 Likes