समाधि का सार | Samadhi Ka Saar

समाधि, मरण नहीं; जीवन है

(दोहा)
पंच परम परमेष्ठी को नमकर बारंबार।
प्रस्तुत है आनन्दमय यह समाधि का सार॥१॥
सहज समाना स्वयं में, ही समाधि की लब्धि।
सहजानन्दस्वरूप यह, जीवन की उपलब्धि।। २।।
जीवन होय समाधिमय, है जीवन का सार।
मरण समय में भी रहे, इसका ही आधार।। ३।।

(वीर)
सब द्रव्यों का सहज परिणमन सदा सहज ही होना है।
तुम्हें नहीं कुछ करना है बस सहज जानते रहना है।।
जो कुछ भी होना अपने में वह सहजभाव से होना है।
उसमें भी तो फेरफार का कुछ विकल्प न करना है।। ४ ।।

फेरफार की बुद्धि ही तो आकुलता की जननी है।
अतः हमें कुछ करने की भी व्याकुलता ना करनी है।।
आकुलता ही परम दुक्ख यदि हमें निराकुल रहना है।
करने-धरने का भाव तजो श्री जिनवर का यह कहना है।॥५॥

इस परम सत्य की सहज स्वीकृति सचमुच सहज समाधि है।
जिसमें आधी-व्याधि नहीं है और न कोई उपाधि है।।
ऐसी श्रद्धा-ज्ञानपूर्वक शान्त निराकुल जीवन की।
सहज सरल सुखमय परिणति ही अद्भुत परम समाधि है।। ६ ॥

जो कुछ होना सहजभाव से ही तो होता रहता है।
सब सहजभाव से होने पर कुछ करना शेष न रहता है।
कुछ करना-धरना शेष नहीं बस सहज जानते रहना है।
सहज देखना सहज जानना ही समाधि का गहना है।। ७॥

सहज समाधि शान्तभाव है सहजानन्द निराकुल है।
व्याकुलता का लेश नहीं ना व्याकुल है ना आकुल है।।
परम निराकुल परम शान्त है यह समाधि संजीवन है।
अरे मरण की बात करो मत यह समाधि तो जीवन है।॥ ८॥

यह समाधि तो जीवन है जीवन की गौरव-गरिमा है।
साम्यभाव की जननी यह इसकी तो अद्भुत महिमा है।।
अरे समाधि, मरण नहीं है रे समाधि तो जीवन है।
सहज समाधि मोह-क्षोभ से रहित परिणमन ही तो है।। ९।।

मोह-क्षोभ से रहित भाव ही समता है संजीवन है।
एकमात्र बस वीतरागता ही समाधि का जीवन है।।
वीतरागता परमधरम है अर अनन्तसुखदायी है।
वीतरागता परमसमाधि अति आनन्दप्रदायी है।।१०।।

निज आतम में जमना-रमना जिसमें आधि न व्याधी है।
सबकुछ सहज सहज ही जीवन सचमुच सहज समाधि है।।
सारा जीवन हो समाधिमय सहजभाव से समता हो।
परद्रव्यों परभावों में ना अपनापन’ ना ममता हो॥११॥

कर्त्तापन का बोझा न हो चाह न भोक्तापन की हो।
साम्यभाव हो, सहजभाव हो, समताभाव सहज ही हो।।
अरे देह का परिवर्तन हो सहजभाव से इक पल में।
उसे समाधिमरण कहते हैं जीवन के अन्तिम क्षण में ।।१२।।

सभी द्रव्य हैं नित्य निरामय अर स्वभाव से सदा अटल।
जीव जीव जड़ जड़ रहते हैं सभी स्वयं में सदा अचल।
द्रव्यरूप से नहीं बदलते पर पर्याय बदलती है।
पर्यायें तो एक समय भी बदले बिना न रहती हैं ॥१३॥

परद्रव्यों की पर्यायों में तुझे नहीं कुछ करना है।
अर अपनी पर्यायों में भी अदल-बदल न करना है।
पर में, अपनी पर्यायों में जो कुछ जैसा होना है।
वह अनादि से नक्की है ना उसमें कुछ भी करना है।।१४।।

अरे किसी के माथे पर कुछ भी करने का भार नहीं।
समताभाव न जागेगा जबतक होंगे निर्भार नहीं।।
समताभाव बिना समाधि भी कभी नहीं हो सकती है।
और अकर्त्ताभाव बिना निर्भार नहीं हो सकते हैं ।। १५।।

क्रमनियमितपर्यायों का जबतक श्रद्धान नहीं होगा।
जबतक श्रद्धान नहीं होगा अर सम्यक् ज्ञान नहीं होगा।।
तबतक यह आतमराम कभी भी रे निर्भार नहीं होगा।
यदि निर्भार नहीं होगा तो भव से पार नहीं होगा। १६ ।।

अरे शुद्ध उपयोग समाधि जीवन की सम्यक् विधि है।
और शुद्धपरिणति समाधिमय जीवन की अनुपम निधि है।।
ज्ञान-ध्यान-आचरण सभी कुछ सहजभाव से होता है।
यथायोग्य व्यवहार-आचरण भी तो होता रहता है।। १७ ।।

सहज समाधी मय यह जीवन जीवनभर रह सकता है।
किन्तु मरण तो अन्त समय में समय मात्र को होता है।।
सत्-श्रद्धा के साथ समाधी रहे निरन्तर जीवनभर।
'अरसमाधि केसाथ मरण हो रहे भावना जीवनभर।।१८ ॥

रहे प्रवाहित धार निरन्तर नित समाधिमय सरिता की।
अरे निराकुल जीवन में रे छाप न हो व्याकुलता की।।
दूर दूर तक दे न दिखाई परछाई आकुलता की।
भय चिन्ता की अर विकल्प की शंका की आशंका की॥ १९॥

रे चाह नहीं, कुछ बात नहीं; माथे पर कोई भार नहीं।
सब अपने में ही सीमित हैं पर का कोई अधिकार नहीं।।
सारे संयोग निरर्थक हैं अर सभी बदलने वाले हैं।
उनसे कुछ भी संबंध नहीं वे यों ही जाने वाले हैं।। २०।।

अगले भव सब नक्की ही हैं उनके चुनने की बात नहीं।
एवं निदान है आर्तध्यान उसको करने की बात नहीं।।
निश्चित क्रम के अनुसारजहाँभीजाना होगा, जाऊंगा।
‘भव से होना है पार’ बन्धुवर यही भावना भाऊँगा।। २१॥

लम्बे जीवन जल्दी मरने की भी है कोई चाह नहीं।
सहज भाव से जीने से अर मरने से इन्कार नहीं।।
सहजभाव से शान्तभाव से मरना-जीना है स्वीकृत।
जो कुछ जब जैसा होना है सब सहजभाव से अंगीकृत।। २२।।

अनुकूलों से अनुराग नहीं, अर बीती बातें याद नहीं।
अनाचार तो बहुत दूर अतिचारों की भी बात नहीं।।
जो कुछ जैसा होनेवाला उससे कोई इन्कार नहीं।
सब सहजभाव से है स्वीकृत है कोई अन्य प्रकार नहीं।। २३॥

जब केवलज्ञानी ने तेरे भावी के सब भव देखे हैं।
तब इसका अर्थ साफ ही है भावी भव भी सब निश्चित हैं।।
उनमें परिवर्तन करने की बातें सब व्यर्थ कल्पना है।
अर परिणामों के संभाल की बातें व्यर्थ जल्पना है॥ २४ ॥

अरे जहाँ भी जाना है उसके अनुसार भाव होंगे।
उन भावों के अनुकूल समय पर कर्मों के बन्धन होंगे।।
उन कर्मों में उन भावों में ना कोई फेर-फार होगा।
कुछ भी करने का भार नहीं सब सहज भाव से ही होगा।। २५ ।।

उक्त तथ्य की सहज स्वीकृति ही समाधि है समता है।
कुछ भी करने की किसी तरह की ना कुछ भी आकुलता है।।
जिस साधक में यह समता है वह लौकिक कष्टों में भी हो।
तो भी वह अपने अन्तर में आनन्द में है आनन्द में है।। २६ ॥

रे समाधि तो सुखमय है उसमें कष्टों का काम नहीं।
अद्भुत समाधि है शान्त भाव उसमें अशान्ति का नाम नहीं।।
कष्टों की कारा दिखे हमें अन्तर की शान्ति नहीं दिखती।
हम बातें बड़ी बड़ी करते अन्तर की भ्रान्ति नहीं मिटती।। २७।।

अत्यन्त शान्त सुखमय जीवन की यह तो सहज अवस्था है।
न आकुलता न व्याकुलता यह इकदम सजग अवस्था है।।
यह तो समाधिमय जीवन है यह ही समाधिमय मरण अहा।
है यही ज्ञानियों का जीवन अर इसे समाधीमरण कहा ।। २८।।

साधारण सी एक वस्तु जब खो जाती इस जीवन में।
हम आकुल-व्याकुल हो जाते कुड़ते रहते मन ही मन में।।
सभी वस्तुओं का वियोग जब एक साथ ही हो जाता।
अज्ञानमयी इस दुनियाँ में उसको ही मरण कहा जाता।। २९।।

जबतक अपना इन योगों से एकत्व नहीं विगलित होगा।
इनके वियोग में अरे हमारा चित्त सदा विचलित होगा।।
जबतक संयोगों से विरक्ति का भाव न होगा जीवन में।
इनसे लगाव न छूटेगा तो शान्ति न होगी जीवन में ।। ३०।।

यदि समाधिमय जीवन है तो मरण समाधीमय होगा।
यदि जीवन है आकुलतामय तो मरण कहाँ सुखमय होगा।।
संयोगों से एकत्व तजो ममता छोड़ो संयोगों से।
कर्तापन-भोक्तापन तोड़ो अपनापन जोड़ो अपने से ।।३१।।

अपनापन जोड़ो अपने में अर अपने में ही जमो रमो।
अपने में स्वयं समा जावो अपनेमय ही तुम हो जावो।।
अपने में अपना सबकुछ है हम स्वयं स्वयं ही सबकुछ हैं।
रे समाधि का क्या करना जब स्वयं समाधिमय ही हैं।। ३२।।

(दोहा)
साधारण सी बात है, सब संयोग-वियोग।
अरे सहज स्वीकृत करो, यह संयोग-वियोग।। ३३।।
महिमा समताभाव की, जग में अपरंपार।
सम्यक् सुखमय शान्ति का, एकमात्र आधार।। ३४॥

रचयिता : डाॅ. हुकमचन्द भारिल्ल
पुस्तक: समाधि का सार

2 Likes