क्या वर्तमान में स्वामी जी और अन्य आचार्यों के दिगम्बर मूल सिद्धांतों में या उनके interpretation मे अंतर है?

कानजी स्वामी और वर्तमान में दिगंबर आचार्य विद्यासागर की विचारधारा में क्या अंतर है ? मैं अष्ट द्रव्य और अभिषेक के बारे में अंतर नहीं जानना चाहता।
हमारे शास्त्र एक हैं लेकिन शायद interpretation अलग।

जो मुझे समझ में आया वह मैं नीचे लिख रहा हूं लेकिन मैं गलत भी हो सकता हूं। कृपया आप गलती बताएं। और थोड़े points add करें।

  1. कहान पंथ के अनुसार एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी नहीं करता। मतलब अगर मैं पेंसिल उठा रहा हूं तो वह पेंसिल को तो उस समय उठना ही था, और मेरा उसके लिए निमित्त बनना भी उस समय तय था। शायद यह क्रमबद्ध पर्याय से जुड़ा हुआ concept है। जो उस द्रव्य के साथ होना है वह सब information उस द्रव्य में पहले से विद्यमान हैं।
    मतलब पेंसिल के उठने की information पेंसिल में पहले से ही विद्यमान थी। मतलब उन्होंने निमित्त को तो स्वीकार किया लेकिन बहुत ही passive role दिया।
    पेंसिल का उठना अपने आप में independent है और मेरा पेंसिल को उठाना भी independent है।

  2. क्योंकि हमारे मोक्ष तक की पर्याय सब fix हैं और वैसे ही क्रम अनुसार होनी हैं, परिवर्तन हो नहीं सकता तो तपस्या आदि से फायदा नहीं। इससे बेहतर आत्मा का ध्यान करो। लेकिन मुझे यह doubt है कि आत्म चिंतन करना भी तो क्रमबद्ध हुआ। तो आत्मा का चिंतन करो यह कहने से क्या फायदा, जब करने का समय आएगा तब वह भी हो जाएगा।
    (As per my understanding, I can be wrong too).

  3. कहान पंथ पर सबसे ज्यादा प्रभाव, अन्य आचार्यों से ज्यादा, समयसार पर आत्म ख्याति टीका by आचार्य अमृतचंद का पड़ा है।

  4. सबसे अच्छा भरत चक्रवर्ती का जीवन लगा जिन्होंने मात्र 48 मिनट में केवल ज्ञान प्राप्त किया ।‌ वही उनका रोल मॉडल बन गया है। लेकिन यह भी तो सत्य है कि पूरे अवसर्पिणी काल में अरबों मुनि मोक्ष गए होंगे उनमें से एक ही थे वे।

Note - यह प्रश्न केवल जानकारी लेने के लिए बनाया गया है किसी पर टिप्पणी करने के लिए नहीं ।

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आपने जो ऊपर 4 points बताये है उनका भाव बिलकुल गलत है ; कहान पंथ में ऐसा कुछ नहीं मानते, ऐसे माने तो तो स्वछन्दी हो जायेंगे

भाई जी, ‘किसी already prejudiced person से स्वामी जी को/के बारे में पढ़ने में’, और ‘स्वयं उनके द्वारा जो परम अध्यात्म के भाव समझाए गए है, उनको समझने की रुचि पूर्वक स्वामी जी को पढ़ने में’ यह अंतर दिखता है। सामान्यतः समाज को तो जो उनके बारे में कह दिया जाता है उस रूप से ही उनको मान लेती है, कुछ सत्य असत्य का निर्णय नहीं करते है। साक्षात उनको पढ़े सुने बिना ही, उनको जाने बिना ही उनके प्रति धारणाएं बना ली जाती है और इसका फल भी स्पष्ट दिखाई देता है।

मोक्ष मार्ग का प्रेमी जीव तो सत्य असत्य का निर्णय करके आगे बढ़ेगा। निर्णय वस्तुस्वरूप की साक्षी से, आगम के आधार से, स्यादवाद और नयों के प्रयोग से होगा - हमारे लिए मोक्ष मार्ग में आगे बढ़ने में कार्यकारी भी वही होगा। अधूरे ज्ञान के साथ कटाक्ष करना या टीका टिपपणी करना सरल तो है पर राग द्वेष को ही बढ़ाएगा, अज्ञान का अभाव करने में बिल्कुल भी कार्यकारी नहीं होगा।

ज्ञानी तो कभी भी इस व्यर्थ के कषाय प्रसंग में नहीं पड़ेगा। वह यह जानते है कि उपदेश का स्वरूप ही ऐसा होता है कि उसमें विषय संबंधी और श्रोता की भुमिकानुसार नयों की मुख्यता और गौणता होती है। हमारे आचार्यों ने ही कभी एक नय की तो कभी दूसरे नय की मुख्यता से कथन किया है। हम यह बात भूलकर अनजाने में कुछ ऐसे प्रयास करते है कि एक आचार्य को दूसरे आचार्य के समक्ष खड़ा कर देते है। एक को सही और दूसरे को गलत भी कहते है या गलत सही सिद्ध करने की कोशिश करते है।

विचार करिए कि हमको इससे क्या सिद्ध होगा? क्या हमारी ऐसी प्रवृत्ति योग्य है?
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एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी नहीं करता और क्रमबद्ध पर्याय में कोई लिंक है या नहीं ?

जो होना है सो सो क्रमबद्ध / निश्चित है
एक द्रव्य दुसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता
इन दो सूत्रों में आपको क्या लिंक लगता है

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क्रमबद्ध पर्याय का अर्थ यह है कि हर द्रव्य की भविष्य की पर्याय (योग्यता रूप से) उसी द्रव्य में पहले से विद्यमान है जो समय के अनुसार स्वयमेव होती रहती हैं। और एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी नहीं करता और उसका परिणमन स्वयमेव होता है, इन दोनों में मुझे कनेक्शन या लिंक नजर आता है । आपका क्या विचार है ?

बिल्कुल सही विचार किया आपने।

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हाँ, यह तो आपने सही कहा इस तरह से कनेक्शन मान सकते है

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तो इस बात को आप गलत क्यूं मानते हो ?

मैंने पहले एक कहानी सुनी थी जिसमें एक बकरी बैलगाड़ी की छाया के नीचे थी। जब बैल गाड़ी चली तब बकरी भी चली, बकरी को लगा कि बकरी के चलने से छाया भी चल रही है। बकरी रुकी तब बैलगाड़ी भी रुक गई, छाया भी रुक गई तब बकरी को पक्का विश्वास हो गया कि छाया और बकरी का कनेक्शन जरूर है।

उसी तरह जब हम पेंसिल को उठाते हैं तब हमको लगता है कि हमने पेंसिल उठाई लेकिन उस पेंसिल को तो उस समय उठना ही था । पेंसिल रूपी अजीव द्रव्य में यह information पहले से store थी। मतलब मैं तो निमित्त बना लेकिन मेरा role बहुत passive हुआ ।

क्रमबद्ध पर्याय का अर्थ केवल यह नहीं होता कि हमारी भविष्य की पर्याय ही फिक्स हैं बल्कि यह होता है कि हमारा प्रत्येक विचार भी फिक्स है, क्योंकि केवली ने सब कुछ देखा है, तो प्रत्येक विचार भी क्रमबद्ध है

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आपने फिर से सब सही कहा, ऊपर जो 1st point लिखा है वह तो ठीक है, पर उससे जो point 2,3,4 में भाव निकाला है वह गलत है ।

अगर आपको गुजराती समझ में आती है तो कानजी स्वामी के वीडियो के 2 मिनट का अर्थ हिंदी या इंग्लिश में बताएं (5:10 - 7:10 minute का )। मुझे तो गुजराती समझ में नहीं आती फिर भी थोड़ा बहुत वीडियो समझने की कोशिश करी थी।

Correlate with 2nd point given earlier

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जी मुझे भी गुजरती नहीं आती (किसी को गुजरती आती हो तो वह इन 2 min कि हिंदी बताए), पर मालूम पड़ता है की तपस्या आदि से फायदा नहीं ऐसा तो यहाँ नहीं कहा जो आपने point 2 में लिखा है, बल्कि यह कहा की अशुभ से बचने के लिए वह शुभ कार्य है । और आत्मा में आचरण करना (आत्मा में लीन हो जाना ) वह असली चरित्र है अर्थात मोक्ष उससे ही प्राप्त होता है, मात्र बाहर में तपस्या करने से नहीं ।

मेरे ख्याल से यदि एक बार आप मोक्षमार्गप्रकाशक का सातवा अधिकार पढ़ले तो आपको कहान पंथ और बाकी सभी पंथ का अच्छे से पता चल जायेगा, actually no one can understand jainism properly without reading it. Even the audio shastra is available

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Actually I asked later part of 2 minutes time, in which a man ask question of what we should do and swami mentions of Kram baddh paryay.

आप भेद विज्ञान की 100 किताब पढ़ लें और दूसरा आदमी दो किताब पढ़ कर एक उपवास कर ले, फिर देखिए असली भेद विज्ञान किसे हुआ ।

केवल किताब पढ़ कर आत्मा के बारे में सोचना और दूसरा बिना सोचे समझे उपवास करना - इन दोनों के लिए लाभ बहुत कम है लेकिन थोड़ा थोड़ा ज्ञान लेते लेते उपवास, व्रत , त्याग करते करते शास्त्रों को पढ़ना ज्यादा लाभकारी होता है। संयम और ज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं।

अगर आपको यकीन नहीं तो कल एक उपवास करके देखें। शरीर जड़ है यह अनुभव उपवास से बेहतर कोई बता ही नहीं सकता। केवल समयसार भी नहीं।

जब हम पुराणों को पढ़ते हैं, तब लोग थोड़ा सा प्रवचन सुनकर ही दीक्षा ले लेते थे और मोक्ष चले जाते थे। शरीर और आत्मा के भेद विज्ञान से ही मोक्ष हो जाता था लेकिन आज हमारा पूरा जीवन किताबी ज्ञान में ही चला जाता है ।

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जी आपने बिलकुल सही कहा ऐसा ही कहान पंथ में भी मानते है

See this video from 22nd till 25th minute only.

Correlate with earlier point 4.

Now, AFTER seeing above VIDEO - specified 3 minutes only , you tell that Acharya Kundkund bhagwan, Acharya Amrit Chandra ji knew before becoming muni that in Pancham kaal moksh is possible or not ? So, why they adopt ascetism and do all these जड़ क्रिया for whole life ?? Acharya Amrit Chandra ji told to definitely try to become muni first in Purusharth siddhi upay.

Was writing shastra shuddhopayog ?

पंडित जी तो खुद ही कह रहे है की यदि इतना काल निकलना हो तो समिति आदि होंगी - फिर आपने यह point 4 कैसे बना दिया ?
थोड़ा चारित्र को समझते है - चरित्र = परिणमन = भाव
शुद्ध भाव = जैसी आत्मा है (शुद्ध निर्विकल्प ज्ञान) वैसे ही भाव(परिणमन) होना = आत्मा में लीन होना = शुद्धोपयोग होना
शुभ भाव = मुनि के व्रत-तप / श्रावक के व्रत-तप (5 पाप से बचने / त्यागने रूप परिणमन)
अशुभ भाव = 5 पाप
तो ऐसे ही शुद्ध, शुभ और अशुभ चारित्र हुआ ।
तो जब तक शुद्ध चारित्र न हो तब तक शुभ चारित्र किया जाता है ।

See the same video 26th , 27 th minute (only 2 minutes).

And tell below question -

पंडित जी निश्चय चारित्र की अपेक्षा से बता रहे है । जब निश्चयचारित्र की बात होती है तो व्यवहार चारित्र उसमे गर्भित होता है | क्योंकि व्यव्हार के बिना निश्चय नहीं होता
Acharya Kundkund bhagwan, Acharya Amrit Chandra ji knew before becoming muni that in Pancham kaal moksh is possible or not ? So, why they adopt ascetism and do all these जड़ क्रिया for whole life ??
पंडित जी ने ही कहा की चारित्र वाले को चारित्र होता है

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इसे आप क्या समझते हैं (चैप्टर 9 तत्वार्थ सूत्र)