हे परमात्मन् ! तुम साक्षी में | He parmatmn, tum sakshi me

(तर्ज : संभल के रहना …)

हे परमात्मन् ! तुम साक्षी में, शुद्ध स्वरूप दिखाया है।
विभ्रम चादर दूर हुई है, सुख सागर लहराया है। टेक।।

स्वयं सिद्ध निज प्रभुता दीखे, बाहर कुछ न सुहाता है।
चक्री इन्द्रादिक का वैभव, भी नहिं चित्त लुभाता है।।
तृप्त स्वयं ही हुआ नाथ अब, जाननहार जनाया है ।।1।।

कमी नहीं कोई ऐसी जो, कोई अन्य पूरी कर दे।
स्वयं स्वयं में पूर्ण सदा ही, सहजपने शुद्धातम रे।।
सहज तत्त्व अनुभव में आया कर्तृत्व सर्व नशाया है ।।2।।

भेद नहीं कुछ मुझे दिखावे, द्रव्यदृष्टि प्रगटाई है।
शाश्वत आप समान विभूति, स्वयं स्वयं में पाई है।।
होवे सहज स्वरूप मग्नता, यही भाव उमगाया है ।।3।।

आकांक्षा कुछ शेष नहीं प्रभु, आराधैं निज आतमराम।
बुद्धि व्यवस्थित हुई सहज ही, निज में ही पाऊँ विश्राम।।
जिसे ढूँढता फिरा जगत में, स्वयं स्वयं में पाया है ।।4।।

स्वाश्रय से ही आकुलता का, हुआ प्रभूजी सहज शमन।
नहीं विकल्प वंद्य-वंद्यक का, ज्ञानमयी अद्वैत नमन।।
प्रगट हुआ परमार्थ जिनेश्वर, निजानंद विलसाया है ।।5।।

Artist - ब्र.श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

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