ज्ञानी ऐसे होली मचाई।। टेक।।
राग कियो विपरीत विपन-घर, कुमति कुसौति भगाई।
धर दिगम्बर कीन्ह सुसंवर, निज-पर-भेद लखाई।
घात विषयन की बचाई।। ज्ञानी॰।।
कुमति सखा भज ध्यान भेद सज, तन में तान उड़ाई।
कुम्भक ताल मृदंग सो पूरक, रेचक बीन बजाई।
लगन अनुभव सों लगाई।। ज्ञानी॰।।
कर्म बलीता रूप नाम अरि, वेद सुइन्द्रि गनाई।
दे तप-अग्नि भस्म करि तिनको, धूलि-अघाति उड़ाई।
करी शिवतिय सों मिलाई।। ज्ञानी॰।।
ज्ञान को पफाग भागवश आवे, लाख करो चतुराई।
सो गुरु दीनदयाल कृपा करि, ‘दौलत’ तोहि बताई।
नहीं चित से विसराई।। ज्ञानी॰।।
Artist - पंडित दौलतराम जी
Meaning-
अहो, ज्ञानी जीव ऐसी होली खेलते हैं -
वे राग का त्याग करके वन में निवास करते हैं, कुबुद्धिरूपी बुरी सौतन को भगा देते हैं, दिगम्बर मुद्रा धरण करके कर्मों का भली
प्रकार संवर करते हैं, स्व और पर का भेदविज्ञान करते हैं तथा अपने आपको विषयों के प्रहारों से बचाते हैं।
वे अज्ञानरूपी मित्रा को भगाते हैं, ध्यान के उत्तम भेदों को धारण करते हैं, अपने अन्तरंग को पूरी तरह उत्साह से भरते हैं, कुम्भकरूपी ताल, पूरकरूपी मृदंग एवं रेचकरूपी वीणा बजाते हैं और एक आत्मानुभव की ही लगन लगाये रहते हैं। वे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय व अन्तराय इन घाति कर्मों के ईंध्न को तपरूपी अग्नि देकर भस्म कर देते हैं और फिर अघाति कर्मों को भी धूल के समान उड़ाकर मुक्तिरूपी स्त्राी से मिलते हैं।
कविवर दौलतराम कहते हैं कि अहो, कोई कितना ही प्रयत्न कर ले, पर ऐसी ज्ञान की होली तो बड़े भाग्य से ही किसी को मिल पाती है। यह तो, अब दयालु गुरु ने बड़ी कृपा करके मुझे ऐसी होली से परिचित करा दिया है, अतः अब मैं इसे कभी नहीं भूलूँगा।