Ardhamagadhi Bhasha

In the Tirthankar’s 14 dev krat atishays, 1st is Ardhamagadhi bhasha, which states that devs translate the divya dwani into understandable individual languages. But is it not a quality of the divya dwani itself to be understandable by all in their own languages. Or is this not the case, and instead the devs need to convert the speech?

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दिव्यध्वनि को माधव देवों के द्वारा translate नहीं किया जाता है , और ना ही सभी जीव स्वयं अपनी अपनी भाषा में समझ जाते हैं, अपितु गणधर के माध्यम से सर्व जीवों को दिव्यध्वनि का लाभ होता है, क्योंकि दिव्यध्वनि बीजाक्षरों रूप में खिरती है और उन बीजाक्षरों को समझ ने की समर्थ मात्र गणधर में होती है।

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इसमें थोड़ा सा शास्त्रों का reference दिया गया है :
Time: 1:00hr

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दिव्यध्वनि ओमकार मयी होती है , ऐसी परम्परा चल रही है , परंतु वास्तव में दिव्यध्वनि बीजाक्षर रूप होती है।तथा ओमकार मयी का कोई आगम प्रमाण नहीं है, मात्र उन्होंने कहा ही है।

दिव्यध्वनि सभी जीव सीधे समझ लेते है , यह भी सही नहीं है।मात्र कहते हैं , परंतु वास्तव में गणधर के माध्यम से ही समझते हैं।

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फिर भगवान के देवकृत अतिशय अर्धमागधी भाषा का क्या होगा ? उसका क्या अर्थ लिया जाए?

कहा है यह वीडियो में वो reference?

आपका कोई शास्त्र का आधार है यह जवाब में?

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How is it practically possible for गणधर to circulate the information to the respective person or animal in their own language?

Can anyone also describe the term - “बीजाक्षरों” in brief?

तथा ऐसा भी कहा जाता हैं की समवशरण में विद्यमान जीवों के मन में उठे प्रश्न का समाधान दिव्यध्वनि सुनते ही automatic हो जाता हैं।

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This is similar to the fact that तीर्थंकर को देख कर ही बहुत सारी शंकाओं का समाधान मिल जाता था |
Reference: Tattvgyan pathmala part-2

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जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग 1, पृ. 33

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गणधर के पास संभिन्नसंश्रोतृत्व ऋद्धि के कारण सभी जीवों के शंकाओं को एक साथ सुनकर सभी को एक साथ अलग अलग भाषा में उत्तर दे देते हैं।

सामान्य जीव गणधर देव से ही शंका - समाधान करते हैं । वे सीधे तीर्थंकर देव से अपनी शंकाएँ करें ; इतनी उनमें सामर्थ्य ही नहीं होती है। इस संदर्भ में आदिपुराण के प्रथम सर्ग में ऐसा ही प्रसंग आया है कि भरत चक्रवर्ती तीर्थंकर ऋषभ देव के समवशरण में गए, वहाँ उन्हें प्रश्न पूछने की जिज्ञासा हुई "मेरे हृदय में कुछ पूछने की इच्छा उठ रही है और इस इच्छा का कारण आपके वचन रूपी अमृत के निरन्तर पान करते रहने की लालसा ही समझनी चाहिए। हे देव ! यद्यपि लोग कह सकते हैं कि गणधर को छोड़कर साक्षात् आपसे पूछने वाला यह कौन है ? तथापि मैं इस बात को कुछ नहीं समझता ; आपकी सातिशय भक्ति ही मुझे आपसे प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित कर रही है।

इस प्रसंग का पढ़ने से यही फलित होता है कि सामान्य जीव, अपनी शंकाओं को गणधर देव से ही पूछते हैं और गणधर देव , अपनी ऋद्धियों से भव्य जीवों की शंकाओं को सुनकर उनका समाधान करते हैं।
तथा प्रत्येक पुराण का प्रारम्भ भी इसी वाक्य से ही होता है कि " राजा श्रेणिक गौतम गणधर से पूछते हैं "।इससे भी यही फलित होता है कि सामान्य जीवों की शंका समाधान गणधर देव ही करते

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बीज अर्थात मूल , अंकुर , पत्र, पोर ,स्कन्ध ,प्रसव , तुष् , कुसुम इत्यादि बारह अंगों के तुल्य अर्थ का आधार भूत जो पद है वह बीज तुल्य होने से बीज है ।
जिसप्रकार वृक्ष का मूल एक बीज होता है , उसी बीज से वृक्ष उत्पन्न होता है ; उसीप्रकार दिव्यध्वनि बीजाक्षर रूप होती है, उन बीजाक्षर में से विस्तार करके बारह अंगों रूप वृक्ष को उत्पन्न करते हैं।
ऐसी शक्ति के धारक मात्र गणधर देव ही होते हैं ।

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34 अतिशयों के विभाजन में भी विभिन्नता मिलती है। जैसे - कहीं पर केवलज्ञान के 10 , देवकृत 14 और (तिलोय पण्णत्ति, 4 महाधिकार, गाथा 901) कहीं पर केवलज्ञान के 11 , देवकृत 13 अतिशय कहे हैं। देवकृत का जो पहला अतिशय है, उसे ही केवलज्ञान का 11वा अतिशय कहा है; परन्तु 11वे अतिशय में सर्वार्धमाघदि भाषा को नहीं लेकर, 18 महाभाषा और 700 लघु भाषाओं को लिया गया है।

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यहाँ देव का मतलब स्वर्ग वाले देव नहीं है, इसका मतलब है गणधर देव

तीर्थंकर भगवान की दिव्यध्वनि ओमकार रूप होती है, इसका ये मतलब नहीं है की शब्द रहित होती है।
ओमकार रूप होने का मतलब है, शब्द सहित तो होती है लेकिन वो इतनी तेज गति से होती है, की जन सामान्य के समझ में नहीं आती। उसमे भी कई भाषा होती है। लेकिन ऐसी सुनाई देती है जैसे ॐ की ध्वनि।

केवल गणधर परमेष्ठी ही तीर्थंकर भगवान की दिव्यध्वनि को झेल(समझ) ,सकते है, गणधर भगवान भी तीर्थंकर भगवान की दिव्याध्वनि का अनंतवा भाग ही ग्रहण कर पते है। फिर गणधर भगवान उस दिव्या ध्वनि को १२ अंगो में गुंफित(गूथते, विभाजन) करते है। उद्धारण के तौर पर आचरण संभंधि बातो को आचारांग में विभाजित करते है।

सामान्य केवली के गणधर नहीं होते, उनकी दिव्यध्वनि जन सामान्य direct समझ लेते है।

तीर्थंकर भगवान के 14 देवकृत(स्वर्ग वाले देवो द्वारा) अतिशय में से पहले अर्धमागधी भाष्य से क्या समझे?
देवो का काम होता है उस दिव्यध्वनि और गणधर द्वारा गूथे हुए अर्थ को, 12 सभाओं तक विधि पूर्वक पहुँचाना।
वह सभी को अच्छी प्रकार सुनाई देता है। किसी को कम या disturbed सुनाई नहीं देता। यहाँ तक की जानवर भी अपनी भाषा में समझ लेते है। ये ही देवताओ का काम होता है।

अगम के आलोक में -
दिव्यध्वनि के समय समवशरण में स्वर्ग के देव(माघत जाती के देव) और गणधर देव दोनों ही विराजमान होते हैं ।
• गणधर देव उस ध्वनि को 12 अंगों में गूथते है।
• माघत जाती के देव दिव्यध्वनि के sound को 1 योजन के क्षेत्र में same volume में पहुँचाने का काम करते हैं।( sound speaker के समान)
• दिव्यध्वनि ओमकार मयी होती है। ऐसा उल्लेख आचार्यों के मूल कथनों में नहीं मिलता है।(स्तुति साहित्य में ध्यान्तराय जी(17वी शताब्दी), पाण्डे राजमल जी पवैया की देवशास्त्रगुरु, सरस्वती, गणधर पूजन में ही किया है। इनसे पूर्व अन्यत्र क्हींसी ने भी उल्लेख नहीं किया है।)

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इससे आप क्या समझते है? इसकी आवश्यकता क्यों है ?

• गुथना अर्थात विभाजन करना
• दिव्यध्वनि से गणधर देव जितना उपदेश ग्रहण करते है उसे 12 भागों में विभाजित करते हैं। = 12 अंग को गूथते हैं।

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@Amanjain
मेरे प्रश्न का मतलब ये था की क्या तीर्थंकर भगवान की वाणी सभी को समझ में आती है, बिना गणधर भगवान के ? अगर हाँ तो गणधर भगवान के द्वारा विभाजन करने की आवश्यकता क्यों है ?
अगर नहीं तो क्यों नहीं समझ में आती ?

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दिव्यध्वनि अरिहंत भगवान के सर्वांग से खिरती है, क्या कहीं ऐसा उल्लेख आया है? प्रमाण सहित बताएं।

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