Ardhamagadhi Bhasha

नहीं ऐसा नहीं है
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---- आठ (8) प्रातिहार्य ----- हैडिंग के नीचे 5- दिव्य ध्वनि देखे।

भगवान् के मुख से निरक्षर ध्वनि खिरना. भगवान् की दिव्या ध्वनि खिरते समय होंठ, तलु, रसना(जीभ), दांत आदि में क्रिया नहीं होती है.
ये दिव्य ध्वनि मोक्ष का मार्ग बताने वाली है.

ये गलत धारणा शायद यहाँ से आयी "अरिहंत भगवान के सर्वांग से करोड़ो सूर्यो जैसा प्रकाश निकलता है। "

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दिव्यध्वनि बीजाक्षर रूप होती है। अतः उसे मात्र गणधर ही झेल सकते हैं। सामान्य जीव नहीं ।

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दिव्यध्वनि सर्वांग से खिरती है । इस संदर्भ में किसी आचार्य क् मत नही है। विद्वानों में भी सर्व प्रथम पंडित मेधावी जी(15 वीं शताब्दी) ने धर्म संग्रह श्रावकाचार ग्रंथ के दूसरे अधिकार में किया है। जो इस प्रकार है।

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दिव्यध्वनि मुख से खिरती है। प्रमाण –

  1. महापुराण - 1/184
    अपरिस्पन्दन… सरस्वती।।184।।
    अर्थ–तालु, दांत, ओष्ठ तथा कंठ के हलन चलन रूप व्यापार के बिना मुख से ही खिरती है।

2)पंचास्तिकाय संग्रह- गाथा 2
अर्थ - श्रमण अर्थात वीतरागी देव के मुख से निकले हुए…

3)पंचास्तिकाय संग्रह- गाथा 2 तात्पर्यवृति टीका
वह जिनेन्द्र भगवान का वचन गंभीर है,मीठा है, अत्यंत मनिहारी है, दोष रहित है, हितकारी है, कण्ठ, ओष्ठ आदि वचन के कारणों से रहित है, वायु के रोकने से प्रगट नहीं है…।

4)राजवर्तिक - 2/19/10/132/7
“सकलज्ञानावरणसंशयाविर्भूतातिन्द्रियकेवलज्ञान: रसनोपष्‍टम्‍भमात्रादेव वक्‍तृत्‍वेन परिणत:। सकलान् श्रुतविषयानर्थानुपदिशति।”
अर्थ - सकल ज्ञानावरण के क्षय से उत्‍पन्न अतीन्द्रिय केवलज्ञान जिह्वा इन्द्रिय के आश्रय मात्र से वक्‍तृत्‍व रूप परिणत होकर सकलश्रुत विषयक अर्थों के उपदेश करता है।

5)पद्म पुराण - 2/195

6)पंचास्तिकाय संग्रह- गाथा 1 तात्पर्यवृति टीका
7)नियससार-श्लोक 2
8)नियमसार - गाथा 8
9) गोमत्तासार जीव काण्ड- जीवतत्त्व प्रदीपिका 356 गाथा
10) धवला पुस्तक 3, पृष्ठ 26
11)धवला पुस्तक 5, पृष्ठ 195
12)धवला पुस्तक 6, पृष्ठ 449
13)धवला पुस्तक 7, पृष्ठ 148
14)आदिपुराण - 23/69
15)महापुराण - 24/83
16)
17)पद्म चरित्र - 2/195
18)हरिवंश पुराण - 58/3
19)ज्ञानार्णाव - 38/104
इस प्रकार अनेक आचार्यों ने दिव्यध्वनि निकलने का स्थान मुख ही कहा है।

20)बनारसीदास जी
21)दौलतराम जी
22)भैया भगवती दास जी
23)जयचंद्र जी छबड़ा
24)आ. क्षमाश्री माता जी इत्यादि विद्वानों ने भी भजन, पूजनादि में दिव्यध्वनि का स्रव स्थान मुख को ही कहा है।

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@Amanjain
क्या सामान्य जीव बीजाक्षर समझ नही पाते?
आज पंचम काल मे, जब अंग्रेजी जोरो पर है, फिर भी बीजाक्षर के ज्ञाता है, तो क्या चतुर्थ काल मे जो मुनि थे(गणधर नही थे) बीजाक्षर समझने में असमर्थ थे?

सामान्य मुनिराज भी बीजाक्षर को नहीं समझ सकते हैं; क्योंकि–
• बीजाक्षर को समझने हेतु बीज पद बुद्धि ऋद्धि की आवश्यकता होती हैं।
• द्वादशांग को गुथने के लिए 4 बुद्धि ऋद्धियों की आवश्यकता होती हैं।
1)बीज पद बुद्धि ऋद्धि
2)कोष्ठथधान्य बुद्धि ऋद्धि
3)पदनुसारी बुद्धि ऋद्धि
4) संभिन्न संश्रोतृ बुद्धि ऋद्धि

•वर्तमान में भी बिजपद समझने वाले नहीं है। जो समझने वाले दिखते हैं वे मात्र दिखते ही हैं। गिनेजुने बीजाक्षर को जानकर प्रस्तुत करते हैं।

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@Amanjain
अगर ऐसा माने की दिव्यध्वनि बीजाक्षर सहित होती है, लेकिन इतनी तेज होती है कि बाकी सामान्य जीवो को ऐसी सुनाई देती है, जैसे ॐ की ध्वनि , तो भी शास्त्रों के अनुसार गलत है क्या?
प्रमाण दे पाए तो बहुत अच्छा होगा।

दिव्यध्वनि Speed से होती है यह तर्क तो सही नहीं है और अगम में भी नहीं है। बीजाक्षर होने के प्रमाण :-
धवलाकार वीरसेन आचार्य धवला पुस्तक 9, पृष्ठ 58 में इसप्रकार कहते हैं। –
ण बीजबुद्धीये अभावो, ताए विणा अवगयतित्‍थयरबयणविणिग्‍गयअक्‍खराणक्‍खरप्‍पयबहुलिंगयबीजपदाणं गणहरदेवाणं दुवालसंगा भावप्‍पसंगादो।
अर्थ - बुद्धि का अभाव नहीं हो सकता, क्‍योंकि उसके बिना गणधर देवों का तीर्थंकर के मुख से निकले हुए ‘अक्षर और अनक्षर स्‍वरूप बीजपदों’ का ज्ञान न होने से द्वादाशांग के अभाव का प्रसंग आयेगा।

धवला(९/४,१,४४/१२६/८)
तेसिमणेयाणं बीजपदाणं दुवालसंगप्‍पयाणमट्ठारस-सत्तसयभास-कुभासरूवाणं परूवओ अत्‍थकत्तारणाम, बीजपदणिलीणत्‍थपरूवयाणं दुवाल-संगाणं कारओ, गणहरभडारओ गंथकत्तारओ त्ति अब्‍भुवगमादो।
अर्थ –‘अठारह भाषा व सात सौ कुभाषा स्‍वरूप द्वादशांगात्‍मक’ उन अनेक बीज पदों का प्ररूपक अर्थकर्ता है। तथा बीज पदों में लीन अर्थ के प्ररूपक बारह अंगों के कर्ता गणधर भट्टारक ग्रन्‍थकर्ता हैं।

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बीजाक्षरी होने का तो सभी मानते है शायद। बात तो ओमकार रूप की है, पाण्डे राजमल जी पवैया की देवशास्त्रगुरु, सरस्वती, गणधर पूजन का लिंक है क्या आपके पास ?

तीर्थंकर देव की दिव्यध्वनि तालु आदि के व्यापार के बिना मुख से अनेक बीजाक्षर रूप खिरती है।

प्रश्न:- परन्तु दिव्यध्वनि तो ओमकारमयि होती है।
उत्तर:- नहीं, दिव्यध्वनि ओमकारमयि नहीं होती है। अनेक बीजाक्षर रूप ही होती है।
कषाय पहुड (१/१,१/९६/१२६/२) में कहा भी है कि –
अणंतत्‍थगब्‍भबीजपदघडियसरीरा…।
जो अनन्‍त पदार्थों का वर्णन करती है, जिसका शरीर बीजपदों से गढ़ा गया है।

प्रश्न:- पर हमने तो अभी तक यही सुना था कि दिव्यध्वनि ओमकारमयि होती है?
उत्तर :- हाँ, वर्तमान में सर्वत्र यही कहा जाता कि दिव्यध्वनि ओमकारमयि होती है। परंतु यदि हम थोड़ा सा आगम का आलोड़न करें तो कुछ और ही निष्कर्ष निकलकर सामने आता है।

आचार्यों ने कहीं भी दिव्यध्वनि को ओमकारमयि नहीं कहा है। अनेक बीजाक्षर स्वरूप ही दिव्यध्वनि को कहा है।

प्रश्न:- तब सहज ही एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि जब आगम में आचार्य देवों ने ओमकारमयि दिव्यध्वनि नहीं कहा है तो यह परम्परा कहाँ से प्राम्भ हुई है?
उत्तर:- दिव्यध्वनि को ओमकारमयि कहने की परम्परा स्तुति सहित्य से प्रराम्भ हुई है। सर्वप्रथम पण्डित ध्यान्तराय(1733-83 वि.सं.)जी ने सरस्वती पूजन और देव शास्त्र गुरु पूजन में ओमकार मयि शब्द का प्रयोग किया है। ततपश्चात
रायमल पवैया( )ने श्री गौतम स्वामी पूजन में प्रयोग किया है।तथा वर्तमान में एक प्रचलित भक्ति है।•‘ओम कर विंदु संयुक्तं…’ और कुछ अन्य भक्तियों में ही ओमकार मयि शब्द का प्रयोग किया है। स्तुति साहित्य एवं सिद्धान्त ग्रंथों में उपर्यक्त साहित्य को छोड़कर सर्वत्र बीजपद रूप ही कहा है।

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Kya raja shrenik ne samawsharan me ye pucha tha ki, unki martyu kese hone wali he. Ya gandhar dev ne bataya ho ki, aapki mratyu aatmhatya se hogi.
Aur ve 1le tirthankar banne wale he, kya ye bhi pucha tha


यहा सर्वांग से खिरने की बात हैं