अज्ञानीजन ! समझत क्यों नहिं वानी |
स्याद्वाद अंकित सुखदाय, भाखी केवलज्ञानी || टेक ||
जास लखैं निरमल पद पावै, कुमति कुगति की हानी |
उदय भया जिहमें परगासी, तिहि जाना सरधानी || १ ||
जामें देव धरम गुरु वरनें, तीनौं मुकति निसानी |
निश्चय देव धरम गुरु आतम, जानत विरला प्रानी || २ ||
या जगमाहिं तुझे तारन को, कारन नाव बखानी |
‘घानत’ सो गहिये निहचै सैं, हूजे ज्यों शिवथानी || ३ ||
Artist- पं. घानतराय जी